http://web.archive.org/web/20110926091413/http://hindini.com/fursatiya/archives/65
अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।
जीतेंदर की फिर एक लेख की मांग थी। एक लेख लिखा जाये जिसमें नियमित
न लिखने वालों और ब्लाग पढ़कर (जाहिर है जीतू का पन्ना)टिप्पणी न करने
वालों से मौज ली जाये। अब जब बात मौज लेने की होती है तो सबसे आसान तरीका
यही होता है कि बात जीतू से ही शुरु की जाये। सो किया गया। लेकिन कुछ ऐसा सा हुआ(साभार संदर्भ- प्रत्यक्षा) कि जितना लिखा वो सारा ‘डिलीटावस्था’ को प्राप्त हुआ।
ऐसा पता नहीं क्यों हुआ कि मेरे लगभग पूरे लिखे दो लंबे लेख मेरे पीसी से गायब हो गये। मुझे लगता है कि मेरा कम्प्यूटर नहीं चाहता कि जीतू की खिंचाई की जाये। इसके पीछे कारण शायद यह हो कि जीतू कानपुर में बहुत दिन कम्प्यूटर भी बेचते रहे। जिस दुकान से मैंने कम्प्यूटर खरीदा वे वहां भी गये होंगे। अपने कुछ समर्थक वायरस दुकान पर छोड़ गये होंगे। वही आ गये होंगे मेरे कम्प्यूटर पर तथा जीतू की खिंचाई वाली मेल मिटा दी होगी।
बहरहाल इधर जीतू ने धमकी भी दे दी कि दूसरे लिखेंगे नहीं तथा उनके ब्लाग पर टिप्पणी नहीं करेंगे तो वो लिखना बंद कर देंगे। हमें लगा शायद वे सच में ऐसा करें लेकिन जब मैंने उनके ब्लाग पर पोस्ट देखीं तो मेरी खुशी हवा हो गयी। लगता है जीतू हमें बहुत देर तक खुश नहीं देखना चाहते हैं।
वैसे हमें नहीं लगता कि जीतू से किसी का करार हुआ था कि कुछ तुम लिखो कुछ हम लिखें। अपने हिंदी में लिखने का कारण भी बताते हुये उन्होंने ऐसा कोई बहाना नहीं बताया था कि लोग टिप्पणी करेंगे तब ही वो लिखेंगे। या शायद बताया हो जो कि उनके देशप्रेम, भाषाप्रेम के कोलाहल में कहीं दब गया हो।
वैसे जहां तक टिप्पणी का सवाल है तो जीतू यथासम्भव प्रयास करते हैं कि उनका लिखा सब लोग पढ़ लें। तथा वे अपनी तरफ से पढ़ा हुआ तभी मानते हैं जब लोग उसपर टिप्पणी कर दें। कुछ दिन पहले मैंने अवस्थी से पूछा -क्या बात है आजकल आनलाइन नहीं दिखते! पता लगा कि जीतू के डर से ऐसा है। वे डरते हैं कि कहीं आनलाइन आ गये तो जीतू आ जायेगा और कमेंट के लिये पकड़ लेगा।
