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वो तुम्हारे जैसा ही था-दुबला ,पतला.भयंकर जाडे़ में भी हाफ स्वेटर पहन
के आता संगीत टाकीज के पास से पैदल.किताबें यहां लाइब्रेरी से मिलीं थीं.घर
में कोई पढा़ने वाला नहीं .पिता गरीब थे.वह छोटे बच्चों को ट्यूशन पढा़ता
था खर्चे का जुगाड़ करने के लिये.रात को पढने बैठता सबेरे तक पढ़ता.कभी समय
बरबाद नहीं करता था…
गुरुजी जब यह वर्णन कर रहे होते तो हमारी निगाहें उनके दिव्य प्रकाश बिखेरते चेहरे से चिपक जाती तथा हम ‘उस लड़के’ से धीरे-धीरे,अनायास जुड़ते चले जाते.हमारी उत्सुकता ‘आगे क्या हुआ’जानने के लिये बढ़ती जाती.जब हमारी उत्सुकता चरम पर पहुंचती तो गुरुजी बहुत धीमी आवाज में लगभग झटके से कहते:- और… वो टाप कर गया.आज वो अमेरिका की (फलानी)यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर है.
गुरुजी जब यह बता रहे होते तो उनकी वाणी में न जाने कहां का सम्मोहन आ जाता कि हम मुंह बाये उनकी बात सुनते रहते.जिस लड़के के बारे में वह बता रहे होते थी वह आशुतोष,दीपक,सुधाकर,सियाराम या और कोई भी हो सकता था.अमेरिका में प्रोफेसर की जगह वह कहीं चीफ सेक्रेटरी,चीफ इंजीनियर या अन्य किसी जगह पर हो सकता था जो दुनिया के लिहाज से सफल माना जाता था उन दिनों.
जब गुरुजी ‘उस लड़के’ के बारे में बता चुकते तो हम सबको मुस्कराते हुये देखते गोया चुनौती दे रहे हों कि ‘उसने’ इतना कर लिया तुम कर सकते हो ऐसा? सच तो यह है कि हमें लगता कि वे हमसे कह रहे हैं कि जब वह कर सकता है तो तुम क्यों नहीं कर सकते?तुम भी कर सकते हो.तुम्हारे अंदर क्षमता है करने की .बस जरूरत है मेहनत तथा लगन की.हम उत्साह से लबालब भर जाते. हमें लगता दुनिया में क्या ऐसा है जो हम कर नहीं सकते.हम भले हनुमान न बन पाये लेकिन गुरुजी हम जैसे हजारों बच्चों के लिये जामवन्त बनने के सदैव तत्पर रहे.
गुरुजी हमें अंग्रेजी पढा़ते थे.उन दिनों कम्पटीशन का दौर शुरु हो चुका था.बच्चे पी.सी.एम.(फिजिक्स,केमेस्ट्री,मैथ्स)के अलावा बाकी विषय केवल पास होने के लिये पढ़ना चाहते.लेकिन हमारे हिंदी के अध्यापक के पढा़ने के अंदाज तथा हमारे गुरुजी के सम्मोहन से बचना बहुत मुश्किल काम था.गुरुजी छात्रों को पढा़ने के साथ-साथ यू.पी.बोर्ड में टाप करने के किस्से सुनाते रहते.सब बच्चे सोचते यह हमारे लिये ही कहा जा रहा है.कच्ची उमर के बच्चे संभावित सफलता के नशे में सनसनाने लगते.हम भी इस सनसनाहट का शिकार हुये.
दिसम्बर का महीना खतम होने वाला था.मार्च से यू.पी.बोर्ड की परीक्षायें शुरु होने वालीं थीं.हम सोच रहे थे कि अंग्रेजी में पास होने में बहुत मेहनत करनी पडे़गी.अंग्रेजी इंटर में काफी कठिन होती थी उन दिनों .हमारे लिये तो और बवाल जिसने ए.बी.सी.डी. कक्षा ६ में सीखी थी.एक दिन बाजपेयी सर ने हम कुछ बच्चों को बुलाया.बोले-तुम लोगों के पी.सी.एम.में अच्छे नम्बर आते है.अंग्रेजी में सुधार हो सकता है .मेरे पास आया करो .मैं तुम लोगों को लिखने के लिये दूंगा .तुम लोग लिखकर लाया करो . मैं जांच दिया करूंगा.एक महीने में तुम लोग अच्छा करने लगोगे.
