http://web.archive.org/web/20110101191530/http://hindini.com/fursatiya/archives/45
रुह का परिंदा
[अब जब हम अपने दो साथियों का परिचय दे ही चुके तो सोचा कि बाकी लोगों ने क्या गुनाह किया है.तो अब इसी परिचय की कड़ी में अगली कड़ी है हमारे हरदिल अजीज, देबाशीष ,का परिचय. देवाशीष के बारे में कुछ लिखना तो सूरज को दिया दिखाना है.लेकिन आज कोशिश की जा रही है.आज का दिन खास भी है क्योंकि आज १२ सितंबर को उनका जन्मदिन भी होता है.सो जन्मदिन की शुभकामनाऒं के साथ यह पोस्ट देबाशीष के लिये खासतौर से बिना किसी दबाव के लिखी जा रही है]
मैं जब भी देबाशीष के बारे में सोचता हूं तो मुझे अंसार कम्बरी का शेर याद आता है:-
चाहे जिधर से गुजरोगे, हमको पाओगे,
हमारे घर से सारे रास्ते गुजरते है.
अभी तक के हिंदी चिट्ठाकारी के सफर में जितनी भी खुराफातें हुयीं हैं सबमें देबाशीष का हाथ रहा है-प्रत्यक्ष या परोक्ष.चाहे वो अनुगूंज हो या बुनोकहानी.निरंतर हो या ब्लागनाद.ब्लागरोल हो या फिरचिट्ठाचर्चा.इंडीब्लागर तथा चिट्ठा विश्व के तो ये पीर-बाबर्ची-भिस्ती-खर रहे हैं.
भोले-भाले चेहरे वाले देबाशीष आत्मविज्ञापन से काफी बचने की कोशिश करते हैं.कच्चा चिट्ठा के बाकी ब्लागर के परिचय चिट्ठा विश्व में हैं सिवाय देबाशीष के.हमने कारण पूछा तो बताया गया -अच्छा नहीं लगता अपने दरवाजे अपनी फोटो सजा के लगाना.
संपादक जी उर्फ इंडीब्लागर उर्फ रिंगमास्टर उर्फ चक्कूदादा उर्फ देबू भाई उर्फ देबाशीष ने अपने हिंदी ब्लाग की शुरुआत नवंबर, २००३ में की.शुरुआती पोस्ट में लिखा:-
वैसे अगर देबाशीष की किसी एक सबसे पसंदीदा पोस्ट को मुझसे चुनने को कहा जाये तो मैंक्या देह ही है सब कुछ को चुनूंगा.निरंतर के लेख तथा कहानियां अलग बात हैं.इसमें हायकू नहीं जोड़े जा रहे हैं जो वे समय -समय पर ठेलते रहे.
देवाशीष का लेखन (हिंदी तथा अंग्रेजी दोनो)तथा तकनीकी कौशल गजब का है.’वन मैन आर्मी’ की तरह काम करने में सक्षम देबू के कारण अक्सर काम का बोझ काफ़ी आ जाता रहा. इसीलिये शायद कहा गया है-वर्किंग हार्सेस आरे लोडेड मोर.
पंकज का मानना है देबू ‘गीक’ टाइप शख्सियत है.हम बोले -गीक बोले तो? पता चला कि जिसको नयापन आकर्षित करता है.चुनौतियां काम करने को उकसाती हैं.जहां चुनौती खत्म वहां रुचि समाप्त .इस मामले में ये अपने तेंदुलकर ठहरे जिनके बारे में गावस्कर कहते थे कि तेंदुलकर तब आउट होता है जब गेंदबाज की चुनौती समाप्त हो जाती है.
ऐसे नये ,चुनौतीपूर्ण काम करने की छटपटाहट वाले लोगॊं के लिये नासिरा शर्मा ने शब्द दिया है-बेचैन रुह का परिंदा. तो ये अपने देबू बेचैन रूह के परिंदे हैं जो हरदम कुछ नया,आकर्षक तथा उपयोगी करने को छटपटाते रहते हैं.
