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[हिंदी चिट्ठाकारों का परिचय कराने का काम अभी तक निरंतर में बखूबी
हो रहा था.फिलहाल निरंतर की निरंतरता में कुछ व्यवधान है.इसलिये
चिट्ठाकारों के परिचय का काम यहां जारी रखा जा रहा है.शुरुआत हिंदी ब्लाग
जगत की सक्रिय महिला चिट्ठाकार प्रत्यक्षा से की जा रही है]
उँगलियाँ आगे बढा कर
एक बार छू लूँ
मेरे मन के इस निपट
सुनसान तट पर
ये लहरें आती हैं
कहीं से और चलकर.
यह वह कविता थी जिससे प्रत्यक्षा ने २८ अप्रैल,२००५ को अपने चिट्ठे की शुरुआत की.
महात्मा बुद्ध कीनिर्वाण
बोध स्थली,गया में जन्मी प्रत्यक्षा ने अपनी स्कूली पढा़ई रांची में
की.अपने स्कूल ,सेक्रेड हर्ट रांची ,को याद करते हुयी बतातीं हैं:-
इस स्कूल से बहुत कुछ सीखा मैंने(बावजूद इसके कि मिशनरी स्कूल के अच्छे /खराब पहलुऒं पर खासी बहस की जा सकती है).और जो सीखा वो सिर्फ किताबी ज्ञान नहीं बल्कि कुछ और था जो बहुत ‘बेसिक और फन्डमेन्टल’ था. और आज मुझे लगता है कि वो जो जीवनमूल्य मैंने अपने स्कूल में रहने के दौरान पाये वो मैं अपने बच्चों को ‘पासआन’ (देना) करना चाहूंगी.
पटना से एम.ए.करने के बाद एन.टी.पी.सी.से एक्जीक्यूटिव ट्रेनी के रुप में शुरुआत की. फिलहाल पावरग्रिड कारपोरेशन गुडगांव में प्रबंधक वित्त के पदपर कार्यरत प्रत्यक्षा के पति,संतोष जी.आई.सी.में वरिष्ठ प्रबंधक हैं.ग्यारह वर्ष के बेटे हर्शिल तथा सात साल की बिटिया कामायनी (जिसे प्यार से पाखी कहकर पुकारती हैं)की मां प्रत्यक्षा ने अपने ब्लाग सफर के शुरुआत की दास्तान बताते हुये लिखा हैं:-
हिन्दी में लिखना लगभग छूट सा गया था.स्कूल और कालेज के बाद हिन्दी में सिर्फ पढ ही रही थी.पत्र वगैरह भी लिखना कम हो गया था.फोन से सब काम चल रहे थे.फिर नेट का ज़माना शुरु हुआ.तब रोमन में हिन्दी लिख कर मन बहला लिया करते थे.पढने का जो कीडा कुलबुलाया करता उसने मज़बूर किया गूगल के शरण में जाकर हिन्दी पत्रिका खोजने के लिये.सफलता मिली साथ में अभिव्यक्ति और अनुभूति को पढने का चस्का भी.फिर गाहे बगाहे पढते रहे.पहली कहानी अभिव्यक्ति के “माटी के गंध ” मे चुनी गई और छपी.फिर अनुभूति पर समस्यापूर्ति में कवितायें लिखना शुरु किया.और जैसा सब जानते हैं.ये छूत की बीमारी एक बार जो लगी सो ऐसे ही छूटती नहीं.तो बस हाजिर हैं हम भी यहाँ.इस हिन्दी चिट्ठों की दुनिया में.
वित्तीय आंकड़ों तथा रचनात्मकता के साथ तारतम्य बिठाने की कोशिश में लगातार लगी प्रत्यक्षा को रंगों का खेल अच्छा लगता है तथा ख्वाहिश है कि:-
कभी भविष्य में, ऐसा सोच रखा है कि कैन वस पर रंग बिखेरना और चाक पर मिट्टी के घडे बनाना सीखूँगी…
संगीते में रुचि कुछ के बारे में कहती हैं:-
संगीत सुनना बहुत सुकून देता है.कुमार गंधर्व के निर्गुण भजन,लता मंगेशकर की हृदयनाथ के निर्देशन में गायी मीरा भजन, भीमसेन जोशी, पंडित जसराज, मल्लिकार्जुन मंसूर्, बेगम अख्तर, मेंहदी हसन, मलिका पुखराज, आबिदा रवीन,बीटलस, साइमन गार्फंकल……सब बहुत भाते हैं.
