Friday, December 31, 2021

विदा लेते साल की सुबह



आज सुबह जगे तो रोज की तरह टहलना टालने के बहानों ने घेर लिया। बड़े हसीन बहाने होते हैं ये। थोड़ी देर में चलते, जरा देर और, अभी अंधेरा है, बस अब निकल लेंगे अगले पांच मिनट में। इसी तरह करते घड़ी आगे हो जाती है और निकलना स्थगित हो जाता है।
आज सब बहानों को झटक के निकल लिए तो बाहर एक बड़े बहाने से मुलाकात हुई। लगा बूंदाबांदी हो रही है। लगा लौट लिया जाए, भीग जाएंगे। लेकिन फिर बूंदाबन्दी की शिनाख्त कोहरे की बूंदों के रूप में हुई।।प्रकृति भी सरकारों से कम रागिया थोड़ी होती है।
सड़क पर फौजी जवान दौड़ते हुए कसरतिया रहे थे। उनको दौड़ते देख मुझे जबलपुर में ढोलक बनाने बनाकर साइकिल से 50-100 किलोमीटर दूर तक बेंचने जाने वाले हिकमत अली की बात याद आई जिन्होंने जवानों को सड़क पर दौडते देख पूछा था -'ये लोग दौड़ते किसलिए हैं?'
मार्निंग वॉकर क्लब के लोगों की बेंच पर कम्बल बिछा था। कोई मौजूद नहीं था वहां। बाद में पता चला कि डॉक्टर त्रेहन सुबह आकर कम्बल बिछा जाते हैं। जैसे लोग रेल के जनरल डिब्बों पर अपना सामान रखकर अपना कब्जा पक्का करते हैं। यहां तो खैर यह बेंच स्थाई रूप से मार्निंग वाकर की है।
आगे एक बेंच पर एक महिला बैठकर योग मुद्रा में सांस लेते , छोड़ते हुए ॐ का उच्चारण कर रहीं थी। वहीं बगल में खड़े आदमी ने थैले से सोंटे जैसा कुछ निकाला जो कि रस्सी के रूप में बरामद हुआ। वह रस्सी कूदने लगा।
सड़क पर कोहरा गिर रहा था। रास्ते पर अंधेरे और उजाले की गठबंधन सरकार हावी थी। उजाले का बहुमत होने के नाते अंधेरा सिमटता जा रहा था। चने बेंचने वाला लड़का चने ले लो की आवाज लगाते हुए टहल रहा था। इतनी सुबह उसको ग्राहक की आशा थी। देखकर ताज्जुब लगा।
लड़का साथ चलते हुए अपने बारे में बताता जा रहा था। उसका तिमंजिला मकान है जिससे उसके पड़ोसी जलते हैं। थानेदार ने 500 रुपये दिए और कहा कि कोई गड़बड़ बात देखना तो बताना। इसी तरह की और बातें सम्बद्ध और असम्बद्ध।
साथ चलते हुए काफी दूर निकल आये तो हमने उससे कहा -'तुम रुको यहीं चने बेचो।'
इसपर वह बोला -'नहीं, हमको आगे ट्वायलेट जाना है।'
हम समझ रहे थे कि वह हमसे बतियाने के लिए साथ चल रहा था लेकिन अगला निपटान घर तक साथ चलने के लिए साथ था।इसी तरह के भरम में दुनिया चलती रहती है।
आगे आग तापती बुढ़िया मिली, अपनी चाय की दुकान पर अकेले चाय पीते हुए चाय वाला मिला। पता नहीं उसने चाय के पैसे चार्ज किये खुद से या नहीं।
गोविंदगंज क्रासिंग पर ट्रेनों का आवागमन जारी था। ट्रेन थोड़ा ठहरकर आगे बढ़ गयी।
लौटते में बीच सड़क पर तीन बंदर एक दूसरे से सटकर सर्दी का मुकाबला करते दिखे। हमने दूर से फ़ोटो लिया। फिर लालच में पास से लेने लगे तो बंदर दूर हो गये। उनको खराब लगा होगा। उनकी निजता में दखल देने का अफसोस हुआ।
लौटते हुए मार्निंग वाकर ग्रुप के साथी मिले। डॉक्टर त्रेहन ने खूब फोटो लिए। आज इंद्रजीत जी नहीं आये थे। पता चला वो दिल्ली गये हैं।
बीतते साल को सुनाते हुए गाना गाते हुए -'कभी अलविदा न कहना' के नारे के साथ फ़ोटो हुए। तीन बच्चियों को भी शामिल किया गया फ़ोटो में। एक एस आई की तैयारी कर रही है, दूसरी जज बनने की कोशिश में है, तीसरी अभी पढ़ाई कर रही है।
वहीं दो बच्चियां कसरत कर रहीं थीं। उनकी चीटियां हिल रहीं थीं। बाद में पता चला कि उनको कसरत कराते हुए शख्स उनके पिताजी हैं। बच्चियों की मां नहीं हैं। पिता ही उनकी मां का दायित्व भी निभाते हैं। पेशे से शिक्षक। प्राइवेट स्कूल में। उनका संकल्प अपनी दोनों बच्चियों को डॉक्टर बनाने का है।
संकल्प तो हमारा भी रोज टहलने का है लेकिन अक्सर गड़बड़ा जाता है। देखते हैं आगे कितना सफल होता है।
साल जा रहा है। आप सभी को नए साल की शुभकामनाएं। हम सभी बेहतर मनुष्य बने यही कामना है।

