http://web.archive.org/web/20110925231944/http://hindini.com/fursatiya/archives/41
मैं पहले भी बता चुका हूं कि हमारे एक दक्षिण भारतीय मित्र थे जो कि छोटी-छोटी कवितायें बार-बार
लगातार सुनाते रहते ।वे यथासंभव माइक घेरे रहते जैसे कुछ दिनों पहले तक
जीतेन्द्र के फोटो वाले लेख चिट्ठाविश्व को घेरे रहते थे । उनकी पसंदीदा
कविता थी-
मेढक ने पानी में कूदा,
छ्पाऽऽऽक।
वे छपाक कहने के पहले इतनी बार मेढक को पानी में कुदाते कि उसको शायद जुकाम हो गया होगा तथा सुनने वाले सोचते कि वे लोग ही कूद् जायें। जब पानी सर से
ऊपर गुजर गया तो जनहित याचिका जैसा कुछ दायर करने की सोची गयी। लोहे को लोहे से काटा जाता है की तर्ज पर तय किया गया कि मेढक का जवाब मेढक ही दे सकता है । सो कविता के जवाब में प्रतिकविता लिखी गयी। जितनी मुझे याद है वो कुछ यों थी:-
मेढक ने पानी में कूदा,
छ्पाऽऽऽक!
उसकी वाइफ ने डांटा-ये क्या करता है आप?
ऐसे कूदेगा तो पकड़ लेगा कोई सांप
मजे ले-लेकर खायेगा ,चबा जायेगा
तू तो चला जायेगा बच्चा लोग हो जायेगा-बेबाप.
जिंदगी नरक हो जायेगा उनका बिना किये कोई पाप.
सब बच्चा सोंचेगा ये क्या कर गया मेरा बाप ?
मेढक बोला ,समझ गया क्या कहना चाहती हैं आप
पर तुम्ही बताऒ फिर मैं पानी में कैसे कूदूं-छ्पाऽऽऽक!
मेढकी बोली-क्या डाक्टर ने बताया कि पानी में कूदो-छ्पाऽऽऽक!
कूदो जरूर पानी में पर कूदो शान्ति से ,चुपचाप
मैं तो कहती हूं कूदो क्यों? उतरो पानी में आहिस्ते से आप
खुद मौज से जियो बना रहे मेरा भी सुहाग,बच्चों का बाप!
मेढक समझ गया बोला-तुम ठीक कहती हो मेरी प्यारी,
अब मैं अपने को बदलूंगा-पानी में उतरूंगा चुपचाप
जिंदगी के पूरे मजे लूंगा कोई कह भी न पायेगा
मेढक ने पानी में कूदा -छ्पाऽऽऽक !
इस प्रतिकविता से मेढक का पानी में कूदना बंद हो गया।
इस तरह् की तुकबंदियों का अलग मजा है । एक बार जब मैं बीएचयू में उच्च शिक्षारत था तो हमारे एक मित्र यादवजी को भी मन किया कि वे भी कविता का आनंद लें। उन्होंने मुझसे कहा-शुक्लाजी,आप मुझे कोई अपनी मनपसंद कविता सुनाओ मैं उसे याद करूंगा । मैंने उनको अपनी पसंदीदा कविनंदनजी की कविता सुनाई:-
अजब सी छटपटाहट,
घुटन,कसकन,
है असह पीडा़
समझ लो साधना की अवधि पूरी है,
अरे,घबरा न मन-चुपचाप सहता जा
सृजन में दर्द का होना जरूरी है।
यादवजी ने कविता पसंद की ।तारीफ की। लिख ली। बोले -मैं दो दिन बाद आपको यह कविता याद करके सुनाऊंगा।
दो दिन बाद जब यादवजी मिले तो बहुत उत्साहित थे । चहकते हुये बोले -शुक्लाजी ,मैंने कविता याद कर ली । सुनाऊं? मेरे हां कहने से पहले ही वो शुरु हो गये थे ।
कविता जो सुनाई उन्होंने वो ये थी:-
अजब सी छटपटाहट,
घुटन,कसकन,
है असह पीडा़
समझ लो साधना की अवधि पूरी है,
अरे,घबरा न मन चुपचाप सहता जा
सूजन में दर्द का होना जरूरी है।
यादवजी ने सृजन को सूजन कर दिया था।शायद कविता सच के ज्यादा नजदीक आ गयी थी। सृजनमें दर्द हो या न हो लेकिन सूजन के दर्द से कोई इन्कार नहीं कर सकता।
ऐसे एक वाकिये के बारे में इन्द्र अवस्थी के मामाजी ने बताया । बुद्धिनाथ मिश्र की बहुत प्रसिद्ध कविता है:-
एक बार और जाल फेंक रे मछेरे
जाने किस मछली में बंधन की चाह हो !
एक दिन कवियों का जमावडा़ लगा था उनके घर । किसी चाचा कवि ने भतीजे से कहा -बेटा जरा जूते में पालिश कर दो । इसी पर कविता पैरोडी बन गई:-
एक बार और ब्रश मार रे भतीजे ,
जाने किस जूते में पालिस की चाह हो!
कोई पैरोडी याद आ रही है आपको भी क्या ?
