Sunday, November 28, 2004

मेरा पन्ना मतलब सबका पन्ना

मैं काफी दिनों से विभिन्न चिट्ठाकारों के चिट्ठों के बारे में लिखने की सोच रहा था.ठेलुहा ,हां भाई, रोजनामचा,मेरा पन्ना.पंकज की मोहनी सूरत और मुस्कान देखकर कौन न मर जाये.इनकी जालिम मुस्कान देखने हम बार-बार चिट्ठाविश्व पर जाते हैं.रोजनामचा में अतुल की फोटो देखकर लगता है किसी फास्ट बालर का बाऊंसर फेकने के तुरंत बाद का पोज है .अवस्थी,जिनका लिखा पढने के लिये हम सबसे ज्यादा उतावले रहते हैं पर जो आलस्य को अपना आभूषण मानते हुये सबसे कम लिखते हैं,के बारे में लिखने को बहुत कुछ है .पर इन महानुभावों को छोङकर मैं शुरुआत मेरा पन्ना के जीतेन्द्र चौधरी से करता हूं .इनकी चाहत भी है कि कोई बंधु इनके लेखों का उल्लेख करके इनके दिन तार दे.हालांकि यह पढकर जब अतुल ने धीरज रखने का उपदेश दिया तो फटाक से अच्छे बच्चों की तरह मान गये.ऐसे अनुशासित बंधुओं की जायज मांगें पूरी होनी चाहिये इस कर्तव्य भावना से पीङित होकर मैं जीतेन्द्र और उनके पन्ने के बारे में लिखने का प्रयास करता हूं.

गोरे ,गोल ,सुदर्शन चेहरे वाले जीतेन्द्र के दोनों गालों में लगता है पान की गिलौरियां दबी हैं.इनके चमकते गाल और उनमें दबी गिलौरी के आभास से मुझे अनायास अमृतलाल नागर जी का चेहरा याद आ गया.आखें आधी मुंदी हैं या आधी खुली यह शोध का विषय हो सकता है.इनकी मूछों के बारे में मेरी माताजी और मेरे विचारों में मतभेद है.वो कहती हैं कि मूछें नत्थू लाल जैसी हैं जबकि मुझे ये किसी खूबसूरत काली हवाई पट्टी या किसी पिच पर ढंके मखमली तिरपाल जैसी लगती हैं.नाक के बारे में क्या कहें ये खुद ही हिन्दी ब्लाग बिरादरी की नाक हैं.

जनसंख्या का समाधान तब तक नही हो सकता, जब तक हम अपनी जिम्मेदारी नही समझेंगे.अभी भी समय है, हम चेते, अन्यथा आने वाली पीढी हमे कभी माफ नही करेगी.(20 सितंबर)से अपने लिखने की शुरुआत की जीतेंन्द्र ने.नियंत्रण जनसंख्या पर होना चाहिये लिखने पर नहीं यह जताते हुये उसी दिन राजनीति पर भी नजर दौङाई और लिखा

इस सरकार मे चार चार PM है....
PM: मनमोहन सिंह जी : जो सिर्फ सुनते है
Super PM: मैडम सोनिया :जो सिर्फ हुक्म सुनाती है
Virtual PM: CPM :जो जल्दी ही सुनाने वाले है.
Ultra PM :ळालू यादव :जो किसी की नही सुनता


अचानक इनको लगा कि अरे हम तो पोस्ट चपका दिये और कारण बताया नहीं सो इन्होंने बताया कि ये लिखते क्यो हैं .

मेरे कुछ मित्रो ने पूछा है कि मेरे को चिट्ठा(Blog) लिखने का शौक क्यो चर्राया, क्या पहले से चिट्ठा लिखने वाले कम थे जो आप भी कूद गये. मेरा उनसे निवेदन है कि इस कहानी को जरूर पढे.ऐसा ही कुछ मेरे साथ भी हुआ, जिससे मुझे चिट्ठा लिखने की प्रेरणा मिली.अब मै कहाँ तक सफल हो पाया हूँ, आप ही बता सकते है(21 सितंबर).21 सितंबर का दिन मंगलवार का था. हनुमान की फुर्ती से ये दौङ-दौङ के सबके ब्लाग में गये .तारीफ का तीर चलाया और अपने पन्ने पर आने की सुपारी बांट आये.नये ब्लाग के जन्म से खुश लोग इनके यहां सोहर (नवजात के आगमान पर गाये जाने वाले गीत)गाने इनके पन्ने पर पहुंचे.

1. Welcome to hindi blogdom. Der Aayad durast aayad :)देबाशीष

2.बधाई स्वीकार करो धुंआधार लिखाई के लिये.लिखते रहो .पढने के और तारीफ करने के लिये तो हम हइयैं है.अनूप शुक्ला

3.जीतेंद्र जी,आपके ब्लाग की भाषा तो खालिस कनपुरिया है. बधाई. एक छोटा सी धृष्टता करने के लिए क्षमा कीजियेगा, जनाब आप अपने पुराने अँक वाले लिंक का समायोजन कुछ बेहतर करे , काफी भटकना पड़ता है.महीनेवार क्रम या जैसा मैनें कर रखा है वैसा कर दीजिए|अतुल अरोरा

यहां से शुरु हुआ इनका धुंआधार सफर जारी है यह बात अलग है कि अतुल की चाह पूरी करने का मौका नहीं मिला अभी इन्हें.

खाङी में प्रवासियों की हालत के बाद राजेश प्रियदर्शी के लेख पर नजरें इनायत की इन्होंने.राजेश प्रियदर्शी का लेख सपने,संताप और सवालकाफी चर्चा में रहा.हर चर्चित चीज को किसी फार्मूले में बांधने की अमेरिकी आदत का मुजाहिरा हुआ अतुल के लिटमस टेस्ट में.एक टेस्ट चला तो इन्होंने लगे हाथ दूसराटेस्ट भीउतार दिया बाजार में.कुछ लोग उस टेस्ट से असहमत थे.पर हिट्स के नक्कारखानें में असहमतियां तूतियों की आवाज की तरह पिट गयीं.


कोई भी नही सोचता जो बच्चे स्कूल मे बात कर रहे थे, वो आपके बच्चे भी हो सकते है.कहकर फिर राजनीति, क्रिकेट और कुछ तकनीकी पोस्ट लिखी.सबसे बढिया पोस्ट पहले माह की आयी इनकी आखिरी दिन.क्रिकेट बोर्ड की राजनीति का बयान किया सटीक तरीके से.

अक्टूबर में धुंआधार बैटिंग की गयी.अभी तक स्वागत की कुंकुम रोली के अलावा एक अज्ञात वाह(Exellent) के अलावा टिप्पणी
के स्थान पर सन्नाटा पसरा था.हालात को काबू में लाने कि तमाम सवाल-जवाब जो इनके शर्मीले दोस्त इनसे अकेले में पूंछते हैं वो इन्होने बताये.यौन विषयों के बारे में न लिखने की मजबूरियां भी बतायीं.फिर तोसिलसिला चल निकला.मिर्जा,छुट्टन ,पप्पू,स्वामी के आने से इनके ब्लाग पर चहल-पहल बढी.

अक्टूबर माह में जितेन्दर जी ब्लाग मशीन हो गये.अइसा थोक में लिखा अगर थोङी जहमत उठाई जाये तो अक्टूबर माह में दुनिया में हिन्दी ब्लाग में सबसे ज्यादा शब्द लिखने के लिये गिनीज बुक में नाम छप सकता है.खाली मात्रा ही नहीं पठनीयता की नजर से सारे पोस्ट धांसू रहे.मिर्जा का अवतार हुआ.उनका, गुस्सा दिखा.पंडों की हकीकतबयान की.मिर्जा का हीरोइनों से लगाव पता चला:-

अब जहाँ तक मिर्जा का फिल्मी प्रेम की बात है, वैसे तो मिर्जा की वफादारी किसी एक हिरोइन मे कभी नही रही.. बाकायदा नर्गिस,मीनाकुमारी से लेकर ऐश्वर्या राय,अम्रता राव तक को समान रूप से चाहते रहे , उनके खुशी गम मे हँसे रोय े, ....सिन्सीरियली सब पर पूरा मालिकाना हक जताते रहे,मजाल थी जो हीरो किसी हिरोइन को छू ले..तुरन्त चैनल बदल देते ....शायद मिर्जा की बदौलत ही ऐश्वर्या और सलमान का इश्क परवान नही चढ पाया...

यह पढकर मुझे हास्टल का एक वाकया याद आ गया.एक दिन चित्रहार के दौरान कोई पुराना फिल्मी गाना आ रहा था.किसी जिज्ञासु ने हवा में सवाल उछाला- अबे ये कौन हीरोइन है.एक ने बङी मासूमियत से बताया-पता नहीं यार आजकल हम हीरोइनों के टच में नहीं रहते.

अपने प्रवासी होने को लेकर मिर्जा भावुक हो गये.बोले :-
हम उस डाल के पन्क्षी है जो चाह कर भी वापस अपने ठिकाने पर नही पहुँच सकते या दूसरी तरह से कहे तो हम पेड़ से गिरे पत्ते की तरह है जिसे हवा अपने साथ उड़ाकर दूसरे चमन मे ले गयी है,हमे भले ही अच्छे फूलो की सुगन्ध मिली हो, या नये पंक्षियो का साथ, लेकिन है तो हम पेड़ से गिरे हुए पत्ते ही, जो वापस अपने पेड़ से नही जुड़ सकता.

उधर मिर्जा आंखें गीली कर रहे थे इधर मेरे दिमाग में भगवती चरण वर्मा की कविता गूंज रही थी और जिसे मैं चाहता था कि मिर्जा सुन सकें:-

हम दीवानों का हस्ती ,हम आज यहां कल वहां चले,
मस्ती का आलम साथ चला हम धूल उङाते जहां चले.

आंसू पोछने के बाद मिर्जा दावतनामें मे मसगूल हो गये.फिर छुट्टन की शानदार पार्टी हुयी.इसके बाद आया सवाल-जवाब का झांसा.बतया गया:-

जीवन मे हास्य हमारे आस पास फैला रहता है, जरूरत है तो बस उसे देखने की.सुबह सुबह जब नित्य क्रिया मे होते है,तेब आइडिया मिलते है

यहां पर आकर रहा नहीं गया इनसे और सामने आयी बचपन की कुटेव-छुटकी कविता:-

अश्क आखिर अश्क है,शबनम नही
दर्द आखिर दर्द है सरगम नही,
उम्र के त्यौहार मे रोना मना है,
जिन्दगी है जिन्दगी मातम नही


स्वामी का क्रिकेट प्रम और महाराष्ट चुनाव विश्लेषण के लिये ज्यादा सोचना नहीं पङा होगा इनको.कल्पना में किसी पनवाङी क ेयहां खङे हो गये होंगे थोङी देर और दो धांसू पोस्ट चिपका दी.

पप्पू भइया की इन्डिया ट्रिप के बहाने बताये प्रवासियों के वो कष्ट जो वे झेलते हैं वतन आने पर.इन कष्टों का मुझे तो अन्दाज नहीं पर जब सीसामऊ मोहल्ले में पप्पू के घर वालों से बात की तो उनके भी कुछ कष्ट पता चलेे.कुछ निम्न हैं:-

1.पप्पू के घर वाले अभी तक उस जनरेटर और एअर कंडीशनर का किराया किस्तों में चुका रहे है जो उन्होने पप्पू के आने पर लगवायेथे.

2.पप्पू के दोस्त अभी भी इस आशा में है कि पप्पू से उनको वो पैसे वापस मिल जायेंगे जो उन्होंने भारतीय मुद्रा उपलब्ध न होने के बहाने
मासूमियत से लिये थे तथा बाद में उसी तरह भूल गये जैसे दुश्यंत शकुन्तला को भूल गये थे.यह सुनकर उन मित्रों का जी और धुक-पुक कर रहा है जिनको यह पता चल चुका है कि पप्पू भइया को दूसरों से लिये पैसे के बारे में याद नहीं रहता .

३.पप्पू भइया के घर के बाहर चाय वाला अभी तक यह तय नहीं कर पाया है कि उनके आने पर जो चाय पिलाईं उसने उनको वो पप्पू के
शाश्वत खाते में डाले या बट्टे खाते में.

इसके अलावा भी कुछ बातें वो बताने जा रहे थे तब तक किसी बुजुर्ग ने टोंक दिया -क्या फायदा रोने-गाने से ? लङका जब प्रवासी हो गया तो यह सब तो झेलना ही पङेगा.

आह क्रिकेट-वाह क्रिकेट के बाद लिखा गया मोहल्ले का रावण.यह मेरे ख्याल से मेरा पन्ना की सबसे बेहतरीन पोस्ट है.चुस्त कथानक,
सटीक अंदाज .पर यहां भी जितेन्दर बेदर्द लेखक रहे.वर्मा जी की बिटिया को कुंवारा छोङ दिया.मैंने पूंछा तब भी अभी तक कहीं गठबंधन नहीं कराया अभी तक.अतुल ने बताया कि सबसे हंसोङ ब्लाग है यह.

अंग्रेजी,हिंन्दी के बाद फिर हुआ सिन्धी ब्लाग का पदार्पण.अब फोटो ब्लाग भी आ गया है.जितेन्दर की लिखने इस क्षमता देखकर मुझे
जलन होती है उनसे.इसी दौङधूप नुमा अंदाज के लिये मनोहर श्याम जोशी ने लिखा है-ये मे ले ,वो मे ले वोहू मे ले(इसमें लो,उसमें लो उसमें भी लो)

नवंबर माह में कुवैत में जाम और बिजली गुल के वावजूद लिखा.देह के बारे में फिर भारतीय संस्कृति के बारे में.चौपाल पर चर्चा हो चुकी
है इनकी.क्रिकेट के बारे में तो मेरा पन्ना बहुत उदार है.अक्सर कृपा कर देते हैं.विधानसभा में चप्पलबाजी पर जब लिखा तो मुझे लगा कि
शायद ये नेताओं की पीङा नहीं समझ पा रहे हैं.आखिर कब तक नेतागुंडे के भरोसे रहेगा? गुंडागर्दी में आत्मनिर्भरता की तरफ कदम है यह मारपीट.

मुझे धूमिल की कविता अनायास याद आ गयी:-

हमारे देश की संसद
तेली की वह घानी है
जिसमें आधा तेल है
आधा पानी है.

मेरा पन्ना में जब धुंआधार बैटिंग शुरु हुयी तो अंग्रेजी के वो शब्द मुझे अखरते थे जिनके प्रचलित हिंदी शब्द मौजूद हैं.इसके अलावा हर दूसरे वाक्य के बाद की बिन्दियां(.....)मुझे अखरती थीं.अब जब मैं सोचता हूं लो लगता है कि ये बिन्दियां उन तिलों की तरह हैं जो खूबसूरती में इजाफा करते हैं.पर यह सोच के डर भी लग रहा है कि ं यह पढकर चौधरी जी कहीं ज्यादा खूबसूरती के लालच में न पङ जायें.

मेरा पन्ना के लेखक की टिप्पणियों का रोचक इतिहास है.टिप्पणी को इन्वेस्टमेंट मानने वाले जीतू तारीफ में कंजूस नहीं है.शुरुआत में जो उदासीन टिप्पणी शून्य दौर झेला है इन्होंने ये नहीं चाहते कि कोई नया चिट्ठाकार वैसा अकेलापन झेले.अक्सर यह भी हुआ कि ब्लाग अभी मसौदा स्थिति (Draft Stage)में है पर उधर से जीतेन्द्र की वाह-वाह चली आ रही है.कई बार ऐसा हुआ टिप्पणी के मामले में कि
क्रिकेट कमेंन्टेटर की भाषा में कहें तो उसमें उत्साह अधिक और विश्वास कम था.अइसी जगहों में ये मेरा मतलब यह था या यह नहीं था कहकर
बचने की कोशिश करते हैं पर अम्पायर कब तक संदेह का लाभ देगा.

हालांकि कुछ लोगों का कहना है कि यह सलाह उछाल दो कि ब्लाग लिखने मे भले दिमाग का इस्तेमाल न करें पर टिप्पणी करते समय ध्यान रखना चाहिये.पर जब हमें याद आया कि ये महाराज तो ब्लाग पर टिप्पणी का महत्व जैसा कुछ लिख चुके हैं तब लगा बूढे तोते को राम-राम सिखाना ठीक न होगा.

