Wednesday, November 02, 2005

ढोल,गंवार,शूद्र,पशु,नारी…

http://web.archive.org/web/20110925143539/http://hindini.com/fursatiya/archives/63


रामचरितमानस का पारायण हम बचपन से ही करते आ रहे हैं। शुरुआत में तो अंत्याक्षरी में अपने जौहर दिखाने के लिये। उन दिनों हमारे गुरुजी कविताओं तथा रामचरितमानस की चौपाइयों के आधार पर अंत्याक्षरी कराते। कवितायें तो गिनी-चुनी याद थीं लेकिन चौपाइयों-दोहे की संपदा दिन-पर-दिन बढ़ती गई। बाद में देखा कि हर खुशी के मौके पर लोग ‘रामायण’ का अखंड पाठ कराते। पाठ दो दिन चलता। श्रद्धालु लोग कभी द्रुत, कभी विलम्बित लय में मानस का पाठ करते। तमाम हनुमान भक्त हर सोमवार को सुंदरकाण्ड का पाठ करते हैं।
बाद में मानस से और जुड़ाव होता गया। नीति संबंधी दोहे-चौपाइयों का रामचरितमानस में अद्भुत संकलन है। हमने भी तमाम प्रश्नों के उत्तर रामशलाका प्रश्नावली में खोजे। रामचरित मानस लोकमंगलकारी ग्रन्थ के रूप में जाना जाता है। लेकिन समय-समय पर इसके तमाम अंशो पर सवाल उठाये जाते रहते हैं। इसमें से एक चौपाई जिसका सबसे ज्यादा जिक्र होता है वह है:-
ढोल,गँवार ,सूद्र ,पसु ,नारी।सकल ताड़ना के अधिकारी।।
अक्सर इस चौपाई को लेकर दलित संगठन,महिला संगठन तथा कभी-कभी मानवाधिकार संगठन भी अपना आक्रोश जताते हैं। कुछ लोग इसे रामचरितमानस से निकालने की मांग करते हैं। कभी मानस की प्रतियां जलाते हैं। तुलसीदास को प्रतिगामी दलित,महिला विरोधी बताते हैं। अगर आज वे होते शायद तस्लीमा नसरीन की तरह या सलमान रस्दी की तरह देशबदर न सही तो जिलाबदर तो कर ही दिये जाते।
वैसे तुलसीदास जी के रचे तमाम प्रसंगों से ऐसा लगता है कि गोस्वामी जी आदतन स्त्री विरोधी थे। शायद अपने जीवन के कटु अनुभव हावी रहे हों उनपर। नहीं तो वे राम के साथ सीताजी की तरह लक्ष्मण के साथ उर्मिलाजी को भी वन भेज देते या फिर रामचन्द्रजी से सीता त्याग की बजाय सिंहासन त्याग करवाते तथा रामचन्द्रजी को और बड़ा मर्यादा पुरुषोत्तम दिखाते।
बहरहाल यह चौपाई बहुत दिन से मेरे मन में थी तथा मैं यह सोचता था कि क्यों लिखा ऐसा बाबाजी ने। मैं कोई मानस मर्मज्ञ तो हूं नहीं जो इसकी कोई अलौकिक व्याख्या कर सकूं। फिर भी मैं सोचता था कि ‘बंदउं संत असज्जन चरना’लिखकर मानस की शुरुआत करने वाला व्यक्ति कैसे समस्त ‘शूद्र’ तथा ‘स्त्री’ को पिटाई का पात्र मानता है।
कल फिर से मैंने यह चौपाई पढ़ी। अचानक मुझे स्व.आचार्य विष्णु कांत शास्त्री जी का एक व्याख्यान याद आया। दो साल पहले उन्होंने किसी रचना पर विचार व्यक्त करते हुये सारगर्भित व्याख्यान दिया था । तमाम उदाहरण देते हुये स्थापना की थी कि श्रेष्ठ रचनाकार अपने अनुकरणीय आदर्शों की स्थापना अपने आदर्श पात्र से करवाता है। अनुकरणीय आदर्श ,कथन अपने श्रेष्ठ पात्र के मुंह से कहलवाता है।
इस वक्तव्य की रोशनी में मैंने सारा प्रसंग नये सिरे से पढ़ा। यह प्रसंग उस समय का है जब हनुमानजी सीता की खबर लेकर वापस लौट आये थे। तथा राम सीता मुक्ति हेतु अयोध्या पर आक्रमण करने के लिये समुद्र से रास्ता देने की
विनती कर रहे थे। आगे पढ़ें:-
विनय न मानत जलधि जड़ गये तीन दिन बीत।
बोले राम सकोप तब भय बिनु होय न प्रीत ।।

(इधर तीन दिन बीत गये,किंतु जड़ समुद्र विनय नहीं मानता। तब रामजी क्रोधसहित बोले- बिना भय के प्रीति नहीं होती)
लछिमन बान सरासन आनू।सोषौं बारिधि बिसिख कृसानु।।
सठ सन बिनय कुटिल सम प्रीती।सहज कृपन सन सुंदर नीती।।