पढना बहुत अच्छा लगता है.खासतौर पर महिला लेखकों को.कुर्र्तुलएन हैदर, कृष्णा सोबती, निर्मल वर्मा, यशपाल,टामस हार्डी, माम, जेन औस्टेन,ली हार्पर्.लिस्ट लम्बी है बचपन से लेकर पढती आई हूँ.कई ,उम्र के पहले…कुछ बाद भी..ये यात्रा अनवरत चल रही है
मरना तो सबको है,जी के भी देख लें को जीवन का मोटो मानने वाली प्रत्यक्षा की नींद में भी कोई आता है तो उसकी खुशबू कविता में आ जाती है:-
रात भर ये मोगरे की
खुशबू कैसी थी
अच्छा ! तो तुम आये थे
नींदों में मेरे ?
इनकी हंसी के तार उनकी हंसीके रिमोट से जुड़े हैं:-
अचानक
मैं बेसाख्ता यूँ ही
हँस देती हूँ
शायद
तुम भी कहीं मुझे याद कर
हँस रहे होगे.
प्रत्यक्षा कामानना है -खामोशी का एक सुकून होता है, खामोशी की एक आवाज़ भी होती है.
प्रत्यक्षा की शब्दों की बाजीगरी अनायास भवानीप्रसाद मिश्र की कविता गीत फरोश की याद दिलाती है.
मेरे अन्दर छिपी है
एक खामोश चुप लड़की
जो सिर्फ आंखों से बोलती है.
उसके गालों के गड्डे बतियाते हैं,
उसके होंठों का तिल मुस्काता है
उसकी उंगलिया खींचतीं हैं
हवा में तस्वीर ,बातों की.
खामोशी की आवाज में सरसराहट सुनने वाली,यादों में की खुशबुऒं में डूबने वाली प्रत्यक्षा कीकहानियों का खास पॆटर्न् है.इनकी कहानियों की नायिकायें आमतौर पर नायक के बेपनाह प्यार को हासिल करने के बाद अलगाव की त्रासदी की शिकार होती हैं.कारण कभी मतलबी विकल्प होते हैं कभी बेहद छोटे दिखने वाले अहम.पर नायिकायें कमजोर नहीं हैं वे आमतौर पर नायक को मुक्त,माफ करके बडप्पन का इजहार करती हैं.
प्रत्यक्षा इस बात पर लगभग डराते हुये कहतीं हैं:-
अब देखिये..हम लिखते हैं एक धांसू सा …दुखी प्रतडित पुरुष की कहानी…फिर देखते हैं आप एक पैटर्न वाली कहनियों का इलज़ाम कैसे नहीं हटाते.
कुछ तुम लिखो,कुछ हम कहें के अन्दाज में प्रत्यक्षा जिन कविताऒं को पसंद करती हैं उनमें कुछ अपनी तरफ से भी जोड़ती रहती हैं-चाहे वो फिर फुरसतिया के हायकू हों अनूप भार्गव की नज़्म या फिर साथी ब्लागर भी इनकी इस रुचि में बराबर सहयोग करते हैं तथा इनकी कविता की जमीन पर अपनी पोस्ट का तंबू तानते रहते हैं.कविता-प्रतिकविता को जारी रखने का श्रेय प्रत्यक्षा को दिया जा सकता है.
जीतेन्दर के पास था.अब पता नहीं क्यों जीतेन्द्र की बिंदियां कम हो रही हैं.