शुरुआत हो गयी.गुरुजी बताते ,हम लिखते.वो जांचते.दुबारा,तिबारा लिखके लाते.कभी-कभी देखते के हम निराश तो नहीं हो रहे हैं बार-बार लिख के लाने से.उनकी मुस्कान हमारी सारी थकान हर लेती.उत्साहित करने वाले उदाहरण सुनाते तो लगता कि टाप करना इतना सरल है कि जैसे हमें इतना तो करना ही है.होते-होते दो माह में इतना आत्मविश्वास से लबालब भर गये कि लगता कि बस समय की बात है.मेरिट में नाम तो आना ही है.
इस बीच गुरुजी ने बताया कि कैसे तैयारी की जाये.कैसे पेपर हल लिये जायें.कैसे आत्मपरीक्षण किये जायें.होने यह लगा कि हम रोज नियम से घडी़ देखकर हर विषय के पूरे तीन घंटे बैठ के पर्चा हल करते.खुद कापी जांचते और जैसे नंबर आते वैसी पोजीशन अपने लिये तय कर लेते.कम नंबर आने पर लगता फेल हो गये.
हममें से कोई भी लड़का ट्यूशन नहीं पढ़्ता था .सो प्रैक्टिकल में नंबर कम न हो जायें उसके लिये गुरुजी ने साइंस के अध्यापकों से कहा. जो कुछ उनसे बन पढ़ता था वो हमारे लिये करते थे- निस्वार्थ.हमारा आत्मविश्वास तथा तैयारी अंगरेजी में उन्होंने ऐसी करा दी कि हमने अंगरेजी के पेपर वाले दिन कुछ नहीं पढा़.
यह संयोग रहा कि उनके विश्वास की रक्षा हुई.जिन बच्चों को वे पढा़ते थे उनमें से तीन की पहली दस में पोजीशन आयी.मुझे अभी भी याद है कि जब रिजल्ट निकला तो मैं लगभग भागते हुये उनके घर पहुंचा.सारे जीने उछलते हुये चढ़ गया .उन्होनें देखते ही मुझे सीने से चिपटा लिया.बहुत देर बाद वही सम्मोहनी मुस्कान बिखेरते हुयी बोले-देखो मैं कहता था न कि तुम लोग कर लोगे.हो गया न!
हम लोग चले गये पढ़ने आगे.गुरुजी के ‘उन’ लड़कों में मुनीश, सुनील, अनूप के नाम भी जुड़ गये थे.
गुरुजी हम लोगों को अपना मानस पुत्र मानते थे.हमारे जैसे सैकडो़ मानस-पुत्र थे उनके.लेकिन उन जैसा मानस पिता हमने दूसरा नहीं पाया.
मैंने तमाम चीजें सीखीं उनसे उन कुछ महीनों में तथा बाद के कई सालों में .वे किसी को जब कुछ बताते थे तो उसे यह अहसास कभी नहीं होने देते थे कि उसमें कोई कमी है.कहते थे -तुमको आता है,कर लोगो.कमतरी का अहसास कभी नहीं कराते थे किसी को.कभी नहीं कहते थे कि मैने पढा़या तो वो ऐसा हो गया.हमेशा श्रेय छात्रोंको ही देते रहे.मानते थे- बच्चे तो हीरे हैं .हमें तो बस जरा सा पालिस करनी है.
उनकी सिखाई गयी अग्रेजी के कसौटी पर मैं सैकडों अंग्रेजीदां लोगों को फेल कर चुका हूं.though/although के बाद बहुतों धाकड़ लोगों को मैं but लगाते पकड़ चुका हूं.बहुत से कन्वेंटियों को can और not अलग-अलग लिखते पाया है.