वैसे यह सच है कि लोगों का लिखना कुछ कम हुआ है। कुछ दिन पहले तक लोग नियमित लिखते रहे। आजकल कुछ हिंदी ब्लाग-बाजार कुछ मंदी के दौर से गुजर रहा है । लेकिन यह भी लगता है कि सच यह नहीं है। लिखने वाले लोग बढ़े हैं। उसी अनुपात में लिखने वाले भी। लेकिन कमी शायद इसलिये लग रही है कि जिस हलचल के नजारे हमने देखे कुछ दिन पहले अनुगूंज,बुनोकहानी आदि में वह नदारद दिखती है। हमारे ब्लागमंडल की सबसे बेहतरीन पोस्टों में से अधिकांश अनुगूंज के माध्यम से आईं । वही अनुगंज आज बेगूंज है। बुनोकहानी की विज्ञानकथा भी देश में वैज्ञानिक प्रगति की गति की ठहरी है। निरंतर की निरंतरता तो कभी की ठप्प हो गई।
टिप्पणियां भी काफी कम हुयी हैं। जो होती भी हैं वे काफी औपचारिक सी हो गई हैं। बीच में टिप्पणियों का बाजार काफी गर्म था। खासतौर पर स्वामी,कालीचरण का अंदाज। अवस्थी भी कुछ ढीले चल रहे हैं। जीतू भी अब बड़ा समझदारी का मुजाहिरा करते हुये शराफत की डगर पर चलने की कोशिश में लगे हैं।
एक दिन स्वामी की पोस्ट पर मैंने कहा जीतू से कमेंट करने को। तो शराफत के मारे बेचारे बोले -कमेंट करेंगे स्वामी बुरा मान जायेगा। हमें लगा कि कहें बहुत याराना लगता है स्वामी से! इसी तरह एक दिन हमने स्वामी से कहा कि जीतू की तारीफ में कुछ झूठ काहे नहीं बोलते? तो स्वामी ने कहा -जीतू की पोस्ट हमें आनंद बक्शी के गानों की तरह लगती है। लेकिन हमें शैलेंद्र के गाने ज्यादा पसंद हैं। तो हमने कहा- हे धर्मराज के वंशज! आधी ही तारीफ कर दे। रहस्यवादी डायलाग मार दे। लेकिन स्वामी के इरादे को उसके आलस्य ने पटक दिया शायद ।
कुछ यह भी है कि लोग टिप्पणी में सिवा तारीफ के कुछ सुनना पसंद नहीं करते। प्रत्यक्षाजी की कविता में हमने कुछ मासूम जैसे से सवाल पूछे। तो उन्होंने कोई जवाब देने के बजाय रचनात्मक स्वतंत्रता की बात कहते हुये कहा ये ठीक नहीं है सवाल उठाना। हमने सोचा चलो मान लें बात इनकी भी। बाद में अवस्थी ने भी बाहर से समर्थन करके, जैसे नकल करायी जाती है ,मासूम सवालों के आध्यात्मिक जवाब बता दिये। यहां तक तो फिर भी ठीक। अब अगले दिन प्रत्यक्षाजी कीटिप्पणी से हमें पता लगा कि हमें धमका कर टिप्पणी वापस करायी गई। धन्य हैं ऐसे महान रचनात्मक चिट्ठाकार!
रही बात और लोगों के लिखने न लिखने की तो भइया लोगों का मन करेगा तो लोग लिखेंगे नहीं करेगा तो नहीं लिखेंगे। तुम्हें लिखना है तो लिखो नहीं लिखना है तो वाह-वाह। लोगों की समस्यायें भी समझा करो!