यहां तक मामला ठीक था अब हमें लग रहा है कि थोङा ब्रम्हास्त्र का उपयोग जरूरी हो गया है.हिंदी चिटठा संसार में जीतेन्द्र के पन्ने का उदय धूमकेतु की तरह हुआ और छा गया.नयी चीजों को सीखने और अपनाने की ललक काबिले तारीफ है.जितेन्द्र का मेरा पन्ना हमारा ऐसा ही एक खूबसूरत पन्ना है .आशा है कि जीतेन्द्र तारीफ का बुरा नहीं मानेंगे.

लगातार अच्छा लिखते रहने के लिये जीतेन्द्र को मेरी मंगलकामनायें.













Thursday, November 25, 2004

आत्मनिर्भरता की ओर

लिखने के तमाम बहानों का इस बीच खुलासा हो चुका है.एक और कारण श्रीलाल शुक्ल जी ने अपने एक लेख(मैं लिखता हूं इसलिये कि...)में बताया है:-

"लिखने का एक कारण मुरव्वत भी है.आपने गांव की सुंदरी की कहानी सुनी होगी .उसकी बदचलनी के किस्सों से आजिज आकर उसकी सहेली ने जब उसे फटकार लगाई तो उसने धीरे से समझाया-'क्या करूं बहन,जब लोग इतनी खुशामद करते हैं और हाथ पकङ लेते हैं तो मारे मुरव्वत के मुझसे नहीं नहीं करते बनती.तो बहुत सा लेखन इसी मुरव्वत का नतीजा है.सहयोगी और सम्पादक जब रचना का आग्रह करने लगते हैं तो कागज पर अच्छी रचना भले न उतरे ,वहां मुरव्वत की स्याही तो फैलती ही है."

अब जब मैंने यह पढा तो मेरी इस शंका का समाधान भी हो गया कि ठेलुहा नरेश तथाकथित ज्ञान प्राप्ति के बहाने केजी गुरु की तरफ काहे लपकते हैं.तथाकथित इसलिये लिखा क्योंकि जितना ज्ञान केजी गुरु से ये पाने की बात करते हैं उतना तो ये गुरुग्रह की तरफ लपकते हुये हर सांस में बाहर फेंक देते हैं प्रकृति की गोद में बिना पावती रसीद (acknowledgement)लिये.

हम अड्डेबाजी की असलियत जानने के लिये अपने उन आदमियों को लगा दिये जो वैसे तो किसी के नहीं होते पर लफङा अनुसंधान के लिये सारी दुनिया के होते हैं.जो रिपोर्ट मिली उसके अनुसार दो कारण समझ में आये अड्डेबाजी के:-

1.गुरुपत्नी का गुरु के साथ व्यवहार से उनको (ठेलुहा नरेश को)यह सुकून मिलता है कि ऐसा दुनिया मे सब पतियों के साथ होता है अकेले उन्हीं के साथ नहीं.

2.गुरुपत्नी से मिली तारीफ उनको यह खुशफहमी पालने का मौका देती है कि उनमें कुछ खास है जो दूसरों में नहीं.

दुनिया के सारे पति बराबर होते हैं पर कुछ पति ज्यादा बराबर होते हैं का झुनझुना थमा देती है केजी गुरु के घर की हर विजट इन्हें .इस मुरव्वत की चाहना में अपने मन की आवाज को अनसुना करके लपकते हैं ये तथाकथित ज्ञान की तलाश में.

हम भी मुरव्वत के मारे हैं.लोगों की तारीफ को सच मानकर या फिर जवाबी कीर्तन के फेर में पङकर हम जो लिख गये उसको जितनी बार हम पढते हैं उतनी बार गलतफहमी का शिकार होते हैं.हर बार मुग्धा नायिका की स्थिति को प्राप्त होते हैं जो अपने सौंदर्य पर खुद रीझती है. मुग्ध होती है खुद अपनी खूबसूरती के ऊपर .मेरे लिखे की तारीफ जब कोई करता है तो लगता है कि दुनिया उतनी बुरी नहीं जितना लोग बताते हैं.अभी भी दुनिया में गुणग्राहकों की कमी नही है.

मेरे मित्र नीरज केला के पिताजी कहते हैं -" तारीफ दुनिया का सबसे बङा ब्रम्हास्त्र है.इसकी मार से आज तक कोई बचा नहीं.इसका वार कभी बेकार नहीं जाता सिर्फ आपको इसके प्रयोग की सही विधि पता होना चाहिये."

इस सूत्र वाक्य की सत्यता मैं कई बार परख चुका हूं.हर बार यह खरा उतरा.जिन अवसरों पर यह विफल रहा वहां खोज करने पर पता चला कि प्रयोगविधि में दोष था.सही विधि वैसे तो 'गूंगे का गुङ' है फिर भी बताने का प्रयास करता हूं.

आमतौर पर जिन गुणों की समाज में प्रतिष्ठा है वे आंख मींच कर किसी पर भी आरोपित कर दिये जायें तो उस 'किसी भी' का प्रभावित होना लाजिमी है.किसी भी महिला को खूबसूरत ,बुद्धिमती, पुरुष को स्मार्ट ,बुद्धिमान आदि कह दें तो काम भर का काम तो हो ही जाता है.कुछ लोग दूसरे गुणों की तारीफ भी चाहते हैं.इसमें सारी कलाकारी इस बात पर निर्भर करती है कि आप यह जान सकें कि तारीफ किस चीज की चाही जा रही है.चाहने और करने में जितना साम्य होगा ब्रम्हास्त्र का असर उतना ही सटीक होगा.जितना अंतर होगा मांग और पूर्ति में उतना ही कम असर होगा तारीफ का.

गङबङी तब होती है जब आप किसी सुंदरी की तारीफ में कसीदे काढ रहे होते हैं और वह चातक की तरह आपके मुंह की तरफ इस आशा से ताकती रहती है कि आप उसकी उस बुद्धि की तारीफ करें जिसने उस पर स्पर्श रेखा(Tangent) तक नहीं डाली.किसी कूढमगज व्यक्ति की स्मार्टनेस के बारे में कहे हजारों शब्द बेकार हैं अगर आपको उसकी इस इच्छा का पता नहीं कि वह अपनी त्वरित निर्णय क्षमता को अपना खास गुण मानता है.

देखा गया है कि लोग अपने उन गुणों की तारीफ के किये ज्यादा हुङकते हैं जो उनमें कम होता है या कभी-कभी होता ही नहीं.

तारीफ के इस हथियार की मारक क्षमता दोगुनी करने भी तरीके हैं.एक राजा के दरबार में एक कवि के किसी जघन्य अपराध की सजा मौत सुनायी गयी.राजा के मंत्री ने कहा-महाराज इसके अपराध की तुलना में मौत की सजा कम है.इसे और बङी सजा मिलनी चाहिये.राजा बोला-मौत से बङी और क्या सजा हो सकती है?मंत्री ने कहा -महाराज, हो सकती है.इस कवि के सामने दूसरे कवि कीतारीफ की जाये .यह सजा मौत की सजा से भी बङी सजा है किसी कवि के लिये.

आज का समय आत्म निर्भरता का है.हर समझदार अपने कार्यक्षेत्र में आत्मनिर्भर होने की कोशिश करता है.नेता अब चुनाव जीतने के लिये गुंडे के भरोसे नहीं बैठा रहता.खुद गुंडागर्दी सीखता है ताकि किसी के सहारे न रहे. नेतागिरी केविश्वविद्धालयमें प्रवेश के लिये गुंडागर्दी के किंडरगार्डन की शिक्षा जरूरी हो गयी है.

आत्मनिर्भरता की इसी श्रंखला की एक कङी है-अपनी तारीफ में आत्मनिर्भरता(self reliance in self praise).लोग अब गुणग्राहक की प्रतीक्षा में अहिल्या की तरह राम का इंतजार नहीं करते.अपनी तारीफ खुद करना आज के सक्षम व्यक्ति का सबसे बङा हथियार है. मेरे एक मित्र अपना सारा समय यह बताने में गुजारते हैं कि उन्होने अपनी जिंदगी में कितने तीर मारे.चालीस साल का आदमी अपने पांच साल के कुछ कामों का बखान पूरे साठ साल करता है.खाली आत्मप्रसंशा को अपना पराक्रम समझता है.मैं डरने लगा हूं उसके पास जाने में.पर वह भी चालाक हो गया है.देखता हूं कि अपनी तारीफ का मंगलाचरण (शुरुआत)अब वह मेरी तारीफ से करता है.मैं मुरव्वत का मारा फिर सुनने पर मजबूर हो जाता हूं उसकी आत्मप्रसंशा.

किसी व्यक्ति की अपनी तारीफ में आत्मनिर्भरता की मात्रा उसके नाकारेपन की मात्रा की समानुपाती होती है.जो जितना बङा नाकारा होगा वह अपनी तारीफ में उतना ही अधिक आत्मनिर्भर होगा.

इस कङी में तमाम बातें उदाहरण हैं.देखा गया है कि गंुडे अपनी शराफत की,बेईमान अपनी ईमानदारी की , हरामखोर अपनी कर्तव्य निष्ठा की तारीफ करते रंगे हाथ पकङे जाते है. सच्चा ज्ञानी अपने ज्ञान की ध्वजा नहीं फहराता .लोग खुद उसके मुरीद होते जाते हैं.बुद्धिमान अपनी बुद्धि की तारीफ में बुद्धि नहीं खराब करता.जब इन गुणों का अभाव होता है तो लोग क्षतिपूर्ति के लिये तारीफ में आत्मनिर्भरता की डगर पर कदम रखते हैं.जैसे बुढापे में लोग वियाग्रा का प्रयोग करने लगते हैं.जवान लोगों को वियाग्रा की जरूरत नहीं पङती.

आज जब मैं यह लिख रहा था तो एक मित्र का फोन आ गया.मैंने उनको अपने सारे पुराने लेख पढ कर सुनाने शुरु किये.कुछ देर बाद मेरे लङके ने टोका -पापा आप फोन हाथ में किये क्यों पढ रहे है ? मैंने बताया फोन पर अपने दोस्त को अपना लिखा सुना रहा हूं.उसके पास पीसी नहीं है.मेरे लङके ने बताया -पर फोन तो मेरे दोस्त का आया था.आधा घंटा पहले.मैंने पैरालल(समातंर)लाइन पर बात करके फोन रख दिया था.मैंने देखा फोन जिसको मैं हाथ में पकङे था उसमें डायलटोन बज रही थी.

मुझे लगा हम मुग्धानायिका की स्थिति को प्राप्त हो चुके हैं.

मेरी पसंद

आंखों में रंगीन नजारे
सपने बङे-बङे
भरी धार लगता है जैसे
बालू बीच खङे.

बहके हुये समंदर
मन के ज्वार निकाल रहे
दरकी हुई शिलाओं में
खारापन डाल रहे
मूल्य पङे हैं बिखरे जैसे
शीशे के टुकङे.


अंधकार की पंचायत में
सूरज की पेशी
किरणें ऐसे करें गवाही
जैसे परदेसी
सरेआम नीलाम रोशनी
ऊंचे भाव चढे.

नजरों के ओछेपन
जब इतिहास रचाते हैं
पिटे हुये मोहरे
पन्ना-पन्ना भर जाते हैं
बैठाये जाते हैं
सच्चों पर पहरे तगङे

आंखों में रंगीन नजारे
सपने बङे-बङे
भारी धार लगता है जैसे
बालू बीच खङे.

कन्हैयालाल नंदन

Thursday, November 18, 2004

कविता का जहाज और उसका कुतुबनुमा

हम कल से अपराध बोध के शिकार हैं.अलका जी की कविता जहाज पर हमारी टिप्पणी के कारण पंकज भाई जैसा शरीफ इंसान चिट्ठा दर चिट्ठा टहल रहा है.कहीं माफी मांग रहा है.कहीं अपने कहे का मतलब समझा रहा है. हमें लगा काश यह धरती फट जाती .हम उसमें समा जाते.पर अफसोस ऐसा कुछ न हुआ.हो भी जाता तो कुछ फायदा न होता काहे से कि जब यह सुविचार मेरे मन में आया तब हम पांचवीं मंजिल पर थे.फर्श फटता भी तो अधिक से अधिक चौथी मंजिल तक आ पाते.धरती में समाने तमन्ना न पूरी होती.

अपराध बोध दूर करने का एक तरीका तो यह है कि क्षमायाचना करके मामला रफा-दफा कर लिया जाये.शरीफों के अपराधबोध दूर करने का यह शर्तिया इलाज है.पर यह सरल-सुगम रास्ता हमारे जैसे ठेलुहा स्कूल आफ थाट घराने के लोगों को रास नहीं आता.जहां किसी भी अपराधबोध से मुक्ति का एक ही उपाय है,वह है किसी बङे अपराधबोध की शरण में जाना(जैसे छुटभैये गुंडे से बचाव के लिये बङे गुंडे की शरण में जाना) ताकि छोटा अपराधबोध हीनभावना का शिकार होकर दम तोङ दे.

चूंकि सारा लफङा कविता के अनुवाद में कमी बताने को लेकर रहा सो अपराधबोध से मुक्ति के उपाय भी कविता के आसपास ही मिलने की संभावना नजर आयी.कुछ उपाय जो मुझे सूझे :-

1.कविता का और बेहतर अनुवाद किया जाये.

2.एक धांसू कविता अंग्रजी में लिखी जाये.

3.एक और धांसू तारीफ की टिप्पणी कविता के बारे में की जाये.

4.कविता के दोष खोजे-बताये जायें.

पहले तीनों उपाय हमें तुरन्त खारिज कर देने पङे.दीपक जी ने कविता के अनुवाद को बेहतर करने की कोई गुंजाइश छोङी नहीं हमारे लिये. अंग्रेजी हमारी हमीं को नहीं समझ आती तो दूसरे क्या बूझेंगे हमारी अंग्रजी कविता. टिप्पणी वैसे ही 29 हो चुकीं कविता पर अब 30 वीं करने से क्या फायदा?सिवाय संख्या वृद्धि के.इसलिये कविता में कमी बताने का विकल्प हमें सबसे बेहतर लगा.चूंकि कविता की तारीफ काफी हो चुकी इसलिये संतुलन के लियेआलोचना भी जरूरी है.(जैसा मकबूल पिक्चर में ओमपुरी कहते हैं).'द शिप' कविता एक प्रेम कविता है.इसकी पहली दो लाइने हैं:-

बाहों के उसके दायरे में
लगती हूँ,ज्यूँ मोती सीप में

इसके अलावा कविता में कश्ती,साहिल,सीना,धङकन,जलते होंठ,अनंत यात्रा जैसे बिम्ब हैं जो यह बताते हैं कि यह एक प्रेम कविता है.अब चूंकि इसकी तारीफ बहुत लोग कर चुके हैं सो हम भी करते हैं(खासतौर पर यात्रा ही मंजिल है वाले भाव की).आलोचना की शुरुआत करने का यह सबसे मुफीद तरीका है.

कविता की दूसरी पंक्ति का भाव पूरी कविता के भाव से मेल नहीं खाता.बेमेल है यह.पूरी कविता प्रेम की बात कहती है.प्रेम ,जिसमें सीना,धङकन,जलते होंठ हैं ,दो युवा नर-नारी के बीच की बात है.जबकि दूसरी पंक्ति (सीप में मोती)में मां-बेटी के संबंध हैं.सीप से मोती पैदा होता है.यह संबंध वात्सल्य का होता है.हालांकि प्रेमी -प्रेमिका के बीच वात्सल्य पूर्ण संबंधपर कोई अदालती स्टे तो नहीं है पर बाहों के घेरे में जाकर वात्सल्य की बात करना समय का दुरुपयोग लगता है.खासकर तब और जब आगे सीना,साहिल,गर्म होंठ जैसे जरूरी काम बाकी हों.