मेरे बाद के जीवन पर भी मेरे गुरुजी का बहुत प्रभाव रहा.अपनी शादी के निर्णय के बारे में जब मैंने बताया तो गुरुजी ने तुरंत कहा -यस,कर लो.सब ठीक हो जायेगा.
बाद में सब ठीक ही हुआ.
गुरुजी मु्झे ताजिन्दगी बच्चा ही मानते रहे.सारी बातें ‘शेयर’करने के बाद अचानक उनको लगता कि देर हो गयी तो झटके से कहते-रात हो गयी है .संभाल के जाना. स्कूटर धीरे चलाना.अचानक मैं बराबरी के स्तर से बच्चे के स्तर पर आ जाता .
अंतिम बार जब मैनें देखा था तब वो अस्पताल में थे.सांस की तकलीफ थी.देखा तो खुश हो गये.बोले-तुमको देखकर बहुत खुशी हुई.ठीक हो रहा हूं.जल्दी ही ठीक हो जाऊंगा.बहू कैसी है?बच्चों की पढा़ई कैसी चल रही है? अचानक बोले -अच्छा तुम जाओ .रात हो रही है.धीरे-धीरे जाना.
मैं चला आया .कुछ दिन बाद वे चले गये.मैं उनको अंतिम समय देख नहीं पाया.अच्छा ही रहा.मैं जब भी उनके बारे में याद करता हूं तो मेरे सामने उनका रोशनी की मीनार सा चमकता चेहरा ही दिखता है.अभी भी मुझे लगता है कि कहीं दिख जायेंगे और कहेंगे-तुम यह कर सकते हो.
मैंने दुनिया में बहुतों को खोया,मरते देखा .कभी बहुत दिनों तक उनकी याद ने सताया भले हो लेकिन मैं भावुक कभी नहीं हुआ.लेकिन बाजपेयीजी के साथ की यादें तथा उनकी अनुपस्थिति का अहसास मुझे हमेशा भावुक कर देता है.आज इस समय अगर मुझसे कोई पूछे कि मेरे लिये सबसे कठिन काम क्या है तो वह् होगा इस लिखे हुये को बोलकर पढना.मैं शायद न पढ़ पाऊं पूरा बोलकर.
कभी-कभी टीस सी उठती है कि मैं उन गुरुजी के लिये कुछ कर न सका जिंन्होंने मेरे जीवन निर्धारण में मुख्य भूमिका निभाई.यह ‘गुरुऋण रहा सोच बड़ जी के’ का भाव ज्यादा देर तक ठहर नहीं पाता.मुझे लगता है कि गुरुऋण से उऋण हुआ ही नहीं जा सकता है.गुरु-शिष्य संबंध वो नान-रिटर्न वाल्व है जिससे पानी केवल एक ही तरफ बह सकता है.शिष्य केवल यह कर सकता है कि वह अपनी पात्रता को साबित करता रहे.
लोग कह सकते हैं कि आज ऐसे गुरु कहां मिलते हैं? मैं विनम्रता पूर्वक इससे असहमत होना चाहता हूं.आज भी सैकडों-हजारों गुरु होंगे जो अपने लाखों मानस-पुत्रों के चेहरों पर निगाह गडा़ये सम्मोहनी मुस्कराहट बिखेरते हुये कह रहे होंगे-तुम्हारे जैसा ही लड़का था जिसने ये किया था तुम भी यह कर सकते हो.
गुरुजी जब यह वर्णन कर रहे होते तो हमारी निगाहें उनके दिव्य प्रकाश बिखेरते चेहरे से चिपक जाती तथा हम ‘उस लड़के’ से धीरे-धीरे,अनायास जुड़ते चले जाते.हमारी उत्सुकता ‘आगे क्या हुआ’जानने के लिये बढ़ती जाती.जब हमारी उत्सुकता चरम पर पहुंचती तो गुरुजी बहुत धीमी आवाज में लगभग झटके से कहते:- और… वो टाप कर गया.आज वो अमेरिका की (फलानी)यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर है.