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Sunday, December 26, 2021

शाहजहाँपुर में क्रिकेट

 कल हमारे यहाँ स्थानीय क्रिकेट टूर्नामेंट शुरू हुआ। निर्माणी के विभिन्न अनुभागों को लेकर टीमें बनी। खुली-खिली धूप में टूर्नामेंट का उद्घाटन हुआ। खेल के शुरू में हमने कुछ लप्पेबाज़ी भी की। एक गेंद जो खेली उसका विडियो देखकर लगा मानो असहमति के उठते स्वर को पीछे हटकर कुचल दिया हुआ हो।

देखिए कुछ झलकियाँ आप भी। फ़ोटो सौजन्य से -ऋषिबाबू, राजेश कंचन और राजेश्वर पाठक।

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नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति की बैठक


नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति की बैठक साल में कम से कम दो बार होती है। शाहजहाँपुर आने पर पहली बैठक सामने-सामने हुई। इसके बाद सभी बैठकें कोरोना के कारण आभासी हुई। ३८ कार्यालय जुड़े हैं शहर के कार्यान्वयन समिति से। निर्माणी का महाप्रबंधक वरिष्ठ होने के नाते राजभाषा कार्यान्वयन समिति का अध्यक्ष होता है।
इस बार भी बैठक आभासी ही हुई। बैठक में शहर की इकाइयों के राजभाषा कार्यों की प्रगति पर चर्चा हुई। २४ दिसंबर को हुई इस बैठक में नगर की दो इकाइयों को राजभाषा के क्षेत्र में सराहनीय कार्य के लिए प्रशस्ति पत्र दिया गया। प्रशास्ति पत्र के शहर की क्षेत्रीय कार्यालय बैंक आफ बड़ोदा, लोदीपुर और इंडियन बैंक गोविंद गंज को चुना गया।
उल्लेखनीय बात यह कि क्षेत्रीय कार्यालय बैंक आफ बड़ौदा के राजभाषा अधिकारी श्री सच्चिदानंद मिश्र जी दृष्टि बाधित हैं। दृष्टि दिव्यांग होने के बावजूद वे अपनी शाखा का काम चौकस रखते हैं।
बैठक के औपचारिक समापन के बाद अनौपचारिक बातचीत में तय हुआ क़ि अगली बैठक अगले ही माह आमने-सामने हो।

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वक्त से गुजरते हुए- मनोज अग्रवाल



