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भैंस क्या थी-साक्षात यमराज की सवारी जैसी। खूब लंबी-चौड़ी। नुकीले सींग। रंग बिल्कुल काला। त्वचा चिकनी व चमकदार।गले में पीतल की घंटी। जुगाली करती हुई नाक से सांस छोड़ती तो पप्पू डर जाता था। फिर भी प्यारी थी- दूध तो मिलता था न!
गांव के जानवरों की भी दिनचर्या थी। बैलों को सुबह व दोपहर के बाद खेतों में जुताई के लिये इस्तेमाल किया जाता था। बैलगाड़ियों में जोतकर गन्ने की ढुलाई होती। बहू-बेटी की विदाई व आवागमन में भी बैलों का इस्तेमाल होता। खैर,यहां तो कोइली की बात थी। जोकि एक भैंस थी।
महातम भइया पर अपने छोटे भाई उमाशंकर की बातें कुछ दिन तक असर रखतीं और वो भैंसों को चराने के लिये ले जाते समय कोइली की तरफ एक दृष्टि डालकर मुंह फेर लेते।
हम बात फिर कोइली के बारे में! कोइली का सुबह-शाम का चोकरना (चिल्लाना) मुझे बेचैन करता। मुझे कोइली से सहानुभूति थी। गांव में छोटों को मैं खुद नहीं पसंद करता था। बड़े मुझे स्वीकार नहीं करते थे। घर के बगल में कदम्ब का पेड़ था। वहीं बंधी रहती कोइली। छोटी बहन गुड़िया के साथ मैं वहीं खेलता । कोइली से हम दोनों बातें करते थे। गुड़िया की अनुपस्थिति में कोइली के सामने ताऊ के लड़कों से बदला लेने का तक का प्लान बना डालता था। कोइली वैसे चाहें जितनी सीधी
लेकिन चरने के समय दूसरी भैंसों को चरने के लिये जाते देख उग्र हो जाती।
एक दिन महातम भइया बोले,”भय मर्दे,का बइठल रहेल! सुबह-शाम कोइली के चरवत काहे नाहीं?”
अम्मा से पूंछा तो जबाब में मां की आंखों से दो मोटे आंसू लुढ़क गये।इसे मैंने मौन स्वीकृति समझा और चरवाहा बन गया।चरवाहा- गांव का सबसे गैरजिम्मेदार तबका,भैंसों की सी अकल वाला। ‘लंठो’ के समूह मैं सदस्य बन गया।
और कोइली एकबार फिर भैंसों के झुंड की सरगना हो गई। कोइली की चाल बिल्कुल हथिनी जैसी थी-मदमस्त…। सभी भैंसों से आगे चलती। मजाल है कोई दूसरी भैंस
उसके सामने आ जाय।
उसके पीछे। मजाल है कि उसकी पीठ पर कोई टिक पाये। खुद महातम भइया गिरकर एक हाथ तुड़वा चुके थे। यह सब सुनकर डर लगता।पैर पहले से ही गड़बड़ था।
पता नहीं ऐसा क्यों लगता कि कोइली मेरे साथ ऐसा कुछ नहीं होने देगी। कोइली ने अंतिम समय तक मेरा विश्वास नहीं तोड़ा। सरपट दौड़ती-भागती कोइली मेरी एक आवाज पर ‘स्टेचू’ वाले खेल की तरह ठिठककर अपने स्थान पर खड़ी हो जाती।
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कोइली आई मेरी जिंदगी में
बंटवारे में एक भैंस भी मिली थी हमें। बकौल मां, तीन जोड़े बैलों और पांच भैंसों में यही एक जानवर हमारे हिस्से में मिला था। चार बियान की।एक पाड़ा (बच्चा) था उसका। दूध देती थी दो रजिया( गांव के नाप का पैमाना) सुबह दो रजिया शाम को।भैंस क्या थी-साक्षात यमराज की सवारी जैसी। खूब लंबी-चौड़ी। नुकीले सींग। रंग बिल्कुल काला। त्वचा चिकनी व चमकदार।गले में पीतल की घंटी। जुगाली करती हुई नाक से सांस छोड़ती तो पप्पू डर जाता था। फिर भी प्यारी थी- दूध तो मिलता था न!