चूंकि अलका जी ने यह कविता जो मन में आया वैसा लिख दिया वाले अंदाज में लिखी है.स्वत:स्फूर्त है यह.ऐसे में ये अपेक्षा रखना ठीक नहीं कि सारे बिम्ब ठोक बजाकर देखे जायें.पर यह कविता एक दूसरे नजरिये से भी विचारणीय है.अलका जी की कविता के माध्यम से यह पता चलता है कि आज की नारी अपने प्रेमी में क्या खोजती है.वह आज भी बाहों के घेरे रहना चाहती है और सीप की मोती बनी रहना चाहती है. पुरुष का संरक्षण चाहती है.उसकी छाया में रहना चाहती है.यह अनुगामिनी प्रवृत्ति है.सहयोगी, बराबरी की प्रवृत्ति नहीं है.

इस संबंध में यह उल्लेख जरूरी है आम प्रेमी भी यह चाहता है कि वह अपनी प्रेमिका को संरक्षण दे सके.इस चाहत के कारण उन नायिकाओं की पूंछ बढ जाती जो बात-बात पर प्रेमी के बाहों के घेरे में आ जायें और फिर सीने में मुंह छिपा लें.अगर थोङी अल्हङ बेवकूफी भी हो तो सोने में सुहागा.अनगिनत किस्से हैं इस पर. फिल्म मुगलेआजम में अनारकली एक कबूतर उङा देती है.सलीम पूछता है-कैसे उङ गया कबूतर ?इस पर वह दूसरा कबूतर भी उङाकर कहती है -ऐसे.अब सलीम के पास कोई चारा नहीं बचता सिवाय अनारकली की अल्हङता पर फिदा होने के.

मेरे यह मत सिर्फ कविता 'द शिप' के संदर्भ में हैं.अलका जी के बारे में या उनकी दूसरी कविताओं के संबंध में नहीं हैं.आशा है मेरे विचार सही संदर्भ में लिये जायेंगे.

यह लिख कर मैं पंकज जी के प्रति अपराध बोध से अपने को मुक्त पा रहा हूं.बङा अपराध कर दिया .बोध की प्रतीक्षा है.

मेरी पसंद

(कच-देवयानी प्रसंग)

असुरों के गुरु शुक्राचार्य को संजीवनी विद्या आती आती थी.इसके प्रयोग से वे देवता-असुर युद्ध में मरे असुरों को जिला देते थे.इस तरह असुरों की स्थिति मजबूत हो रही थी .देवताओं की कमजोर.देवताओं ने अपने यहां से कच को शुक्राचार्य के पास संजीवनी विद्या सीखने के लिये भेजा.कच नेअपने आचरण से शुक्राचार्य को प्रभावित किया और काफी विद्यायें सीख लीं.

असुरों को भय लगा कि कहीं शुक्राचार्य कच को संजीवनी विद्या भी न सिखा दें.इसलिये असुरों ने कच को मार डाला. इस बीच शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी कच को प्यार करने लगी थी .सो उसके अनुरोध पर शुक्राचार्य ने संजीवनी विद्या का प्रयोग करके कच को जीवित कर दिया.असुरों ने कच से छुटकारे का नया उपाय खोजा. शुक्राचार्य को शराब बहुत प्रिय थी.असुरों ने कच को मार कर जला दिया और राख को शराब में मिलाकर शुक्राचार्य को पिलादिया.कच ने शुक्राचार्य के मर्म में स्थित संजीवनी विद्या ग्रहण कर ली और पुन: जीवित हो गया.

जीवित होने के बाद देवयानी ने अपने प्रेम प्रसंग को आगे बढाना चाहा.पर कच ने यह कहकर इंकार कर दिया --मैं तुम्हारे पिता के उदर(पेट) में रहा अत: हम तुम भाई-बहन हुये .इसलिये यह प्रेम संबंध अब अनुचित है.यह कहकर कच संजीवनी विद्या के ज्ञान के साथ देवताओं के पास चला गया.

बाद में देवयानी का विवाह राजा ययाति से हुआ.

(संदर्भ-ययाति.लेखक-विष्णु सखाराम खाण्डेकर)










































































































































Sunday, November 14, 2004

`भारतीय संस्कृति क्या है

Akshargram Anugunj


जबसे पंकज ने पूंछा-भारतीय संस्कृति क्या है तबसे हम जुट गये पढने में.सभ्यता,संस्कृति क्या है .भारतीय संस्कृति और सभ्यता के बारे में जितना इन दो दिनों में हम पढ गये उतना अगर हम समय पर पढ लिये होते तो शायद आज किसी वातानुकूलित मठ में बैठे अपना लोक और भक्तों का परलोक सुधार रहे होते.पर क्या करें जब भक्तों का परलोक सुधरना नहीं बदा है उनके भाग्य में तो हम क्या कर सकते हैं?

संस्कृति की बात करें तो सभ्यता का भी जिक्र आ ही जाता है.सभ्यता और संस्कृति की परस्पर क्रिया -प्रतिक्रिया होती है और दोनो एक-दूसरे को प्रभावित भी करती हैं.

यह माना जाता है कि सभ्यता बाहरी उपलब्धि है और संस्कृति आन्तरिक.मनुष्य ने अपने सुख-साधन के लिये जो निर्मित किया वह सभ्यता है.इसमें मकान से लेकर महल और बैलगाङी से लेकर हवाईजहाज हैं.सुख की सामग्री है.

परंतु मनुष्य केवल बाहरी सुख-साधनों से संतुष्ट नहीं होता.वह मंगलमय जीवन मूल्यों को ग्रहण करना चाहता है.दया,प्रेम,सहानुभूति तथा दूसरे की मंगलकामना है.यह उदात्त है .इसमें सौन्दर्य की चाह है.यह संस्कृति है.

नेहरूजीने लिखा है-संस्कृति की कोई निश्चित परिभाषा नहीं दी जा सकती.संस्कृति के लक्षण देखे जा सकते हैं.हर जाति अपनी संस्कृति को विशिष्ट मानती है.संस्कृति एक अनवरत मूल्यधारा है.यह जातियों के आत्मबोध से शुरु होती है और इस मुख्यधारा में संस्कृति की दूसरी धारायें मिलती जाती हैं.उनका समन्वय होता जाता है.इसलिये किसी जाति या देश की संस्कृति उसी मूल रूप में नहीं रहती बल्कि समन्वय से वह और अधिक संपन्न और व्यापक हो जाती है.

भारतीय संस्कृति के बारे में जब बात होती है तो उसकी प्रस्तावना काफी कुछ इस श्लोक में मिलती है:-

सर्वे भवन्ति सुखिन:,सर्वे सन्तु निरामया,
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु,मा कश्चिद् दुखभाग् भवेत्.

सब सुखी हों,सभी निरोग हों,किसी को कोई कष्ट न हो.यह लोककल्याण की भावना भारतीय संस्कृति का प्राण तत्व है.पर देखा जाये तो सभी संस्कृतियां किसी न किसी रूप में लोककल्याण की बात करती हैं.फिर ऐसी क्या विशेष बात है भारतीय संस्कृति में?नेहरूजी अनुसार -समन्वय की भीतरी उत्सुकता भारतीय संस्कृति की खास विशेषता रही है.

आर्य जब भारत आये तो वे विजेता थे.तब यहां द्रविङ(उन्नत सभ्यता)और आदिवासी (आदिम अवस्था)थे.समय लगा पर आर्यों-द्रविङों में समन्वय हुआ .दोनों ने एक दूसरे के देवताओं और अनेक दूसरे तत्वों को अपना लिया.समन्वय की यह परंपरा तब से लगातार कायम है.तब से अनेक जातियां भारत आईं.कुछ हमला करने और लूटने और कुछ यहीं बस जाने.कुछ व्यापार के बहाने आये तो कुछ ज्ञान की खोज में. ग्रीक, शक, हूण, तुर्क, मुसलमान,अंग्रेज आदि -इत्यादि आये.रहे.कुछ लिया,कुछ दिया.कुछ सीखा कुछ सिखाया.जो आये वे यहीं रह गये.किसी जाति में समा गये.

जिस समय मारकाट चरम पर था उसी समय सूफी-संत प्रेम की अलख जगा रहे थे.धार्मिक कट्टरता को मेलजोल, भाईचारे,मानवतावाद , सदाचरण में बदलने की कोशिश की.अमीर खुसरो ने फारसी के साथ भारतीय लोक भाषा में लिखा:-

खुसरो रैन सुहाग की जागी पी के संग,
तन मेरो मन पीउ को दोऊ भये एक रंग.

यह समन्वय की प्रवत्ति ही भारतीय संस्कृति का मूल तत्व है.यह वास्तव में लोक संस्कृति है.वह लोक में पैदा होती है और लोक में व्याप्त होती है.यह सामान्य जन की संस्कृति होती है-मुट्ठी भर अभिजात वर्ग की दिखावट नहीं.

जब संस्कृतियों की बात चलती है तो उनके लक्षणों की तुलना होती है.कहते हैं भारतीय संस्कृति त्याग की संस्कृति है जबकि पश्चिमी संस्कृति भोग की संस्कृति है.लोककल्याण की भावना हमारी विशेषता है, आत्मकल्याण की भावना उनकी आदत.यह सरलीकरण करके हम अपनी संस्कृति के और अपने को महान साबित कर लेते हैं. स्वतंत्रता,समानता और खुलापन पश्चिमी संस्कृति के मूल तत्व है.हमारे लिये ये तत्व भले नये न हों पर जिस मात्रा में वहां खुलापन है वह हमें चकाचौंध और नये लोगों को शर्मिन्दगी का अहसास कराता है-क्या घटिया हरकतें करते हैं ये ससुरे.फिर कालान्तर में वही घटिया हरकतें पता नही कैसे हमारी जीवन पद्धति बन जाती है ,पता नहीं चलता.इस आत्मसात होने में कुछ तत्वों का रूप परिवर्तन होता है.यही समन्वय है.तो देखा जाये तो हर संस्कृति में समन्वय की भावना रहती है.

अमेरिका की तो सारी संस्कृति समन्वय की है.पर मूल तत्व की बात करें तो यह दूसरों के प्रति असहिष्णुता की संस्कृति है.अमेरिका में जब अंग्रेज आये तो यहां के मूल निवासियों (रेड इंडियन) को मारा,बरबाद कर दिया. रेड इंडियन उतने सक्षम ,उन्नत नहीं थे कि मुकाबला कर पाते (जैसा भारत में द्रविङों ने आर्यों का किया होगा). मिट गये.यह दूसरों के प्रति सहिष्णुता का भाव अमेरिकी संस्कृति का मूल भाव हो गया. जो हमारे साथ नहीं है वह दुश्मनों के साथ है यह अपने विरोध सहन न कर पाने की कमजोरी है.यह डरे की संस्कृति है .जो डरता है वही डराता है.

यह छुई-मुई संस्कृति है.हजारों परमाणु बम रखे होने बाद भी जो देश किसी दूसरे के यहां रखे बारूद से होने के डर से हमला करके उसे बरबाद कर दे.उससे अधिक छुई-मुई संस्कृति और क्या हो सकती है?

भोग की प्रवत्ति के बारे में तो लोग कहते हैं भोग की बातें वही करेंगे जिनका पेट भरा हो.जो सभ्यतायें उन्नत हैं .रोटी-पानी की चिन्ता से मुक्त है जो समाज वो भोग की तरफ रुख करेगा.रोमन सभ्यता जब चरम पर थी तो वहां लोग गुलामों(ग्लैडियेटर्स)को तब तक लङाते थे जब तक दो गुलामों में से एक की मौत नहीं हो जाती थी. रोमन महिलायें नंगे गुलामों को लङते मरते देखती थीं.इससे यौन तुष्टि ,आनन्द प्राप्त करती थीं.सभ्यता के चरम पर यह रोम की संस्कृति के पतनशील तत्व थे.बाद में उन्हीं गुलामों ने रोम साम्राज्य के खिलाफ विद्रोह किया.

खुलेपन के नामपर नंगापन बढने की प्रवत्ति के बारे में रसेल महोदय ने कहा है:-जब कोई देश सभ्यता के शिखर पर पहुंच जाता है तब उस देश की स्त्रियों की काम- लिप्सा में वृद्धि होती है और इसके साथ ही राष्ट्र का अध:पतन प्रारम्भ हो जाता है.इस समय अमेरिकन स्त्रियों में यह काम-लोलुपता अधिक दृष्टिगोचर होती है और 35 से 40 वर्ष की अवस्था की अमेरिकन स्त्री वेश्या का जीवन ग्रहण करना चाहती है ,जिससे उसकी कामपिपासा शान्त हो सके.

हम खुश हो के सारे विकसित देशों के लिये कह सकते हैं- इसकी तो गई.पर हम अपने यहां देखें क्या हो रहा है.हम पुराने आदर्शों को नये चश्में से देख रहे है.तुलसीदास ने उत्तम नारी के गुण बताये हैं:-

उत्तम कर अस बस मन माहीं,
सपनेंहु आन पुरुष जग नाहीं .

उत्तम नारी सपने में भी पराये पुरुष के बारे में नहीं सोचती. आज की जरूरतें बदली हैं.लिहाजा हमने इस चौपाई का नया अर्थ ले लिया(उत्तम नारी के लिये सपने में भी कोई पुरुष पराया नहीं होता).पंजाब में लोगों ने इस समस्या का और बेहतर उपाय खोजा.महिलाओं की संख्या ही कम कर दी.न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी. महिलायें रहेंगी ही नहीं तो व्यभिचार कहां से होगा.प्रिवेन्शन इज बेटर दैन क्योर.

रवीन्द्र नाथ टैगोर ने अपनी कविता भरत तीर्थ में कहा है-भारत देश महामानवता का पारावार है.यहां आर्य हैं,अनार्य हैं,द्रविङ हैं और चीनी वंश के लोग भी हैं.शक,हूण,पठान और मुगल न जाने कितनी जातियों के लोग इस देश में आये और सब के सब एक ही शरीर में समाकर एक हो गये.

यह समन्वय की प्रवत्ति ही भारतीय संस्कृति का मूल तत्व है.


मेरी पसंद

आधे रोते हैं ,आधे हंसते हैं
दोनों अवन्ती में बसते हैं

कृपा है ,महाकाल की

आधे मानते हैं,आधा
होना उतना ही
सार्थक है,जितना पूरा होना,

आधों का दावा है,उतना ही
निरर्थक है पूरा
होना,जितना आधा होना

आधे निरुत्तर हैं,आधे बहसते हैं
दोनों अवन्ती में बसते हैं

कृपा है ,महाकाल की


आधे कहते हैं अवन्ती
उसी तरह आधी है
जिस तरह काशी,

आधे का कहना है
दोनों में रहते हैं
केवल प्रवासी
दोनों तर्कजाल में फंसते हैं
दोनों अवन्ती में बसते हैं

हंसते हैं
काशी के पण्डित अवन्ती के ज्ञान पर
अवन्ती के लोग काशी के अनुमान पर

कृपा है ,महाकाल की.

--श्रीकान्त वर्मा






Monday, November 08, 2004

झाङे रहो कलट्टरगंज

मैं काफी दिनों से कानपुर के बारे में लिखने की सोच रहा था.आज अतुल के फोटो देखे तो लगा कि लिखने के लिये सोचना कैसा ?अगर लिखने के लिये भी सोचना पङे तो हालत सोचनीय ही कही जायेगी.

मेरे अलावा जो चिट्ठाकार कानपुर से किसी न किसी तरह जुङे रहे हैं(अतुल,इंद्र अवस्थी,जीतेन्द्र,आशीष और राजेश)उनको लिखने के लिये उकसाने की कोशिश भी कानपुर के बारे में लिखने का कारण है .अवस्थी की हरकतें तो कुछ-कुछ शरीफों जैसी लगती हैं:-

लहूलुहान नजारों का जिक्र आया तो
शरीफ लोग उठे और दूर जाके बैठ गये.

ज्यादा दिन नही हुये जब कानपुर "मैनचेस्टर आफ इंडिया" कहलाता था.यहां दिनरात चलती कपङे की मिलों के कारण.आज मिलें बंद है और कानपुर फिलहाल कुली कबाङियों का शहर बना अपने उद्धारक की बाट जोह रहा है.कानपुर को धूल,धुआं और धूर्तों का शहर बताने वाले यह बताना नहीं भूलते कि प्रसिद्ध ठग नटवरलाल ने अपनी ठगी का बिसमिल्ला (शुरुआत)कानपुर से ही किया था.