आज सुबह फ़ोन आया। कोरियर वाले का । सोचा -“कोई किताब होगी।” अक्सर कोई न कोई किताब आर्डर कर देते हैं , पढ़ भले न पाएँ। कोरियर वाले ने थोड़ी देर बाद आने को कहा। हम इंतज़ार करने लगे , कौन किताब होगी! उत्सुकता बनाए रखने के लिए हमने खाता और मेल चेक नहीं किया कि कौन किताब है।
थोड़ी देर बाद कोरीयर वाला किताब दे गया। मनोज अग्रवाल की कविताओं की किताब थी -वक्त से गुजरते हुए। किताब देखकर हंसी आई अपने पर । यह किताब तो तीन दिन पहले भी आ चुकी थी अपने पास। अब यह फिर कैसे आ गई। लगता है गफ़लत में दो बार आर्डर हो हुई। बहरहाल आ गई तो यह भी अच्छा ही हुआ। किसी को उपहार में देने के लिए हो गई एक किताब।
मनोज हमारे कालेज के सहपाठी रहे हैं। 1981 से 85 तक हम साथ पढ़े मोतीलाल नेहरु इंजीनियरिंग कालेज, इलाहाबाद में। फ़िलहाल मनोज रेलवे में उच्च पदस्थ अधिकारी हैं।
संवेदनशील मन होने के चलते मनोज शुरू से ही छुटपुट कविताएँ लिखते थे। कालेज मैगज़ीन में छपी मनोज की कविताओं के बिम्ब से “पीले पत्तों” की मुझे याद है। बाद के दिनों में रेलवे की नौकरी में आने के बाद उनका लेखन जारी था।
मनोज की कविताएँ एक ऐसे संवेदनशील मन की कविताएँ हैं जो तंत्र का हिस्सा होने के कारण व्यवस्था और समाज की अनेक विसंगतियों देखता है, उनके कारण समझने की कोशिश करता है, उसकी संवेदना पीड़ित के साथ है लेकिन अक्सर इससे अधिक कुछ करने की स्थिति में नहीं होता।
अपने आसपास की ज़िंदगी को देखते हुए उनके हृदयग्राही चित्रण मौजूद हैं मनोज की कविताओं में । बहुत दिन पहले मनोज ने यह कविता पढ़ने को भेजी थी :
मेरे घर के सामने
हुआ करता था एक सूखा पेड़
पेड़ पर बैठता था
एक उल्लू रोज़
एक दिन
वो
पेड़ कट गया।
और उसकी लकड़ी से बनी
एक सुविधा जनक कुर्सी
अजीब इत्तफ़ाक़ है
पेड़ पर उल्लू आज भी बैठा।
हमको याद है इस कविता की तारीफ़ करते हुए हमने मनोज से कविता संग्रह छपवाने को कहा था। अब जब यह छपा तो देखा यह कविता इस संग्रह में मौजूद है।
छोटी-छोटी नोट्स नुमा , एक बार में पढ़ ली जाने वाली 74 कविताएँ हैं इस संग्रह में। इन कविताओं में मनोज के जीवन के आसपास के लोग हैं। दफ़्तर, दोस्त , माँ , बेटी , पत्नी और साथ के तमाम लोग जिनका उनसे साबिका पड़ता है , इन कविताओं में बिना कैसी मुखौटे के शामिल हैं । बिना चौकाने की कोशिश के अपनी बात रखने का प्रयास है ये कविताएँ।
बेटियों के साथ कविता में मनोज लिखते हैं :
कभी पिता का अनुशासन
कभी माँ की ममता
कभी बहन सा दुलार
तो कभी दोस्त की मस्ती और फटकार
बेटियाँ
हर रूप में मौजूद रहती हैं
ज़िंदगी में
थोड़ा थोड़ा हर रिश्ता जीती हुई सी
वो
जब तक संग होती हैं
रहती हैं खाने में नमक सी
जब
उड़ कर कहीं दूर चली जाती हैं
तो भी
मौजूद रहती हैं
अपने तमाम प्रतिबंधों के रूप में
परछाई सी।
मनोज की यह कविता पढ़ते हुए मुझे मुकेश कुमार तिवारी जी की कविता याद आती है जिसका यादगार अंश हैं :
“लड़कियाँ अपने आप में मुकम्मल जहाँ होती हैं “
कई तरह के मुखौटों में जीते समाज की बानगी है कविता -“नक़ाब के पीछे छिपी ज़िंदगी” में दफ़्तरों के दोहरेपन का चित्रण देखिए :
‘एक नक़ाब दयनीयता का
बॉस के सामने पेश करता हुआ
एक डरे सहमे ग़ुलाम की मानसिकता का
एक नक़ाब कड़क , निष्ठुर , अमानवीयता का
जो
दिखता अधीनस्थों के साथ किसी भी तरह की
सम्वेदना का संपूर्ण अभाव।’
पहनावे और चाल-ढाल के हिसाब से पहचान और भेदभाव का बढ़ते चलन का स्केच है कविता -‘भीड़-तंत्र के व्याकरण में’:
“उसने मेरी हरी कमीज
से मेरे मुसलमान होने का
अनुमान लगाया ही था
कि क़िसी ने देख लिया
मेरी जेब का केसरिया रूमाल
और फिर
मेरे हाथ का कड़ा
या
हाथ में पकड़ी हुई अंग्रेज़ी किताब
यह सब बहस का मुद्दा थे
मेरे धर्म के निर्धारण में।”
इन कविताओं में जिजीविषा के उद्घोष भी हैं :
‘मुझे उड़ने दो अभी कि मैं एक परिंदा हूँ,
घायल हूँ , थका हूँ पर अभी तलक ज़िंदा हूँ।’
कवि के मन का बच्चा भी कविताओं में अपनी बात कहता है:
कभी चाहता हूँ कि मैं भी
बचपन के साथियों से गप्पें लड़ाना
शरारत करना फिर भाग जाना
बिना स्वार्थ के रिश्ते बनाना
बे मक़सद ही कहीं आना जाना
मेरा झूठा अहम मेरे सामने खड़ा हो हुआ है
लगता है मेरे अंदर का बच्चा अब बड़ा हो गया है।
बक़ौल मनोज -“विगत तीस वर्षों के अविराम तनावों और संवेदनाओं की अभिव्यक्ति हैं ये कविताएँ।”
सम्भावना प्रकाशन से प्रकाशित मनोज का कविता संग्रह -‘वक्त से गुजरते हुए’ मेरे लिए एक प्रीतिकर उपलब्धि है मेरे और मेरे जैसे मनोज के मित्रों के लिए। मनोज का कविता संग्रह देर से आया लेकिन आया यह ख़ुशी की बात है। शायद मनोज को अपने मित्रों की ख़ुशी का महत्व पता चलते ही यह संग्रह लाने की याद आई:
जब
जीवन भर ख़ुशी की
एक
अंधी दौड़ में
दौड़ते-दौड़ते थक गया
तो
पता चला
कि
अपनी ख़ुशी के लिए
ज़रूरी है तुम्हारी ख़ुशी।
इस पहले कविता संग्रह की बधाई देते हुए आशा है मनोज की लघु कथाओं का संकलन भी जल्द ही आएगा।
किताब खरीदने का लिंक:

