कल सबेरे स्टेशन गए| बच्चे को लेने| ट्रेन करीब एक घंटा लेट थी| इंटरनेट ट्रेन के हाल मिनट दर मिनट , किलोमीटर दर किलोमीटर बताता रहा| देरी और दूरी भले न कम हुई लेकिन पता चलता रहा कि दूसरी कित्ती है| ट्रेकिंग सिस्टम के जलवे|
स्टेशन के बाहर लोग डिवाडर पर लोग लेटे हुए बतिया रहे थे| उनकी धज बता रही थी कि वे यहीं सोये रात को| कुछ लोग जागकर बतिया भी रहे थे| किसी परिवार के आपसी झगड़े की कहानी बयान हो रही थी , जोर-जोर से| आसपास के लोगों से बेपरवाह वे लोगों की बुराई-भलाई करते थे| बिना इस चिंता के कि बाहरी लोग उनकी घरेलू बाते सुन रहे हैं| अपने जनप्रतिनिधि भी तो इसी तरह बिंदास हरकतें करते हैं संसद, विधानसभाओं में बिना यह सोचे कि कोई उनकी बात सुन रहा है| डिवाइडर पर झगड़ा-बयानी करते लोग फिर भी इस मायने में शरीफ लगे कि वे छीना झपटी और मार पीट पर उतारू नहीं दिखे|
स्टेशन पर बंदर दौड़ रहे थे| किसी पर भी खौखियाने लगते, किसी पर दांत किटकिटाकर बन्दरियाने लगते| किसी पर भी झपटने लगते| पिछले दिनों एक समुदाय के लोगों द्वारा दूसरे समुदाय के लोगों को पीटने की खबरें आईं| कल एक खबर यह भी आई जिसमें एक समुदाय के लोगों ने अपने ही समुदाय के आदमी को दूसरे समुदाय का समझकर पीट दिया| इस मामले में बंदर इंसान से बेहतर है| बंदर कम से कम बंदरों को तो नहीं पीटते |
ऊपर नजर गई तो देखा सूरज भाई की सवारी निकल रही थी| एक आदमी नींद से जागकर अपना तहमद फटकार रहा था| सामने टैक्सी स्टैंड पर लोग देश के हाल पर बहस कर रहे थे| आम इंसान आपस में बहस के अलावा और कर भी क्या सकता है?
घर लौटकर फिर साइकिल से टहलने निकले| सड़क पर लोग तेजी से टहलते दिखे| कुछ लोग बेंचों पर बैठे योग कर रहे थे| एक बुजुर्ग आंख और कान दबाये भ्रामरी प्राणायाम कर रहे थे| ज्यादातर लोग मोबाइल में मुंडी घुसाये थे| लग रहा था घर से मोबाइल करने यहां आते हैं| एक महिला लोगों की भीड़ से अलग फुटपाथ पर बैठी ताली कसरत में जुटी हुई थी| कुछ लोग पुलिया पर बैठे गपिया रहे थे| बैडमिंटन खेलते और कुत्तों को टहलाते लोग भी दिखे|
मैदान पर बच्चे क्रिकेट खेलते दिखे| मैदान की घास पर ओस की बूंदे सूरज की रोशनी में आशा की किरण सरीखी चमक रहीं थीं| जिन हिस्सों की घास को लोग कुचल गए थे उन हिस्सों की ओस की बूंदों का कतल हो गया था| आम जमात के अरमानों की तरह वे ओस की बूंदे कुचल दी गयीं थीं| हज्जारों-लाखों की संख्या में ओस की बूंदों के कुचले जाने की खबर किसी अखबार में नहीं दिखीं| उन पर कोई बहस किसी टीवी चैनल पर नहीं होती| न ही सोशल मीडिया पर इस बारे में कोई बात करता है| यह सिर्फ और सिर्फ इसलिए क्योंकि ओस की बूंदे वोट नहीं देती हैं| आज की सारी राजनीति वोट तक सिमटकर रह गई है|
एक बेंच पर बैठे तीन बच्चे भी मोबाइल में डूबे हुए थे| एक बच्चा सेल्फ़ी ले रहा था| बात की तो पता चला कि बच्चे शहर से आए हैं| तीनों बच्चे कक्षा 9 में पढ़ते हैं| एक बच्चा हमारे हर सवाल पर मुस्करा रहा था गोया कह रहा हो –‘क्या बच्चों जैसी बातें करते हो|’ उसके दोस्तों ने बताया कि यह इसी तरह बात करता है , कम बोलता है|
