http://web.archive.org/web/20110101190047/http://hindini.com/fursatiya/archives/67
अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।
अब जब से भारत में विश्व सुन्दरियां पैदा होने लगीं तब से सौन्दर्य
के प्रति जागरुकता बढ़ी है। मध्यम वर्ग कुछ ज्यादा ही जागरूक हुआ है इस
दिशा में। लोग दुबले होने की चाह में दुबले हो रहे हैं। शरीर के खानपान के
अलावा टीम-टाम पर भी काफी खर्चा होने लगा है। शरीर में भी सबसे ज्यादा
देखभाल लगता है कि सर के बालों की होती है। पहले लोग कडुआ तेल डालकर सर को
पटा लेते थे। अब मामला इतना आसान नहीं रहा। सर के बालों के लिये तमाम तरह
के शैम्पू,जेल,तेल,डाई वगैरह तो नियमित देखभाल के लिये चाहिये। इसके
अलावाबालों के बनवाने में भी अच्छा खासा खर्चा हो जाता है।
जगह-जगह ब्यूटी पार्लर ,मसाज सेंटर खुल गये हैं। इन जगहों पर एक बार जाने का खर्चा कभी-कभी एक मजदूर के आधे माह की कमाई के बराबर बैठता है। कुछ दिन पहले तक ऐसा नहीं था। जगह-जगह पर नाइयों की दुकाने थीं। वहां सिर्फ बाल बनवाने का काम होता था। धीरे-धीरे ब्यूटी पार्लरों तथा मसाज सेंटरों ने इन दुकानों तथा फुटपाथ पर बैठने वाले नाइयों का धन्धा चौपट कर दिया है।
मुझे याद है कि छुटपन में हमारे पिताजी घर के पास लेनिन पार्क के सामने की फुटपाथ पर दाढ़ी- बाल बनवाने जाते थे। हम लोगों को भी ले जाते कटिंग कटवाने के लिये। वहां धूप में जमीन पर बिछी चादर पर बैठा कर नाई कटिंग करते। बैठाने के लिये चादर के नीचे या ऊपर ही एकाध ईंट रख लेते ताकि बैठने में आसानी रहे। कम पैसे में बाल कट जाते। उन दिनों हमारे घर के सामने स्थित ‘रंगीला हेयर ड्रेसर’ के मुकाबले ये फुटपाथिया कटिंग सैलून आधे पैसे लेता। खाली कुर्सी पर बैठकर बाल कटवाने के लिये दुगुने पैसे देने के मुकाबले जमीन से जुड़कर बाल कटवाना पिताजी को समझदारी लगती । इसमें कोई हीन भावना नहीं थी बस अनावश्यक फिजूलखर्ची से बचने की बात थी। अपने फुटपाथिया नाई की दुकान का नाम पिताजी बताते थे- गुम्मा हेयर कटिंग सैलून। गुम्मा ईंट को कहते हैं। ईंट पर बैठकर बाल बनवाने के कारण गुम्मा हेयर कटिंग सैलून कहते। कुछ लोग ईटैलियन कटिंग सैलून भी कहते।
समय के साथ कुछ अभिजात्य और कुछ जमीन से उचकने के चलते हम गुम्में से उचककर कुर्सी पर स्थापित होते गये। लेकिन नाम- गुम्मा हेयर कटिंग सैलून दिमाग में चिपका रहा। कुछ दिन से बराबर घूम रहा था दिमाग में।सोच रहा था कि शहर में निकलूंगा किसी दिन सबेरे-सबेरे शायद कोई मिल जाये नाई फुटपाथ पर दुकान चलाता।पता चला लेनिन पार्क के फुटपाथ पर अब कोई नाई नहीं बैठता।