अपनी सोच के बारे में बताते हुये प्रत्यक्षा कहती हैं:-
जो चीजें इंद्रियों को भली लगे..कोशिश करती हूँ..ऐसी चीजों को सहेजूँ…आध्यात्म जीवन का एक पहलू है…धर्म किसी जरूरतमन्द की मदद है……इस प्रक्रिया में हूँ कि जीवन का ताना बाना कुछ ऐसा हो ….जिसमें मानसिक सुकून जरूर हो….लिखना इसी प्रक्रिया का पहला कदम है…
यह पहला कदम निरंतर प्रगति पथ पर अग्रसर रहे यही हमारी मंगलकामना है.
उँगलियाँ आगे बढा कर
एक बार छू लूँ
मेरे मन के इस निपट
सुनसान तट पर
ये लहरें आती हैं
कहीं से और चलकर.
यह वह कविता थी जिससे प्रत्यक्षा ने २८ अप्रैल,२००५ को अपने चिट्ठे की शुरुआत की.
महात्मा बुद्ध की
इस स्कूल से बहुत कुछ सीखा मैंने(बावजूद इसके कि मिशनरी स्कूल के अच्छे /खराब पहलुऒं पर खासी बहस की जा सकती है).और जो सीखा वो सिर्फ किताबी ज्ञान नहीं बल्कि कुछ और था जो बहुत ‘बेसिक और फन्डमेन्टल’ था. और आज मुझे लगता है कि वो जो जीवनमूल्य मैंने अपने स्कूल में रहने के दौरान पाये वो मैं अपने बच्चों को ‘पासआन’ (देना) करना चाहूंगी.
पटना से एम.ए.करने के बाद एन.टी.पी.सी.से एक्जीक्यूटिव ट्रेनी के रुप में शुरुआत की. फिलहाल पावरग्रिड कारपोरेशन गुडगांव में प्रबंधक वित्त के पदपर कार्यरत प्रत्यक्षा के पति,संतोष जी.आई.सी.में वरिष्ठ प्रबंधक हैं.ग्यारह वर्ष के बेटे हर्शिल तथा सात साल की बिटिया कामायनी (जिसे प्यार से पाखी कहकर पुकारती हैं)की मां प्रत्यक्षा ने अपने ब्लाग सफर के शुरुआत की दास्तान बताते हुये लिखा हैं:-
हिन्दी में लिखना लगभग छूट सा गया था.स्कूल और कालेज के बाद हिन्दी में सिर्फ पढ ही रही थी.पत्र वगैरह भी लिखना कम हो गया था.फोन से सब काम चल रहे थे.फिर नेट का ज़माना शुरु हुआ.तब रोमन में हिन्दी लिख कर मन बहला लिया करते थे.पढने का जो कीडा कुलबुलाया करता उसने मज़बूर किया गूगल के शरण में जाकर हिन्दी पत्रिका खोजने के लिये.सफलता मिली साथ में अभिव्यक्ति और अनुभूति को पढने का चस्का भी.फिर गाहे बगाहे पढते रहे.पहली कहानी अभिव्यक्ति के “माटी के गंध ” मे चुनी गई और छपी.फिर अनुभूति पर समस्यापूर्ति में कवितायें लिखना शुरु किया.और जैसा सब जानते हैं.ये छूत की बीमारी एक बार जो लगी सो ऐसे ही छूटती नहीं.तो बस हाजिर हैं हम भी यहाँ.इस हिन्दी चिट्ठों की दुनिया में.
वित्तीय आंकड़ों तथा रचनात्मकता के साथ तारतम्य बिठाने की कोशिश में लगातार लगी प्रत्यक्षा को रंगों का खेल अच्छा लगता है तथा ख्वाहिश है कि:-
कभी भविष्य में, ऐसा सोच रखा है कि कैन वस पर रंग बिखेरना और चाक पर मिट्टी के घडे बनाना सीखूँगी…
संगीते में रुचि कुछ के बारे में कहती हैं:-
संगीत सुनना बहुत सुकून देता है.कुमार गंधर्व के निर्गुण भजन,लता मंगेशकर की हृदयनाथ के निर्देशन में गायी मीरा भजन, भीमसेन जोशी, पंडित जसराज, मल्लिकार्जुन मंसूर्, बेगम अख्तर, मेंहदी हसन, मलिका पुखराज, आबिदा रवीन,बीटलस, साइमन गार्फंकल……सब बहुत भाते हैं.