पर ये देबू के गर्जन-तर्जन बहुत अल्पजीवी रहे.देखा गया अगली किसी टिप्पणी में उसी चीज के सुधार के उपाय बता रहे हैं जिसकी अवधारणा पर पिछली टिप्पणी में उबल रहे थे.कहासुनी में देबू के पक्ष में खड़े होना बहुत खतरनाक है.क्योंकि ये जिससे नाराज भी होंगे तो अगले दिन उसी को कुछ सलाह दे रहे होंगे.अगला ठगा सा खड़ा रह जाता है.कोई झगडा़ लंबा खींचना न देबू को आता है न पसंद है.
इंडीब्लागीस भारतीय ब्लाग के इतिहास में अनूठे योगदान के लिये जाना जाता है.इसकी सारी परिकल्पना और आयोजन देबाशीष अपने मित्रों के सहयोग से करते रहे.तमाम कमियां लोग बताते रहे इसके आयोजन के दौरान.लेकिन आलोचक भी टकटकी लगाये इसकी गतिविधियां निहारते रहे.इसी के लिये शायद कहा गया है-आप उससे सहमत हो सकते हैं ,असहमत हो सकते हैं लेकिन उसकी उपेक्षा नहीं कर सकते.
इस भोले चेहरे के पीछे शरारती तत्व भी छिपे हैं. किसी ब्लाग पर कोईअनाम टिप्प्णी करके कहेगा-
लेकिन सेर को सवा सेर भी मिलते हैं.इनकी एक पोस्ट पर एक अनाम टिप्पणीकार ने इनकी वो गत की कि बेचारे उसके चरणकमल मांगने लगे.लेकिन अनाम लोग जब नाम नहीं रखते तो चरणकमल कहां से देंगे?
.
ये ‘परफेक्शनिस्ट अप्रोच’ ही देबू की ताकत भी है तथा यही उनकी सीमा भी.इसी कारण इनका लिखना उतना नहीं हो पाता जितना ये सोचते हैं.इन्हीं के लिये सुभाषितलिखा गया था:-
.
अंग्रेजी के ब्लागरों में भी देबाशीष की काफी पहुंच है.लोग जानते है,मानते है.हिंदी के ब्लागर को शुरुआती सहायता देबू प्रदान करते रहे हैं-हमेशा. वाह,बहुत अच्छा लिखा है,मजा आ गया,क्या कहने,जवाब नहीं लिखने में ज्यादा भरोसा नहीं है देबू का.बहुत कंजूस पाठक हैं ये.लेकिन अगर किसी का फीड गड़बड़ है ,सेटिंग गड़बड़ है तो ये लिखेंगें ये करो,वो करो.
क्या क्या लिखा जाये? इतना लिखने के बाद भी अविगत गति कुछ कहत न जावै वाला मामला है.वर्णनातीत सा है इनके बारे में लिखना.
जब देबाशीष ने लिखना शुरु किया था तब ये तीसरे थे.अब १०३ लोग हो गये हैं. तीन से एक सौ तीन के सफर को पूरा संभव नहीं है एक पोस्ट में समेटना.हिंदी ब्लागिंग के इस मुकाम तक पहुंचने के सफर में देबू का लगातार सहयोग रहा है.जैसा कि रविरतलामी जी ने आलोक तथा देबाशीष का जिक्र करते हुये लिखाहै:-
यह सब कुछ मैंने अपनी याददास्त से लिखा.अब पूरे मन से कामना करता हूं कि देबाशीष की सक्रियता बनी रहे.लिखना लगातार जारी रहे.देबाशीष किसी की मदद के मोहताज नहीं रहे.हमेशा अपने दम काम करते रहे.इनके चमकने के लिय किसी खास अवसर की दरकार नहीं होती.सदैव देदीप्यमान रहते हैं इन जैसे लोग. यह कविता शायद मेरी बात ज्यादा सटीक कह सके:-
रुह का परिंदा
[अब जब हम अपने दो साथियों का परिचय दे ही चुके तो सोचा कि बाकी लोगों ने क्या गुनाह किया है.तो अब इसी परिचय की कड़ी में अगली कड़ी है हमारे हरदिल अजीज, देबाशीष ,का परिचय. देवाशीष के बारे में कुछ लिखना तो सूरज को दिया दिखाना है.लेकिन आज कोशिश की जा रही है.आज का दिन खास भी है क्योंकि आज १२ सितंबर को उनका जन्मदिन भी होता है.सो जन्मदिन की शुभकामनाऒं के साथ यह पोस्ट देबाशीष के लिये खासतौर से बिना किसी दबाव के लिखी जा रही है]
मैं जब भी देबाशीष के बारे में सोचता हूं तो मुझे अंसार कम्बरी का शेर याद आता है:-
चाहे जिधर से गुजरोगे, हमको पाओगे,
हमारे घर से सारे रास्ते गुजरते है.