मेढक ने पानी में कूदा,
छ्पाऽऽऽक।
वे छपाक कहने के पहले इतनी बार मेढक को पानी में कुदाते कि उसको शायद जुकाम हो गया होगा तथा सुनने वाले सोचते कि वे लोग ही कूद् जायें। जब पानी सर से
ऊपर गुजर गया तो जनहित याचिका जैसा कुछ दायर करने की सोची गयी। लोहे को लोहे से काटा जाता है की तर्ज पर तय किया गया कि मेढक का जवाब मेढक ही दे सकता है । सो कविता के जवाब में प्रतिकविता लिखी गयी। जितनी मुझे याद है वो कुछ यों थी:-
मेढक ने पानी में कूदा,
छ्पाऽऽऽक!
उसकी वाइफ ने डांटा-ये क्या करता है आप?
ऐसे कूदेगा तो पकड़ लेगा कोई सांप
मजे ले-लेकर खायेगा ,चबा जायेगा
तू तो चला जायेगा बच्चा लोग हो जायेगा-बेबाप.
जिंदगी नरक हो जायेगा उनका बिना किये कोई पाप.
सब बच्चा सोंचेगा ये क्या कर गया मेरा बाप ?
मेढक बोला ,समझ गया क्या कहना चाहती हैं आप
पर तुम्ही बताऒ फिर मैं पानी में कैसे कूदूं-छ्पाऽऽऽक!
मेढकी बोली-क्या डाक्टर ने बताया कि पानी में कूदो-छ्पाऽऽऽक!
कूदो जरूर पानी में पर कूदो शान्ति से ,चुपचाप
मैं तो कहती हूं कूदो क्यों? उतरो पानी में आहिस्ते से आप
खुद मौज से जियो बना रहे मेरा भी सुहाग,बच्चों का बाप!
मेढक समझ गया बोला-तुम ठीक कहती हो मेरी प्यारी,
अब मैं अपने को बदलूंगा-पानी में उतरूंगा चुपचाप
जिंदगी के पूरे मजे लूंगा कोई कह भी न पायेगा
मेढक ने पानी में कूदा -छ्पाऽऽऽक !
इस प्रतिकविता से मेढक का पानी में कूदना बंद हो गया।
इस तरह् की तुकबंदियों का अलग मजा है । एक बार जब मैं बीएचयू में उच्च शिक्षारत था तो हमारे एक मित्र यादवजी को भी मन किया कि वे भी कविता का आनंद लें। उन्होंने मुझसे कहा-शुक्लाजी,आप मुझे कोई अपनी मनपसंद कविता सुनाओ मैं उसे याद करूंगा । मैंने उनको अपनी पसंदीदा कविनंदनजी की कविता सुनाई:-
अजब सी छटपटाहट,
घुटन,कसकन,
है असह पीडा़
समझ लो साधना की अवधि पूरी है,
अरे,घबरा न मन-चुपचाप सहता जा
सृजन में दर्द का होना जरूरी है।
यादवजी ने कविता पसंद की ।तारीफ की। लिख ली। बोले -मैं दो दिन बाद आपको यह कविता याद करके सुनाऊंगा।
दो दिन बाद जब यादवजी मिले तो बहुत उत्साहित थे । चहकते हुये बोले -शुक्लाजी ,मैंने कविता याद कर ली । सुनाऊं? मेरे हां कहने से पहले ही वो शुरु हो गये थे ।
कविता जो सुनाई उन्होंने वो ये थी:-
अजब सी छटपटाहट,
घुटन,कसकन,
है असह पीडा़
समझ लो साधना की अवधि पूरी है,
अरे,घबरा न मन चुपचाप सहता जा
सूजन में दर्द का होना जरूरी है।
यादवजी ने सृजन को सूजन कर दिया था।शायद कविता सच के ज्यादा नजदीक आ गयी थी। सृजनमें दर्द हो या न हो लेकिन सूजन के दर्द से कोई इन्कार नहीं कर सकता।
ऐसे एक वाकिये के बारे में इन्द्र अवस्थी के मामाजी ने बताया । बुद्धिनाथ मिश्र की बहुत प्रसिद्ध कविता है:-
एक बार और जाल फेंक रे मछेरे
जाने किस मछली में बंधन की चाह हो !
एक दिन कवियों का जमावडा़ लगा था उनके घर । किसी चाचा कवि ने भतीजे से कहा -बेटा जरा जूते में पालिश कर दो । इसी पर कविता पैरोडी बन गई:-
एक बार और ब्रश मार रे भतीजे ,
जाने किस जूते में पालिस की चाह हो!
कोई पैरोडी याद आ रही है आपको भी क्या ?
Posted in बस यूं ही | 4 Responses
एक शे’र था –
न गिला करता हूँ, न शिकवा करता हूँ
तुम सलामत रहो ये दुआ करता हूँ
एक बंगाली महाशय इसे यूँ कहते थे –
न गीला कोरता है, न सूखा कोरता है
तुम साला मत रहो, यही दुआ कोरता है
आंटी से क्षमायाचना के साथ (वैसे वो कम्प्यूटर इस्तेमाल नहीं करतीं)
(बिंदियाँ छोडती नहीं पीछा क्या करूँ )
an old pond
a frog jumps in
the sound of water
सार यह कि मेढक को पानी में कूदने दीजिये,कला का सृजन होता रहेगा
प्रत्यक्षा