फिलहाल शहर के लिये दो झुनझुने बहुत दिनों से बज रहे हैं .गंगा बैराज और हवाई अड्डा.देखना है कि कब यह बनेगे.कानपुर अपने आसपास के लिये कलकत्ता की तरह है. जैसे कलकत्ते के लिये भोजपुरी में कहते हैं-लागा झुलनिया(ट्रेन)का धक्का ,बलम कलकत्ता गये.इसी तरह आसपास के गांव से लेकर पूर्वी उत्तरप्रदेश तक जिसका मूड उखङा वो सत्तू बांध के कानपुर भाग आता है और यह शहर भी बावजूद तमाम जर्जरता के किसी को निराश करना अभी तक सीख नहीं पाया.

टेनरियों और अन्य प्रदूषण के कारण कानपुर में गंगा भले ही मैली हो गयी हो,कभी बचपन में सुनी यह पंक्तियां आज भी साफ सुनाई देती हैं:-

कानपुर कनकैया

जंह पर बहती गंगा मइया
ऊपर चलै रेल का पहिया
नीचे बहती गंगा मइया
चना जोर गरम......

चने को खाते लछमण वीर
चलाते गढ लंका में तीर
फूट गयी रावण की तकदीर
चना जोर गरम......

कितना ही चरमरा गया हो ढांचा कानपुर की औद्धोगिक स्थिति का पर कनपुरिया ठसक के दर्शन अक्सर हो ही जाते हैं, गाहे-बगाहे.एक जो नारा कनपुरियों को बांधता है,हिसाबियों को भी शहंशाही-फकीरी ठसक का अहसास देता है ,वह है:-

झाङे रहो कलट्टरगंज,
मंडी खुली बजाजा बंद.

कनपरिया टकसाल में हर साल ऐसे शब्द गढे जाते हैं जो कुछ दिन छाये रहते हैं और फिर लुप्त हो जाते हैं.कुछ स्थायी नागरिकता हासिल कर लेते है.चिकाई /चिकाही, गुरु ,लौझङ जैसे अनगिनत शब्द स्थायी नागरिक हैं यहां की बोली बानी के.गुरु के इतने मतलब हैं कि सिर्फ कहने और सुनने वाले का संबंध ही इसके मायने तय कर सकता है ."नवा(नया) है का बे?" का प्रयोग कुछ दिन शहर पर इतना हावी रहा कि एक बार कर्फ्यू लगने की नौबत आ गयी थी. चवन्नी कम पौने आठ उन लोगों के परिचय के लिये मशहूर रहा जो ओवर टाइम के चक्कर में देर तक (पौने आठ बजे)घर वापस आ पाते थे.आलसियों ने मेहनत बचाने के लिये इसके लघु रूप पौने आठ से काम निकालना शुरू किया तो चवन्नी पता ही नही चला कब गायब हो गयी

कनपुरिया मुहल्लों के नामों का भी रोचक इतिहास है.

तमाम चीजें कानपुर की प्रसिद्ध हैं. ठग्गू के लड्डू (बदनाम कुल्फी भी)का कहना है:-

1.ऐसा कोई सगा नहीं
जिसको हमने ठगा नहीं

2.दुकान बेटे की गारंटी बाप की

3.मेहमान को मत खिलाना
वर्ना टिक जायेगा.

4.बदनाम कुल्फी --
जिसे खाते ही
जुबां और जेब की गर्मी गायब

5.विदेसी पीते बरसों बीते
आज देसी पी लो--
शराब नहीं ,जलजीरा.


मोतीझील ( हंस नहीं मोती नहीं कहते मोतीझील ),बृजेन्द्र स्वरूप पार्क,कमला क्लब,कभी सर्व सुलभ खेल के मैदान होते थे.आज वहां जाना दुर्लभ है. कमला टावर की ऊंचाई पर कनपुरिया कथाकार प्रियंवदजी इतना रीझ गये कि अपनी एक कहानी में नायिका के स्तनों का आकार कमला टावर जैसा बताया.

नाना साहब ,गणेश शंकर विद्धार्थी,नवीन,सनेही जी ,नीरज आदि से लेकर आज तक सैकङों ख्यातनाम कानपुर से जुङे हैं.

एक नाम मेरे मन में और उभरता है.भगवती प्रसाद दीक्षत "घोङेवाला" का.घोङेवाले एकदम राबिनहुड वाले अंदाज में चुनाव लङते थे.उनके समर्थक ज्यादातर युवा रहते थे.हर बार वो हारते थे.पर हर चुनाव में खङे होते रहे.एक बार लगा जीत जायेंगे.पर तीसरे नंबर पर रहे.उनके चुनावी भाषण हमारे रोजमर्रा के दोमुहेपन पर होते थे.एक भाषण की मुझे याद है:-

जब लङका सरकारी नौकरी करता है तो घरवाले कहते हैं खाली तन्ख्वाह से गुजारा कैसे होगा?ऐसी नौकरी से क्या फायदा जहां ऊपर की कमाई न हो.वही लङका जब घूस लेते पकङा जाता है तो घर वाले कहते है-हाथ बचा के काम करना चाहिये था.सब चाहते हैं-लड्डू फूटे चूरा होय, हम भी खायें तुम भी खाओ.

"डान क्विकजोट" के अंदाज में अकेले चलते घोङेवाले चलते समय कहते-- आगे के मोर्चे हमें आवाज दे रहे है.

सन् 57 की क्रान्ति से लेकर आजादी की लङाई,क्रान्तिकारी,मजदूर आन्दोलन में कानपुर का सक्रिय योगदान रहा है.शहर की बंद पङी मिलों की शान्त चिमनियां गवाह हैं ईंट से ईंट बजा देने के जज्बे को लेकर हुये श्रमिक आन्दोलनों की.ईंटे बजने के बाद अब बिकने की नियति का निरुपाय इन्तजार कर रही हैं.


आई आई टी कानपुर,एच बी टी आई ,मेडिकल कालेज से लैस यह शहर आज कोचिंग की मंडी है.आज अखबार कह रहा था कि अवैध हथियारों की भी मंडी है कानपुर.

कानपुर के नये आकर्षणों में एक है -रेव-3.तीन सिनेमा घरों वाला शापिंग काम्प्लेक्स. मध्यवर्गीय लोग अब अपने मेहमानों को जे के मंदिर न ले जाकर रेव-३ ले जाते हैं.पर मुझसे कोई रेव-3 की खाशियत पूंछता है तो मैं यही कहता हूं कि यह भैरो घाट(श्मशान घाट) के पीछे बना है यही इसकी खाशियत है.बमार्फत गोविन्द उपाध्याय(कथाकार)यह पता चला है कि रेव-3 की तर्ज पर भैरोघाट का नया नामकरण रेव-4 हो गया है और चल निकला है.


कानपुर में बहुत कुछ रोने को है.बिजली,पानी,सीवर,सुअर,जाम,कीचङ की समस्या.बहुत कुछ है यहां जो यह शहर छोङकर जाने वाले को बहाने देता है.यह शहर तमाम सुविधाओं में उन शहरों से पीछे है जिनका विकास अमरबेल की तरह शासन के सहारे हुआ है.पर इस शहर की सबसे बङी ताकत यही है कि जिसको कहीं सहारा नहीं मिलता उनको यह शहर अपना लेता है.

जब तक यह ताकत इस शहर में बनी रहेगी तब तक कनपुरिया(झाङे रहो कलट्टरगंज) ठसक भी बनी रहेगी.

आज दीपावली है.सभी को शुभकामनायें.

मेरी पसंद

जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाये.

नयी ज्योति के धर नये पंख झिलमिल
उङे मर्त्य मिट्टी गगन स्र्वग छू ले
लगे रोशनी की झङी झूम ऐसी
निशा की गली में तिमिर राह भूले.
खुले मुक्ति का वह किरण- द्वार जगमग
उषा जा न पाये निशा आ न पाये.

जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाये.

-----गोपाल दास "नीरज"

Sunday, October 31, 2004

क्या देह ही है सब कुछ?

"क्या देह ही है सब कुछ?"

इस सवाल का जवाब पाने के लिये मैं कई बार अपनी देह को घूर निहार चुका हूं-दर्पण में.बेदर्दी आईना हर बार बोला निष्ठुरता से-नहीं,कुछ नहीं है(तुम्हारी)देह.मुझे लगा शायद यह दर्पण पसीजेगा नहीं.मुझे याद आया
वासिफ मियां का शेर:-

साफ आईनों में चेहरे भी नजर आते हैं साफ,
धुंधला चेहरा हो तो धुंधला आईना भी चाहिये.

तो साहब,हम आईना-बदल किये .अधेङ गृहस्थ आईने की शरण ली.यह कुछ दयावान था.पसीज गया.बोला-सब कुछ तो नहीं पर बहुत कुछ है देह.

मुझे लगा कि कमी देह में नहीं ,देह-दर्शन की तरकीब तरीके में है.और बेहतर तरीका अपनाता तो शायद जवाब पूरा हां में मिलता-हां,देह ही सब कुछ है.

दुनिया में पांच अरब देहें विचरती हैं.नखशिख-आवृता से लेकर दिगंबरा तक.मजबूरन नंगी देह से लेकर शौकिया नंगई तक पसरा है देह का साम्राज्य.इन दो पाटों के बीच ब्रिटेनिका(5०:5०)बिस्कुट की तरह बिचरती हैं-मध्यमार्गी देह.यथास्थिति बनाये रखने में अक्षम होने पर ये मध्यमार्गियां शौकिया या मजबूरन नंगई की तरफ अग्रसर होती हैं.कभी-कभी भावुकता का दौरा पङने पर पूंछती हैं-क्या देह ही सब कुछ है!

जैसा कि बताया गया कि युवावर्ग में बढते शारीरिक आकर्षण और सेक्स के सहारे चुनाव जीतने के प्रयासों से आजिज आकर विषय रखा गया.तो भाई इसमें अनहोनी क्या है?युवाओं में शारीरिक आकर्षण तो स्वाभाविक पृवत्ति है.सेक्स का सहारा लेकर चुनाव जीतने का तरीका नौसिखिया अमेरिका हमें क्या सिखायेगा?

जो वहां आज हो रहा है वह हम युगों-युगों से करते आये है.मेनकाओं अप्सराओं की पूरी ब्रिगेड इसी काम में तैनात रहती थी.जहां इन्द्र का सिंहासन हिला नहीं ,दौङ पङती अप्सरायें काबू पाने के लिये खतरे पर.
राजाओं,गृहस्थों की कौन कहे बङे-बङे ऋषि-मुनियों के लंगोट ढीले करते रही हैं ये सुन्दरियां.इनके सामने ये अमेरिकी क्या ठहरेंगे जिनका लंगोट से "हाऊ डु यू डू तक "नहीं हुआ.

सत्ता नियंत्रण का यह अहिंसक तरीका अगर दरोगा जी आतंकवादियों पर अपनाते तो सारे आतंकवादी अमेरिका में बेरोजगारी भत्ते की लाइन में लगे होते और समय पाने पर ब्लागिंग करते.

असम के तमाम आतंकवादी जिनका पुलिस की गोलियां कुछ नहीं बिगा।ङ पायी वो नजरों के तीर से घायल होकर आजीवान कारावास(कुछ दिन जेल,बाकी दिन गृहस्थी) की सजा भुगतने को स्वेच्छा से समर्पणकर चुके हैं.

देह प्रदर्शन की बढती पृवत्ति का कारण वैज्ञानिक है.दुनिया तमाम कारणों से गर्मी (ग्लोबल वार्मिंग)बढ रही है.गर्मी बढेगी तो कपङे उतरेंगे ही.कहां तक झेलेंगे गर्मी?यह प्रदूषण तो बढना ही है.जब शरीर के तत्वों (क्षिति,जल,पावक,गगन,समीरा)में प्रदूषण बढ रहा है तो शरीर बिना प्रदूषित हुये कैसे रहसकता है?

यह भ्रम है कि शारीरिक आकर्षण का हमला केवल युवाओं पर होता है .राजा ययाति अपने चौथेपन में भी कामपीडित रहे.कामाग्नि को पूरा करने के लिये ययाति ने अपने युवा पुत्र से यौवन उधार मांगा और मन की मुराद पूरी की.हर दरोगा उधार पर मजे करता है.

केशव को शिकायत रही कि उनके समय में खिजाब का चलन नहीं था और सुंदरियां उन्हें बाबा कहती थीं:-

केशव केसन अस करी जस अरिहूं न कराहिं,
चंद्रवदन मृगलोचनी बाबा कहि-कहि जांहि.

इससे पता चलता है मन ज्यादा बदमास है देह के मुकाबले.पर इन कहानियों से शायद लगे कि इसमें सुन्दरी का कोई पक्ष नहीं रखा गया .तो इस विसंगति को दूर करने के लिये एकदम आधुनिक उदाहरण पेश है:-

पिछले दिनों आस्ट्रेलियन विश्वसुन्दरी मंच पर कार्यक्रम प्रस्तुत कर रहीं थीं.बेचारी स्कर्ट अपना और सुंदरी के सौंदर्यभार को संभाल न सकी .सरक गयी.संदरी ने पहले शर्म का प्रदर्शन किया फिर समझदारी का.स्टेज से पर्दे के पीछे चली गयी.हफ्तों निम्न बातें चर्चा में रहीं:-

1.संदरी ने बुद्धिमानी से बिना परेसान हुये स्थिति का सामना किया.
2.स्कर्ट भारी थी जो कि सरक गयी.
3.सुंदरी ने जो अंडरवियर पहना था वह सस्ता ,चलताऊ किस्म का था.
4.सुंदरी के शरमाने का कारण स्कर्ट का गिर जाना उतना जितना साधारण , सस्ता अंडरवियर पहने हुये पकङे जाना था.

इस हफ्तों चली चर्चा में देह का जिक्र कहीं नहीं आया.देह ,वह भी विश्वसुंदरी की,नेपथ्य में चली गयी.चर्चित हुयी सुन्दरी की भारी स्कर्ट,साधारण अंडरवियर और उसका दिमाग.

तो इससे साबित होता है कि कुछ नही है देह सिवा माध्यम के.सामान बेचने का माध्यम .उपभोक्तावाद का हथियार.उसकी अहमियत तभी तक है जब तक वह बिक्री में सक्षम है .जहां वह चुकी -वहां फिकी.

आज ऐश्वर्या राय का जन्मदिन है.सबेरे से टीवी पर छायी हैं.दर्शकों का सारा ध्यान उसके गहनों,कपङों, मेकअप पर है.उसका नीर-क्षीर विवेचन कर रहें हैं.सम्पूर्णता में उसका सौंदर्य उपेक्षित हो गया.यह विखंडन कारी दर्शन आदमी को आइटम बना देता है.

युवा का देह के प्रति आर्कषण कतई बुरा नहीं है.बुरा है उसका मजनूपना ,लुच्चई.कमजोर होना.देखा गया है कि साथ जीने मरने वाले कई मजनू दबाव पङने पर राखी बंधवा लेते हैं.

प्रेम संबंध भी आजकल स्टेटस सिंबल हो गये हैं.जिस युवा के जितने ज्यादा प्रेमी प्रेमिका होते हैं वह उतना ही सफल स्मार्ट माना जाता है.प्रेमी प्रेमिका भी आइटम हो चुके हैं.यही उपभोक्तावाद है.

मेरी तो कामना है कि युवाओं में खूब आकर्षण बढे शरीर के प्रति.पर यह आकर्षण लुच्चई में न बदले.यह आकर्षण युवाओं में सपने देखने और उन्हें हकीकत में बदलने का जज्बा पैदा करे.साथी के प्रति आकर्षण उनमें इतनी हिम्मत पैदा कर सके कि उनके साथ जुङने ,शादी करने की बात करने पर ,स्थितियां विपरीत होने पर उनमें
श्रवण कुमार की आत्मा न हावी हो जाये और दहेज के लिये वो मां-बाप के बताये खूंटे से बंधने के लिये न तैयार हो जायें.

फिलहाल तो जिस देह का हल्ला है चारो तरफ वह कुछ नहीं है सिर्फ पैकिंग है.ज्यादा जरूरी है सामान .जब पैकिंग अपने अंदर सबसे ऊपर रखे सामान (दिमाग)पर हावी होती है तो समझिये कि सामान में कुछ गङबङ है.