(हे लक्ष्मण! लाओ तो धनुष-बाण। मैं अग्निबाण से समुद्र को सोख डालूं। मूर्ख से विनय, कुटिल के साथ प्रीति, कंजूस से उदारता की बात)
ममता रत सम ग्यान कहानी।अति लोभी सन बिरति बखानी ।।
क्रोधिहिं सम कामिहि हरि कथा।ऊसर बीज बएँ फल जथा ।।

(ममता में डूबे व्यक्ति से ज्ञान की कहानी,लोभी से वैराग्य का वर्णन,क्रोधी से शान्ति की बात और कामी से भगवान की कथा, इनका फल वैसा ही व्यर्थ होता है जैसा ऊसर में बीज बोने से होता है)
अस कहि रघुपति बान चढ़ावा।यह मत लछिमन के मन भावा ।।
संधानेउ प्रभु बिसिख कराला।उठी उदधि उर अंतर ज्वाला ।।

(ऐसा कहकर श्रीरघुनाथजी ने धनुष चढ़ाया। यह मत लक्ष्मणजी के मन को बहुत अच्छा लगा। प्रभु ने भयानक अग्निबाण सन्धान किया,समुद्र के हृदय में अग्नि की ज्वाला उठी)
मकर उरग झष गन अकुलाने।जरत तुरंत जलनिधि जब जाने।।
कनक थार भरि मनि गन नाना।बिप्र रूप आयउ तजि माना।।

(मगर,सांप तथा मछलियों के संमूह व्याकुल हो गये। जब समुद्र ने जीवों को जलते जाना तब सोने के थाल में अनेक रत्नों को भरकर अभिमान छोड़कर वह ब्राह्मण के रूप में आया)
काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच।
बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच।।

(चाहे कोई कितने ही उपाय कर ले पर केला तो काटने पर ही फलता है । नीच विनय से नहीं मानता वह डांटने पर ही रास्ते पर आता है।)
सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे।छमहु नाथ सब अवगुन मेरे।।
गगन समीर अनल जल धरनी।इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी।।

(समुद्र ने भयभीत होकर प्रभु के चरण पकड़कर कहा-हे नाथ! मेरे सब अवगुण क्षमा कीजिये। हे नाथ! आकाश, वायु, अग्नि ,जल और पृथ्वी- इन सब की करनी स्वभाव से ही जड़ है।)
तव प्रेरित माया उपजाए। सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि गाए।।
प्रभु आयसु जेहिं कहँ जस अहई। सो तेहि भाँति रहे सुख लहई।।

(आपकी प्रेरणा से माया ने इन्हें सृष्टि के लिये उत्पन्न किया है,सब ग्रन्थों ने यही गाया है। जिसके लिये स्वामी की जैसी आज्ञा है,वह उसी प्रकार रहने में सुख पाता है।)
प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्ही।मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्ही।।
ढोल , गँवार ,सूद्र ,पसु नारी।सकल ताड़ना के अधिकारी।।

(प्रभु ने अच्छा किया जो मुझे दण्ड दिया। किंतु मर्यादा(जीवों का स्वभाव भी आपकी ही बनायी हुई है। ढोल,गँवार,शूद्र,पशु और स्त्री -ये सब दण्ड के अधिकारी हैं)
प्रभु प्रताप मैं जाब सुखाई।उतरिहि कटकु न मोरि बढ़ाई।।
प्रभु अग्या अपेल श्रुति गाई।करौं सो बेगि जो तुम्हहि सोहाई।।

(प्रभु के प्रताप से मैं सूख जाऊँगा और सेना पार उतर जायेगी,इसमें मेरी मर्यादा नहीं नहीं रहेगी। तथापि आपकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं हो सकता । ऐसा वेद गाते हैं । अब आपको जो अच्छा लगे, मैं तुरंत वही करूँ।)
अंत में समुद्र ने विधि बताई कि नल-नील नामक दो भाई हैं जिनके स्पर्श से पत्थर तैरने लगते हैं। उनके हाथ से पुल बने जिसके ऊपर से वानर सेना लंका जा सकती है।
बहरहाल यह तय हुआ कि यह विवादास्पद चौपाई राम ने नहीं कही। अत: यह तुलसीदास जी का मंतव्य नहीं था। यह किसी भी तरह से उनका आदर्श नहीं था। यहां समुद्र अधम पात्र के रूप में चित्रित है। अधम माने आज के विलेन टाइप के। या फिर कैरेक्टर रोल की तरह जो शुरु में खराब रहते हैं तथा बाद में सुधर जाते हैं। तो ऐसे पात्र के मुंह से कही बात कवि का आदर्श नहीं हो सकती। अत: इस चौपाई के ऊपर लोगों का अपने कपड़े फाड़ना शायद जायज नहीं है।
शायद आप यह समझें कि मैं तुलसीदास के नकारात्मक मूल्यों को सही ठहराना चाहता हूं। लेकिन ऐसा कतई नहीं हैं। मैं तो चीजों को उनके संदर्भ में रखने की कोशिश कर रहा हूं। आप सहमत हों तो ठीक । न हों तो आपकी मर्जी।
यह भी सवाल उठाया जा सकता है कि अगर राम का आदर्श नहीं था यह तो उन्होंने इसका प्रतिवाद क्यों नहीं किया। इस पर मैं यही कहूंगा कि जिस पति को अपनी पत्नी को दूसरे की कैद से छुड़ाने की पड़ी हो उसको यह होश कैसे रह सकता है कि वह दूसरे के कहे की उचित-अनुचित की स्थापना के लिये मगजमारी करे। क्या पता मगजमारी की भी हो जिसे लिखना गोस्वामी जी हड़बड़ी में या गैरजरूरी मानकर भूल गये हों।