अभी तक के हिंदी चिट्ठाकारी के सफर में जितनी भी खुराफातें हुयीं हैं सबमें देबाशीष का हाथ रहा है-प्रत्यक्ष या परोक्ष.चाहे वो अनुगूंज हो या बुनोकहानी.निरंतर हो या ब्लागनाद.ब्लागरोल हो या फिरचिट्ठाचर्चा.इंडीब्लागर तथा चिट्ठा विश्व के तो ये पीर-बाबर्ची-भिस्ती-खर रहे हैं.
अभी तक के हिंदी चिट्ठाकारी के सफर में जितनी भी खुराफातें हुयीं हैं सबमें देबाशीष का हाथ रहा है-प्रत्यक्ष या परोक्ष
ये सारी बातें निरंतर के कच्चा चिट्ठा में बतायी जा चुकी हैं.दोहराव से बचते हुये दूसरी बातें कहने की कोशिश की जाये तो क्या हर्ज.भोले-भाले चेहरे वाले देबाशीष आत्मविज्ञापन से काफी बचने की कोशिश करते हैं.कच्चा चिट्ठा के बाकी ब्लागर के परिचय चिट्ठा विश्व में हैं सिवाय देबाशीष के.हमने कारण पूछा तो बताया गया -अच्छा नहीं लगता अपने दरवाजे अपनी फोटो सजा के लगाना.
संपादक जी उर्फ इंडीब्लागर उर्फ रिंगमास्टर उर्फ चक्कूदादा उर्फ देबू भाई उर्फ देबाशीष ने अपने हिंदी ब्लाग की शुरुआत नवंबर, २००३ में की.शुरुआती पोस्ट में लिखा:-
आलोक और पद्मजा के बाद अब मेरी बारी हिंदी चिठ्ठों की दुनिया में प्रवेश की। पर भारत पाक की बातचीत की तरह ज्यादा उम्मीदें न रखें। रफ्तार तो नल प्वाईंटर वाली ही रहेगी, बदलेगा तो बस अंदाज़े बयां।इन बदले हुये अंदाज के बारे में तो वो लोग बतायेंगे जो इनके पहली पोस्ट के पहले की कहानी जानते हों.पर जब संख्या दो अंकों से कम रही होगी ब्लाग की तथा टिप्पणियां शून्य रहीं होंगे तब का लिखना देखना हो तो इनकी पुरानी ‘पोस्टें’ देखें.
वैसे अगर देबाशीष की किसी एक सबसे पसंदीदा पोस्ट को मुझसे चुनने को कहा जाये तो मैंक्या देह ही है सब कुछ को चुनूंगा.निरंतर के लेख तथा कहानियां अलग बात हैं.इसमें हायकू नहीं जोड़े जा रहे हैं जो वे समय -समय पर ठेलते रहे.
देवाशीष का लेखन (हिंदी तथा अंग्रेजी दोनो)तथा तकनीकी कौशल गजब का है.’वन मैन आर्मी’ की तरह काम करने में सक्षम देबू के कारण अक्सर काम का बोझ काफ़ी आ जाता रहा. इसीलिये शायद कहा गया है-वर्किंग हार्सेस आरे लोडेड मोर.