लोग तमाम दीगर कामों में लगे होगें। अतुल को देख ही रहे हो अपने हथियार तेज कर रहे हैं तथा प्रदूषित भाषा लिखने का अभ्यास कर रहे हैं। देबाशीष ने इंडीब्लागीज का झंडा तो अब फहराया है इसके पहले वे पत्नी वियोग का सुख लूट रहे थे। परिवार बाहर गया है सो वे वह सब करने में व्यस्त हैं जो उनके रहने पर नहीं कर पाते तथा वो सब भी करना पड़ रहा है जो उनके रहने पर करना नहीं पड़ता। तभी तो गाना गाते हैं:-
ज़िदगी की राहों में रंजोग़म के मेले हैं,
भीड़ है कयामत की, और हम अकेले हैं।
पंकज, हां भाई से मिर्ची सेठ में तब्दील हो गये। मानसी ढोल बजाकर लोगों को कनाडा से दूर भगाने में लगी हैं। स्वामी क्यूबिकल में घुसे हैं। अवस्थी स्पैम की खेती कर रहे हैं। फुरसतिया के बारे में हम कुछ नहीं कहेंगे।
वैसे भी ज्यादातर ब्लाग लिखने वाले बड़े जोश से शुरु करते हैं कुछ ही दिन में होश में आ जाते हैं। कुछ ही लोग होते हैं जो लंबे समय तक मदहोश रहते हैं। परिवारी जन भी कहते हैं- क्या टाइम बरबाद करते रहते हो?इतनी देर बच्चे को पढ़ाओ-लिखाओ/खिलाओ बहलाओ तो कोई बात बने।( इसकी चौथाई भी मेहनत करते तो हम भी पोलियो भगाने में सहयोग करते टाईप के कमेंट हम नहीं बता रहे)।
कुछ लोग तमाम ब्लाग बना लेते हैं जैसे आय से अधिक सम्पत्ति रखने वाले लोग पत्नी,बच्चों ,कुत्तों,पिल्लों के नाम जमीन खरीद के डाल देते हैं या जैसे पुराने जमाने में राजा लोग जिस जगह शिकार खेलने जाते थे वहीं एक अदद रानी बना लेते थे। बाद में जैसे रानियां अंगूंठिया खो देती थीं वैसे ही आज लोग ब्लाग का पासवर्ड भूल जाते हैं।लोग चिंता भी नहीं करते। केवल एक मेल की दूरी पर रहने वालों से मीलों दूर रहते हैं।
जो लोग नियमित लिख सकते हैं वे या तो खुद पत्रिकायें निकाल रहे हैं या दूसरों का लिखा टाइप कर रहे हैं। हिंदी साहित्य में अमूल्य योगदान दे रहे हैं। लेकिन अक्सर होता यह है कि पाठक का भी लेखक से जब ताल्लुक नहीं होता तो अक्सर टाइपिस्ट के अलावा लोग कम ही पढ़ने का मन करते हैं।
टिप्पणियों का सवाल कुछ पेचीदा है। जीतू ने शायद इस विधा पर सबसे ज्यादा शोध किया है लेकिन सबसे ज्यादा दुखी भी वही हैं लोगों की चुप्पी से। मुझे हालांकि दुखी होने का कोई बहाना नहीं है फिर भी लगता है कि पाठक बहुत शरीफ हैं। टिप्पणी करने में लोग कुछ कतराते से हैं। तारीफ के अलावा कुछ लिखने में लोग संकोच करते हैं- पता नहीं क्या सोचेगा लिखने वाला। समय के साथ लोगों की झिझक खुलती है।
नये लिखने वाले के लिये टिप्पणियों का अहम रोल होता है। मुझे लगता है कि खाली-पीली ,कालीचरन,दिल्ली ब्लाग,देश-दुनिया, संजय विद्रोही,शशि सिंह तथा अन्य की कुछ बहुत अच्छी पोस्टों पर लोग उतना ध्यान नहीं दे पाये (टिप्पणी) जितना देना चाहिये। आजकल सबसे ज्यादा आकर्षक लिखने -दिखाने वाले दीपक जी भी अक्सर कमेंट विहीन रहते हैं। रविरतलामी जी ने शायद सबसे ज्यादा उपयोगी पोस्टें लिखीं होगी लेकिन उपयोगी पोस्टों पर लोगों की टिप्पणियां शायद सबसे कम रहीं।