गुरुजी जब यह बता रहे होते तो उनकी वाणी में न जाने कहां का सम्मोहन आ जाता कि हम मुंह बाये उनकी बात सुनते रहते.जिस लड़के के बारे में वह बता रहे होते थी वह आशुतोष,दीपक,सुधाकर,सियाराम या और कोई भी हो सकता था.अमेरिका में प्रोफेसर की जगह वह कहीं चीफ सेक्रेटरी,चीफ इंजीनियर या अन्य किसी जगह पर हो सकता था जो दुनिया के लिहाज से सफल माना जाता था उन दिनों.
जब गुरुजी ‘उस लड़के’ के बारे में बता चुकते तो हम सबको मुस्कराते हुये देखते गोया चुनौती दे रहे हों कि ‘उसने’ इतना कर लिया तुम कर सकते हो ऐसा? सच तो यह है कि हमें लगता कि वे हमसे कह रहे हैं कि जब वह कर सकता है तो तुम क्यों नहीं कर सकते?तुम भी कर सकते हो.तुम्हारे अंदर क्षमता है करने की .बस जरूरत है मेहनत तथा लगन की.हम उत्साह से लबालब भर जाते. हमें लगता दुनिया में क्या ऐसा है जो हम कर नहीं सकते.हम भले हनुमान न बन पाये लेकिन गुरुजी हम जैसे हजारों बच्चों के लिये जामवन्त बनने के सदैव तत्पर रहे.
हम भले हनुमान न बन पाये लेकिन गुरुजी हम जैसे हजारों बच्चों के लिये जामवन्त बनने के सदैव तत्पर रहे.
कानपुर में जो लोग पढे़ हैं वे जानते होंगे कि आज से पचीस-तीस साल पहले
बी.एन.एस.डी.इंटर कालेज का एफ.वन.सेक्सन मशहूर था.जिन बच्चों के हाईस्कूल
में ७५% नंबर आते उन्हीं को उसमें दाखिला मिलता.लड़के अच्छे रहते तो
परिणाम भी अच्छा होना लाजिमी था.लगभग सारे लड़के इंटरमीडियट करने के एकाध
साल में कहीं न कहीं किसी न किसी प्रोफेशनल कालेज में चले जाते.आज भी मैं
याद करता हूं तो पाता हूं कि जितने अच्छे अध्यापक मुझे उन दो वर्षों में
मिले उतने अच्छे सब मिला कर भी न बाद में मिले न पहले.हमारे गुरुजी ,यानि
एस.के.बाजपेयी यानि सुशील कुमार बाजपेयी जिन्हें हम ‘बाजपेयी सर’ कहते थे
,उनमें से एक थे.गुरुजी हमें अंग्रेजी पढा़ते थे.उन दिनों कम्पटीशन का दौर शुरु हो चुका था.बच्चे पी.सी.एम.(फिजिक्स,केमेस्ट्री,मैथ्स)के अलावा बाकी विषय केवल पास होने के लिये पढ़ना चाहते.लेकिन हमारे हिंदी के अध्यापक के पढा़ने के अंदाज तथा हमारे गुरुजी के सम्मोहन से बचना बहुत मुश्किल काम था.गुरुजी छात्रों को पढा़ने के साथ-साथ यू.पी.बोर्ड में टाप करने के किस्से सुनाते रहते.सब बच्चे सोचते यह हमारे लिये ही कहा जा रहा है.कच्ची उमर के बच्चे संभावित सफलता के नशे में सनसनाने लगते.हम भी इस सनसनाहट का शिकार हुये.
दिसम्बर का महीना खतम होने वाला था.मार्च से यू.पी.बोर्ड की परीक्षायें शुरु होने वालीं थीं.हम सोच रहे थे कि अंग्रेजी में पास होने में बहुत मेहनत करनी पडे़गी.अंग्रेजी इंटर में काफी कठिन होती थी उन दिनों .हमारे लिये तो और बवाल जिसने ए.बी.सी.डी. कक्षा ६ में सीखी थी.एक दिन बाजपेयी सर ने हम कुछ बच्चों को बुलाया.बोले-तुम लोगों के पी.सी.एम.में अच्छे नम्बर आते है.अंग्रेजी में सुधार हो सकता है .मेरे पास आया करो .मैं तुम लोगों को लिखने के लिये दूंगा .तुम लोग लिखकर लाया करो . मैं जांच दिया करूंगा.एक महीने में तुम लोग अच्छा करने लगोगे.