पंकज का मानना है देबू ‘गीक’ टाइप शख्सियत है.हम बोले -गीक बोले तो? पता चला कि जिसको नयापन आकर्षित करता है.चुनौतियां काम करने को उकसाती हैं.जहां चुनौती खत्म वहां रुचि समाप्त .इस मामले में ये अपने तेंदुलकर ठहरे जिनके बारे में गावस्कर कहते थे कि तेंदुलकर तब आउट होता है जब गेंदबाज की चुनौती समाप्त हो जाती है.
ऐसे नये ,चुनौतीपूर्ण काम करने की छटपटाहट वाले लोगॊं के लिये नासिरा शर्मा ने शब्द दिया है-बेचैन रुह का परिंदा. तो ये अपने देबू बेचैन रूह के परिंदे हैं जो हरदम कुछ नया,आकर्षक तथा उपयोगी करने को छटपटाते रहते हैं.
अपने देबू बेचैन रूह के परिंदे हैं जो हरदम कुछ नया,आकर्षक तथा उपयोगी करने को छटपटाते रहते हैं
चेहरे से विनम्रता का झंडा लहराने वाले देबाशीष आमतौर पर किसी पंगे से
बचने की भरसक कोशिश करते हैं.सींग से सींग भिडा़कर लड़ते रहना तो इन्हें
बिल्कुल नहीं आता.हां कभी-कभी डायलाग मारने से परहेज नहीं करते.दो किस्से
मुझे याद हैं जब कोई आइडिया उछालते हुये अतुल ने प्रस्ताव दिया था कि चिट्ठाविश्व
प्रस्तावित पत्रिका में मिला दिया जाये.तो देबू गर्जे-मैं पत्रिका बंद
करना ज्यादा बजाय चिट्ठाविश्व को बंद करने के.ये गर्जन कुछ ऐसी ही थी जैसे
धर्मेन्द्र शोले में बसन्ती से अलग होने की बात पर गरजते हैं.
दूसरे जब नारद की बात चली थी तो देबू बोले-कोई नया काम करो.चिट्ठाविश्व के
पीछे किस लिये पड़े हो?जब ये खत्म हो जाये तो इसकी कब्र पर अपना तंबू गाड़
लेना.पर ये देबू के गर्जन-तर्जन बहुत अल्पजीवी रहे.देखा गया अगली किसी टिप्पणी में उसी चीज के सुधार के उपाय बता रहे हैं जिसकी अवधारणा पर पिछली टिप्पणी में उबल रहे थे.कहासुनी में देबू के पक्ष में खड़े होना बहुत खतरनाक है.क्योंकि ये जिससे नाराज भी होंगे तो अगले दिन उसी को कुछ सलाह दे रहे होंगे.अगला ठगा सा खड़ा रह जाता है.कोई झगडा़ लंबा खींचना न देबू को आता है न पसंद है.
इंडीब्लागीस भारतीय ब्लाग के इतिहास में अनूठे योगदान के लिये जाना जाता है.इसकी सारी परिकल्पना और आयोजन देबाशीष अपने मित्रों के सहयोग से करते रहे.तमाम कमियां लोग बताते रहे इसके आयोजन के दौरान.लेकिन आलोचक भी टकटकी लगाये इसकी गतिविधियां निहारते रहे.इसी के लिये शायद कहा गया है-आप उससे सहमत हो सकते हैं ,असहमत हो सकते हैं लेकिन उसकी उपेक्षा नहीं कर सकते.