जिनको मनमाफिक/अपेक्षित टिप्पणियां न मिलें वे श्रीकांत वर्मा की इस कविता से संतोष कर सकते हैं:-
डोम मणिकर्णिका से अक्सर कहता है,
दु:खी मत होओ
मणिकर्णिका,
दु:ख तुम्हें शोभा नहीं देता
ऐसे भी श्मशान हैं
जहां एक भी शव नहीं आता
आता भी है ,
तो गंगा में नहलाया नहीं जाता।
लिखना शुरु करने वालों का पहले झन्नाटेदार स्वागत करते थे लोग।चिट्ठाविश्व में काफी दिन खास जगह लगा रहता ब्लाग पता। अब जैसे लोग बढ़ रहे हैं कौन नया है कौन पुराना अक्सर पता नहीं लगता।
कलाम किसी का नाम किसी का की तर्ज पर नारद जी भी लोगों का नाम बदल रहे हैं। आशीष गर्ग की लिखी पोस्ट आशीष तिवारी की बता रहे हैं।
इधर लिखो उधर छापो की तर्ज पर चिट्ठाकारी का साल भर का सफर बहुत लगता है । प्रिंट मीडिया में तो साल भर में भी लोग जान तक नहीं पाते। कहते हैं -अच्छा ये भी लिखते हैं। क्या लिखा है मियां जरा सुनाओ।
वैसे ये पोस्ट मैंने यथासम्भव बेतरतीब लिखने की कोशिश की है। ब्लागिंग के सूत्रों की अधकचरी सी व्याख्या टाइप। वास्तव में कुछ ब्लाग नुमा जैसी सी इस पोस्ट का जीतेंद्र ने शीर्षक सुझाया था -कमेंट का तकादगीर। हमारा ऐसा कोई तकादा नहीं है। लेकिन अगर आपके कोई विचार हों तो प्रकट करने में सकुचायें नहीं। सच बोलने से डरना नहीं चाहिये क्योंकि झूठ के पैर नहीं होते।
यह सुझाव भी देना चाहूंगा कि जिसके ब्लाग पर अपेक्षित टिप्पणियां न आ रहीं हों वे अपने ब्लाग का जन्मविवरण मानसी के पास भेज दें। वे ब्लाग की कुंडली देखकर शायद कुछ उपाय बता सकें।
इंडीब्लागीज का शंखनाद देबाशीष ने इसबार खुलेआम कर दिया है।सब लोग देबाशीष को यथा संभव इसमें सहायता करके उनके हाथ मजबूत करें। लिखने की जरूरत नहीं फिर भी लिखने में कोई हर्ज भी नहीं कि हमारी तरफ से हर तरह का सहयोग रहेगा ।
मेरी पसंद
हर सुबह को कोई दोपहर चाहिए,
मैं परिंदा हूं उड़ने को पर चाहिए।
मैंने मांगी दुआएँ, दुआएँ मिलीं
उन दुआओं का मुझपे असर चाहिए।
जिसमें रहकर सुकूं से गुजारा करूँ
मुझको अहसास का ऐसा घर चाहिए।
जिंदगी चाहिए मुझको मानी* भरी,
चाहे कितनी भी हो मुख्तसर, चाहिए।
लाख उसको अमल में न लाऊँ कभी,
शानोशौकत का सामाँ मगर चाहिए।
जब मुसीबत पड़े और भारी पड़े,
तो कहीं एक तो चश्मेतर** चाहिए।
*- सार्थक
**-नम आँख
-डा.कन्हैयालाल नंदन
नई दिल्ली
०३.१०.२००५
ऐसा पता नहीं क्यों हुआ कि मेरे लगभग पूरे लिखे दो लंबे लेख मेरे पीसी से गायब हो गये। मुझे लगता है कि मेरा कम्प्यूटर नहीं चाहता कि जीतू की खिंचाई की जाये। इसके पीछे कारण शायद यह हो कि जीतू कानपुर में बहुत दिन कम्प्यूटर भी बेचते रहे। जिस दुकान से मैंने कम्प्यूटर खरीदा वे वहां भी गये होंगे। अपने कुछ समर्थक वायरस दुकान पर छोड़ गये होंगे। वही आ गये होंगे मेरे कम्प्यूटर पर तथा जीतू की खिंचाई वाली मेल मिटा दी होगी।
बहरहाल इधर जीतू ने धमकी भी दे दी कि दूसरे लिखेंगे नहीं तथा उनके ब्लाग पर टिप्पणी नहीं करेंगे तो वो लिखना बंद कर देंगे। हमें लगा शायद वे सच में ऐसा करें लेकिन जब मैंने उनके ब्लाग पर पोस्ट देखीं तो मेरी खुशी हवा हो गयी। लगता है जीतू हमें बहुत देर तक खुश नहीं देखना चाहते हैं।