कल जब घर के पास ही स्थित नाई की दुकान पर बाल कटवाने गया तो देखा सामने गुम्मा हेयर कटिंग सैलून नुमा दुकान दिखी। इसी को शायद कहते हैं -गोदी लड़का गांव गुहार। लगा बचपन का कोई मीत मिल गया। आज सबेरे-सबेरे सबसे पहले जाकर उसका फोटो लिया ताकि सनद रहे।
नाई ,नाऊ,नाऊ ठाकुर या नउआ के संबोधन से पुकारे जाने वाले नाई की कुछ वर्ष पहले तक गांवों में अहम भूमिका रहती थी।बाल काटने, बदन की मालिश करने के अलावा संदेश वाहक के रूप में भी नाई की भूमिका थी। नाई को उसकी चतुर बुद्दि के लिये भी जाना जाता था। दूसरों के गांव गई बारात की इज्जत का दारोमदार काफी कुछ नाई की बुद्धि पर रहता था।
गांवों में नाई को परजा (प्रजा ) के रूप में जाना जाता। अन्य परजा लोगों में बारी(पत्तल उठाने वाले),कहार(पानी भरने वाले),मनिहार(श्रंगार संबंधित),कुम्हार(बर्तन वाले) ,भाट(तारीफ करने वाले) आदि रहते। गांव के लोग इनकी सेवाओं के लिये साल में फसल होने पर इनको आनाज देते।गांव की इकाई में इनकी उपस्थिति अपरिहार्य रहती।
नाई के परंपरागत पेशे के बारे बताते हुये हूलागंज, कानपुर के निवासी बिंदाप्रसाद बताते हैं कि उनका काम खानदानी है।शहर के तमाम पैसे वाले लालाओं के घरों पर उनके परिवार की महिलायें घरेलू नाइन के तौर पर सेवायें दे रही हैं। इसकी कोई तय फीस नहीं।बस,पुराने कपड़े या जलपान का बचा-खुचा सामान ही उन्हें बतौर मेहनताना मिल जाता है। कभी-कभी शादी या बच्चे की पैदाइस पर हैसियत के हिसाब से लोग ईनाम या छोटा-मोटा गहना लोग दे देते हैं।ये प्रथा भी अब गायब हो रही है क्योंकि बच्चे आजकल नर्सिंग होम में पैदा हो रहे हैं। बतौर पुश्तैनी धंधा नाई परिवार की औरतें आज भी पुराने चलन के काम घरों में रसोईघर के काम करती हैं। जैसे कि दाल पीसना,मालिश करना, आटा गूंथना तथा नवजात शिशु की साफ सफाई करना। बिंदा प्रसाद के अनुसार, नाई एक तरह से दिहाड़ी मजदूर का भी काम करते हैं।सरकार ने दैनिक मजदूरी की दर ८५ रुपये (लगभग दो डालर)कर रखी है लेकिन नाई महिला को बदले में एक समय का भोजन खिलाकर चलता कर दिया जाता है।
समय चक्र के साथ ये सारी इकाइयां विलीन समाप्त होती गईं। इनके साथ ही इनसे जुड़े तमाम सूत्र भी खत्म होते गये। पहले नाई बच्चों को तमाम पुश्तों से जुड़े किस्से सुनाते रहते। हमारे पिताजी को शौक था कि वे गांव जाते तो गांव के नाई से मालिश करवाते ,पैर दबवाते,चंपी मालिश करवाते। जितनी देर यह सब होता रहता उतनी देर नाई ,जो नाऊ लाला के नाम से जाने जाते थे,उनको गांव भर के सारे किस्से सुना देता जिसे वे हुंकारी भरते हुये सुनते तथा शहर के किस्से सुना भी देते।अब शहर के नाई को क्या पता आप कौन हैं,आपके पुरखे कौन हैं। वह तो आपसे पूछेगा -साहब बाल कैसे काट दूं?