मेरी पसंद

एक नाम अधरों पर आया,
अंग-अंग चंदन वन हो गया.

बोल है कि वेद की ऋचायें
सांसों में सूरज उग आयें
आखों में ऋतुपति के छंद तैरने लगे
मन सारा नील गगन हो गया.

गंध गुंथी बाहों का घेरा
जैसे मधुमास का सवेरा
फूलों की भाषा में देह बोलने लगी
पूजा का एक जतन हो गया.

पानी पर खीचकर लकीरें
काट नहीं सकते जंजीरें
आसपास अजनबी अधेरों के डेरे हैं
अग्निबिंदु और सघन हो गया.

एक नाम अधरों पर आया,
अंग-अंग चंदन वन हो गया.


---कन्हैयालाल नंदन

Saturday, October 30, 2004

सफल मनोरथ भये हमारे

आखिर हमनें जिता ही दिया आस्ट्रेलिया को रिकार्ड अंतर से.नागपुर टेस्ट की शानदार हार बताती है कि सच्चे मन से जो मांगा जाता है वो मिल के रहता है.भगवान के घर देर है,अंधेर नहीं.

पिछले टेस्ट में हरभजन और पठान की नासमझी के कारण हमरिकार्ड बनाने से चूके थे.इस बार भी जब दुनिया के शानदार बैट्समैनों के शानदार प्रदर्शन के बाद जहीर ,अगरकर ने बहकना शुरु किया तो हमारा जी धङकने लगा कि कहीं ये फिर न गङबङ कर दें.हारने से तो खैर हमें कोई नहीं रोक सकता पर लगा कि कहीं पुछल्ले फिर न हमें कीर्तिमानी हार से वंचित कर दें.पर शुक्र है कोई अनहोनी नहीं हुयी.शायद कहीं गाना भी बजने लगा हो:-

हम लाये हैं तूफानों से किस्ती निकाल के
इस हार को रखना मेरे बच्चों संभाल के.

कुछ सिरफिरे इस हार से दुखी हैं.कोस रहे हैं टीम को.बल्लेबाजी को.अब कैसे बताया जाये कि बल्लेबाजों का समय विज्ञापन,आटोग्राफ,बयानबाजी आदि-इत्यादि में काफी चला जाता है.थक जाते हैं सब में.ठंडा मतलब
कोकाकोला दिन में सैकङों बार बोलना पङता है .तबियत पस्त हो जाती है.इसके बाद इनसे खेलने,टिक कर खेलने, की आशा रखना तो भाई मानवाधिकार उल्लंघन है.

अक्सर मैं देश में क्रिकेट की लोकप्रियता का कारण तलासने की जहमत उठाता हूं.क्रिकेट हमारे देश का सेफ्टीवाल्व है.एक जीत हमें महीनों मदहोश रखती है.सैकङो अनियमितताओं पर परदा डाल देती है एक अददजीत.राजनीतिक पार्टियां अपनी 'भारत यात्रायें'तय करने में भारतीय क्रिकेट टीम का कार्यक्रम देखती हैं.वे देखती हैं कि यात्रा और मैच तिथियों में टकराव न हो.यह बूता क्रिकेट में ही है कि देश के करोंङो लोग अरबों घण्टे फूंक देते है इसकी आशिकी में.हर हार के बाद जीत का सपना क्रिकेट ही दिखा सकता है.हरबार यही लगता है:-सब कुछ लुट जाने के बाद भी भविष्य बचा रहता है.

कभी मैं यह सोचकर सिहर जाता हूं कि अगर क्रिकेट न होता तो हमारे देश का क्या होता.हम कहीं के न रहते.

हर विदेशी शब्द की तरह इन्टरनेट शब्द का अनुवाद हुआ.अब तक के प्रचलित शब्दानुवादों में जाल शब्द सबसे ज्यादा मान्यता हासिल कर सका है.पर जाल में लगता है कि कहीं फंसने का भी भाव है.एक हिन्दी पत्रिका में इंटरनेट का अनुवाद दिया था-अन्तरताना.वास्तव में नेट (जाल)बनता है ताने-बाने के मेल से.अन्तरताने से तो लगता है जाल को उधेङकर ताना-बाना अलग-अलग कर दिया गया हो.पत्रिका राष्टवादी है -सो इससे अधिक
और कर भी क्या सकती है?

मेरी पसंद

एक बार और जाल फेक रे मछेरे,
जाने किस मछली में बंधन की चाह हो!

सपनों की ओस गूंथती कुश की नोक है
हर दर्पण में उभरा एक दिवालोक है
रेत के घरौंदों में सीप के बसेरे
इस अंधेर में कैसे नेह का निबाह हो!

उनका मन आज हो गया पुरइन पात है
भिगो नहीं पाती यह पूरी बरसात है
चन्दा के इर्द-गिर्द मेघों के घेरे
ऐसे में क्यों न कोई मौसमी गुनाह हो!

गूंजती गुफाओं में पिघली सौगन्ध है
हर चारे में कोई चुम्बकीय गन्ध है
कैसे दे हंस झील के अनंत फेरे
पग-पग पर लहरें जब बांध रही छांह हो!

कुंकुम-सी निखरी कुछ भोरहरी लाज है
बंसी की डोर बहुत कांप रही आज है
यों ही न तोङ अभी बीन रे संपेरे
जाने किस नागिन में प्रीत का उछाह हो!

---बुद्धिनाथ मिश्र

Tuesday, October 26, 2004

हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे

आजकल मैं देश के तकनीकी विकास के लिये बहुत चिन्तित रहता हूं.इन्टरनेट तकनीकी विकास का महत्वपूर्ण माध्यम है.मैं मानता हूं कि 'पीसी' में रुचि पैदा करने के लिये जो भूमिका कंप्यूटर गेम अदा करते हैं कुछ-कुछ वही भूमिका इंटरनेट में रुचि पैदा करने में चैटिंग और ब्लागिंग की है.

मैं इंटरनेट-प्रसार-यज्ञ में यथासंभव योगदान देने के लिये ब्लाग लिखकर अपने ब्लाग के बारे में मित्रों को अधिकाधिक जानकारी देने का प्रयास करता हूं.फोन करता हूं तो अपने ब्लाग के बारे में जरूर बताता हूं बल्कि यह कहना ज्यादा उचित होगा कि बताने के लिये फोन करता हूं.यह अलग बात है कि जबसे मेरे इस प्रचार अभियान ने जोर पकङा है तबसे हमारे मित्रों के फोन उठने कम हो गये है.अगर उठते भी हैं तो मित्रगण
के बाथरूम,बाजार,आफिस आदि-इत्यादि निरापद स्थानों में होने की सूचना देकर बैठ जाते हैं.बहरहाल तकनीकी विकास चाहे हो या न हो हमारी दौङधूप में कोई कमी नही आई.

अपने संपर्क के सभी मित्रों का तकनीकी विकास कर चुकने के बाद मैं चैन की सांस लेने की सोच ही रहा था कि
पंकज के खोये हुये बस्ते ने मुझे बेचैन कर दिया.लगा कि मैं उन मित्रों के साथ अन्याय कर रहा हूं जिनके संपर्क-सूत्र जीवन की आपाधापी में छूट गये हैं.उनका भी तकनीकी विकास करके मुख्यधारा में लाना मेरा पुनीत कर्तव्य है.

इसके पहले कि मैं 'मित्र-खोज' शुरू करता , मेरे आलस्य ने मुझे जकङ लिया.जैसे किसी विकास योजना की घोषणा होते ही उसको चौपट करने वाले तत्व उस पर कब्जा कर लेते हैं.मैं भी जङत्व के नियम का आदर करके चुप हो गया.पर पता नहीं कहां से मेरे मित्रप्रेम और न्याय बोध ने मेरे आलस्य का संहार कर दिया.जैसे अक्कू यादव से पीङित महिलाओं ने उसको निपटा दिया हो या फिर कुछ ऐसे जैसे पंचायतों के परंपरागत न्याय को अदालतें खारिज कर दें.बहरहाल मित्र खोज-यात्रा शुरु हुयी.

शुरुआत हमारे अजीज दोस्त राजेश से हुयी.बिना समय बरबाद किये मैंने मतलब की बात शुरु कर दी.उनको ब्लागिंग और अपने ब्लाग के बारे में बताया.पढने को कहा.मैं सोच रहा था कि इसके बाद बात कट जायेगी या फोन.पर जो हुआ वह अप्रत्यासित था.मेरा प्यारा दोस्त मुझसे 16 साल पहले सुनी कविता पंक्तियां दोहरा था:-

1.वो माये काबा से जाके कह दो
अपनी किरणों को चुन के रख लें
मैं अपने पहलू के जर्रे-जर्रे को
खुद चमकना सिखा रहा हूं.

2.......नर्म बिस्तर ,
ऊंची सोंचें
फिर उनींदापन.

इसमें पहली कविता एक चमकदार कवि के मुंह से सुनी थी मैनें.दूसरी मैंने लिखी थी. इन बिछुङी कविताओं को दुबारा पाकर मेरा 'मित्र-मिलन' सुख दूना हो गया.

इतने दिन बाद इन पंक्तियों को मैंने कई बार दोहराया.तुलना की- आपस में इनकी.मुझे लगा -जो आराम मेरी लिखी कविता में है वो चमकदार कविता में नदारद है.किसी को चमकना सिखाना मेहनत का काम है.'माये काबा'से दुश्मनी अलग कि अपनी समान्तर सत्ता चला रहा है.कहीं सद्दाम हुसैन सा हाल न कर दे सर्वशक्तिमान.
पता लगा जर्रे-जर्रे को चमकाने में खुद बुझ गये.इसके मुकाबले मेरी कविता जीवन-सत्य के ज्यादा करीब है.व्यवहारिक नजरिया है--ऊंची सोच के सो जाना.मैं अपनी 'तारीफ में आत्मनिर्भरता' और कालांतर में निद्रा की स्थिति को प्राप्त हुआ.

कुछ देर बाद मैंने पाया कि मैं एक सभा में हूं.मेरे चारो तरफ लटके चेहरों का हुजूम है.मैंने लगभग मान लिया था कि मैं किसी शोकसभा में हूं.पर मंच से लगभग दहाङती हुई ओजपूर्ण आवाज ने मेरा विचार बदला.मुझे लगा कि शायद कोई वीररस का कवि कविता ललकार रहा हो.पर यह विचार भी ज्यादा देर टिक नहीं सका.मैंने कुछ न समझ पाने की स्थिति में यह तय माना कि हो न हो कोई महत्वपूर्ण सभा हो रही हो.

मेरा असमंजस अधिक देर तक साथ नहीं दे पाया.पता चला कि देश के शीर्षतम भ्रष्टाचारियों का सम्मेलन हो रहा था.सभी की चिन्ता पिछले वर्ष के दौरान घटते भ्रष्टाचार को लेकर थी.मुख्य वक्ता 'भ्रष्टाचार उन्नयन समिति'का
अध्यक्ष था.वह दहाङ रहा था:-

मित्रों,आज हमारा मस्तक शर्म से झुका है.चेहरे पर लगता है किसी ने कालिख पोत दी .हम कहीं मुंह दिखाने लायक न रहे.हमारे रहते पिछले साल देश में भ्रष्टाचार कम हो गया.कहते हुये बङा दुख होता है कि विश्व के तमाम पिद्दी देश हमसे भ्रष्टाचार में कहीं आगे हैं.दूर क्यों जाते हैं पङोस में बांगलादेश जिसे अभी कल हमने ही आजाद कराया वो आज हमें भ्रष्टाचार में पीछे छोङ कर सरपट आगे दौङ रहा है.

मित्रों ,यह समय आत्ममंथन का है.विश्लेषण का है.आज हमें विचार करना है कि हमारे पतन के बुनियादी कारण क्या हैं ?आखिर हम कहां चूके ?क्या वजह है कि आजादी के पचास वर्ष बाद भी हम भ्रष्टाचार के शिखर तक
नहीं पहुंचे.दुनिया के पचास देश अभी भी हमसे आगे है.क्या मैं यही दिन देखने के लिये जिन्दा हूं?हाय भगवान तू मुझे उठा क्यों नहीं लेता?

कहना न होगा वीर रस से मामला करुण रस पर पहुंच चुका था .वक्ता पर भावुकता का हल्ला हुआ.उसका गला और वह खुद भी बैठ गया.श्रोताओं में तालियों का हाहाकार मच गया.

कहानी कुछ आगे बढती कि संचालक ने कामर्शियल ब्रेक की घोषणा कर दी.बताया कि कार्यक्रम किन-किन लोगों द्घारा प्रायोजित थे.प्रायोजकों में व्यक्तियों नहीं वरन् घोटालों का जलवा था.स्टैम्प घोटाला,यू टी आई घोटाला आदि
युवा घोटालों के बैनरों में आत्मविश्वास की चमक थी.पुराने,कम कीमत के घोटाले हीनभावना से ग्रस्त लग रहे थे.अकेले दम पर सरकार पलट देने वाले निस्तेज बोफोर्स घोटाले को देखकर लगा कि किस्मत भी क्या-क्या गुल खिलाती है.

कामर्शियल ब्रेक लंबा खिंचता पर 'भ्रष्टाचार कार्यशाला'का समय हो चुका था.कार्यशाला में जिज्ञासुओं कि शंकाओं का समाधान होना था.शंका समाधान प्रश्नोत्तर के रूप में हुआ.कुछ शंकायें और उनके समाधान निम्नवत हैं:-

सवाल:गतवर्ष की अपेक्षा भ्रष्टाचार में पिछङने के क्या कारण हैं?आपकी नजरों में कौन इस पतन के लिये जिम्मेंदार है?
जवाब:अति आत्म विश्वास,अकर्मण्यता,लक्ष्य के प्रति समर्पणका अभाव मुख्य कारण रहे पिछङने के.इस पतन के लिये हम सभी दोषी हैं.

सवाल:आपका लक्ष्य क्या है?
जवाब: देश को भ्रष्टाचार के शिखर पर स्थापित करना.

सवाल:कैसे प्राप्त करेंगे यह लक्ष्य?
जवाब:हम जनता को जागरूक बनायेंगे.इस भ्रम ,दुष्प्रचार को दूर करेंगे कि भ्रष्टाचार अनैतिक,अधार्मिक है.जब भगवान खुद चढावा स्वीकार करते हैं तो भक्तों के लिये यह अनैतिक कैसे होगा?

सवाल: तो क्या भ्रष्टाचार का कोई धर्म से संबंध है?
जवाब:एकदम है.बिना धर्म के भ्रष्टाचारी का कहां गुजारा?जो जितना बडा भ्रष्टाचारी है वो उतना बडा धर्मपारायण है.मैं रोज पांच घंटे पूजा करता हूं.कोई देवी-देवता ऐसा नहीं जिसकी मैं पूजा न करता हूं.भ्रष्टाचार भी एक तपस्या है.

सवाल:तो क्या सारे धार्मिक लोग भ्रष्ट होते हैं?
जवाब:काश ऐसा होता!मेरा कहने का मतलब है कि धर्मपारायण व्यक्ति का भ्रष्ट होना कतई जरूरी नहीं है .परन्तु एक भ्रष्टाचारी का धर्मपारायणहोना अपरिहार्य है.

सवाल:कुछ प्रशिक्षण भी देते हैं आप?
जवाब:हां नवंबर माह में देश भर में जोर-शोर से आयोजित होने वाले सतर्कता सप्ताह में हर सरकारी विभाग में अपने स्वयंसेवकों को भेजते हैं.

सवाल:सो किसलिए?
जवाब:असल में वहां भ्रष्टाचार उन्मूलन के उपाय बताये जाने का रिवाज है,सारे पुराने उपाय तो हमें पता हैं पर कभी कोई नया उपाय बताया जाये तो उसके लागू होने के पहले ही हम उसकी काट खोज लेते हैं.गफलत में नहीं रहते हम.कुछ नये तरीके भी पता चलते हैं घपले करने के.

सवाल:आपके सहयोगी कौन हैं?
जवाब:वर्तमान व्यवस्था.नेता,अपराधी,कानून का तो हमें सक्रिय सहयोग काफी पहले से मिलता रहा है.इधर अदालतों का रुख भी आशातीत सहयोगत्मक हुआ है.कुल मिलाकर माहौल भ्रष्टाचार के अनुकूल है.