वैसे हमें नहीं लगता कि जीतू से किसी का करार हुआ था कि कुछ तुम लिखो कुछ हम लिखें। अपने हिंदी में लिखने का कारण भी बताते हुये उन्होंने ऐसा कोई बहाना नहीं बताया था कि लोग टिप्पणी करेंगे तब ही वो लिखेंगे। या शायद बताया हो जो कि उनके देशप्रेम, भाषाप्रेम के कोलाहल में कहीं दब गया हो।
वैसे जहां तक टिप्पणी का सवाल है तो जीतू यथासम्भव प्रयास करते हैं कि उनका लिखा सब लोग पढ़ लें। तथा वे अपनी तरफ से पढ़ा हुआ तभी मानते हैं जब लोग उसपर टिप्पणी कर दें। कुछ दिन पहले मैंने अवस्थी से पूछा -क्या बात है आजकल आनलाइन नहीं दिखते! पता लगा कि जीतू के डर से ऐसा है। वे डरते हैं कि कहीं आनलाइन आ गये तो जीतू आ जायेगा और कमेंट के लिये पकड़ लेगा।
वैसे यह सच है कि लोगों का लिखना कुछ कम हुआ है। कुछ दिन पहले तक लोग नियमित लिखते रहे। आजकल कुछ हिंदी ब्लाग-बाजार कुछ मंदी के दौर से गुजर रहा है । लेकिन यह भी लगता है कि सच यह नहीं है। लिखने वाले लोग बढ़े हैं। उसी अनुपात में लिखने वाले भी। लेकिन कमी शायद इसलिये लग रही है कि जिस हलचल के नजारे हमने देखे कुछ दिन पहले अनुगूंज,बुनोकहानी आदि में वह नदारद दिखती है। हमारे ब्लागमंडल की सबसे बेहतरीन पोस्टों में से अधिकांश अनुगूंज के माध्यम से आईं । वही अनुगंज आज बेगूंज है। बुनोकहानी की विज्ञानकथा भी देश में वैज्ञानिक प्रगति की गति की ठहरी है। निरंतर की निरंतरता तो कभी की ठप्प हो गई।
टिप्पणियां भी काफी कम हुयी हैं। जो होती भी हैं वे काफी औपचारिक सी हो गई हैं। बीच में टिप्पणियों का बाजार काफी गर्म था। खासतौर पर स्वामी,कालीचरण का अंदाज। अवस्थी भी कुछ ढीले चल रहे हैं। जीतू भी अब बड़ा समझदारी का मुजाहिरा करते हुये शराफत की डगर पर चलने की कोशिश में लगे हैं।
एक दिन स्वामी की पोस्ट पर मैंने कहा जीतू से कमेंट करने को। तो शराफत के मारे बेचारे बोले -कमेंट करेंगे स्वामी बुरा मान जायेगा। हमें लगा कि कहें बहुत याराना लगता है स्वामी से! इसी तरह एक दिन हमने स्वामी से कहा कि जीतू की तारीफ में कुछ झूठ काहे नहीं बोलते? तो स्वामी ने कहा -जीतू की पोस्ट हमें आनंद बक्शी के गानों की तरह लगती है। लेकिन हमें शैलेंद्र के गाने ज्यादा पसंद हैं। तो हमने कहा- हे धर्मराज के वंशज! आधी ही तारीफ कर दे। रहस्यवादी डायलाग मार दे। लेकिन स्वामी के इरादे को उसके आलस्य ने पटक दिया शायद ।
कुछ यह भी है कि लोग टिप्पणी में सिवा तारीफ के कुछ सुनना पसंद नहीं करते। प्रत्यक्षाजी की कविता में हमने कुछ मासूम जैसे से सवाल पूछे। तो उन्होंने कोई जवाब देने के बजाय रचनात्मक स्वतंत्रता की बात कहते हुये कहा ये ठीक नहीं है सवाल उठाना। हमने सोचा चलो मान लें बात इनकी भी। बाद में अवस्थी ने भी बाहर से समर्थन करके, जैसे नकल करायी जाती है ,मासूम सवालों के आध्यात्मिक जवाब बता दिये। यहां तक तो फिर भी ठीक। अब अगले दिन प्रत्यक्षाजी कीटिप्पणी से हमें पता लगा कि हमें धमका कर टिप्पणी वापस करायी गई। धन्य हैं ऐसे महान रचनात्मक चिट्ठाकार!