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Wednesday, December 22, 2021

ज़िंदगी के स्कूल में



बुरहनपुर एक विवाह कार्यक्रम में हुए थे। बारात आने को थी । बारात का इंतज़ार सड़क पर टहलते हुए कर रहे थे। सड़क किनारे एक पुलिया पर दो लड़के सज़दा मुद्रा में मोबाइल में घुसे थे। अद्भुत तन्मयता से जुटे थे मोबाइल दर्शन में।
जिस तरह हम लोग मोबाइल में घुसते जा थे हैं , बड़ी बात नहीं कि आने वाली सन्तानें सर झुकाए पैदा हों।
वहीं सड़क किनारे एक बच्चा अपनी मुसम्मी के रस की दुकान समेट रहा था। रस निकालने वाली मशीन को खोलकर साफ़ कर रहा था। एक -एक पुर्ज़ा खोलते हुए उसको पानी से साफ़ कर रहा था। अपना काम इतनी गम्भीरता से कर रहा था कि देखकर लगा ही नहीं कोई बच्चा है।
बच्चे की गम्भीरता और ज़िम्मेदारी का भाव देखकर लगा कि खेलने - कूदने और मस्ती की उम्र में इतना ज़िम्मेदार होने को मजबूर है बालक।
बातचीत करते हुए पता चला कि अनीस नाम है बच्चे का। १२ साल उम्र। स्कूल भी जाता है। पाँचवीं में पढ़ता है। ठेला बच्चे के पिता लगाते हैं। शाम को बच्चा भी लगाता है ठेला। आज पिता अपनी पत्नी को दिखाने गये हैं। इसीलिए बच्चा अकेला है। दिन भर की कमाई हज़ार रुपए हुई।
ज़ूसर का एक-एक पुर्ज़ा साफ़ करने के बाद दुकान समेटने की प्रक्रिया में ठेला फुटपाथ पर चढ़ाने लगा। अकेले कठिनाई होते देख हमने भी सहयोग किया। एक तरफ़ से धक्का लगाया। हमारे सहयोग को स्वीकार किया बच्चे ने। खुद दूसरी तरफ़ गया। हमको अनुभवहीन समझते हुए बोला -“ छोड़ना नहीं।”
ठेला फुटपाथ पर चढ़ाकर नीचे ईंटे लगाए। वहीं लटकी मोमिया से ठेले को ढँककर चला गया। ठेले में फल और मशीन ऐसे ही रखी थी। हमने पूछा -“क़ोई ले नहीं जाएगा रात को ?”
वह बोला -“नहीं।”
बच्चा अपना काम करते हुए बहुत कम बोलता था। आवाज में इतनी गम्भीरता देखकर लगा कि कितनी कम उम्र में बड़ा हो हुआ बच्चा। पाँचवी में पढ़ने वाला बच्चा मजबूरी के चलते ज़िंदगी के स्कूल में दाख़िला लेकर कमउम्र में ही स्नातक हो गया।
ऐसे न जाने कितने बच्चे दुनिया में होंगे जो अपने सहज बचपने से वंचित हो बड़े हो रहे हैं। ऐसे बच्चों का कोई आँकड़ा नहीं मिलता। जुटाने की किसी को फ़िकर भी नहीं।