सहारा समग्र अखबार के अनुसार कानपुर में नाइयों की फुटपाथिया तथा छोटी-बड़ी सैलूनों को मिलाकर कम से कम दस हजार दुकाने खुली हैं। इन्हें चलाने वाले अधिकतर अपने नाम के साथ सविता,शर्मा,सेन,ठाकुर,वर्मा,अहमद तथा अंसारी जैसे जातिसूचक नाम जोड़ते हैं।
फुटपाथिया दुकानदारों के धंधे की कुल जमा पूंजी वही युगों पुराना उस्तरा,मालिश का तेल ,कैंची-कंधा ,फिटकरी,साबुन है। एड्स के हल्ले के चलते समय के साथ हर दाढ़ी या कटिंग में अब आधे नये ब्लेड प्रयोग शुरु हो गया है। जमीन से उठकर अब धीरे-धीरे लोग कुर्सी पर आते जा रहे हैं। किसी पेड़ के नीचे ग्राहक के एक ऊंची कुर्सी डालकर दुकान शुरु ।
कानपुर में सविता सामाजिक एवं सांस्कृतिक संस्था के महामंत्री सुरेंद्र सविता एक लंबे समय से अपने समाज को एकजुट करने में लगे हैं। वे दर्द के साथ कहते हैं- हमें तो आरक्षण तक नसीब न हुआ। शायद सरकार हमें ऊँची जाति तथा सम्पन्न श्रेणी का समझती है।तभी हमें आरक्षण सूची से बाहर रखा गया।
बहरहाल, नाई समाज के लोगों का कहना है कि सरकार ब्यूटीशियन दुकान तथा मसाज सेंटर खोलने के लिये लाइसेंस अनिवार्य करे। इन्हें खोलने की अनुमति केवल नाई समाज के लोगों को मिले। हर रेलवे स्टेशन पर किताब और खानपान की दुकान की तरह सैलून भी खोले जायें।सरकारी विभागों में जलपान की कैंटीन की तरह ही अपना सैलून खोलने की सुविधा दी जाये।
आगे की बात तो आगे का समय बतायेगा लेकिन जो बात सोचने की है कि परिवर्तन के चक्र में देखते- देखते पेशों के स्वरूप कैसे बदल जाते हैं। गांव से जो शहर भागने का क्रम शुरु हुआ है उससे सारे परंपरागत पेशे प्रभावित हुये हैं। लोग अपने पेशे छोड़ रहे हैं। दूसरे अपना रहे हैं। घरों में मिट्टी के बर्तन कम हुये धातु के आये। तो कुम्हार खतम हो गये। कुंये खतम हुये नल आये हैंड पंप आये-कहार खतम हो गये। सौन्दर्य प्रसाधन की दुकाने खुली- मनिहार बेकार हो गये। बफे सिस्टम आये लोग खुद लगाकर लोगों को धकियाकर खाने लगे-पत्तल उठाने वाले बारी गैरजरूरी हो गये। रेडीमेड पूजाविधियां ,कुंडली बनाने की विधियां तरकीबें पुरोहितों को बेकार कर रही हैं।
शायद आपको लगे कि परिवर्तन तो प्रकृति का नियम है तथा समय के अनुसार पेशे तो बदलने ही पड़ेंगे। यह सच है लेकिन यह भी
सोचे कि दिमागी तौर पर बहुत जहीन लोग भी जब अपने पेशे मजबूरी में बदलते हैं तो नये पेशे में सहज होने में कितना समय लेते हैं।
समय के साथ तमाम सुविधायें जिनके लिये मनुष्य की सेवायें जरूरी होती थीं वे कृत्तिम साधनों,मशीनों के जरिये सुलभ होने लगी हैं। क्या यह नाऊ,बारी,भाट,पुरोहित,कहार,मनिहार के पेशों की तरह मनुष्य को भी गैरजरूरी बनाने की दिशा में बढ़ाये गये कदम हैं!
स्वयं सर्वसक्षम बनने तथा क्रमश: गैरजरूरी होते जाने के दो पाटों के बीच मनुष्य को अपनी स्थिति तय करनी है। यह सही है या गलत, क्या सोचते हैं आप?