बंदर यहां भी गदर काटे हुए हैं| एक जगह सड़क पार करके फुटपाथ पर पड़े दाने चुगने लगे| एक बुजुर्ग बंदर ने एक नौजवान बंदर को डपट जैसा दिया| वह भागता हुआ सड़क की तरह चला गया| दाना चुगने के बाद वे आगे चल दिए| बंदर आगे , बंदरिया और बच्चे पीछे| बच्चे बंदरियों के पीठ पर ही दिखे| बंदरों में भी जिम्मेदारी का काम उनकी मादाएं ही करती हैं शायद| बंदर इंसानों की तरह सिर्फ रोआब दिखाने , लड़ने भिड़ने का काम करते हैं| क्या पता महिला दिवस की तर्ज पर उनके यहां भी बन्दरियां दिवस मनाया जाता हो|
मैदान के पास ही मिले चना बेचते सुरजीत। चालीस रुपये का चना बेंच चुके। शाम तक तीन-चार सौ बचा लेते हैं। पत्नी मायके आती-जाती रहती हैं। पिछली बार जब मिले थे पत्नी मायके चली गईं थीं। दो दिन पहले वापस आ गईं। बच्चा आठ साल का है, केजी में पढ़ता है। आजकल स्कूल बंद है। मोबाइल खरीदना है बच्चे की पढ़ाई के लिए। पैसे के जुगाड़ करना है।
आजकल ऑनलाइन पढ़ाई के चलते मोबाइल जरूरत हो गई है। पैदा होने वाले बच्चों की अगर कोई यूनियन होती तो पैदा होने से पहले मोबाइल की मांग इत्ती जोर से उठाती कि बच्चों को पैदा करने वाले ईश्वर या देवी जो भी हों उनके पसीने छूट जाते। बच्चे बिना मोबाइल के पैदा होने से इनकार कर देते- 'रिफ्यूज टू टेक बर्थ विदाउट मोबाइल।'
बहरहाल बात हो रही थी चने बेचने वाले सुरजीत की। उनकी पत्नी अक्सर मायके चली जाती है। उसकी खर्चे की जरूरत रोज 200 रुपये की है। इसके अलावा माँ, बहन हैं घर में। बहन की शादी होनी है।
पिता बीड़ी पीते थे, मना करने के बावजूद। कैंसर हो गया। नहीं रहे। घर के सब पैसे खर्च हो गए। अब घूम-घूमकर चने बेचते हैं सुदर्शन। पैर कमजोर है।
सुरजीत को पैसे की कमी है लेकिन पान-मसाला बेंचने से परहेज है क्योंकि पिता इसीलिए नहीं रहे। जिस दुकान में बैठते थे उनके पिता वह नगरपालिका की थी। जिसके नाम से थी दुकान उनकी गैरजिम्मेदारी के कारण बन्द हो गयी। सुरजीत का कहना है कोई उनको दुकान दिला दे तो उनको सहूलियत हो जाएगी। लेकिन लाख टके का सवाल कि दिलाये कौन?
इतनी कम उम्र में इतनी समस्याएं झेल चुके हैं सुरजीत कि अपनी परेशानियों के प्रति दार्शनिक जैसे हो चुके हैं। न कोई आवेग, न कोई आक्रोश। सिर्फ नियति को सर झुककर स्वीकार करने का भाव। एक असंपृक्त उदासी भरा भाव बातचीत में। लेकिन इसके बावजूद निराशा और अवसाद जैसा भाव नहीं।
यह तो हमने कुछ देर की बातचीत में वह है। हाल-समाचार क्या पता इससे अलग हों। हम किसी को भी अपनी समझ के हिसाब से ही जानते हैं। किसी के बारे में राय बनाने में हमारे पूर्वाग्रहों का बड़ा हाथ होता है।
दूसरों के बारे में पूर्वाग्रहों के चलते राय बनाते हुए उसी हिसाब से उनके साथ व्यवहार करते हुए लोग अपनी जिंदगी गुजार देते हैं, देश समाज शताब्दियां गुजार देते हैं। कहा भी गया है:
"मैं जो कभी नहीं था
वह भी दुनिया ने पढ़ डाला,
जिस सूरज को अर्घ्य चढ़ाया
वह भी निकला काला।" --- कन्हैयालाल नन्दन
बहुत हुआ इतना। और कहेंगे तो आप न जाने क्या सोचने लगो मेरे बारे में। आपके भी तो पूर्वाग्रह होंगे।
https://www.facebook.com/share/p/8mBTRphxyyAiffne/
No comments:
Post a Comment