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Tuesday, December 21, 2021

सब काम छोड़कर हंस लीजिए पहले



तानाशाह लोग बेफालतू बदनाम किये जाते हैं जनता पर जुल्म के लिए। उनके जनता के मनोरंजन के लिए किए प्रयास अनदेखे किये जाते हैं जानबूझकर। देखिए कितना बढ़िया इंतजाम किया है उत्तरी कोरिया के तानाशाह ने। हंसने पर प्रतिबंध लगा दिया। उत्तरी कोरिया के लोग छुपकर और बाकी दुनिया के लोग खुलकर हंस रहे होंगे इस खबर पर।
लेकिन सोचिए कि कहीं ऐसा सब जगह हो गया तो क्या होगा? हंसने पर प्रतिबन्ध, बोलने पर प्रतिबन्ध, उठने पर प्रतिबंध,बैठने पर प्रतिबंध, सांस लेने पर, सांस छोड़ने पर प्रतिबन्ध। मतलब हर हरकत पर प्रतिबंध। प्रतिबन्ध पर प्रतिबंध। प्रतिबन्ध न भी लगे तो टैक्स ही लग जाये। पता लगा खजाने भर जाएं सरकारों के टैक्स की रकम से। दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाएं सरपट दौड़ने लगे। विकास दरवाजे पर खड़ा होकर हल्ला मचाने लगे और पूछे -'क्या मैं अंदर आ सकता हूँ।'
रघुवीर सहाय जी इस बवाल से परिचित होंगे तभी बहुत पहले लिखे थे -'हंसो, हंसो, जल्दी हंसो।'
हमको भी अंदाज था कुछ कुछ इस बात का। तभी तो लेख लिखा था -'हंसी पर टैक्स।' (लिंक कमेंट बॉक्स में)
बहरहाल , आप इस सब पचड़े में मत पड़िए। सब कुछ छोड़कर पहले हंस लीजिए। हंसी अभी टैक्स फ्री है। कल का कोई भरोसा नहीं, हंसी पर भी टैक्स लग जाये। देखिए सूरज भाई हंस रहे हैं मेरी बात पर। उनके साथ किरणें भी लग ली हैं। हंस रही हैं। खिलखिला रही हैं। पूरी कायनात के यही हाल हैं।
आप क्यों पीछे रहें। आप भी हंस लें। अभी यहां हंसी पर न कोई प्रतिबन्ध है,न कोई टैक्स। हंसिये मुंह खोलकर, जो होगा देखा जाएगा।

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Monday, December 20, 2021

तंदूरी चाय



तंदूरी चाय का नाम सुना था। दर्शन हुए पिछले हफ़्ते। कानपुर के रास्ते में ढाबे पर चाय पीने को रुके। चाय जा आर्डर दिया। चाय वाले ने कुल्हड़ पास की अँगीठी से निकाला। कुल्हड़ गर्म था। चाय उसने कूल्हड़ में छान दी। कुल्हड़ गर्म था। चाय कुल्हड़ में पहुँचते ही बिलबिलाने लगी। फफोले जैसे पड़ गये चाय के। थोड़ी देर में चाय शांत हुयी तो उसने और चाय डाल दी कुल्हड़ में। इस बार वाली चाय कम बिलबिलाई। कूल्हड़ की गर्मी भी कम हो गयी होगी। कुछ देर में दोनों शांत हो गये।
जो चाय और कुल्हड़ कुछ देर पहले, विरोधी पार्टियों की तरह एक दूसरे के सम्पर्क में आते ही बिलबिला रहे थे वे ही कुछ देर बाद मिलकर एक हो गये, ऐसे जैसे एक दूसरे के विरोध में चुनाव लड़ती पार्टियां चुनाव के बाद मिलकर गठबंधन सरकार बना लेती हैं।
चाय स्वादिष्ट थी। लेकिन यह भी लगा कि तंदूरी चाय के बहाने भट्टी की मिट्टी भी मिल गयी चाय में। तंदूरी चाय में तंदूर का स्वाद भी मिल गया।

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खंडवा स्टेशन के नजारे



पिछले हफ्ते बुराहनपुर जाना हुआ। खंडवा स्टेशन तक ट्रेन से। फिर गाड़ी से। ट्रेन खंडवा के पहले तक कुछ देरी से चल रही थी। हमने आधे घण्टे पहले सामान समेटना शुरू किया। तसल्ली से। सोचा था ट्रेन के स्टेशन पहुंचने तक सब समेट लेंगे। आराम से उतर लेंगे।
अभी हम सामान समेट ही रहे थे कि पता चला गाड़ी स्टेशन पर खड़ी हो गयी। हमें लगा कोई और स्टेशन होगा। पता किया तो मालूम हुआ कि खंडवा स्टेशन आ गया। गाड़ी दो मिनट रुकती है खंडवा पर। हमें लगा देर की तो ट्रेन में ही रह जाएंगे। अदबदा के कम्बल ओढ़कर, कपड़े समेटकर और मोबाइल, घड़ी , पर्स, किताबें इधर-उधर लादकर उतर गए। प्लेटफार्म पर खड़े होकर कुछ देर सांस लेते रहे। यह सोचते रहे कि सकुशल उतर गए।
उतरने के बाद ट्रेन देर तक खड़ी रही। हम कुछ देर ट्रेन को देखते हुए सांसे लेते रहे। हमको हड़बड़ा के तसल्ली से खड़ी ट्रेन मुस्करा जैसा रही थी। गोया हमसे मौज लेने के बाद पूछ रही हो -'कहो कैसी रही?' हम क्या बोलते। चुपचाप खड़े रहे। कुछ देर बाद फिर गए डब्बे के अंदर देखने कि कोई सामान तो नहीं छूट गया। लौटकर खरामा-खरामा बाहर आये।
प्लेटफार्म पर कुछ बच्चे ताश खेल रहे थे। पैसे भी थे उनके पास । शायद जुआ खेल रहे थे। हमने फोटो लिया तो मुंह छिपा लिया। एक बच्चा सरकता हुआ प्लेटफार्म पर टहल रहा था। वहीं एक महिला इस सबको देखते हुए स्वेटर जैसा कुछ बिन रही थी।
प्लेटफार्म पर उतरने से पहले एक लड़की कॉरिडोर में बैठी कुछ लिखती दिखी। पास जाकर देखा तो वो वह ड्राइंग जैसा कुछ बना रही थी। हमने बात करने की कोशिश की तो चुप हो गयी। स्केच जैसी ड्राइंग भी छिपा सी ली।
बाहर आये तो दो चेन लगाने वाले दिखे। पता चला ये स्टेशन पर चेन रिपेयर और बूट पालिश का काम करते हैं। बैग, सूटकेस की चेन खराब हो जाती है तो उसको रिपेयर करते हैं। बताया कि सालों से यह काम कर रहे हैं। हमको थोड़ा अचरज लगा कि चेन रिपेयर के काम से नियमित रोजगार कैसे चल सकता है।
चेन रिपेयर वाले चेन तो खुले में रखे थे लेकिन बूट पालिस का सामान लकड़ी के बक्से में रखे थे। पूछने पर बताते होंगे।
उन लोगों ने बताया कि रोज 300-400 रुपये कमाई हो जाती है। कोरोना काल में अलबत्ता हाल खराब रहे। स्टेशन पर सन्नाटा रहा कोरोना काल में।
खंडवा के प्रसिद्द लोगों के बारे में पूछने पर सबसे पहले नाम लिया किशोर कुमार का। कई किस्से सुनाए उनसे जुड़े। उनकी अंतिम यात्रा का किस्सा बयान किया। पूछने पर माखन लाल चतुर्वेदी जी के बारे में भी बताया। एक और धूनी वाले बाबा जी की जानकारी भी दी उन्होंने। बाबा जी ने जीवित समाधि ले ली थी।
खंडवा के किस्से सुनते हुए गाड़ी आ गई। हम बुरहानपुर चल दिए।