सवाल:जो बीच-बीच में आपके कर्मठ,समर्पित भ्रष्टाचारी पकङे जाते हैं उससे आपके अभियान को झटका नहींलगता?
जवाब:झटका कैसा?यह तो हमारे प्रचार अभियान का हिस्सा एक है.इसके माध्यम से हम लोगों को बताते हैं कि देखो कितनी संभावनायें हैं इस काम में.लोग जो पकङे जाते हैंवो लोगों के रोल माडल बनते हैं.हमारा विजय अभियान आगे बढता है.

सवाल:आपकी राह में सबसे बडा अवरोध क्या है भ्रष्टाचार के उत्थान की राह में?
जवाब: जनता .अक्सर जनता नासमझी में यह समझने लगती कि हम कोई गलत काम कर रहे हैं.हालांकि आज तस्वीर उतनी बुरी नहीं जितनी आज से बीस साल पहले थी.आज लोग इसे सहज रूप में लेते हैं.यह अपने आप में उपलब्धि है.

सवाल: क्या आपको लगता है कि आप अपने जीवन काल में भ्रष्टाचार के शिखर तक देश को पहुंचा पायेंगे?
जवाब:उम्मीद पर दुनिया कायम है.मेरा रोम-रोम समर्पित है भ्रष्टाचार के उत्थान के लिये.मुझे पूरी आशा कि हम जल्द ही तमाम बाधाओं को पार करके मंजिल तक पहुंचेंगे.

अभी कार्यशाला चल ही रही थी कि शोर सुनायी दिया.आम जनता जूते,चप्पल,झाङू-पंजा आदि परंपरागत हथियारों से लैस भ्रष्टाचारियों की तरफ आक्रोश पूर्ण मुद्रा में बढी आ रही थी.कार्यशाला का तंबू उखङ चुका था.बंबू बाकी था.हमने शंका समाधान करने वाले महानुभाव की प्रतिक्रिया जानने के लिये उनकी तरफ देखा पर तब तक देर हो चुकी थी. वो महानुभाव जनता का नेतृत्व संभाल चुके थे.'मारो ससुरे भ्रष्टाचारियों 'को
चिल्लाते हुये भ्रष्टाचारियों को पीटने में जुट गये थे.

हल्ले से मेरी नींद टूट गयी.मुझे लगा शिखर बहुत दूर नहीं है.

मेरी पसंद

आधा जीवन जब बीत गया
वनवासी सा गाते रोते,
अब पता चला इस दुनिया में,
सोने के हिरन नहीं होते.

संबध सभी ने तोङ लिये,
चिंता ने कभी नहीं तोङे,
सब हाथ जोङ कर चले गये,
पीङा ने हाथ नहीं जोङे.

सूनी घाटी में अपनी ही
प्रतिध्वनियों ने यों छला हमें,
हम समझ गये पाषाणों में,
वाणी,मन,नयन नहीं होते.

मंदिर-मंदिर भटके लेकर
खंडित विश्वासों के टुकङे,
उसने ही हाथ जलाये-जिस
प्रतिमा के चरण युगल पकङे.

जग जो कहना चाहे कहले
अविरल द्रग जल धारा बह ले,
पर जले हुये इन हाथों से
हमसे अब हवन नहीं होते.
--कन्हैयालाल बाजपेयी

Thursday, October 14, 2004

आधे हाथ की लोमडी,ढाई हाथ की पूंछ

मेरी पत्नी का नाम आशा नहीं है और एक पत्नीशुदा व्यक्ति होने के कारण मेरा 'आशा'से फिलहाल कोई संबंध नहीं है.पर इस देश का यारों क्या कहना - तमाम आशायें पालता है. आस्ट्रेलिया की क्रिकेट टीम से हम हारने की आशा लगाये बैठे थे सो पूरी हुयी.'अतिथि देवो भव'की स्वर्णिम परंपरा का निर्वाह किया हमने पहले टेस्ट मैच में.देवताओं को जीत समर्पित की.शानदार तरीके से हारे.दुनिया की सर्वश्रेष्ठ बल्लेबाजी के सहयोग से हमने शानदार हार हासिल की.

वो तो बुरा हो इन कम्बख्त, नामुराद पुछल्लों -पठान और हरभजन का जिनकी अनुभवहीन बल्लेबाजी की वजह से हम रिकार्ड अंतर की हार से वंचित रह गये.

हमने बीच में टोंका भी पठान-भज्जी को --अरे जब हारना ही है तो काहे नहीं रिकार्ड बना के हारते.पर कोई सुने तब ना.आजकल के बच्चे बुजर्गों की कहां सुनते हैं.

मैच खतम होने पर किसी ने सिद्दू से पूछा -पाजी,अपने टाप बल्लेबाज तो टापते रहे पर पुछल्लों ने उनकी गेंदबाजी को पटरा कर दिया .इस बारे में आपका क्या कहना है?पाजी बोले ---इसे कहते हैं आधे हाथ की लोमडी,ढाई हाथ की पूछ.शिखर धडाम -जमीन आसमान.जब मैंने सिद्दू को सुना तो मन किया कि देखें अपने शरीर के पांच गुना पूंछ वाली लोमडी कैसी होती है.

लोमडी मिलती है जंगल में .जंगल पर विनम्रता पूर्वक वीरप्पन,ददुआ और लकडी के ठेकेदारों आदि-इत्यादि का कब्जा है.उनसे पूछा तो पता चला कि सारी लोमडियां महाराष्ट्र चुनाव में लगीं हैं सो मिलना मुमकिन नही है.सरकार बनवाकर ही वापस आयेंगी.

मैं प्रत्यक्षत:लोमडी देख नहीं पाया.पर -'जहां न जाये रवि वहां जाये कवि'.अवस्थी को पता नहीं कहां से मेरी लोमड-दर्शन इच्छा का सुराग लग गया.ये -'जेन मित्र दुख होंहि दुखारी,तिनहिं बिलोकत पातक भारी' के झांसे में आ गये.कविता लिखना ये तभी छोङ चुके थे जब से अपना नाम लिखना सीख लिया.पातक से बचने के लिये इन्होंने चार लाइन कीकविता लिखी.कहा लोमडी हम बना दिये.पूछ खुद बनेगी.इस चार लाइन की लोमङ कविता में अभी तक पचास लाइन की टिप्पणी(पूंछ)जुङ चुकी है.शरीर के मुकाबले १२ गुना से ज्यादा लंबी पूंछ.

यह कुछ ऐसा ही है जैसे किसी सक्षम अधिकारी का मूल वेतन अंगद के पांव की तरह स्थिर रहे पर कमाई की पूंछ धूमकेतु की तरह बढती रहे.क्या करे इसमें उसका कोई बस तो है नहीं.सामाजिक नियमों-परंपराओं का पालन करने से खुद को व दूसरों को कैसे रोक दे?वो बेचारा असहाय अपनी पूंछ को बढते देखता है-आबादी की तरह.इतने त्याग के बावजूद लोग तमाम तरह तरह से तंग करते हैं.कभी-कभी पूछ नापकर फिजूल के सवाल करते हैं.शरीर- पूंछ की तुलना करते है.कहां जायेगी दुनिया.भले आदमी का कहीं गुजारा नहीं.

हम आंख मूंद के सबके चिट्ठे पढ रहे थे.अच्छे पाठक की तरह.एक दिन हमारे प्रवासी मित्र ने हमें टोंक दिया-का परेसानी है ?कुछ लिखते काहे नहीं?.अब हमारे तो काटो तो खून नहीं.सन्न.हमारी हालत पचास साला सर्वत्र उपेक्षिता उस षोडसी सी हो गयी जिससे अचानक कोई पूंछ ले-आप कैसी हैं?इस पर उसके गाल शर्म से लाल हों जायें और वह कहे-आप बडे वैसे हैं.कही ऐसे पूछा जाता है.पर वह ससुरा दोस्त ही क्या जो सिर्फ न पूछने वाली बातें ही न पूछे.कहा भी है:-

हमारे सहन में उस तरफ से पत्थर आये
जिस तरफ मेरे दोस्तों की महफिल थी.

पहले भी हमारा भला चाहने वाले साथी ने हमें सुझाया था.कहा-आपके कमेंट बढिया हैं.पर आप अपना ब्लाग बंद कर दें तथा प्रति शब्द पैसा लेकर कमेंट सर्विस(टिप्पणी सेवा)चालू करें.हम झांसे में आते-आते रह गये.ऐन मौके पर हमने सोचा-अभी तो तुलना करने को मेरा ब्लाग है.सो इनको मेरे कमेंट बेहतर लगते हैं.ब्लाग बंद कर देने पर बताया जायेगा-आप पाठक अच्छे हैं,बशर्ते कमेंट करना बंद कर दें.हम तो कहीं के न रहेंगे(अभी भी कहां है?).लिहाजा हम लालच में फंसते-फंसते बाल-बाल बचे.

टिप्पणी का भी शाष्त्र होता है.टिप्पणी करना मतलब टिपियाना--बिना टिप्पणी का चिट्ठा चिट्ठाकार के लिये जवान लडकी की तरह बोझ सा लगता है.टिप्पणी होने पर लगता है लडकी की मांग भर गयी.पोस्टिंग को सुहाग मिल गया.जिसको जितने अधिक सुहाग मिलते हैं वह उतना अधिक चर्चित होता है-दौपद्री और एलिजाबेथ टेलर की तरह.

टिप्पणी का आम नियम है.आंख मूंद के आपका ब्लाग पढा.वाह-वाह,आह-आह लिखा.जहां तारीफ हुई नहीं कि गया लेखक काम से.तारीफ ऐसा ब्रम्हास्त्र है जिसकी मार से आज तक कोई बचा नहीं.तारीफ के बाद भाग के अपना ब्लाग पूरा किया.झक मार के आयेगा वो आपका ब्लाग पढने.खुद भले आप कतरायें,अपना लिखा पढने में.

जबसे हमने अपने चिट्ठे में काउंटर(गणक)लगाया है,तबसे हम बहुत हिसाबी हो गये हैं.जैसे किसान अपनी लहलहाती खेती देखता है वैसे हम अपने काउंटर को निहारते है.दिन में कई बार.कितने लोगों ने हमारा ब्लाग देखा यह हम बार-बार देखते हैं .जाहिर है सबसे ज्रयादा बार हम ही देखते हैं इसे.हमारे गणक में १२ अक्टूबर का ग्राफ हमें एफिल टावर की तरह लगता है.ठेलहा काउंटर में ८ अक्टूबर के पहले की खाली जगह देख के लगता है कि यहीं कहीं 'ट्रिवन टावर'रहे होंगे जो आज जमींदोज हैं.हमारा अभी तक का एक दिन सर्वाधिक हिट का आंकङा ६२ का है.पहले यह ६० था.एक दिन रात १२ बजे के कुछ पहले हमने देखा कि हमारे ब्लाग में उस दिन ६० हिट हो चुकी थीं.मामला'टाई'पर था.ऐतिहासिक क्षण से हम मात्र एक हिट दूर थे.मन किया कि दन्न से दुबारा फिर देख लूं ब्लाग.रिकार्ड खुद ही तोड लूं.क्या किसी का भरोसा करूं.पर पता नहीं क्यों हम भावुक नैतिकता के शिकार हो गये.हम ठिठक गये.लगा कि यह गलत है.वैसे मुझे बाद में लगा कि यह एहसास कुछ ऐसा ही है जैसे करोडों का घपला करने वाले किसी खुर्राट पर अचानक नैतिकता हमला कर दे और वह घर जाने से पहले सोचे कि आफिस का पेन घर ले जाना गलत है और वह पेन निकालकर वापस ड्रार में रख दे तथा सोंचे कि मैं पतन से बच गया.

हम परेशान थे कि अचानक मेरे एक मित्र का नेट पर अवतार हुआ.वो बोला -हेलो.हम बोले -पहले हमारा ब्लाग देखो तब बात करते हैं.वो बोला -ब्लाग ? ये क्या होता है? हम बोले ये सब बाद में पूंछना पहले 'फुरसतिया'ब्लाग देखो.१० मिनट हम इन्तजार किये.हिट ६० पर अटकी थी.हमारा धैर्य जवाब दे रहा था.हम 'बजर'पर 'बजर'मार रहे थे उधर से कोई जवाब नहीं.हम मोबाइल पर फोन किये उसको.पूछा -देखा?वो बोला -कहीं दिखा ही नहीं.'गूगल'सर्च में भी कोई रिजल्ट नहीं मिला.हमने सोचा-दुनिया का सारा अज्ञान लगता है मेरे मित्र के संरक्षण में है.पर वो लिक्खाङ भी क्या जो अपना लिखा दूसरे को पङा न दे?हमने अंधे को सङक पार कराने वाले अंदाज में उसको अपना ब्लाग देखने पर मजबूर किया.वो देख के बोला-इसमें लिखा क्या है? कुछ दिख नहीं रहा है.सिर्फ लाइनें हैंं.हम बोले- कोई बात नहीं छोङ दो. फिर देखना.हमारा काम हो चुका था.हमारे '६२'हिट हो चुके थे.पुराना रिकार्ड टूट चुका था.नया बन चुका था.मुझे नहीं लगता कि राजा जनक को 'शिव-धनुष'टूटने पर इतनी खुशी हुयी होगी जितनी मुझे अपने ब्लाग के हिट का पुराना रिकर्ाड टूटने पर हुयी.मुझे खुशी मिली इतनी कि मन में न समाये.

पर जब इन्दर बोले-कुछ लिखते काहे नहीं तो हम सही में अचकचा गये.भावुक हो गये.जबसे जितेन्दर भइया ने बताया कि लोग उनसे मेल लिख के तमाम ऐसी-वैसी बातें भी पूंछते हैं तबसे हमे बडी शरम आ रही थी कि हाय हमसे कोई कुछ पूंछता क्यों नहीं?मेल लिखकर अलग से पूछता तो दूर यहां खुले में भि कोई कुछ नहीं पूछता नहीं.पर जिस दिन से हमसे पूंछा गया-लिखते क्यों नहीं?तब से हमें लगा कि दुनिया में कदरदानों की कमी नहीं है.हमारा सारा हीन भाव गायब हो गया.अवस्थी ,आओगे अबकी तो तुमको चाय पिलायेंगे बनाके.

पिछले दिनों कईप्रवासियओं द्दारा प्रवासियओं के बारे में काफी कुछ लिखा गया.लिटमस टेस्ट भी आ गया .सबके फटे में टांग अङाने की पवित्र परंपरा का निर्वाह करने से मैं अपने को रोक नहीं पा रहा हूं.लिहाजा हम भी कुछ हालते-बयां करेंगे.

जब परदेश जाता है पहली बार प्रवासी तो कहता है:-

उस शहर में कोई बेल ऐसी नहीं
जो देहाती परिंदे के पर बांध ले,
जंगली आम की जानलेवा महक
जब बुलायेगी वापस चला आऊंगा.

घर वाले भी कहते है:-

चाहे जितने दूर रहो तुम
कितने ही मजबूर रहो तुम,
जब मेरी आवाज सुनोगे-
सब कुछ छोङ चले आओगे.

कुछ दिन-साल रहने के बाद की स्थिति स्व.रमानाथ अवस्थी के बताते हैं:-

आज आप हैं हम हैं लेकिन
कल कहां होंगे कह नहीं सकते.
जिन्दगी ऐसी नदी है जिसमें
देर तक साथ बह नहीं सकते.

समय की नदी में लोग मन माफिक तैर सकें यही कामना है.

मेरी पसंद

अजब सी छटपटाहट,
घुटन,कसकन ,है असह पीङा
समझ लो
साधना की अवधि पूरी है

अरे घबरा न मन
चुपचाप सहता जा
सृजन में दर्द का होना जरूरी है.

-कन्हैयालाल नंदन

Wednesday, October 06, 2004

गुडिया जो मेले में कल दुकान पर थी

जब इश्क की बात चलती है तो मुझे 'वाली असी' का शेर याद आता है:-

अगर तू इश्क में बरवाद नहीं हो सकता,
जा तुझे कोई सबक याद नहीं हो सकता.