इस भोले चेहरे के पीछे शरारती तत्व भी छिपे हैं. किसी ब्लाग पर कोईअनाम टिप्प्णी करके कहेगा-
अरे भैया – कब सीखोगे कि ड़ कैसे लिखते हैं। हर बार ङ लिख देते हो – पढ़ के आँखें पीड़ित हो जाती हैं। बिंदी इसी तरह दाएँ को उड़ती रही तो किसी दिन हड़बड़ाते हुए लड़खड़ा जाओगे।कहीं अमरसिंह के ब्लाग पर कोई निंदकटिप्प्णी लिखेगा तो ब्लाग कैसे चलेगा.कितने दिन चलेगा.प्रसंगत: बता दूं कि वो ब्लाग अमरसिंह का नहीं रहा होगा क्योंकि एक तो अमरसिंह को अगर लिखना होता तो मुफ्त की ब्लागर सेवा का उपयोग करने के बजाय अपनी बढिया सी साइट बनाते.दूसरे जो लोग टी.वी. देखते हैं वो जानते हैं कि अमरसिंह जब भी बोलते हैं तो शेरो-शायरी का भरपूर प्रयोग करते है.अगर वो लिखते तो शेरो-शायरी का जरूर प्रयोग करते.
लेकिन सेर को सवा सेर भी मिलते हैं.इनकी एक पोस्ट पर एक अनाम टिप्पणीकार ने इनकी वो गत की कि बेचारे उसके चरणकमल मांगने लगे.लेकिन अनाम लोग जब नाम नहीं रखते तो चरणकमल कहां से देंगे?
.
ये ‘परफेक्शनिस्ट अप्रोच’ ही देबू की ताकत भी है तथा यही उनकी सीमा भी
देबू की सोच ऊंची रही है.पानी विशेषांक हो तो इंटरव्यू मेधापाटेकर का
होना मांगता.चाहे फिर वो लेने के लिये कितने ही पापड़ बेलने पड़ें.चाहे
टेलीफोन से लिये इंटरव्यू में सुनना फिर लिखना बार-बार मरना हो लेकिन
क्वालिटी से कोई समझौता नहीं. ये ‘परफेक्शनिस्ट अप्रोच’ ही देबू की ताकत भी है तथा यही उनकी सीमा भी.इसी कारण इनका लिखना उतना नहीं हो पाता जितना ये सोचते हैं.इन्हीं के लिये सुभाषितलिखा गया था:-
’कामा-फुलस्टाप’,’शीन-काफ’ तक का लिहाज रखकर लिखने वाला ‘परफेक्शनिस्ट ब्लागर’ गूगल की शरण में पहुंचा वह ब्लागर होता हैं जिसने अपना लिखना तबतक के लिये स्थगित कर रखा होता है जब तक कि ‘कामा-फुलस्टाप’ ,’शीन-काफ’ को ‘यूनीकोड’ में बदलने वाला कोई ‘साफ्टवेयर’ नहीं मिल जाता।जैसे हर सफल आदमी की पीछे एक पत्नी का हाथ होता है वैसे ही देबाशीष की सफलता के पीछे उनकी पत्नीश्री ,मिताली,का सहयोग रहा.भले देबू न बतायें लेकिन जानने वाले बताते हैं कि निरंतर के कई लेख इनकी श्रीमतीजी ने टाइप किये. समय-समय पर इनके आंसू पोछने का भी काम करती रहीं.सबसे बडा़ काम जो वो करती हैं वो है घर में देबू के ‘नेटसर्फिंग’ करते समय इनकी आंख पर आंख रखना.लोग-बाग तो यह भी कहते हैं कि जो कन्याओं के खुले कपडों पर जो अपनेकपड़े फाड़ने का काम देबाशीष करते हैं वो भी उनको प्रभावित करते के लिये करते हैं.