आध्यात्म
जीवन का एक पहलू है…धर्म किसी जरूरतमन्द की मदद है……इस प्रक्रिया में हूँ
कि जीवन का ताना बाना कुछ ऐसा हो ….जिसमें मानसिक सुकून जरूर हो
पसंदीदा लेखकों के बारे में बताते हुये कहती हैं:-पढना बहुत अच्छा लगता है.खासतौर पर महिला लेखकों को.कुर्र्तुलएन हैदर, कृष्णा सोबती, निर्मल वर्मा, यशपाल,टामस हार्डी, माम, जेन औस्टेन,ली हार्पर्.लिस्ट लम्बी है बचपन से लेकर पढती आई हूँ.कई ,उम्र के पहले…कुछ बाद भी..ये यात्रा अनवरत चल रही है
मरना तो सबको है,जी के भी देख लें को जीवन का मोटो मानने वाली प्रत्यक्षा की नींद में भी कोई आता है तो उसकी खुशबू कविता में आ जाती है:-
रात भर ये मोगरे की
खुशबू कैसी थी
अच्छा ! तो तुम आये थे
नींदों में मेरे ?
इनकी हंसी के तार उनकी हंसीके रिमोट से जुड़े हैं:-
अचानक
मैं बेसाख्ता यूँ ही
हँस देती हूँ
शायद
तुम भी कहीं मुझे याद कर
हँस रहे होगे.
प्रत्यक्षा कामानना है -खामोशी का एक सुकून होता है, खामोशी की एक आवाज़ भी होती है.
प्रत्यक्षा की शब्दों की बाजीगरी अनायास भवानीप्रसाद मिश्र की कविता गीत फरोश की याद दिलाती है.
पढना
बहुत अच्छा लगता है.खासतौर परमहिला लेखकों को.कुर्र्तुलएन हैदर, कृष्णा
सोबती, निर्मल वर्मा, यशपाल,टामस हार्डी, माम, जेन औस्टेन,ली हार्पर्.लिस्ट
लम्बी है
प्रत्यक्षा की कविता में लड़कियां सिर्फ आंखों से बोलती है:-मेरे अन्दर छिपी है
एक खामोश चुप लड़की
जो सिर्फ आंखों से बोलती है.
उसके गालों के गड्डे बतियाते हैं,
उसके होंठों का तिल मुस्काता है
उसकी उंगलिया खींचतीं हैं
हवा में तस्वीर ,बातों की.
खामोशी की आवाज में सरसराहट सुनने वाली,यादों में की खुशबुऒं में डूबने वाली प्रत्यक्षा कीकहानियों का खास पॆटर्न् है.इनकी कहानियों की नायिकायें आमतौर पर नायक के बेपनाह प्यार को हासिल करने के बाद अलगाव की त्रासदी की शिकार होती हैं.कारण कभी मतलबी विकल्प होते हैं कभी बेहद छोटे दिखने वाले अहम.पर नायिकायें कमजोर नहीं हैं वे आमतौर पर नायक को मुक्त,माफ करके बडप्पन का इजहार करती हैं.
प्रत्यक्षा इस बात पर लगभग डराते हुये कहतीं हैं:-
अब देखिये..हम लिखते हैं एक धांसू सा …दुखी प्रतडित पुरुष की कहानी…फिर देखते हैं आप एक पैटर्न वाली कहनियों का इलज़ाम कैसे नहीं हटाते.
कुछ तुम लिखो,कुछ हम कहें के अन्दाज में प्रत्यक्षा जिन कविताऒं को पसंद करती हैं उनमें कुछ अपनी तरफ से भी जोड़ती रहती हैं-चाहे वो फिर फुरसतिया के हायकू हों अनूप भार्गव की नज़्म या फिर साथी ब्लागर भी इनकी इस रुचि में बराबर सहयोग करते हैं तथा इनकी कविता की जमीन पर अपनी पोस्ट का तंबू तानते रहते हैं.कविता-प्रतिकविता को जारी रखने का श्रेय प्रत्यक्षा को दिया जा सकता है.
मेरे अन्दर छिपी है,एक खामोश चुप लड़की
जो सिर्फ आंखों से बोलती है.