मेरी पसंद


सो न सका कल याद तुम्हारी आई सारी रात
और पास ही बजी कहीं शहनाई सारी रात

मेरे बहुत चाहने पर भी नींद न मुझ तक आई
ज़हर भरी जादूगरनी-सी मुझको लगी जुन्हाई
मेरा मस्तक सहला कर बोली मुझसे पुरवाई
दूर कहीं दो आँखें भर-भर आई सारी रात
और पास ही बजी कहीं शहनाई सारी रात
गगन बीच रुक तनिक चन्द्रमा लगा मुझे समझाने
मनचाहा मन पा लेना है खेल नहीं दीवाने
और उसी क्षण टूटा नभ से एक नखत अनजाने
देख जिसे तबियत मेरी घबराई सारी रात
और पास ही बजी कहीं शहनाई सारी रात
रात लगी कहने सो जाओ देखो कोई सपना
जग ने देखा है बहुतों का रोना और तड़पना
यहाँ तुम्हारा क्या, कोई भी नहीं किसी का अपना
समझ अकेला मौत मुझे ललचाई सारी रात
और पास ही बजी कहीं शहनाई सारी रात
मुझे सुलाने की कोशिश में जागे अनगिन तारे
लेकिन बाज़ी जीत गया मैं वे सबके सब हारे
जाते-जाते चाँद कह गया मुझसे बड़े सकारे
एक कली मुरझाने को मुसकाई सारी रात
और पास ही बजी कहीं शहनाई सारी रात
-स्व.रमानाथ अवस्थी

फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

22 responses to “ढोल,गंवार,शूद्र,पशु,नारी…”