शुरुआत हो गयी.गुरुजी बताते ,हम लिखते.वो जांचते.दुबारा,तिबारा लिखके लाते.कभी-कभी देखते के हम निराश तो नहीं हो रहे हैं बार-बार लिख के लाने से.उनकी मुस्कान हमारी सारी थकान हर लेती.उत्साहित करने वाले उदाहरण सुनाते तो लगता कि टाप करना इतना सरल है कि जैसे हमें इतना तो करना ही है.होते-होते दो माह में इतना आत्मविश्वास से लबालब भर गये कि लगता कि बस समय की बात है.मेरिट में नाम तो आना ही है.
इस बीच गुरुजी ने बताया कि कैसे तैयारी की जाये.कैसे पेपर हल लिये जायें.कैसे आत्मपरीक्षण किये जायें.होने यह लगा कि हम रोज नियम से घडी़ देखकर हर विषय के पूरे तीन घंटे बैठ के पर्चा हल करते.खुद कापी जांचते और जैसे नंबर आते वैसी पोजीशन अपने लिये तय कर लेते.कम नंबर आने पर लगता फेल हो गये.
हममें से कोई भी लड़का ट्यूशन नहीं पढ़्ता था .सो प्रैक्टिकल में नंबर कम न हो जायें उसके लिये गुरुजी ने साइंस के अध्यापकों से कहा. जो कुछ उनसे बन पढ़ता था वो हमारे लिये करते थे- निस्वार्थ.हमारा आत्मविश्वास तथा तैयारी अंगरेजी में उन्होंने ऐसी करा दी कि हमने अंगरेजी के पेपर वाले दिन कुछ नहीं पढा़.
यह संयोग रहा कि उनके विश्वास की रक्षा हुई.जिन बच्चों को वे पढा़ते थे उनमें से तीन की पहली दस में पोजीशन आयी.मुझे अभी भी याद है कि जब रिजल्ट निकला तो मैं लगभग भागते हुये उनके घर पहुंचा.सारे जीने उछलते हुये चढ़ गया .उन्होनें देखते ही मुझे सीने से चिपटा लिया.बहुत देर बाद वही सम्मोहनी मुस्कान बिखेरते हुयी बोले-देखो मैं कहता था न कि तुम लोग कर लोगे.हो गया न!
हम लोग चले गये पढ़ने आगे.गुरुजी के ‘उन’ लड़कों में मुनीश, सुनील, अनूप के नाम भी जुड़ गये थे.
गुरुजी हम लोगों को अपना मानस पुत्र मानते थे.हमारे जैसे सैकडो़ मानस-पुत्र थे उनके.लेकिन उन जैसा मानस पिता हमने दूसरा नहीं पाया.
गुरुजी हम लोगों को अपना मानस पुत्र मानते थे.हमारे जैसे सैकडो़ मानस-पुत्र थे उनके.लेकिन उन जैसा मानस पिता हमने दूसरा नहीं पाया.
आज जब मैं सोचता हूं तो पाता हूं आज मैं जो भी हूं जितना भी धनात्मक है
मेरे अन्दर उसका बहुत हद तक श्रेय हमारे गुरुजी को है.मेहनत और लगन पर
अगाध विश्वास है मुझे. किसी भी किसिम की कुंठा, हीनभावना, असुरक्षा के
अहसास से मैं (अपनी समझ में) मुक्त रहता हूं तो उसके पीछे हमारे गुरुजी
द्वारा भरे आत्मविश्वास का हाथ है.मैंने तमाम चीजें सीखीं उनसे उन कुछ महीनों में तथा बाद के कई सालों में .वे किसी को जब कुछ बताते थे तो उसे यह अहसास कभी नहीं होने देते थे कि उसमें कोई कमी है.कहते थे -तुमको आता है,कर लोगो.कमतरी का अहसास कभी नहीं कराते थे किसी को.कभी नहीं कहते थे कि मैने पढा़या तो वो ऐसा हो गया.हमेशा श्रेय छात्रोंको ही देते रहे.मानते थे- बच्चे तो हीरे हैं .हमें तो बस जरा सा पालिस करनी है.