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Tuesday, December 14, 2021

500 साल पहले का 'स्त्री विमर्श'



चालीस दिन तक हमीदा बानो ना-नुकर करती रहीं। जन्नत आशियानी हुमायूँ बादशाह की सौतेली माँ दिलदार बेगम ने नसीहत दी,"आखिर किसी से तो शादी करनी है। बादशाह से अच्छा कौन है?"
हमीदा बानो बोली-"हां किसी से तो शादी करूंगी। लेकिन वो ऐसा आदमी हो जिसका गरीबाँ पकड़ सकूं, ना कि वो जिसका दामन भी न छू सकूं।"
-शाजी जमाँ की किताब 'अकबर' से

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Monday, December 13, 2021

कैलाश मंडलेकर जी से खंडवा रेलवे स्टेशन पर मुलाक़ात

 


आज खंडवा रेलवे स्टेशन पर मुलाक़ात हुई Kailash Mandlekar जी से । कैलाश जी से पहली बार मुलाक़ात हुई थी भोपाल में जब उनको पहले ‘ ज्ञान चतुर्वेदी व्यंग्य सम्मान' से नवाजा हुआ था। उस समय तक मेरी जानकारी इतनी सीमित थी कि जब उनके नाम की घोषणा हुई तब मेरा अपने से पहला सवाल था -‘ ये कैलाश मंडलेकर जी कौन हैं?’ बाद में जब उनके लेखन से परिचित हुआ तो अपनी ‘पठनमंडूकता’ का फिर से पता चला।
वैसे ऐसा पहली बार नहीं हुआ। इसके पहले अरविंद तिवारी Arvind Tiwari जी के लेखन के बारे में तब जाना जब उनको उप्र हिंदी संस्थान से श्रीनारायण चतुर्वेदी सम्मान मिला। इससे यह चलता है कि लोगों को लेखक से परिचित कराने के लिए उनको सम्मानित करते रहना चाहिए।
वैसे यह तो मज़ाक़ की बात। सच तो यह है कि अपने यहाँ पढ़ने का चलन इतना कम है कि अच्छे-अच्छे लेखक के बारे में लोग नहीं जानते। परसों ही एक पाठक सेंट्रल स्टेशन पर किताब खोज रहा था। बातचीत से बहुपाठी लगा । कई मशहूर किताबों की चर्चा की उसने। वहीं रखी ज्ञान चतुर्वेदी Gyan Chaturvedi जी की किताब के बारे में भी दुकान वाले ने बताया तो उसने पूछा -‘ ये कैसे लेखक हैं? क्या लिखते हैं?’
दुकान वाले ने ज्ञान जी का विस्तार से परिचय दिया। भेल अस्पताल के दिल के डाक्टर वाली बात तफ़सील से बताते हुए किताबों का जिक्र क़िया। नरक यात्रा ख़रीदने की सिफ़ारिश की। हमने उसने बरामासी जुड़वाई। स्वांग के बारे में दुकान वाले ने कोई सिफारिश नहीं की यह कहते हुए कि -'अभी पढ़ी नहीं।'
लब्बोलुआब यह कि जब बक़ौल Alok Puranik आलोक पुराणिक जी‘ व्यंग्य के कुलाधिपति’ ( कल Pankaj Subeer पंकज सुबीर जी ने भी ज्ञान जी को व्यंग्य का कुलाधिपति बताया। आलोक जी देख लें अपनी दी उपाधि के कापीराइट का हिसाब) ज्ञान जी के बारे में एक बहुपाठी पाठक पूछ सकता है ‘ये कौन हैं ? क्या लिखते हैं ?’ तो हमारा कैलाश मंडलेकर जी के बारे में अज्ञान उतना अक्षम्य नहीं है।
बहरहाल बाद में कैलाश जी के लेखन से परिचित हुआ। उनके लेख पढ़े। हाल ही में उनको व्यंग्य लेखन के लिए मप्र का प्रसिद्द शरद जोशी सम्मान भी मिला। इंशाल्लाह आगे और मिलेंगे। मिलने चाहिये। वे नियमित लिख रहे हैं। रिटायरमेंट के बाद और मौके मिलेंगे। ढाई साल तक नियमित सुबह-सबेरे में लिखा। अब फिर शुरु करेंगे।