बूंद-बूंद से घड़ा भरता है शायद यही बताना चाहती हैं प्रत्यक्षा जब वे
अपने लेख,टिप्प्णियों में ….,…., बिंदुओं की फौज इस्तेमाल करती हैं.पहले
इसका कापी राइटजो सिर्फ आंखों से बोलती है.
जीतेन्दर के पास था.अब पता नहीं क्यों जीतेन्द्र की बिंदियां कम हो रही हैं.
अपनी सोच के बारे में बताते हुये प्रत्यक्षा कहती हैं:-
जो चीजें इंद्रियों को भली लगे..कोशिश करती हूँ..ऐसी चीजों को सहेजूँ…आध्यात्म जीवन का एक पहलू है…धर्म किसी जरूरतमन्द की मदद है……इस प्रक्रिया में हूँ कि जीवन का ताना बाना कुछ ऐसा हो ….जिसमें मानसिक सुकून जरूर हो….लिखना इसी प्रक्रिया का पहला कदम है…
यह पहला कदम निरंतर प्रगति पथ पर अग्रसर रहे यही हमारी मंगलकामना है.
Posted in इनसे मिलिये | 18 Responses
इसे मैँ नियमित देखूँगा। -डॉ॰ व्योम
अब भई इनके कापी राईट आपने मुझे दे दिये तो इन्हें संभाल कर रखना भी तो पडेगा (देखिये यहाँ एक भी नहीं ):-)
शुक्रिया अनूप रोचक परिचय , मंगलकामना और कापीराईट के लिये
.प्रत्यक्षा
बन्दा गोविन्द जी का छोटा भाई है | उनके शुरुआती लेखन के दिनों में मैं ऊनका प्रूफ रीडर हुआ करता था | काम था हिज़्ज़ों की गलतियं सुधारना | बदले में नयी कहानी फ्री में पढने को मिल जाती थीं | ाआदतन अभी भी ध्यान गलतियों पर चला ही जाता है| प्रत्यक्षा जी के परिचय में “महात्मा बुद्ध की निर्वाण स्थली,गया” लिखा है | क्षमा सहित बताना चाहता हूं कि बुद्ध कि निर्वाण (मृत्यु)स्थली कुशीनगर है |ागर मैं सही हूं तो बदले में एक नई कहानी का पुरस्कार चाहूंगा |
निर्वाण को तो हमने निर्वाण दे दिया तथा बोध ले आये.
शहर एक ही है अत: बोधगया की जगह गया लिखने में
कोई बुराई नहीं है.वैसे इस गलती का भी आभार मानना
चाहिये मुझे जिसने आपको टिप्पणी के लिये उकसाया.
क्योंकि गोविंदजी बता रहे थे कि हमारे लेख पढ़े तो जाते
हैं ‘गेल’में लेकिन ‘टिपियाया’नहीं जाता .आज वो कमी
भी पूरी हुई.बहरहाल हम अच्छी परंपराओं को बनाये रखने
में यकीन रखते हैं सो आपको आपका इनाम मिलेगा.अब
ये बताया जाये कि कहानी आप किसकी पढ़ना चाहेंगे?
प्रत्यक्षाजी की,गोविन्दजी की या मेरा लेख?जितनी जल्दी
बताया जायेगा उतनी जल्दी इनाम की व्यवस्था की जायेगी.
सरकारी महकमों में अभी भी कुछ नें आत्माएं हैं जो आलोचनाओं के बदले पुरस्कार दे सकतीं हैं, यह जानकर आत्मिक सन्तोष होता है | शायद देश धीमा ही सही उन्नति तो कर ही रहा है |फिलहाल तो मै आपका ही लेख क पुरस्कार चहूंगा क्योंकि आपके बिन्दास लेखन का में ” बेतकल्लुफी” का जो भाव होता है वो वास्तव मे सम्मोहित करने वल्ल है| हां बोनस में हो सके तो प्रत्यक्षा जी की कहानी भी | वैसे भी मैने अभी तक उन्हें पढा नहीं है |
गिरीश कुमार, पावरग्रिड, गुड़गांव,