उनकी सिखाई गयी अग्रेजी के कसौटी पर मैं सैकडों अंग्रेजीदां लोगों को फेल कर चुका हूं.though/although के बाद बहुतों धाकड़ लोगों को मैं but लगाते पकड़ चुका हूं.बहुत से कन्वेंटियों को can और not अलग-अलग लिखते पाया है.
मेरे बाद के जीवन पर भी मेरे गुरुजी का बहुत प्रभाव रहा.अपनी शादी के निर्णय के बारे में जब मैंने बताया तो गुरुजी ने तुरंत कहा -यस,कर लो.सब ठीक हो जायेगा.
बाद में सब ठीक ही हुआ.
गुरुजी मु्झे ताजिन्दगी बच्चा ही मानते रहे.सारी बातें ‘शेयर’करने के बाद अचानक उनको लगता कि देर हो गयी तो झटके से कहते-रात हो गयी है .संभाल के जाना. स्कूटर धीरे चलाना.अचानक मैं बराबरी के स्तर से बच्चे के स्तर पर आ जाता .
अंतिम बार जब मैनें देखा था तब वो अस्पताल में थे.सांस की तकलीफ थी.देखा तो खुश हो गये.बोले-तुमको देखकर बहुत खुशी हुई.ठीक हो रहा हूं.जल्दी ही ठीक हो जाऊंगा.बहू कैसी है?बच्चों की पढा़ई कैसी चल रही है? अचानक बोले -अच्छा तुम जाओ .रात हो रही है.धीरे-धीरे जाना.
मैं चला आया .कुछ दिन बाद वे चले गये.मैं उनको अंतिम समय देख नहीं पाया.अच्छा ही रहा.मैं जब भी उनके बारे में याद करता हूं तो मेरे सामने उनका रोशनी की मीनार सा चमकता चेहरा ही दिखता है.अभी भी मुझे लगता है कि कहीं दिख जायेंगे और कहेंगे-तुम यह कर सकते हो.
मेरे सामने उनका रोशनी की मीनार साचमकता चेहरा ही दिखता है.अभी भी मुझे लगता है कि कहीं दिख जायेंगे और कहेंगे-तुम यह कर सकते हो.
जब मैं पूछिये फुरसतिया से के जवाब निरंतर के लिये लिखता था तोजीतेन्दर ने
सवाल पूछा था – अगर आपके पास ‘टाइम मशीन’ होती तो किस घटना को होने से
रोकते ? अगर व्यक्तिगत जीवन की बात कहूं तथा अगर संभव हो तो आज भी अपने
गुरुजी के साथ होना चाहता.अगर एक घटना रोक सकता तो मैं उनकी अनुपस्थिति को
रोकता.मैंने दुनिया में बहुतों को खोया,मरते देखा .कभी बहुत दिनों तक उनकी याद ने सताया भले हो लेकिन मैं भावुक कभी नहीं हुआ.लेकिन बाजपेयीजी के साथ की यादें तथा उनकी अनुपस्थिति का अहसास मुझे हमेशा भावुक कर देता है.आज इस समय अगर मुझसे कोई पूछे कि मेरे लिये सबसे कठिन काम क्या है तो वह् होगा इस लिखे हुये को बोलकर पढना.मैं शायद न पढ़ पाऊं पूरा बोलकर.