  1. जीतू
    देखो भइया,
    तुम्हारे इस लेख मे तुम चाहे जितना तुलसीदास का बचाव कर लो, लेकिन तुलसीदास जी रामायण मे ही कई कई जगह चूके हैं। इसलिये यह कहना कि ढोल,गंवार….. वाला वाक्य, उनका नही…. मै नही मानता। मेरे विचार से इस वाक्य का प्रयोग करना, उस समय की सामाजिक व्यवस्था का चित्रण है। फिर भी कोई इतिहासविद ही इस बात को साबित कर सकेगा। हम तो बस इतना ही कहेंगे कि कथवस्तु मे इस वाक्य को कहे बिना भी काम हो सकता था। क्या कहते हो गुरु?
  2. Tarun
    Tulsidas ne jo keha wo h tab ke sandarf me keha aur bilkul thik keha: ढोल , गँवार ,सूद्र ,पसु नारी।सकल ताड़ना के अधिकारी।। kyonki us daur me ye Aadam (mard jaat) is logon ko isi laayak maanta tha aur aisa hi vyavhar karta tha aur yehi sab unhone bataya. Raha sawal logo ka to woh is baat ka halla karenge bazar me aur phir raat ko ghar jaake haath uthayenge naari per.
    Aue Jitu bhai itni galtiyon ke baavjud Janta ne Ramayan ko sir aankhon me bhaithaya hai Agar bilkul hi vishud hoti to kya hota….soch lo.
  3. Aul
    सबसे पहले प्रदूषित भाषा के लिए क्षमा।
    बिना कोई मीमांशा किये इतिहास का चीरहरन करके वितंडा करना हम हिंदुस्तानियो की लत हो गई है और तमाशा करते करते हम खुद तमाशा बन जाते हैं। एकदिन उमाभारती कहती हैं “श्रीकृष्ण ने जैसे जरासंघ को फाड़ा वैसे राजद को फाड़ देंगे।” अगले दिन चँद्रवँशी समाज नमूदार हो गया। लग गयी धार्मिक भावनाओ को ठेस। जरासँघ का अपमान माने चँद्रवँशियो का अपमान। अब इन उल्लू के पठ्ठे चँद्रवँशियो से पूछो कि पँद्रह साल से लालू उल्लू बना रहा था तब नही तुम्हारे पिछवाड़े पे ठेस। लगे हाथ मुल्लो की भी धुलाई करने की तबीयत है, सलमान रश्दी कुछ लिखते है लँदन में, बिना पढे लिखे जाहिल अपनी ही टाकीज अपनी ही बसे जला डालते हैं। सच तो यह है कि हम सब धर्म के नाम पर ढकोसला करते हैं, धूर्त है हम सब। अगर धार्मिक भावनाऐ होती तो इतने उदार होते हम कि इन जरा जरा से मुद्दो से ठेस नही लगती। ठेस लगती है धर्म के समाज के उन ठेकेदारो को जिनके पिछवाड़े राजगद्दी पर बैठने के लिए खुजलाते रहते हैं और गधी जनता विकास की गाजर देख कर आगे नही बढना चाहती वह आत्मसम्मान के नाम पर सहर्ष उल्लू बन जाती है। सौ की सीधी एक बात सम्मान उसका होता है जिसमे क्षमता हो। हम तो आत्मसम्मान की धार्िमक मर्यादा की ढपली पीटते रहते हैं पर कोई सुनता है दुनिया मे हमारी?
  4. kkpandey
    का शुकुल् रामायण की चौपाइ लइके बैठ गयो, सुनेव नही तुम्हरे सुक्लो लिखै मां बाधा आगयी है दलित जन कोरट्वा मा केस बनाय है कि ई ऊच जात वाले शुकुल, मिश्र, चौधरी, लिख के हमार इज्जत खराब करत है. तवन एइसा होय कि कौनो अपने नमवा के आगे कुछो ना लिख सकै. बचावा भाई खतरा बहुत मड्ररात है.
  5. kkpandey
    का शुकुल् रामायण की चौपाइ लइके बैठ गयो, सुनेव नही तुम्हरे सुक्लो लिखै मां बाधा आगयी है दलित जन कोरट्वा मा केस बनाय है कि ई ऊच जात वाले शुकुल, मिश्र, चौधरी, लिख के हमार इज्जत खराब करत है. तवन एइसा होय कि कौनो अपने नमवा के आगे कुछो ना लिख सकै. बचावा भाई खतरा बहुत मड्ररात है.
  6. भोला नाथ उपाध्याय
    अतुल भाई की भाषा प्रदूषित ही सही पर बात एकदम काँटे की है| रही बात तुलसी दास की तो भाई लोगों, बीबी के लतियाये हुए व्यक्ति की भँडास है यह वाक्य |न तो इसका कोई बचाव करना चाहिये और ना ही इसे किसी काल विशेष का चल मानना चाहिये| सच कहा जाय तो रामचरित मानस हिन्दुओं का धर्मिक ग्रन्थ तो होना ही नहीं चहिए |इसे बस एक कवि (भले ही लतियाने के बाद बने हों)की रचना के तौर पर ही देखना चाहिये| एक काव्य संग्रह के रूप मे यह निःसन्देह एक श्रेष्ठ रचना है| जैसा कि विदित है, हर एक कथानुमा रचना के लिये एक हीरो की जरूरत होती है| अतः तुलसी दास ने राम को हीरो बनाने के लिय ढेर सारी कल्पनिक घटनाँएं जोड दी थीं काव्य सन्ग्रह में और यह इतना लोकप्रिय हुआ कि लोग इस रचना के पहले की रचनाओं मे लिखी बातों को भूल कर इसमें लिखी बातों को ही ऐतिहासिक सत्य मानने लगे| ऐसा केवल इसी केस में नहीं हुआ है | एक उदाहरण और है जब हमनें लोकप्रियता के चलते एक अमौलिक कथनक को मौलिक और ऐतिहासिक माना है | शकुन्तला दुष्यन्त की कहानी भी सैकडो साल पहले एक संसकृत साहित्य के जरिये कही गयी थी ( कवि का नाम याद नहीं आ रहा है अगर चाहें तो बी०ए० सन्सकृत के किसी छात्र से पूछ सकते है)जिसमें दुष्यन्त को एक ऐसे राजा के रूप में दर्शाया गया है जो अपनी वासना की पूर्ति के लिये शकुन्तला से शादी करता है और बाद मे लोक लाज के डर से उसे भूल जाने का नाटक़ करता है इस रचना के सैकडो साल बाद कालिदास ने इस कथा को दुबारा अपने नाट्य रचना के लिये चुना और लिखा | अब चूँकि उन्हें दुष्यन्त को हीरो दिखाना था अतः ऋषि का स्राप और अन्गूठी को मछली के द्वारा निगलने की काल्पनिक घटना जोड दी | आज आलम यह है कि हम मूल रचना को भूल ही चूके हैं और कालिदास की रचना को ही प्रामाणिक मानने लगे हैं| इसी तरह अगर हम रामचरितमानस को बाल्मिकी रामायण से ही कम्पेयर करें तो हम देखेन्गे कि दोनो रचनओं में काफी अन्तर है | वैसे फुरसतिया भाई साहब एक बहुत ही विचारात्मक लेख लिखा है जिसके लिये वे बधाई एवं सराहना के पात्र हैं |पढ कर मज़ा आ गया | मगर उनके तर्क से कई लोग असहमत हो सकते हैं जिसमें हम भी शामिल हैं| लेकिन उन्होंनें तो पहले ही लिख दिया है “आप सहमत हों तो ठीक । न हों तो आपकी मर्जी।