सैकडों उदाहरण मिल जायेंगे जहां प्रेमी ने प्रेमिका की खुशी के लिये बलिदान दिये.बर्बाद हुये.उसने कहा थाके लहनासिंह की प्रेमकथा 'तेरी कुडमाई हो गयी?' के जवाब-'धत्त' में पूरी जाती है.पर इसका निर्वाह लहनासिंह अपनी कुर्बानी देते हुये प्रेमिका के पति की जान बचाकर करता है.

जयशंकर प्रसाद की कहानी 'गुंडा'के बाबू नन्हकू सिंह की बोटी-बोटी कटकर गिरती रहती है पर गंडासा तब तक चलता रहता है जब तक राजा-रानी सकुशल नहीं हो जाते.कारण- वो कभी रानी को चाहते थे(जब वो कुंवारी थीं) .शादी नहीं हो पायी पर प्रेमपरीक्षा में पास हुये-अव्वल.

प्रेम परीक्षा में पतियों का मामला काफी ढीला रहा.चाहे वो राम रहे हों या पांडव.जब उनकी पत्नी को सबसे ज्यादा उनकी जरूरत थी तब ये महान लोग धर्मपालन,नीतिगत आचरण में लगे थे.

गुडिया,आरिफ, तौफीक का मामला कोई अलग नहीं है.शरीयत इस्लाम कानून सब कुछ आरिफ के पक्षमें है.पर बहुत से लोग हैं जो मानते कि शरीयत कानून का पालन कुर्बानी से नहीं रोकता.

मशहूर शायर मुनव्वर राना का भी यही मानना है.अमर उजाला प्रकाशित एक बातचीत में उन्होने बताया है कि
अगर वो आरिफ की जगह होते तो क्या करते.बातचीत जस की तस यहां प्रस्तुत है(काश इसे आरिफ भी पडता):-

"आरिफ होने की सूरत में मैं इस्लाम का सच्चा नुमांइदा होने का सुबूत देता.इस्लाम की बुनियाद है कुर्बानी.जो कुर्बानी से पीछे हट जाये,वह मुसलमान नहीं है.गुडिया तौफीक को सौंपकर मैं इस्लाम का मान बढाता.शरीयत के सच से कोई मुसलमान इंकार नहीं कर सकता .लेकिन ,शरीयत तलाक देने से नहीं रोकती है.इस विवाद की
शुरुआत से पहले ही गुडिया को तलाक देकर दोराहे पर पहंचने वाली स्थिति से बचा लेता.अपने घर की गुडिया को बाजार में तमाशा न बनने देता .मुझे अपना बीस बरस पुराना एक शेर याद आ रहा है:-

वो एक गुडिया जो मेले में कल दुकान पर थी,
दिनों की बात है पहले मेरे मकान पर थी.

मैं अपनी जिंदगी तो नए सिरे से शुरु कर सकता था.लेकिन गुडिया आज जहां है,वहां उसे तौफीक से अलग करना मुझे कभी गवारा न होता.ऐसा करके मैंतलाक की विचारधारा पर उंगली उठाने वालों को करारा जवाब भी देता. तलाक का इस्तेमाल अपने हक में करने वाले तो लाखों मिल जायेंगे.तलाक का इस्तेमाल दूसरे के हक में करके मैं एक अनोखा उदाहरण पेश करने का अवसर कभी न गवांता .गुडिया से जुदा होने को मैं कुछ इस तरह लेता:-

बिछडते वक्त बहुत मुतमइन थे हम दोनों,
किसी ने मुड के किसी की तरफ नहीं देखा.

आरिफ के तौर पर मैं उस जिम्मेंदारी को भी निभाता कि घर की दहलीज के भीतर लिये जाने वाले फैसले को टेलीविजन के स्टूडियो तक न ले जायाजाये.मेरा इससे बडा गुनाह और क्या होता कि जो फैसला मदरसों और खानकाहों में होनाचाहिये,उसे मेरी वजह से टेलीविजन स्टूडियो में तक ले जाया जाये.इस्लाम की प्रतिनिधि संस्थाओं और प्रमुख व्यक्तियों को भी यह चाहिये था कि टेलीविजनस्टूडियो में बहस करने के बजाय सब देवबंद में मिल-जुलकर बैठते और मसले का हल ढूंढते.आज तो सबने पूरे मामले का मजाक बना दिया है.गुडिया का हाल मुस्तफा जैदी के शब्दों में कुछ इस तरह हो गया है:-

और वो नन्हीं सी मासूम सी भोली सी गुडिया,
अपने कुनबे की शराफत के लिये बिक भी गई.
जो समझती है थी कि जश्न-ए-वफा कैसा है,
जिसने लुटकर भी न पूंछा कि खुदा कैसा है.

लखनऊ में एक किस्सा चलता है.दो दोस्त आपस में हंसी-मजाक की बातें कर रहे थे.एक दोस्त दूसरे की बीबी की तारीफ करने लगा दूसरे ने कहा--क्योंकि तुझे पसंद है तो मैं तलाक दिये दे रहा हूं,तुम निकाह कर लो.जो दोस्त को पसंद आ गई ,वह मेरी नहीं रही.

इस वाकये का इस्तेमाल लखनवी तहजीब के हवाले से होता है.लेकिन मैं बतौर आरिफ ,गुडिया को भी दोस्त की हैसियत से देखते हुये,उसे उसकी पसंद-तौफीक को सौंप देता.गुडिया मेरी थी,तौफीक की है वाले सच पर ही यकीन करता.बतौर आरिफ मैं गुडिया के हिस्से से पसंद-नापसंद का अधिकार तो न ही छीनता.साहिरलुधियानवी के शब्दों में कुछ यूं कहता:-

तू मेरी जान मुझे हैरत-ओ-हसरत से न देख,
हममें कोई भी जहांनूर-जहांगीर नहीं.
तू मुझे छोड के ठुकरा के भी जा सकती है,
तेरे हाथों में हाथ है ,जंजीर नहीं."


Sunday, October 03, 2004

विकल्पहीन नहीं है दुनिया

कल गांधी जयंती थी.कुल ६१ लोगों की बलि दी गयी-नागालैंड और असम में.शान्ति और अहिंसा के पुजारी का जन्मदिन इससे बेहतर और धमाकेदार तरीके से कैसे मनाया जा सकता है?

बहुत पहले मैंने एक कार्टून देखा था.गांधीजी एक आतंकवादी को अपनी लाठी फेंककर मार रहे हैं कहते हुये--दुष्ट हिंसा करते हो.वह भी विदेशी हथियारों से!

इस अवसर पर एक किताब छपी है-'मीरा और महात्मा'.इसके लेखक ने बडी मेहनत से तथ्य जुटाके बताया है कि मीराबेन गांधीजी को एक तरफा प्यार करतीं थीं.एक बार गांधीजी के तलुओं की मालिश करते हुये मीराबेन ने
आसुओं से गांधीजी के तलुये भिगो दिये थे.इसपर गांधीजी ने मीराबेन को अपने कमरे में जाने को कहा( मीराबेन से प्यार का एक और दावा हुआ है).

मुझे लगता है कि अपने कमरे में जाके मीराबेन ने जिस तौलिये से आंसू पोछे होंगे वह ले खक के हाथ लग गया होगा.उसी को निचोड के'मीरा औरमहात्मा'लिख मारा.

गांधीजी 'सत्य केप्रयोग'में वो सब लिख चुके हैं जो आज भी सनसनीखेज लगता है.उनका तो खैर क्या कुछ बिगडेगा.विदेशी लोग जरूर सोचेंगे अपनी बिटिया ऐसे देश भेजने के पहले 55-60 साल पुरानी घटनाओं के हवाले से इज्जत उछाल दी जाये.

कोई मेरठ-मुजफ्फरपुर का जाट बाप होता तो पंचायत बुला के सरेआम फूंक देता बिटिया को----चाहे जितना मंहगा हो पेट्रोल,मिट्टी का तेल.

लोग कहते हैं कि आखिरी दिनों में गांधीजी की स्थिति उस बुजुर्ग की तरह हो गयी थी जिसके जवान लडके कहते हैं-बप्पा तुम चुपचाप रामनाम जपौ.ई दुनियादारी के चक्कर मां तबियत न खराब करौ.

अक्सर बात उठती--आज के समय गांधी की प्रासंगिकता क्या है?गांधी हर हाल में विकल्प के प्रतीक हैं.यह बात बहुत खूबसूरती से स्व.किशन पटनायक ने अपनी पुस्तक- 'विकल्पहीन नहीं है दुनिया' में कही है.

गांधीजी जन्मना महान नहीं थे.तमाम मानवीय कमजोरियों के साथ उन्होंने अपना उद्दातीकरण किया.आज स्थितियां शायद उतनी जटिल न हों कि किसी को इतनी प्रेरणा दे सकें कि वो विकल्प सुझा सके.मेरी एक कविता है:-

हीरामन,
तुम फडफडाते ही रहोगे-
बाज के चंगुल में
तुम्हें बचाने कोई
परीक्षित न आयेगा.

परीक्षित आता है
इतिहास के निमंत्रण पर
किसी की बेबसी से पसीजकर नहीं.

लगता है कि इतिहास का निमंत्रणपत्र अभी छपा नहीं.

मेरी पसंद

जहां भी खायी है ठोकर निशान छोड आये,
हम अपने दर्द का एक तर्जुमान छोड आये.

हमारी उम्र तो शायद सफर में गुजरेगी,
जमीं के इश्क में हम आसमान छोड आये.

किसी के इश्क में इतना भी तुमको होश नहीं
बला की धूप थी और सायबान छोड आये.

हमारे घर के दरो-बाम रात भर जागे,
अधूरी आप जो वो दास्तान छोड आये.

फजा में जहर हवाओं ने ऐसे घोल दिया,
कई परिन्दे तो अबके उडान छोड आये.

ख्यालों-ख्वाब की दुनिया उजड गयी 'शाहिद'
बुरा हुआ जो उन्हें बदगुमान छोड आये.

--शाहिद रजा

Tuesday, September 21, 2004

तीन सौ चौंसठ अंग्रेजी दिवस बनाम एक हिंदी दिवस

हिंदी दिवस आया -चला गया.पता ही नहीं चला.हम कुछ लिखे भी नहीं .अब चूंकि शीर्षक उडाया हुआ(ठेलुहा .कहते हैं कि यह हमारा है उनके दोस्त बताते हैं उनके पिताजी का है. जो हो बहरहाल यह हमारा नहीं है)याद आ गया इसलिये सोचता हूं कि हिंदी दिवस पर न लिखने का अपराधबोध दूर कर लूं.

हर साल सितम्बर का महीना हाहाकारी भावुकता में बीतता है.कुछ कविता पंक्तियों को तो इतनी अपावन कूरता से रगडा जाता है कि वो पानी पी-पीकर अपने रचयिताओं को कोसती होंगी.उनमें से कुछ बेचारी हैं:-

१.निज भाषा उन्नति अहै,सब उन्नति को मूल,
बिनु निज भाषाज्ञान के मिटै न हिय को सूल.

२.मानस भवन में आर्यजन जिसकी उतारें आरती,
भगवान भारतवर्ष में गूंजे हमारी भारती.

३.जिस राष्ट्र की अपनी भाषा नहीं, वह जवान रहते हुये भी गूंगा है.

४.हा,हा भारत(हिंदी) दुर्दशा न देखी जायी.

५.हिंदी भारतमाता के भाल की बिंदी है.

६.कौन कहता है आसमान में छेद नहीं हो सकता,
एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो.

कहना न होगा कि दिल के दर्द के बहाने से बात पत्थरबाजी तक पहुंचने केलियेअपराधबोध,निराशा,हीनताबोध,कर्तव्यविमुखता,गौरवस्मरण की इतनी संकरी गलियों से गुजरती है कि
असमंजस की स्थिति पैदा हो जाती है कि वास्तव में हिंन्दी की स्थिति क्या है?

ऐसे में १९६५ में लिखी रागदरबारी उपन्यास की कक्षा का निम्नवर्णन सभी भारतीय भाषाओं पर लागू होता है:-

एक लडके ने कहा,"मास्टर साहब,आपेक्षिक घनत्व किसे कहते हैं?"
वे बोले,"आपेक्षिक घनत्व माने रिलेटिव डेण्सिटी"
एक दूसरे लडके ने कहा,"अब आप देखिये ,साइंस नहीं अंग्रेजी पढा रहे हैं"
वे बोले,"साइंस साला बिना अंग्रेजी के कैसे आ सकता है?"
लडकों ने जवाब में हंसना शुरु कर दिया.हंसी का कारण ,हिंदी-अंग्रेजी की बहस नहीं ,'साला'का मुहावरेदार प्रयोग था.

हमें लगा कि हिंदी की आज की स्थिति के बारे में मास्टर साहब से बेहतर कोई नहीं बता सकता.सो लपके और गुरु को पकड लिये.उनके पास कोई काम नहीं था लिहाजा बहुत व्यस्त थे.हमने भी बिना भूमिका के सवाल दागना शुरु कर दिया.

सवाल:-हिंदी की वर्तमान स्थिति कैसी है आपकी नजर में?
जवाब:-टनाटन है.

सवाल:-किस आधार पर कहते हैं आप ऐसा?
जवाब:-कौनौ एक हो तो बतायें.कहां तक गिनायें?

सवाल:-कोई एक बता दीजिये?
जबाव:-हम सारा काम ,बुराई-भलाई छोडकर टीवी पर हिंदी सीरियल देखते हैं.घटिया से घटिया(इतने कि देखकर रोना आता है)-सिर्फ इसीलिये कि वो हिंदी में बने है.यही सीरियल अगर अंग्रेजी में दिखाया
जाये तो चैनेल बंद हो जाये.करोडों घंटे हम रोज होम कर देते हैं हिंदी के लिये.ये कम बडा आधार है हिंदी की टनाटन स्थिति का?

सवाल:-अक्सर बात उठती है कि हिंदी को अंग्रेजी से खतरा है.आपका क्या कहना है?
जवाब:-कौनौ खतरा नहीं है.हिंदी कोई बताशा है क्या जो अंग्रेजी की बारिश में घुल जायेगी?

सवाल:-हिंदी भाषा में अंग्रेजी के बढते प्रदूषण के बारे में(हिंग्लिश)के बारे आपका क्या कहना है?
जवाब:-ये रगड.-घसड.तो चलती रहती है.जिसके कल्ले में बूता होगा वो टिकेगा.जो बचेगा सो रचेगा.

सवाल:-लोग कहते हैं कि अगर कंप्यूटर के विकास की भाषा हिंदी जैसी वैज्ञानिक भाषाहोती तो वो आज के मुकाबले बीस वर्ष अधिक विकसित होता.
जवाब:-ये बात तो हम पिछले बीस साल से सुन रहे हैं.तो क्या वहां कोई सुप्रीम कोर्ट का स्टे
है हिंदी में कंप्यूटर के विकास पर?बनाओ.निकलो आगे.झुट्ठै स्यापा करने रहने क्या मिलेगा?

सवाल:-हिंदी दिवस पर आपके विचार?
जवाब:-हमें तो भइया ये खिजाब लगाकर जवान दिखने की कोशिश लगती है.शिलाजीत खाकर मर्दानगी
हासिल करने का प्रयास.जो करना हो करो ,नहीं तो किनारे हटो.अरण्यरोदन मत करो.जी घबराता है.

सवाल:-हिंदी की प्रगति के बारे में आपके सुझाव?
जवाब:-देखो भइया,जबर की बात सब सुनते है.मजबूत बनो-हर तरह से.देखो तुम्हारा रोना-गाना तक लोग नकल करेंगे.पीछे रहोगे तो रोते रहोगे-ऐसे ही.हिंदी दिवस की तरह.वो क्या कहते हैं:-

इतना ऊंचे उठो कि जितना उठा गगन है.

सवाल:-आप क्या खास करने वाले हैं इस अवसर पर?
जवाब:-हम का करेंगे?विचार करेंगे.खा-पी के थोडा चिंता करेंगे हिंदी के बारे में.चिट्ठा लिखेंगे.लिखके थक जायेंगे.फिर सो जायेंगे.और कितना त्याग किया जा सकता है--बताओ?

हम कुछ बताने की स्थिति में नहीं थे लिहाजा हम फूट लिये.आप कुछ बता सकते तो बताओ.