रही बात और लोगों के लिखने न लिखने की तो भइया लोगों का मन करेगा तो लोग लिखेंगे नहीं करेगा तो नहीं लिखेंगे। तुम्हें लिखना है तो लिखो नहीं लिखना है तो वाह-वाह। लोगों की समस्यायें भी समझा करो!
लोग तमाम दीगर कामों में लगे होगें। अतुल को देख ही रहे हो अपने हथियार तेज कर रहे हैं तथा प्रदूषित भाषा लिखने का अभ्यास कर रहे हैं। देबाशीष ने इंडीब्लागीज का झंडा तो अब फहराया है इसके पहले वे पत्नी वियोग का सुख लूट रहे थे। परिवार बाहर गया है सो वे वह सब करने में व्यस्त हैं जो उनके रहने पर नहीं कर पाते तथा वो सब भी करना पड़ रहा है जो उनके रहने पर करना नहीं पड़ता। तभी तो गाना गाते हैं:-
ज़िदगी की राहों में रंजोग़म के मेले हैं,
भीड़ है कयामत की, और हम अकेले हैं।
पंकज, हां भाई से मिर्ची सेठ में तब्दील हो गये। मानसी ढोल बजाकर लोगों को कनाडा से दूर भगाने में लगी हैं। स्वामी क्यूबिकल में घुसे हैं। अवस्थी स्पैम की खेती कर रहे हैं। फुरसतिया के बारे में हम कुछ नहीं कहेंगे।
वैसे भी ज्यादातर ब्लाग लिखने वाले बड़े जोश से शुरु करते हैं कुछ ही दिन में होश में आ जाते हैं। कुछ ही लोग होते हैं जो लंबे समय तक मदहोश रहते हैं। परिवारी जन भी कहते हैं- क्या टाइम बरबाद करते रहते हो?इतनी देर बच्चे को पढ़ाओ-लिखाओ/खिलाओ बहलाओ तो कोई बात बने।( इसकी चौथाई भी मेहनत करते तो हम भी पोलियो भगाने में सहयोग करते टाईप के कमेंट हम नहीं बता रहे)।
कुछ लोग तमाम ब्लाग बना लेते हैं जैसे आय से अधिक सम्पत्ति रखने वाले लोग पत्नी,बच्चों ,कुत्तों,पिल्लों के नाम जमीन खरीद के डाल देते हैं या जैसे पुराने जमाने में राजा लोग जिस जगह शिकार खेलने जाते थे वहीं एक अदद रानी बना लेते थे। बाद में जैसे रानियां अंगूंठिया खो देती थीं वैसे ही आज लोग ब्लाग का पासवर्ड भूल जाते हैं।लोग चिंता भी नहीं करते। केवल एक मेल की दूरी पर रहने वालों से मीलों दूर रहते हैं।
जो लोग नियमित लिख सकते हैं वे या तो खुद पत्रिकायें निकाल रहे हैं या दूसरों का लिखा टाइप कर रहे हैं। हिंदी साहित्य में अमूल्य योगदान दे रहे हैं। लेकिन अक्सर होता यह है कि पाठक का भी लेखक से जब ताल्लुक नहीं होता तो अक्सर टाइपिस्ट के अलावा लोग कम ही पढ़ने का मन करते हैं।
टिप्पणियों का सवाल कुछ पेचीदा है। जीतू ने शायद इस विधा पर सबसे ज्यादा शोध किया है लेकिन सबसे ज्यादा दुखी भी वही हैं लोगों की चुप्पी से। मुझे हालांकि दुखी होने का कोई बहाना नहीं है फिर भी लगता है कि पाठक बहुत शरीफ हैं। टिप्पणी करने में लोग कुछ कतराते से हैं। तारीफ के अलावा कुछ लिखने में लोग संकोच करते हैं- पता नहीं क्या सोचेगा लिखने वाला। समय के साथ लोगों की झिझक खुलती है।