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देबाशीष की सफलता के पीछे उनकी पत्नीश्री का सहयोग रहा.भले देबू न बतायें लेकिन जानने वाले बताते हैं कि निरंतर के कई लेख इनकी श्रीमतीजी ने टाइप किये
देबाशीष जिस काम को हाथ में लेते हैं उसे अपनी प्रतिष्ठा मान कर पूरा
करते है.फालतू के काम में हाथ डालने की आदत नहीं है इनकी.अक्सर जिस काम को
लेते हैं उसे अपनी शर्तों पर पूरा करने का प्रयास करते हैं.अपने व्यक्तिगत
प्रयासों में सुझाव सबका लेते हैं लेकिन अमल वहीं तक जहां तक इनकी
स्वतंत्रता बाधित न हो. रिंगमास्टर के इस अंदाज को कुछ लोग इनकी अपनी पकड़
बनाये रखने की छ्टपटाहट कहते हैं तो कुछ लोग काम खराब होने से बचाने की
कोशिश के लिये सक्रियता.अंग्रेजी के ब्लागरों में भी देबाशीष की काफी पहुंच है.लोग जानते है,मानते है.हिंदी के ब्लागर को शुरुआती सहायता देबू प्रदान करते रहे हैं-हमेशा. वाह,बहुत अच्छा लिखा है,मजा आ गया,क्या कहने,जवाब नहीं लिखने में ज्यादा भरोसा नहीं है देबू का.बहुत कंजूस पाठक हैं ये.लेकिन अगर किसी का फीड गड़बड़ है ,सेटिंग गड़बड़ है तो ये लिखेंगें ये करो,वो करो.
क्या क्या लिखा जाये? इतना लिखने के बाद भी अविगत गति कुछ कहत न जावै वाला मामला है.वर्णनातीत सा है इनके बारे में लिखना.
जब देबाशीष ने लिखना शुरु किया था तब ये तीसरे थे.अब १०३ लोग हो गये हैं. तीन से एक सौ तीन के सफर को पूरा संभव नहीं है एक पोस्ट में समेटना.हिंदी ब्लागिंग के इस मुकाम तक पहुंचने के सफर में देबू का लगातार सहयोग रहा है.जैसा कि रविरतलामी जी ने आलोक तथा देबाशीष का जिक्र करते हुये लिखाहै:-
देबाशीष के बताने पर ब्लॉग की शुरूआत की. ये दोनों तो, हिन्दी ब्लॉग जगत के पितृपुरूष हैं.तो इन्हीं ब्लागपिताऒं में से एक देबाशीष का आज जन्मदिन है(संयोग कि दूसरे ब्लागपिता आलोक से भी आज ही बात भी हुई).हिंदी ब्लागिंग का जब कभी इतिहास लिखा लिखा जायेगा उसमें ढेरों पन्ने देबाशीष के लिये खर्च करने पडेंगें.
यह सब कुछ मैंने अपनी याददास्त से लिखा.अब पूरे मन से कामना करता हूं कि देबाशीष की सक्रियता बनी रहे.लिखना लगातार जारी रहे.देबाशीष किसी की मदद के मोहताज नहीं रहे.हमेशा अपने दम काम करते रहे.इनके चमकने के लिय किसी खास अवसर की दरकार नहीं होती.सदैव देदीप्यमान रहते हैं इन जैसे लोग. यह कविता शायद मेरी बात ज्यादा सटीक कह सके:-
जो सुमन बीहड़ों में, बन में खिलते हैंमैं देबाशीष को उनके जन्मदिन के अवसर पर तमाम शुभकामनाऒं के साथ आगे उत्तरोत्तर प्रगति की कामना करता हूं.
वो माली के मोहताज नहीं होते.
जो दीप उम्र भर जलते हैं ,
वो दीवाली के मोहताज नहीं होते.
Posted in इनसे मिलिये | 31 Responses
देबू के ‘सेरेब्रल’ लेखन की कदर तो कौन नहीँ करेगा.
‘गीक’ के पाँव ब्लाग के पलने मेँ ही दिखते हैँ.
अनूप भाई को “देबूचरित” लिखने के लिये विशेष धन्यवाद क्योंकि उनके प्रयास से एक गुमनाम कर्मयोगी के बारे मे कुछ और जानने को मिला |
प्रत्यक्षा
देबू अक्सर कहते है इनमे नेतृत्व करने की कमी है, मै कहता हूँ,ऐसा कहना तो इनका बड़प्पन है,जबकि सारा का सारा हिन्दी ब्लागजगत इनके नेतृत्व मे ही खड़ा है.हम चाहेंगे की हमे हमेशा देबू की लीडरशिप मिले.