मेरी पसंद

जो बीच भंवर इठलाया करते ,
बांधा करते है तट पर नांव नहीं.
संघर्षों के पथ के यायावर ,
सुख का जिनके घर रहा पडाव नहीं.

जो सुमन बीहडों में वन में खिलते हैं
वो माली के मोहताज नहीं होते,
जो दीप उम्र भर जलते हैं
वो दीवाली के मोहताज नहीं होते.

Saturday, September 18, 2004

ब्लाग को ब्लाग ही रहने दो कोई नाम न दो

हम भावविभोर हैं. हमारा स्वागत हुआ.हार्दिक.हमारा कंठ अवरुद्द है.धन्यवाद तक नहीं फूटा हमारा मुंह से.सही बात तो यह कि हम अचकचा गये.देबाशीषजी . के"मध्यप्रदेश/उत्तरप्रदेश/होली की शैली/शायद-शर्तिया/शालीनता और फिर हार्दिक स्वागत "में हम अभी तक असमंजस में हैं कि क्या ग्रहण करें-क्या छोड.दें?

काश हम सूप होते और केवल सारतत्व ग्रहण कर पाते(साधू ऐसा चाहिये जैसा सूप सुभाव/ सार-सार को गहि रहै थोथा देय उडाय).

तो हम पहले भरे गले से शुक्रिया अदा करते हैं-स्वागत का.

शुरुआत मानस का सहारा लेते हुये कहूंगा---" ब्लाग विवेक एक नहिं मोरे"

पहले बात शालीनता की क्योंकि मुझे लगा कि मुखिया सबसे ज्यादा इसी के लिये चिन्तित हैं.अगर मुन्ना भाई के लहजे में कहूं तो ---"शालीनता बोले तो?"और मैं‍ कहूं तो --"ये शालीनता किस चिडिया का नाम होता है?"

शालीनताजी को तो हम नहीं खोज पाये कहीं पर पट्ठा ब्रम्हचर्य मिला एक कविता में.कविता है:-

"तस्वीर में जडे हैं ब्रम्हचर्य के नियम
उसी तस्वीर के पीछे चिडिया
अंडा दे जाती है."


वैसे भी देखें तो सबसे ज्यादा गंदगी वहीं होती है जहां ---"यहां गंदगी फैलाना मना है "का बोर्ड लगा होता है.घूस देकर काम निकलवाने वाले देखते है कि ----"घूस लेना और देना अपराध है"का बोर्ड कहां शोभायमान है.

शालीनताजी की ही शायद बडी बहन हैं- पवित्रताजी.इनके बारे में परसाईजी "पवित्रता का दौरा" में लिखते हैं:-".....पवित्रता का यह हाल है कि जब किसी मंदिर के पास शराब की दुकान हटाने की बात लोग करते हैं तब पुजारी बहुत दुखी होता है.उसे लेने के लिये दूर जाना पडेगा.यहां तो ठेकेदार भक्तिभाव में कभी-कभी मुफ्त में भी पिला देता था."

मुझे लगा आपको सिंकारा लेने का सुझाव दूं(शालीनता के बोझ का मारा इसे चाहिये हमदर्द का टानिक सिंकारा)पर फिर डर लगा कि कहीं यह अशालीन न हो जाये.बता दीजिये न क्या होती है शालीनता ताकि उसका लिहाज रख सकूं.

हिंदी ब्लाग जो अभी "किलकत कान्ह घुटुरुवन आवत"की शैशवावस्था में है को"मध्यप्रदेश-उत्तरप्रदेश"में बंटवारे की बालिग हरकतों में क्यों फंसारहे हैं?

"ब्लाग को ब्लाग ही रहने दो कोई नाम न दो"

अब एक बात कहने के लिये गंभीरता का चोला ओढना चाहता हूं.जब आप किसी नवप्रवेशी . का स्वागत (चाहे वो जितना हार्दिक करें)शालीनता का ध्यान रखने की चाहना के साथ करते है तो दो बातें तय हैं:

1.आप पहले से जुडे लोगों को बता रहे हैं कि इनसे संभल के रहना ये बडी "वैसी"बातेंकरते हैं.परिचय के साथ आलोचना का यह अंदाज उस कम्प्यूटर रिपेयर करने वाले का अंदाज हैजो कोई भी पीसी सूंघ के बता सकता है कि इसकी तो हार्डडिस्क खराब है.यह अंदाज दूसरों की अकल परभरोसा न होने का भी है.

2.नवप्रवेशी को आप बता रहे हैं कि शालीनता पर यहां पहले भी बुरी नजर डाली जा चुकी है सो कहीं प्रथम होने के लालच में कुछ न करना.वैसे जो मन आये करो.

बकिया शैली के बारे में तो हम यही कहेंगे:-

हम न हिमालय की ऊंचाई,
नहीं मील के हम पत्थर हैं
अपनी छाया के बाढे. हम,
जैसे भी हैं हम सुंदर हैं

हम तो एक किनारे भर हैं
सागर पास चला आता है.

हम जमीन पर ही रहते हैं
अंबर पास चला आता है.
--वीरेन्द्र आस्तिक

Monday, September 13, 2004

गालियों का सांस्कृतिक महत्व

"आयाहै मुझे फिर याद वो जालिम गुजरा जमाना बचपन का"हास्टल के दिन.पढाई की ऊब को निजात पाने के लिये लडके अपने-अपने कमरों से बाहर निकल कर कुछ पुरानी और कुछ नयी ईजाद की गयी मल्लाही /बहुआयामी गालियों का आदान-प्रदान करते थे.कुछ और हास्टलिये भी इस यज्ञ में अपनी आहुति देते. जब गालियां,ऊब और फेफडे की हवा चुक जाती तो दोनो गले में हाथ डाल कर ---"ये दोस्ती हम नहीं छोडेंगे" गाते हुये चाय की दुकान का रुख करते(यह अलग बात है कि उनके गाने से ज्यादा कर्णप्रिय उनकी गालियां होती थीं)

यह भूमिका इसलिये कि हमारे प्रवासीठलुहा . मित्र पीछे पडे हैं कि लालूजी-अमरसिंह वार्ता का विवरण उनको विस्तार से बताया जाये.अब इसमें बात सिर्फ इतनी है कि लालूजी बोले---अमरसिंह दलाल और लौंडियाबाज हैं. अमरसिंह जी ने सोचा कि रिटर्नगिफ्ट जरूरी है सो वो बोले--लालू यादव लौंडेबाज हैं.
अब मुझे समझ नहीं आ रहा है इतनी सी बात को कितना विस्तार दिया जाये?

बहरहाल हम एक मित्र को भेजे विस्तृत समाचार के लिये.वो एक ऐसे जीव से बतियाये जो सभी राजनीतिज्ञों का प्रतिनिधित्व करते हैं.बातचीत सवाल-जवाब के रूप में प्रस्तुत है:-

सवाल:-आजकल नेता लोग गाली-गलौज की भाषा में बातचीत करते हैं.क्या विचार है आपका इस बारे में?
जवाब:-विचार क्या है जी.यह तो जनता से जुडने की कोशिश है.जब हम जनता के नुमाइन्दे हैं तो आम जनता की भाषा नहीं बोलेंगे तो जनता हमारा बायकाट नहीं कर देगी?

सवाल:-पर गाली-गलौज की भाषा जनता की भाषा कैसे हो सकती है?
जवाब:-काहे नहीं हो सकती ?अरे भाई जो चीज जनता तुरन्त समझ ले वो उसकी भाषा.अब देखो " लौंडियाबाजी-लौंडेबाजी "किसी को समझाना पडा?आराम रहती है थोडा बात समझने-समझाने में .इसीलिये आजकल इस जनभाषा का पैकेज थोडा ज्यादा पापुलर है.

सवाल:-पर एक बात समझ में नहीं आती कि लोग नकारात्मक चरित्रों से तुलना क्यों करते हैं लोगों की?जैसे किसी को धृतराष्ट्र कह दिया,किसी को शिखंडी.ऐसा क्यो है?
जवाब:-देखिये इसके पीछे दो उद्देश्य रहते है.पहला तो कि इस बहाने हम अपनी संस्कृति से जुडे रहते हैं.अपने पौराणिक चरित्रों की याद ताजा करते हैं.दूसरी बात जो ज्यादा जरूरी है कि हम आज के महापुरुषों की तुलना पुराने नकारात्मक चरित्रों से इसलिये करते है क्योंकि हमें लगता है कि वो उतने बुरे थे नहीं जितनी बुरी उनकी छवि है.क्या आपको लगता है कि धृतराष्ट्र इतने बुरे थे जितना उनको बताया गया है?देखा जाये तो एक बाप की हैसियत से जो उन्होंने किया वो आज का हर बाप करता.तो यह एक तरह का प्रयास है पौराणिक महापरुषों को नये बेहतर नजरिये से देखने का.

सवाल:-पर आरोपों की कोई संगति तो होनी चाहिये.कुंवारे बाजपेयी जी की तुलना १०० बच्चों के बाप से करना कहां तक उचित है?मनमोहनजी जैसे व्यक्ति की तुलना शिखंडी से कैसे उचित है?
जवाब:-देखिये अब जो काम करेगा उससे कुछ गलतियां स्वाभाविक हैं.इसमें यही हो सकता हैकि जितनी जल्दी हो सके हम भूलसुधार कर लें और सही आरोप लगा कर बात आगे बढायें.जैसे देखिये मनमोहनजी के लिये हमने बेहतर उपाधि चुन
ली.उनको विदुर बता दिया.उनकी विद्धता की तारीफ भी कर दी और आरोप भी लगा दिया.उनकी भी इज्जत रह गयी,अपना भी काम हो गया.


सवाल और भी थे पर नेताजी को कहीं जाना था किसी प्रेसकान्फ्रेन्स में कुछ आरोप लगाने लिहाजा वो बिना विदा लिये चले गये.

अपने इस ब्लाग में इतना ही लिखकर कुछ अपने पसंदीदा दोहे दे रहा हूं.

मेरी पसंद

कुरुक्षेत्र में चले थे, दिव्यवाण ब्रम्हास्त्र
अब संसद से सड.क तक चलते हैं जूतास्त्र.

सभी जयद्रथ बन गये ,आज माफिया डान
चक्रव्यूह में फंस गया , पूरा हिन्दुस्तान.

जरासंध जरखोर बन ,रहे आज ललकार,
शिखण्डियों का हो गया,सत्ता पर अधिकार.

पहले शकुनी एक था , जुआबाज सरताज,
पर अब मामा हर गली , हुये लाटरीबाज.

--- डा.अरुणप्रकाश अवस्थी

Wednesday, September 08, 2004

हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै?

ब्लाग क्या है?इसपर विद्घानों में कई मत होंगे.चूंकि हम भी इस पाप
में शरीक हैं अत: जरूरी है कि बात साफ कर ली जाये.हंस के
संपादकाचार्य राजेन्द्र यादव जीकहते हैं कि ब्लाग लोगों की छपास
पीङा की तात्कालिक मुक्ति का समाधान है.खुद लिखो-छाप दो.मतलब
आत्मनिर्भरता की तरफ कदम.

हमारे ठलुहा .
मित्र फरमाते हैं कि ब्लागरोग से ग्रस्त प्राणी की स्थिति
मानसिक दस्त से ग्रस्त होती है लिहाजा इसे "मानसिक डायरिया"कहा
जा सकता है.मध्यमार्गी लोग 'डायरिया'का मतलब डायरी लिखने से
भी लगा सकते हैं.

कुछ विचारक .
ऐसी बातें तक पूंछते हैं ब्लाग में मानो कोई मास्टर साहब बच्चों से वो सवाल पूंछे जो उनको
खुद नहीं आते.


यह कालेज की मेस के दरवाजे का नोटिसबोर्ड है जिस पर
कोई भी बेवकूफी की (जिसे लिखने वाला हमेशा समझदारी की
बात समझने की गलतफहमी पालता है)बात चस्पां की जा सकती है
बिना किसी की परवाह किये-क्योंकि एक तो कोई इसे पढेगा नहीं
और अगर किसी ने पढ.। भी तो क्या कर लेगा?सिवा कमेंट करने
के जो कि ब्लाग लिखने वाले की सफलता मानी जायेगी.

ब्लाग लिखने के लती का नारा हो सकता है:-

"हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै?"

कुछ ब्लाग लिक्खाङ तो अपना रोजनामचा इस मुस्तैदी और तफसील से
लिखते है गोया कोई बैट्समैन बैंटिग करते-करते स्कोरर का काम
भी कर रहा हो.धन्य है इतनी मुस्तैदी .

अगर ब्लागर के परिवारीजन इस कुटेव से दूर रहते हैं तो ब्लागर के
इस शौक से त्रस्त रहना उनकी नियति होती है.

इस कुटेव के बारे में मेरे पुत्र का कहना है:-"आजकल पापा को ब्लागिंग
का भूत सवार है.घर का पीसी बूढा हो चला है इसलिये वो देर तक आफिस
में बैठते हैं जो कि मम्मी को पसन्द नहीं है.मुझे लगता है कि पापा को
नया पीसी ले लेना चाहिये (ताकि मुझे भी मजा आये) और घर में ही ब्लाग
लिखना चाहिये.अगर ऐसा न हुआ तो गरज के साथ छींटे पङने की आशंका है."

बहरहाल आज तो सूरज अस्त-मजूर मस्त.

आप बतायें क्या राय है आपकी इसबारे में.

Saturday, September 04, 2004

नहीं जीतते- क्या कर लोगे?

कल लखनऊ में कानून और व्यवस्था का भरत मिलाप हो गया.
काफी खून बह गया.पुलिस खुश कि गोली नहीं चली.बेचारा जो
दरोगा समझाने की कोशिश में था वो पहले पिटा फिरनिलम्बित.
काम का तुरन्त ईनाम.आपसी मेलजोल बनाये रखने के लिये इस
तरह के सम्बंध कितने जरूरी हो गये है यह इस बात से भी
पता चलता है कि पहले आप-पहले आप वाला शहर भावुकता
त्यागकर पहले हम(पीटेंगे)-पहले हम(पीटेंगे) की क्रान्तिकारी
मुद्रा अपना लेता है.

कल इधर वकील-पुलिस पिटा-पिटौव्वल खेल रहे थे वहीं उधर
भारतीय क्रिकेट टीम अकेले पिट रही थी----ये दिल मांगे मोर
(पिटाई) कहते हुये.

अगर कोई पूंछता तो शायद वो कहते ---नहीं जीतते क्या कर
लोगे?वास्तव में भारतीय "वसुधैव कुटुम्बकम् "की भावना से
इतना भीगे रहते है कि दूसरे की जीत भी अपनी लगती है.ऐसी
उदात्त भावना के सामने जीत जैसी भौतिक चीज इतनी तुच्छ लगती
कि उसके बारे में सोचने में ही अपराधबोध लगता है.

ईश्वर हमें इतना ही महान बनाये रखे.

Friday, August 27, 2004

फुरसतिया बनाम फोकटिया

जब मैनें देखादेखी ब्लाग बनाने की बात सोची तो सवाल उठा नाम का.सोचा

फुरसत से तय किया जायेगा.इसी से नाम हुआ फुरसतिया.अब जब नाम हो

गया तो पूछा गया भाई फुरसतिया की जगह फोकटिया काहे नही रखा नाम.

हम क्या बतायें?अक्सर ऐसा होता है कि काम करने के बाद बहाना तलाशा

जाता है.यहाँ भीयही हुआ.तो बहाना यह है कि ब्लाग फुरसत में तो बन

सकता है पर फोकट में नहीं.इसलिये नाम को लेकर हम निशाखातिर हो गये.

अब बची बात काम की.तो वो भी शुरुहुआ ही समझा जाये.आगे के अंकों में

और बात आगे बढाई जायेगी.फिलहाल मेरे हालिया पसंदीदा शेर से बात

खतम करता हूं:-

१.मैं कतरा सही मेरा अलग वजूद तो है,
हुआ करे जो समंदर मेरी तलाश मे है.

२.मुमकिन है मेरी आवाज दबा दी जाये
मेरा लहजा कभी फरियाद नहीं हो सकता.

फिलहाल इतना ही .जल्दी ही बात आगे बढेगी.



Friday, August 20, 2004

अब कबतक ई होगा ई कौन जानता है