कभी-कभी टीस सी उठती है कि मैं उन गुरुजी के लिये कुछ कर न सका जिंन्होंने मेरे जीवन निर्धारण में मुख्य भूमिका निभाई.यह ‘गुरुऋण रहा सोच बड़ जी के’ का भाव ज्यादा देर तक ठहर नहीं पाता.मुझे लगता है कि गुरुऋण से उऋण हुआ ही नहीं जा सकता है.गुरु-शिष्य संबंध वो नान-रिटर्न वाल्व है जिससे पानी केवल एक ही तरफ बह सकता है.शिष्य केवल यह कर सकता है कि वह अपनी पात्रता को साबित करता रहे.
गुरु-शिष्य
संबंध वो नान-रिटर्न वाल्व है जिससे पानी केवल एक ही तरफ बह सकता है.शिष्य
केवल यह कर सकता है कि वह अपनी पात्रता को साबित करता रहे.
यह मेरा व्यक्तिगत पहलू है.इसे बेहतर शायद वे लोग महसूस कर सकें जो ऐसे
किसी प्रेरक का सानिध्य लाभ उठाया है.याद तो मैं अक्सर करता हूं अपने
गुरुजी को लेकिन आज जब मेरा छोटा बच्चा अपनी टीचर्स को शिक्षक दिवस(५
सितम्बर) पर देने के लिये ग्रीटिंग तैयार कर रहा था तो मेरी यादों में
अचानक मेरे गुरुजीमुस्कराने लगे जिनको मैंने आज तक कुछ नहीं दिया और अब न
दे पाने की स्थिति में हूं -सिवाय उनको विनम्रतापूर्वक याद करके उनकी
नजदीकी का अहसास पाने के,जो कि सदैव मुझे ताकत देती रही है.लोग कह सकते हैं कि आज ऐसे गुरु कहां मिलते हैं? मैं विनम्रता पूर्वक इससे असहमत होना चाहता हूं.आज भी सैकडों-हजारों गुरु होंगे जो अपने लाखों मानस-पुत्रों के चेहरों पर निगाह गडा़ये सम्मोहनी मुस्कराहट बिखेरते हुये कह रहे होंगे-तुम्हारे जैसा ही लड़का था जिसने ये किया था तुम भी यह कर सकते हो.
Posted in संस्मरण | 35 Responses
लेकिन एक बात समझ मे नही आयी,तुम्हारी इतनी अच्छी पोस्ट पर ये टिप्प्णियों का टोटा कैसे हो गया? क्या लोगों को समझ मे नही आया या लिखने का टाइम ही नही है.
लेकिन भई, हम तो बस यही कहेंगे, लिखते रहो……. हम तो हैये ही पढने और दाद देने वाले.
इनके बारे में तुम पहले भी ‘बचपन के मेरे मीत’ में लिख चुके हो. असली आनंद तो दर्शन करके ही आता, मगर…
बहुत ही बढ़िया हृदयस्पर्शी संस्मरण है। पढ़ के बहुत सी पुरानी यादें याद आगयीं। मैं भी बी एन एस डी का पढ़ा हूँ, आपसे कुछ सालों पूर्व। एक गणित के शिक्षक थे, नाम था शिव नारायण दास लेकिन सभी लोग उन्हें गांधी जी कहते थे। खद्दर का कुर्ता धोती पहनते थे और उनका सारा जीवन विद्यार्थियों पर समर्पित था। ९वें का सर्वोत्तम सेक्शन एफ था और दसवें का था सी। मेरा परिचय गांधी जी से नवीं और दसवीं के बीच की गर्मियों में हुआ जब मुझे दसवीं के सेक्शन सी में डाला गया। उस गर्मी के हर रविवार को गांधी जी दो घंटे की extra class लेते थे। उस क्लास में उन्होंने हमें गणित के अलावा बहुत कुछ पढ़ाया, पाणिनि के सूत्र, Mrs. Annie Beasant की पुस्तकें, पौराणिक कथायें। दसवीं कक्षा में रोज़ गणित की एक extra class होती थी। अगर कोई लड़का गलती करता था तो गांधी जी अपने गालों पर चाँटे मारते थे। अगर वे