नये लिखने वाले के लिये टिप्पणियों का अहम रोल होता है। मुझे लगता है कि खाली-पीली ,कालीचरन,दिल्ली ब्लाग,देश-दुनिया, संजय विद्रोही,शशि सिंह तथा अन्य की कुछ बहुत अच्छी पोस्टों पर लोग उतना ध्यान नहीं दे पाये (टिप्पणी) जितना देना चाहिये। आजकल सबसे ज्यादा आकर्षक लिखने -दिखाने वाले दीपक जी भी अक्सर कमेंट विहीन रहते हैं। रविरतलामी जी ने शायद सबसे ज्यादा उपयोगी पोस्टें लिखीं होगी लेकिन उपयोगी पोस्टों पर लोगों की टिप्पणियां शायद सबसे कम रहीं।
जिनको मनमाफिक/अपेक्षित टिप्पणियां न मिलें वे श्रीकांत वर्मा की इस कविता से संतोष कर सकते हैं:-
डोम मणिकर्णिका से अक्सर कहता है,
दु:खी मत होओ
मणिकर्णिका,
दु:ख तुम्हें शोभा नहीं देता
ऐसे भी श्मशान हैं
जहां एक भी शव नहीं आता
आता भी है ,
तो गंगा में नहलाया नहीं जाता।
लिखना शुरु करने वालों का पहले झन्नाटेदार स्वागत करते थे लोग।चिट्ठाविश्व में काफी दिन खास जगह लगा रहता ब्लाग पता। अब जैसे लोग बढ़ रहे हैं कौन नया है कौन पुराना अक्सर पता नहीं लगता।
कलाम किसी का नाम किसी का की तर्ज पर नारद जी भी लोगों का नाम बदल रहे हैं। आशीष गर्ग की लिखी पोस्ट आशीष तिवारी की बता रहे हैं।
इधर लिखो उधर छापो की तर्ज पर चिट्ठाकारी का साल भर का सफर बहुत लगता है । प्रिंट मीडिया में तो साल भर में भी लोग जान तक नहीं पाते। कहते हैं -अच्छा ये भी लिखते हैं। क्या लिखा है मियां जरा सुनाओ।
वैसे ये पोस्ट मैंने यथासम्भव बेतरतीब लिखने की कोशिश की है। ब्लागिंग के सूत्रों की अधकचरी सी व्याख्या टाइप। वास्तव में कुछ ब्लाग नुमा जैसी सी इस पोस्ट का जीतेंद्र ने शीर्षक सुझाया था -कमेंट का तकादगीर। हमारा ऐसा कोई तकादा नहीं है। लेकिन अगर आपके कोई विचार हों तो प्रकट करने में सकुचायें नहीं। सच बोलने से डरना नहीं चाहिये क्योंकि झूठ के पैर नहीं होते।
यह सुझाव भी देना चाहूंगा कि जिसके ब्लाग पर अपेक्षित टिप्पणियां न आ रहीं हों वे अपने ब्लाग का जन्मविवरण मानसी के पास भेज दें। वे ब्लाग की कुंडली देखकर शायद कुछ उपाय बता सकें।
इंडीब्लागीज का शंखनाद देबाशीष ने इसबार खुलेआम कर दिया है।सब लोग देबाशीष को यथा संभव इसमें सहायता करके उनके हाथ मजबूत करें। लिखने की जरूरत नहीं फिर भी लिखने में कोई हर्ज भी नहीं कि हमारी तरफ से हर तरह का सहयोग रहेगा ।