  7. भोला नाथ उपाध्याय
    अतुल भाई की भाषा प्रदूषित ही सही पर बात एकदम काँटे की है| रही बात तुलसी दास की तो भाई लोगों, बीबी के लतियाये हुए व्यक्ति की भँडास है यह वाक्य |न तो इसका कोई बचाव करना चाहिये और ना ही इसे किसी काल विशेष का चल मानना चाहिये| सच कहा जाय तो रामचरित मानस हिन्दुओं का धर्मिक ग्रन्थ तो होना ही नहीं चहिए |इसे बस एक कवि (भले ही लतियाने के बाद बने हों)की रचना के तौर पर ही देखना चाहिये| एक काव्य संग्रह के रूप मे यह निःसन्देह एक श्रेष्ठ रचना है| जैसा कि विदित है, हर एक कथानुमा रचना के लिये एक हीरो की जरूरत होती है| अतः तुलसी दास ने राम को हीरो बनाने के लिय ढेर सारी कल्पनिक घटनाँएं जोड दी थीं काव्य सन्ग्रह में और यह इतना लोकप्रिय हुआ कि लोग इस रचना के पहले की रचनाओं मे लिखी बातों को भूल कर इसमें लिखी बातों को ही ऐतिहासिक सत्य मानने लगे| ऐसा केवल इसी केस में नहीं हुआ है | एक उदाहरण और है जब हमनें लोकप्रियता के चलते एक अमौलिक कथनक को मौलिक और ऐतिहासिक माना है | शकुन्तला दुष्यन्त की कहानी भी सैकडो साल पहले एक संसकृत साहित्य के जरिये कही गयी थी ( कवि का नाम याद नहीं आ रहा है अगर चाहें तो बी०ए० सन्सकृत के किसी छात्र से पूछ सकते है)जिसमें दुष्यन्त को एक ऐसे राजा के रूप में दर्शाया गया है जो अपनी वासना की पूर्ति के लिये शकुन्तला से शादी करता है और बाद मे लोक लाज के डर से उसे भूल जाने का नाटक़ करता है इस रचना के सैकडो साल बाद कालिदास ने इस कथा को दुबारा अपने नाट्य रचना के लिये चुना और लिखा | अब चूँकि उन्हें दुष्यन्त को हीरो दिखाना था अतः ऋषि का स्राप और अन्गूठी को मछली के द्वारा निगलने की काल्पनिक घटना जोड दी | आज आलम यह है कि हम मूल रचना को भूल ही चूके हैं और कालिदास की रचना को ही प्रामाणिक मानने लगे हैं| इसी तरह अगर हम रामचरितमानस को बाल्मिकी रामायण से ही कम्पेयर करें तो हम देखेन्गे कि दोनो रचनओं में काफी अन्तर है | वैसे फुरसतिया भाई साहब एक बहुत ही विचारात्मक लेख लिखा है जिसके लिये वे बधाई एवं सराहना के पात्र हैं |पढ कर मज़ा आ गया | मगर उनके तर्क से कई लोग असहमत हो सकते हैं जिसमें हम भी शामिल हैं| लेकिन उन्होंनें तो पहले ही लिख दिया है “आप सहमत हों तो ठीक । न हों तो आपकी मर्जी।

  8. भोला नाथ उपाध्याय
    अतुल भाई की भाषा प्रदूषित ही सही पर बात एकदम काँटे की है| रही बात तुलसी दास की तो भाई लोगों, बीबी के लतियाये हुए व्यक्ति की भँडास है यह वाक्य |न तो इसका कोई बचाव करना चाहिये और ना ही इसे किसी काल विशेष का चलन मानना चाहिये| सच कहा जाय तो रामचरित मानस हिन्दुओं का धर्मिक ग्रन्थ तो होना ही नहीं चहिए |इसे बस एक कवि (भले ही लतियाने के बाद बने हों)की रचना के तौर पर ही देखना चाहिये| एक काव्य संग्रह के रूप मे यह निःसन्देह एक श्रेष्ठ रचना है| जैसा कि विदित है, हर एक कथानुमा रचना के लिये एक हीरो की जरूरत होती है| अतः तुलसी दास ने राम को हीरो बनाने के लिय ढेर सारी कल्पनिक घटनाँएं जोड दी थीं काव्य सन्ग्रह में और यह इतना लोकप्रिय हुआ कि लोग इस रचना के पहले की रचनाओं मे लिखी बातों को भूल कर इसमें लिखी बातों को ही ऐतिहासिक सत्य मानने लगे| ऐसा केवल इसी केस में नहीं हुआ है | एक उदाहरण और है जब हमनें लोकप्रियता के चलते एक अमौलिक कथनक को मौलिक और ऐतिहासिक माना है | शकुन्तला दुष्यन्त की कहानी भी सैकडो साल पहले एक संसकृत साहित्य के जरिये कही गयी थी ( कवि का नाम याद नहीं आ रहा है अगर चाहें तो बी०ए० सन्सकृत के किसी छात्र से पूछ सकते है)जिसमें दुष्यन्त को एक ऐसे राजा के रूप में दर्शाया गया है जो अपनी वासना की पूर्ति के लिये शकुन्तला से शादी करता है और बाद मे लोक लाज के डर से उसे भूल जाने का नाटक़ करता है इस रचना के सैकडो साल बाद कालिदास ने इस कथा को दुबारा अपने नाट्य रचना के लिये चुना और लिखा | अब चूँकि उन्हें दुष्यन्त को हीरो दिखाना था अतः ऋषि का स्राप और अन्गूठी को मछली के द्वारा निगलने की काल्पनिक घटना जोड दी | आज आलम यह है कि हम मूल रचना को भूल ही चूके हैं और कालिदास की रचना को ही प्रामाणिक मानने लगे हैं| इसी तरह अगर हम रामचरितमानस को बाल्मिकी रामायण से ही कम्पेयर करें तो हम देखेन्गे कि दोनो रचनओं में काफी अन्तर है | वैसे फुरसतिया भाई साहब ने एक बहुत ही विचारात्मक लेख लिखा है जिसके लिये वे बधाई एवं सराहना के पात्र हैं |पढ कर मज़ा आ गया | मगर उनके तर्क से कई लोग असहमत हो सकते हैं जिसमें हम भी शामिल हैं| लेकिन उन्होंनें तो पहले ही लिख दिया है “आप सहमत हों तो ठीक । न हों तो आपकी मर्जी।