हमें चाँटे मारते तो शायद इतनी चोट न लगती हमें। गांधी जी के class में हम लोगों को शिक्षा दी गयी थी कि एक दूसरे को जी कह के बुलाओ जैसे अशोक जी। नवें में करीब करीब गणित में फेल हो रहा था। हिन्दी और अंग्रेज़ी में मेरे अच्छे नम्बर थे जिनकी वज़ह से मुझे दसवीं के सी सेक्शन में डाला गया था। गांधी जी से गणित पढ़ने के बाद मेरी गणित में रुचि बढ़ी और अन्ततः मैंने गणित में पी एच डी की। गांधी जी जैसा समर्पित शिक्षक मैंने आज तक नहीं देखा न भारत में, न अमेरिका में।
लक्ष्मीनारायण
बलीहारी गुरू आपनी, गोविंद दियो बताय
आशिष
” great, kee aap logon ne apne guru je ka confidece nahe todaa verna hume to umeed kum he thee ha ha ha ha ”
Regards
“शिष्य केवल यह कर सकता है कि वह अपनी पात्रता को साबित करता रहे” आपने लिख दिया है।
हमारे यहाँ भारतीय दर्शन में कहा गया है कि पिता व गुरु की जीत/सफलता की कसौटी होती है – “पुत्रात् शिष्यात् पराभवम्” अर्थात् गुरु और पिता उस दिन गौरवान्वित होते हैं जिस दिन उनकी सन्तान और शिष्य उन्हें पछाड़ कर आगे निकल जाते हैं।
ऐसे गुरु बड़े बड़भाग से मिलते हैं। आप सच में इन मायनों में भाग्यशाली हैं और आपने अपनी विनम्रता से गुरु जी के यश को यह जो प्रसार दिया है, उसके लिए उनकी आत्मा आपको असीसती होगी।
उन्हें व उन जैसे प्रत्येक गुरु के लिए मेरा भी विनम्र प्रणाम!
और गुरु ऋण से मुक्त होना संभव नहीं है.
एक बेहद अच्छी पोस्ट के लिए धन्यवाद.
बहुत ही अच्छा लिखा है आपने…
आभार..
मैं खुद कभी कभी अपने बच्चों को पढ़ाते समय डांट उठता हूं कि तुम्हें कुछ नहीं आता। अब शायद यह लफ्ज कहते अटकूंगा।
सतीश पंचम की हालिया प्रविष्टी..शासक की मंशा और शासित की दशाअजबै घात-प्रतिघात
इसमें हम सभी अपराधी हैं,उन निर्दोष बच्चों के सिवा !
संतोष त्रिवेदी की हालिया प्रविष्टी..डॉ.अमर कुमार :एक इंसानी-ब्लॉगर !
किसी एक शिक्षक को याद करना असंभव होगा. सबों को नमन!!
अपने विषय गणित , संस्कृत , एवम विज्ञानं के मंजे हुए ज्ञाता , कभी कभी बच्चो से मजाक भी किया करते , आज बहुत याद आये . धन्यवाद .
मार्मिक ऋण अदायगी…
मुझे भी सौभाग्य मिला ऐसे ही एक टीचर से मिलने का त्रिवेदी सर …
विश्वास तो हमेशा से था अपने ऊपर, लेकिन बाकी सब काम में परीक्षाओं में नहीं ॥
मैंने एक बार सर से पूछा की मेरा चयन हो जाएगा न सर , और उन्होने उस दिन मुझे बोला की तुम टॉप करोगे ॥
और फिर हमेशा मुझे टॉप करने की लिए जोशियाते रहे और मुझे भी पता ही नहीं चला की कब मैं खुद को टापर समझने लगा ।
और जब All India Rank 1 aayi meri MCA All India level exam में तो सबसे पहले सर की याद आई ।
वो विश्वास जो उन्होने दिखाया अद्भुत था नहीं तो हम तो कभी सेलेक्ट भी न होते कहीं भी …
आज ये पोस्ट पढ़कर सब पुराना फिर सामने आ गया
neeraj tripathi की हालिया प्रविष्टी..परीक्षाभवन