वैसे इनाम भी चक्रव्रद्धी ब्याज की तरह होते हैं। जैसे किसी पेड़ पर बँधे धागे देखकर आते-जाते लोग और धागे बांधते चलते हैं वैसे ही जिसको दो-चार इनाम मिल जाते हैं उनको और भी मिलते रहते हैं, बशर्ते लिखना जारी रहे, लेखक चर्चा में बना रहे। मेरी समझ में ‘साहित्य के जड़त्व का नियम’ आम बात है।
बात फिर कैलाश जी की। हुआ यह कि हमारे परिवार में एक वैवाहिक कार्यक्रम के सिलसिले में अपन बुरहानपुर आये थे। रास्ते में खंडवा पड़ता है। कैलाश जी वहीं के रहवासी हैं। हमने मिलने की बात कही तो पता चला वे भोपाल जा रहे हैं 'ज्ञान चतुर्वेदी व्यंग्य सम्मान' में भाग लेने, जहां हमको भी जाना था लेकिन कार्यक्रम की वजह से जा नहीं पाए। लौटने पर मिलने की बात तय हुई।
वायदे के मुताबिक मिलना हुआ। कैलाश जी स्टेशन आये। साथ में गुलदस्ता भी और गजक भी। गजक तो डब्बे और लिफाफे में थी, लेकिन गुलदस्ता खुले में था। गुलाब के फूल हमसे मजे लेते हुए खिलखिला रहे थे। मुंह चिढ़ा रहे थे।हमने कैलाश जी से कहा भी -'ये क्यों लाये आप? इत्ते में तो एक किताब आ जाती'
असल में अपन बुके के आदी नहीं हुए। असहज हो गए कि इतने वरिष्ठ और सिद्ध लेखक जो लेखन और उम्र दोनों के लिहाज से वरिष्ठ नागरिक हो वो मेरी जैसे नौसिखिए के लिए बुके लाये। हमने मजाक में कहा भी -'अच्छा हम फोटो लेकर लिख देंगे -'अनूप शुक्ल , कैलाश जी को पुष्प गुच्छ देकर सम्मानित करते हुए।'
इस पर कैलाश जी ने कहा कि अगर ऐसा लिखा जाएगा तो हम भी लिखेंगे। हमने सोचा यह तो पोलपट्टी खुलने जैसा मामला हो जाएगा। हमने इरादे के कदम वापस खींचते हुए बुके के साथ फोटो खिंचाई। गजक बैग के हवाले की। बतियाना हुआ।
करीब पौन घण्टे की बातचीत में जल्दी-जल्दी खूब सारी बातें हुईं। लेखन, घर परिवार, इधर-उधर की। वहीं से अरविंद तिवारी जी से भी बातें हुईं। हमने भोपाल के किस्से सुने। कैलाश जी ने बताये। यह भी हमको वहां मिस किया गया। हमको यह सुनकर लगा कि वहां जाना होता तो अच्छा होता।
जाते समय हालांकि विजी श्रीवास्तव Viji Shrivastava को बधाई थी तो इन्होंने बहुत इशरार किया था रुकने का। अगर गाडी भोपाल से निकल न गई होती तो क्या पता वो स्टेशन आकर गाड़ी से उतार लेते।बात तो शांतिलाल जी से और DrAtul Chaturvedi डॉ अतुल चतुर्वेदी जी से भी हुई। शांतिलाल जी ने भी उतरकर कार्यक्रम में शामिल होने की बात कही। डॉ अतुल चतुर्वेदी जी से क्या बात हुई यह हम न बताएंगे। निजता का मामला है। 🙂
ट्रेन का समय हो गया तो कैलाश जी विदा हुए। गाड़ी में बैठते ही सबसे पहला काम अपन ने कैलाश जी की दो किताबें ऑनलाइन खरीदने का किया। 'बाबाओं के देश में' और 'जांच अभी जारी है'।
कैलाश जी मिलना एक सुखद अनुभूति रही। आशा है कि उनका उपन्यास (जिसके सौ पन्ने करीब वो लिख चुके हैं)और व्यंग्य संकलन जल्द ही आएगा।