पुन: जन्मदिन की बहुत बहुत बधाईयाँ. दादा….रोशगुल्ला कोथाय?
पंकज
दादा तुम जिओ हजारों साल और साल के दिन हो सवा लाख… …
-राजेश
जन्मदिन की हार्दिक बधाई
आशीष
विनय, इन्द्र, अनुनाद, सुनील, प्रत्यक्षा, पंकज, जीतू, शशि, राजेश, अतुल, रमण, आशीष, इस्वामी, सारिका, प्रतीक, तरुण, बधाइयों के लिये आप सभी का हार्दिक धन्यवाद! अनूप मेरे बहुत अच्छे मित्र हैं, सो मूड में आकर काफी कुछ लिख गये, तो निवेदन यही कि यह “देबूचरित” स्वादानुसार नमक डालकर ग्रहण करें। अभी उम्र के ऐसे पड़ाव में पदार्पण कर रहा हूँ कि जन्मदिन पर हर्ष कम और वर्ष ज्यादा नज़र आते हैं। पर इस चिट्ठे और आपकी बधाइयों ने दिन वाकई खास बना दिया!
मुझे यह देखकर बहुत खुशी होती है कि हिन्दी ब्लॉगर समुदाय काफी नज़दीक आ गया है। कई बार आपको अनुमान नहीं होता और “चिट्ठाकार” समूह और “चिट्ठा विश्व” जैसे बड़े साधारण से कदम भी आगे जाकर काम के साबित होते हैं। मैं यह स्वीकार करता हूँ कि किंचित प्रयासों में, खास तौर पर जिनकी नींव ही आपने डाली हो, अपना नियंत्रण खोना प्रिय नहीं होता, “अपनी पकड़ बनाये रखने की” मानवीय छटपटाहट भी होती है। शायद इसीलिये “अनुगूँज” जैसे आयोजन के कामकाज से मैंने स्वयं को काफी पहले ही अलग कर लिया था, आज यह स्वस्फूर्त धारा की तरह स्वयमेव ही चल रही है। चिट्ठाकार समूह, बुनो कहानी पर भी केवल मेरी ही “पकड़” नहीं है, यह विश्वास दिलाना चाहता हूँ। निरंतर ब्लॉगज़ीन के प्रयोग से मैं कुछ बेहतरीन चिट्ठाकारों के और करीब आ सका, इससे जुड़े सभी सदस्य मेरे दिल के बहुत करीब हैं। फिलहाल इस पत्रिका का भविष्य अनिश्चित है और मैं उम्मीद करता हूँ कि यह समुदाय हमें बतायेगा कि क्या कमियाँ रहीं और क्या और कैसे हम यह पत्रिका जारी रखें।
हिन्दी चिट्ठाकारी का भविष्य उज्ज्वल है। वह समय दूर नहीं जब इसकी “कमर्शियल वेल्यू” भी लोगों को समझ आने लगेगी, उस समय विस्तार और भी तेज़ होगा। बहरहाल यह विश्वास है कि ब्लॉगिंग से निकट भविष्य में तो मेरी “रुचि समाप्त” नहीं होगी। साथ ही यह भी कोशिश करूंगा कि “कंजूस पाठक” न बना रहूं। सभी का पुनः धन्यवाद!
लक्ष्मीनारायण
आपकी प्रशंसा में ये अधूरा व्यंज़ल पूरा करता हूँ
चाहे जिधर से गुजरोगे, हमको पाओगे,
हमारे घर से सारे रास्ते गुजरते है.
गुजर जाओगे इधर से पर वापस आओगे
सारे रास्ते हमारे घर को वापस आते हैं.
चिरायु भवः
रवि
मुझे देरी से पता चला. देबुभाई हमारी भी बधाई स्वीकर करें.