मेरी पसंद
हर सुबह को कोई दोपहर चाहिए,
मैं परिंदा हूं उड़ने को पर चाहिए।
मैंने मांगी दुआएँ, दुआएँ मिलीं
उन दुआओं का मुझपे असर चाहिए।
जिसमें रहकर सुकूं से गुजारा करूँ
मुझको अहसास का ऐसा घर चाहिए।
जिंदगी चाहिए मुझको मानी* भरी,
चाहे कितनी भी हो मुख्तसर, चाहिए।
लाख उसको अमल में न लाऊँ कभी,
शानोशौकत का सामाँ मगर चाहिए।
जब मुसीबत पड़े और भारी पड़े,
तो कहीं एक तो चश्मेतर** चाहिए।
*- सार्थक
**-नम आँख
-डा.कन्हैयालाल नंदन
नई दिल्ली
०३.१०.२००५
Posted in बस यूं ही | 10 Responses
इंडिब्लागिज में दो श्रेणीयाँ और होनी चाहिए।
सर्वश्रेष्ठ टिप्पसबाज
सर्वश्रेष्ठ टिप्पणी
जीतू के प्रयास मौज लेने लायक नही तारीफ करने लायक हैं. हर ब्लाग पर लगातार टिप्पणी करना भी संभव नही हो पाता. अब मैं उनकी लिखी हर पोस्ट पढता जरूर हूँ – पसँद करता हूँ तभी ना!
और वो मुझे “गुरु-घंटाल” बुलाते है प्यार से – आप अँदर की बात समझो ना! अब सब के सामने सायास प्रेम्-प्रदर्शन हमारी सँस्कृति के खिलाफ है!
J
रही बात टिप्पणी की, तो भईया, हम तो पहले ही कहे है, हम तो रवि भाई की तरह है, कदम कदम बढाये जा, जो मन मे आये लिखे जा।कोई जरुरी नही कि हर चौराहे फूल मालाओं से स्वागत हो।
बाकी लेख तो अच्छा लिखे हो। अब हम कमेन्ट कर दिया हूँ, अब तगादा मत करना।
दिल्ली ब्लॉग व देश दुनिया वाकई बेहतरीन लिखते हैं व हम लोगों के अनौपचारिक लिखने के तरीके से अलग है। ऐसा नहीं है कि हिन्दी में लिखा नहीं जा रहा नारद के पुरालेखों पर देखिए अभी तक २००० से ज्यादा प्रविष्टियाँ हैं। अक्तूबर में ही ३८८ थीं।
फुरसतिया जी आपने नारद के नए वस्त्रों के बारे में नहीं लिखा। जाओ हम आप से बात नहीं करते
मिर्ची सेठ
देबाशीष
इसलिए अगर समय कम है तो आप केवल चिट्ठे लिखते या पढ़ते हैं और टिप्पड़ियाँ नहीं लिख पाते तो मुझे कोई शिकायत नहीं. मैं स्वयं भी तो अगर १० चिट्ठे पढ़ता हूँ तो शायद एक टिप्पड़ीं लिख पाता हूँ.
यह बात अवश्य है कि शुरु शुरु में टिप्पड़ियों का प्रोत्साहन बहुत काम का है.
मुझे सबसे अच्छा तब लगता है जब मेरे लिखे से उसी बात पर कोई अन्य अपनी बात लिखता है, जैसा कालीचरण जी के टीबी वाले लेख के साथ हुआ. सुनील
रही बात टिप्पणियों कि तो नये लोगों (पुराने भी) के लिए यह सबसे बड़ा सम्बल है. इस क्षेत्र में आई मंदी मौसमी है.
वैसे सभी ब्लॉगरों को आइना दिखा ने वाला यह अध्ययन सराहनीय है.
शशि सिंह