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Sunday, December 12, 2021

अभिषेक से मुलाकात



कल अभिषेक से मुलाकात हुई। इसके पहले की मुलाकात अभिषेक की शादी में, उसके बाद गाजियाबाद रेलवे स्टेशन पर चलते-फिरते हुई। कानपुर में रहते हुए कनपुरिये से ही न मिल पाए इससे बड़ा लफड़ा और क्या होगा?
Abhishek Awasthi नए व्यंग्य लेखकों में सबसे अच्छे वालों की श्रेणी में गिने जाते हैं। कोरोना काल में उनकी रचनाओं की Ramesh Saini रमेश सैनी जी ने चर्चा खूब की। तारीफ भी। उनकी एकमात्र व्यंग्य की किताब 'मृगया' को उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का इनाम मिलते-मिलते रह गया। Alok Puranik जी बोले अब हम बहुत तेजी से बुजुर्ग हो रहे हैं, व्यंग्य लेखन से व्यंग्य एकरिंग पर शिफ्ट हो रहे हैं, पहले हमको इनाम दे दो। उन्होंने यह भी कहा कि इनाम मिलने पर हमारा नमन रहेगा। फिर क्या, उनकी किताब व्हाट्सएप के पढ़े-लिखे को दे दिया गया इनाम। आलोक पुराणिक जी ने यह तर्क भी दिया कि अनूप शुक्ल जी को फर्जी लेखन पर दो बार इनाम दे दिया गया तो हमको एक बार तो मिलना चाहिए, हमको तो व्यंग्य श्री भी चुका है। इस तर्क के आगे उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान इस तर्क के आगे 'सिलेंडर' कर गया। अभिषेक रह गए।
अब जो हुआ सो हुआ , आगे इनाम लेने की रणनीति बनाई गई। तय हुआ अगले इनाम के लिये अभिषेक फौरन किताब तय करेंगे। अगली बार जब इनाम के लिए भेजेंगे तो अलंकार रस्तोगी को बता देंगे। Alankar अलंकार जी अगली बार अपने लिए सेटिंग न करके अभिषेक के लिए करेंगे। इनाम पक्का मिलेगा। अभिषेक इनाम का श्रेय अपने पाठकों को देकर पार्टी करेंगे।
अभिषेक ने खूब लेख लिखे। व्यंग्य लेखन के लिए मुसीबत झेलने वाला सबसे युवा व्यंग्यकार होने के नाते भी सम्मान के हकदार हैं। देखते हैं साल-दो साल नहीं मिला कोई इनाम तो हम कनपुरियों की तरफ से किसी सम्मान की घोषणा करके सम्मानित कर देंगे अभिषेक, भले ही उसके लिए चंदा क्यों न करना पड़े। आजकल पूरी दुनिया तो चंदे पर चल रही है। पूंजीपतियों चंदे से सरकारें बनवाते हैं। सरकारें चंदे देने वालों के काम करवाती है।
अभिषेक पर सुशील सिद्धार्थ Sushil Siddharth जी के लेखन शैली का प्रभाव बताया जाता है। सुशील जी ने 'ज्ञान चतुर्वेदी व्यंग्य सम्मान' शुरू किया। इस सम्मान के हम शुरू में सख्त विरोधी रहे। लेकिन अब जब शुरू हुआ है तब इसके चालू रहने के सख्त हिमायती। लेकिन लगता है यह सम्मान संस्थागत तरीके से और व्यवस्थित ढंग से होना चाहिए। हर बार चंदा जमा करने के बजाय एक बड़ी धनराशि इसमें जमा करके उसके ब्याज से इसका आयोजन होना चाहिए।
संयोग से यह पोस्ट लिखते समय भोपाल स्टेशन से गुजर रहे हैं। आज ही ज्ञान चतुर्वेदी व्यंग्य सम्मान समारोह होना है। आज डॉ अतुल चतुर्वेदी DrAtul Chaturvedi और विजी श्रीवास्तव Viji Shrivastava को मिलना है सम्मान। डॉ अतुल चतुर्वेदी को फोन किया , बधाई दे दी।साल भर पहले घोषित इनाम लेने आ रहे हैं वो। विजी का फोन उठा नहीं। लगता है भाई जी इंतजाम में व्यस्त हैं। शांतिलाल जैन जी से भी बात हुई। अपन भोपाल के पास गुजरते हुए भी यहां पहुंच नहीं पा रहे। बुरहानपुर में आज भतीजी की शादी है। वहां जाना जरूरी। कोई नहीं लाइव देखेंगे। आप भी देखिए।

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