  9. Laxmi N. Gupta
    प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्ही।मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्ही।।
    ढोल , गँवार ,सूद्र ,पसु नारी।सकल ताड़ना के अधिकारी।।
    आपने ध्यान दिया कि तुलसीदास जी ने रामचन्द्र जी से, “मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्ही” का विरोध नहीं कराया। तो रामचन्द्र जी इस बात का tacit समर्थन कर रहे हैं। रमानाथ अवस्थी जी की यह कविता पहले पढ़ रखी थी; फिर से पढ़ कर बहुत अच्छा लगा। अच्छा स्तम्भ लिखा है। धन्यवाद।
  10. आलोक कुमार
    कही भले ही न हो राम ने, लेकिन जिस प्रकार प्रेमचन्द छाप लेखक अनमोल वचन बोल जाते हैं – “फूल हम घर में भी सूँघ सकते है लेकिन वाटिक में अलग ही आनन्द होता है” – (बूढ़ी काकी?) – वे लेखक की विचारधारा को ही प्रकट करते हैं।
    सो चलिए मान लेते है कि राम दोषी नहीं थे, तुलसीदास ही दोषी थे, हमें आपत्ति नहीं! :)
  11. आलोक कुमार
    वैसे काफ़ी शोध करके सफ़ाई पेश की है आपने। साधुवाद।
  12. आशीष
    हम्म …..
    मेरा मानना तो यही है कि किसी भी रचना मे लिखा गया कोई भी कथन चाहे वो नायक द्वारा कहा गया हो, खलनायक द्वारा हो या प्रतिनायक के द्वारा हो लेखक के विचार ही होते है।
    यदि नायक और प्रतिनायक के कथन विरोधाभाषी हो तो भी यह लेखक के मन मे चल रहा एक प्रतिद्वंद होता है।
    खैर मै तो राम को भी मर्यादा पुरुषोत्तम नही मानता ! जो पुरुष अग्नी परिक्षा के बाद भी अपनी पत्नी का साथ नही दे सका काहे का मर्यादा पुरुषोत्तम ?
  13. सतीश पंचम
    बहुत सुंदर लेख और वैसी ही सुंदर टिप्पणीयां।
  14. डा. अमर कुमार

    हमारे स्व.पंडित सुन्दर लाल जी ने एक अलग व्याख्या दी थी,
    ढोल का तात्पर्य ढोल
    गँवार शूद्र और पशु नारी अलग रखे गये ।
    गँवार शूद्र = अशिक्षित व कमतर सोच वाला
    पशु नारी = पशुवृत्ति की स्त्री ( नैतिक अनैतिक को नकारने वाली )
    आज यह नयी किसिम की व्याख़्या मिली ।
    शायद ठीक ही हो..
    पर आलेख संग्रहणीय है ।
    मुला, ई आलेखवा संग्रह कईसे किया जायेगा, हो ?