गांव के जानवरों की भी दिनचर्या थी। बैलों को सुबह व दोपहर के बाद खेतों में जुताई के लिये इस्तेमाल किया जाता था। बैलगाड़ियों में जोतकर गन्ने की ढुलाई होती। बहू-बेटी की विदाई व आवागमन में भी बैलों का इस्तेमाल होता। खैर,यहां तो कोइली की बात थी। जोकि एक भैंस थी।
भैंस
क्या थी-साक्षात यमराज की सवारी जैसी। खूब लंबी-चौड़ी। नुकीले सींग। रंग
बिल्कुल काला। त्वचा चिकनी व चमकदार।गले में पीतल की घंटी। जुगाली करती हुई
नाक से सांस छोड़ती तो पप्पू डर जाता था।
कोइली भैंसों के झुंड में सुबह व शाम चरने के लिये जाती थी। सभी भैंसों
की मुखिया थी। सबसे आगे चलती थी। ताऊजी के मझले लड़के उसपर बैठते तथा घर की
शेष चार भैंसों की निगरानी करते थे। पर अब बंटवारे के बाद कोइली खूंटे पर
ही बंधी रहती थी। सुबह-शाम ताऊजी की भैंसे जब चरने के लिये निकलतीं तो वह
उग्र रूप धारण कर लेती।चोकरत्ती,मुंह लार व फेना फेंकने लगती। लगता या तो
खूंटा उखड़ जायेगा या उसके गलें में बंधी जंजीर टूट जायेगी। लेकिन ऐसा कभी
नहीं हुआ। बीच-बीच में महामम भइया का ‘मूड’ कर जाता तो कोइली भी उनके साथ
घूमने चली जाती थी। फिर अपने छोटे भाई की गाली और भर्त्सना दोनों की उन्हें
झेलनी पड़ती।महातम भइया पर अपने छोटे भाई उमाशंकर की बातें कुछ दिन तक असर रखतीं और वो भैंसों को चराने के लिये ले जाते समय कोइली की तरफ एक दृष्टि डालकर मुंह फेर लेते।
यूं महातम भइया मस्तमौला टाइप के आदमी थे। चार फुट के बाद उन्होंने बढ़ना बंद कर दिया था।
यूं महातम भइया मस्तमौला टाइप के आदमी थे। चार फुट के बाद उन्होंने
बढ़ना बंद कर दिया था। उस समय उनकी उम्र रही होगी पैंतीस वर्ष।ढाड़ी के
स्थान पर दस-बीस बालों का गुच्छा और मूंछों के दोनों छोरों पर कुछ बाल।
बाकी सफाचट मैदान। दुबले-पतले। थोड़ा हकलाकर बोलते थे। विवाह हुआ नहीं था।
छोटे भाई के साथ खेती में हाथ बंटाते और सुबह-शाम भैंसों की चरवाही करते।
ताऊजी अस्वस्थ चल रहे थे। बाहर घरी (मड़इया) में पड़े रहते और लेटे-लटे
ताईजी से अपने संबंधों को सार्वजनिक करते रहते थे।हम बात फिर कोइली के बारे में! कोइली का सुबह-शाम का चोकरना (चिल्लाना) मुझे बेचैन करता। मुझे कोइली से सहानुभूति थी। गांव में छोटों को मैं खुद नहीं पसंद करता था। बड़े मुझे स्वीकार नहीं करते थे। घर के बगल में कदम्ब का पेड़ था। वहीं बंधी रहती कोइली। छोटी बहन गुड़िया के साथ मैं वहीं खेलता । कोइली से हम दोनों बातें करते थे। गुड़िया की अनुपस्थिति में कोइली के सामने ताऊ के लड़कों से बदला लेने का तक का प्लान बना डालता था। कोइली वैसे चाहें जितनी सीधी
लेकिन चरने के समय दूसरी भैंसों को चरने के लिये जाते देख उग्र हो जाती।
एक दिन महातम भइया बोले,”भय मर्दे,का बइठल रहेल! सुबह-शाम कोइली के चरवत काहे नाहीं?”
अम्मा से पूंछा तो जबाब में मां की आंखों से दो मोटे आंसू लुढ़क गये।इसे मैंने मौन स्वीकृति समझा और चरवाहा बन गया।चरवाहा- गांव का सबसे गैरजिम्मेदार तबका,भैंसों की सी अकल वाला। ‘लंठो’ के समूह मैं सदस्य बन गया।
और कोइली एकबार फिर भैंसों के झुंड की सरगना हो गई। कोइली की चाल बिल्कुल हथिनी जैसी थी-मदमस्त…। सभी भैंसों से आगे चलती। मजाल है कोई दूसरी भैंस
उसके सामने आ जाय।
कोइली एकबार फिर भैंसों के झुंड की सरगना हो गई। कोइली की चाल बिल्कुल हथिनी जैसी थी-मदमस्त…।
और मैं सवार होता उस भैंस के ऊपर। किसी बहादुर सेनानी की तरह या शहंशाह
की तरह। महातम भइया कोइली की बारीकियां बता चुके थे।जैसे- रखातूं(वह खेत
जिसे जोता-बोया न जाता हो) देखकर अपने होश खो देती थी। कोइली तब भैंस कम
घोड़ी ज्यादा होती और सरपट दौड़ती रखातूं की तरफ। आगे-आगे कोइली और शेष
जानवरउसके पीछे। मजाल है कि उसकी पीठ पर कोई टिक पाये। खुद महातम भइया गिरकर एक हाथ तुड़वा चुके थे। यह सब सुनकर डर लगता।पैर पहले से ही गड़बड़ था।
पता नहीं ऐसा क्यों लगता कि कोइली मेरे साथ ऐसा कुछ नहीं होने देगी। कोइली ने अंतिम समय तक मेरा विश्वास नहीं तोड़ा। सरपट दौड़ती-भागती कोइली मेरी एक आवाज पर ‘स्टेचू’ वाले खेल की तरह ठिठककर अपने स्थान पर खड़ी हो जाती।
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किस्सा तोता मैना बनाम चरवाहों की लंठई
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