  15. NITIN KUMAR PARMAR
    MERE HISAB SE TULSIDASH NE EKDUM SAHI KAHA HAI KUNKI JO BAAT AAJ SE 60 SAAL PAHLE BURI LAGTI THI AAJ WO EKDUM SAHI HOTI JA RAHI HAI
    YE DHOL, SHUDRA ,GAMAR PASHU NAARI YE SAB PEETENE KE LIYE HI HAI.
    DEKHTE NAHIN HAIN AAJ SHUDRA KITNE ATYACHAR KAR RAHEN HAIN. HINDU MARYADAYEN HINDU DHARM KO NASHT KARNE KI KITNI KOSHISH KAR RAHE HAIN. TULSIDASH PAR HUNGAMA KARTE HAIN LEKIN US KANSHIRAM KO BHUL JATE HAIN JISHNE “(TILAK TARAJU AUR TALWAR INMAIN MARO JUTE CHAR)” KAHA THA WO KISI KUTTE KO BURA NAHIN LAGTA HAI. ISH HINDUSTAN MAIN HINDU AUR THAKUR KI BAAT KARNA HI BAHUT BADHA GUNAH HAI.
  16. Dr.Adhura
    AGAR AAP RAMCHRITMANS KO EK JIVIT TAM KI KATHA MANTE HO TO RAM MARYADA PURSOTAM NAHI THE .OR ISE AAP TUSIDASS KI RACHNA MANTE HO TO YH US SMAY DASA KO BATA HAI . AAJ BHI LIKHA JATA HAI VH AAJ THIK HAI .KAL GALT HO SAKTA HAI .APNE ITIHAS KO MITANA YA US PAR KOI AAPTI KARNA TO PAGAL AADMIO KA KAM HOTA HAI .JO SAMAJ ANPAD KO FUSLA KAR APNA JUTHA ROB BNANA CHATE HAI VHI AAPTI KARTE HAI.MUDA ROTI SEKNE VALO KE LIYE ACHHA HAI.
  17. anju
    very good
  18. ePandit
    आपने बहुत अच्छे तरीके से तथ्यों को पेश किया। कई बार लोगों को लिखते सुना है कि तुलसीदास ने अपनी सोच को श्रीराम के कथन के रुप में पेश किया, ऐसा लिखने वाले लोगों ने शायद मानस पढ़ी ही नहीं, वरना आपकी तरह सच समझ जाते।
    जो लोग ऊपर कह रहे हैं कि चाहे विलेन के मुख से कहलवाया हो पर यह तुलसीदास की ही सोच है वे यह बतायें कि अनेक रचनाओं में विलेन कई गलत बातें कहता है क्या वे सब रचनाकार की सोच होती हैं?
    रही बात भोला जी के विचार कि रामचरितमानस को हिन्दू ग्रन्थ मानना ही नहीं चाहिये तो जिस ग्रन्थ को भगवान विश्वनाथ ने खुद सर्टिफाइ किया हो उसे कैसे हिन्दू ग्रन्थ न माना जाय। जिसे पता नहीं वो ये घटना पढ़े।
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  19. RAM PRASANN PANDEY
    जब छोटा था तो पिता जी साथ कभी कभी हाई वे सड़को पर जाया करता था तो वो सड़के बहत चौड़ी दिखाई देती थी
    और उस समय के हिसाब से थी भी क्योकि उस समय में यातायात के साधन और जनसँख्या आज के अपेक्षा बहुत ही कम थे मगर आज वो सड़के इतनी पतली लगती है की जैसे गली मोहल्लो की सडको की तरह आज तो फॉर लेन सडको का जमाना है लेकिन वो पुरनी सडक भी अपने जबाने की फॉर लेन से कम नहीं थी तुलसी दास ने जो कहा वो अच्छा है या नहीं ए फैसला करने वाले हम कौन होते है अच्छा क्या है बुरा क्या है कौन जनता है जो हमारे अनुकूल होता है उसे हम अच्छा कह देते है प्रतिकूल है तो बुरा क्या हम भी एक मानस लिख सकते है क्या तुलसीदास की रचनाओ की तरह हम भी रचनाये कर सकते है किसी की बात काटने के लिए उसके बराबर योग्यता होनी परिवर्तन प्रकृति का नियम है चाहिए छोटी मुह बड़ी बात नहीं होनी चाहिए ज्ञानियो की बात ज्ञानी ही समझ सकते है धर्म आस्था की चीज है न की तर्क की और हम लोग तो कुतर्क कर रहे है भय मुक्त नारी दुराचारी होती है आज के दौर में हम समझौता कर के जी रहे है नारीओ के अनुकूल रह रहे है अगर अपने अनुकूल उन्हें रक्खे तो चौपाई
    तुलसी की याद आ जाएगी रहा सवाल ढोल का तो बिना पिटे बजती नहीं और जहा तक बात सुद्रो की है तो सूद्र किसी एक जाती का नाम नहीं बल्कि वर्ण का नाम है जिसके अंतर्गत वे सभी आते है जिनकी सोच और कर्म नीच होता है नीच सदैव जड़ होता है उन्हे मार्ग पर लाने के लिए थोडा भय जरुरी है और पशु तो ………
  20. MANISH SINGH
    मैं इस लेख को लिख रहा हूँ और किसी से क्षमा नहीं मांगूंगा क्योंकि जो इस से सहमत हैं वे ही मुझे प्रिय हैं
    और ……………….धरम न अरथ न काम रूचि , गति न चहौं निर्वान .
    जनम जनम रति रामपद यह वरदान न आन .
    ये जो नए आशीष नाम के लेखक पैदा हुए हैं जिन्होंने इसी के ऊपर टिप्पणी की है ये लगता है की औरतो में ही पले बढे हैं.
    अब आप ही बताइये की अग्नि परीक्षा तो बंदरो के सामने हुई थी . फिर जैसे आज आपके सामने कोई वैज्ञानिक दावा करता है तो आप तुरंत तो मान नहीं लेते हैं .देखने पर ही मानते हैं उसी तरह तुम्हारे पूर्वजो ने ही माँ सीता पर आरोप लगाए थे .ये जो धोबी की जात है उसी ने तो ये महान काम किया था.किसी राजपूत या ब्राह्मण ने तो नहीं न. और फिर कोई राजा कैसे बनता है ? राजा का बड़ा बेटा ही न बनता है. तो सब लोगो का राजा बन ने के लिए साफ़ भी तो होना चाहिए की ये राम जी का ही बेटा है. मै अपने भक्त भाइयों से माफ़ी चाहता हूँ ऐसे लिखने के लिए मगर .राम जी में ही क्या कमी थी जो उनको धनुष उठा के दिखाना पड़ा .वो तो यूं भी उतने ही बलवान थे जितना की नहीं उठाने पर. और फिर सुग्रीव के कहने पर ताड़ काटने और हड्डी मारने की क्या जरूरत थी .फिर भी उन्होंने ये सब कर के दिखाया. shri राम जी ने जो कुछ किया वो सब नहीं करते और पैदा हो के मर जाते तो क्या उतना नाम होता.उसी तरह अगर सीता जी परीक्षा नहीं देती तो क्या कोई उनको शुद्ध मान लेता.
    अगर राम जी ने ऐसा नहीं किया होता तो सीता जी पर आज तक उंगलिया उठ रही होती .उन्होंने ही सीता जी की पवित्रता को सबके सामने जाहिर किया .
    और रही बात मर्द-औरत की तो जब दुनिया का सबसे बलवान .सबसे सुन्दर .पुरुष जब विवाह करने के लिए परीक्षा देगा तो क्या औरत परीक्षा नहीं देगी. और हाँ , ये परीक्षा उन्होंने तब दी थी जब वे साल भर दूसरे के यहाँ रही थीं .और कितने लोग जानते थे की वे वाटिका में हैं .महल में नहीं .और अगर कोई कह देता की {बन्दर} हनुमान जी के कहे का क्या भरोसा तब ?सबके सामने अगर वो अयोध्या में परीक्षा नहीं देतीं तो बाद में लव कुश के पिता को लेकर गृहयुद्ध भी हो सकता था तो आशीष बचाने जाते सबको न. झगडा शांत करवाने ये जाते.
    जब समुद्र आदमी बन सकता था .जब बन्दर बोल सकता था .जब आदमी उड़ सकता था .जब पत्थर तैर सकता था तब ऐसी विषम परिस्थितियों में एक उतने बड़े साम्राज्य की महारानी ने अभूतपूर्व घटना के लिए अग्नि परीक्षा दे दी तो कौन सी बड़ी बात है .
    लज्जा फिल्म में माधुरी जो डायलोग बोलती है की औरत क्यों परीक्षा देगी वो तो हसी का सीन लगता है . सीता जी भी वियोग में थी राम जी भी थे .राम जी ने सब किया तो परीक्षा कौन देगा मैडम ? फिर वही . और राम जी ने कहा कहा था अग्नि परीक्षा देने के लिए .उन्हीने कहा की परीक्षा दो मेरे साथ रहने के लिए नहीं तो लक्षमण सुग्रीव किसी से शादी कर लो .वो तो सटी थीं की परिक्सा दे दी और दुनिया पूजती है नहीं तो माधुरी को आप्शन मिलता तो वो दूसरा ही चुनतीकैमरे का जमाना है नहीं तो इसे कोई जानता क्या?
    और हाँ .
    जैसे कोई कुत्ता मालिक के कहने पर काम करे वही वफादार है न की वो कुत्ता संगठन बना ले . और आदमी को नोचने लगे .२ ही दिन में आदमी दुनिया को कुता मुक्त कर देगा या पहले ही बाकी कुत्ते फिर गुलामी मान लेंगे .वही चीज औरतो को भी समझनी चाहिए की वो अपने को कुत्ते बिल्लियों से ऊपर मानती है और उन्हें रसोई से भगा देती है उसी तरह आदमी भी औरत से बलवान है और उसे उपेक्षित करता है. ये तो संसार का नियम है. हम बलवान ही पैदा हुवे है तो हम अपने ही मन की न करेंगे .
    वीर भोग्या वस्स्स्ससुन्धरा .
    भगवान जिस दिन औरतो को बलवान बना देंगे उस दिन वे राज करेंगी .मगर भगवान् को हमसे क्या चिढ है ? उं? अबलाओ को सहारा दे दे भगवान् .जय हो जय हो
  21. : फ़ुरसतिया-पुराने लेखhttp//hindini.com/fursatiya/archives/176
    [...] खुशियों का त्योहार है 2.ढोल,गंवार,शूद्र,पशु,नारी… 3.तुम मेरे होकर रहो कहीं… 4.शरमायें [...]

1 comment:

  1. और कुछ काम नही है

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