मेरी पसंद
एक घर को कई पीढ़ियों तक धीरे-धीरे
बनाना चाहिये।
जल्दी बनाने पर लुत्फ नहीं रहता
जल्दी बनाने पर जल्दी बिगड़ता है
एक घर को बनाने में कई पीढ़ियों को लगाना चाहिये
मजदूरों की तरह
भरपूर नींद लेकर
और थोड़ा कम खाकर।
उजड़ते हुये संसार में उजड़ जाओ
बसने के लिये।
-दूधनाथ सिंह,इलाहाबाद।
जगह-जगह ब्यूटी पार्लर ,मसाज सेंटर खुल गये हैं। इन जगहों पर एक बार जाने का खर्चा कभी-कभी एक मजदूर के आधे माह की कमाई के बराबर बैठता है। कुछ दिन पहले तक ऐसा नहीं था। जगह-जगह पर नाइयों की दुकाने थीं। वहां सिर्फ बाल बनवाने का काम होता था। धीरे-धीरे ब्यूटी पार्लरों तथा मसाज सेंटरों ने इन दुकानों तथा फुटपाथ पर बैठने वाले नाइयों का धन्धा चौपट कर दिया है।
मुझे याद है कि छुटपन में हमारे पिताजी घर के पास लेनिन पार्क के सामने की फुटपाथ पर दाढ़ी- बाल बनवाने जाते थे। हम लोगों को भी ले जाते कटिंग कटवाने के लिये। वहां धूप में जमीन पर बिछी चादर पर बैठा कर नाई कटिंग करते। बैठाने के लिये चादर के नीचे या ऊपर ही एकाध ईंट रख लेते ताकि बैठने में आसानी रहे। कम पैसे में बाल कट जाते। उन दिनों हमारे घर के सामने स्थित ‘रंगीला हेयर ड्रेसर’ के मुकाबले ये फुटपाथिया कटिंग सैलून आधे पैसे लेता। खाली कुर्सी पर बैठकर बाल कटवाने के लिये दुगुने पैसे देने के मुकाबले जमीन से जुड़कर बाल कटवाना पिताजी को समझदारी लगती । इसमें कोई हीन भावना नहीं थी बस अनावश्यक फिजूलखर्ची से बचने की बात थी। अपने फुटपाथिया नाई की दुकान का नाम पिताजी बताते थे- गुम्मा हेयर कटिंग सैलून। गुम्मा ईंट को कहते हैं। ईंट पर बैठकर बाल बनवाने के कारण गुम्मा हेयर कटिंग सैलून कहते। कुछ लोग ईटैलियन कटिंग सैलून भी कहते।
समय के साथ कुछ अभिजात्य और कुछ जमीन से उचकने के चलते हम गुम्में से उचककर कुर्सी पर स्थापित होते गये। लेकिन नाम- गुम्मा हेयर कटिंग सैलून दिमाग में चिपका रहा। कुछ दिन से बराबर घूम रहा था दिमाग में।सोच रहा था कि शहर में निकलूंगा किसी दिन सबेरे-सबेरे शायद कोई मिल जाये नाई फुटपाथ पर दुकान चलाता।पता चला लेनिन पार्क के फुटपाथ पर अब कोई नाई नहीं बैठता।
कल जब घर के पास ही स्थित नाई की दुकान पर बाल कटवाने गया तो देखा सामने गुम्मा हेयर कटिंग सैलून नुमा दुकान दिखी। इसी को शायद कहते हैं -गोदी लड़का गांव गुहार। लगा बचपन का कोई मीत मिल गया। आज सबेरे-सबेरे सबसे पहले जाकर उसका फोटो लिया ताकि सनद रहे।
नाई ,नाऊ,नाऊ ठाकुर या नउआ के संबोधन से पुकारे जाने वाले नाई की कुछ वर्ष पहले तक गांवों में अहम भूमिका रहती थी।बाल काटने, बदन की मालिश करने के अलावा संदेश वाहक के रूप में भी नाई की भूमिका थी। नाई को उसकी चतुर बुद्दि के लिये भी जाना जाता था। दूसरों के गांव गई बारात की इज्जत का दारोमदार काफी कुछ नाई की बुद्धि पर रहता था।
गांवों में नाई को परजा (प्रजा ) के रूप में जाना जाता। अन्य परजा लोगों में बारी(पत्तल उठाने वाले),कहार(पानी भरने वाले),मनिहार(श्रंगार संबंधित),कुम्हार(बर्तन वाले) ,भाट(तारीफ करने वाले) आदि रहते। गांव के लोग इनकी सेवाओं के लिये साल में फसल होने पर इनको आनाज देते।गांव की इकाई में इनकी उपस्थिति अपरिहार्य रहती।
नाई के परंपरागत पेशे के बारे बताते हुये हूलागंज, कानपुर के निवासी बिंदाप्रसाद बताते हैं कि उनका काम खानदानी है।शहर के तमाम पैसे वाले लालाओं के घरों पर उनके परिवार की महिलायें घरेलू नाइन के तौर पर सेवायें दे रही हैं। इसकी कोई तय फीस नहीं।बस,पुराने कपड़े या जलपान का बचा-खुचा सामान ही उन्हें बतौर मेहनताना मिल जाता है। कभी-कभी शादी या बच्चे की पैदाइस पर हैसियत के हिसाब से लोग ईनाम या छोटा-मोटा गहना लोग दे देते हैं।ये प्रथा भी अब गायब हो रही है क्योंकि बच्चे आजकल नर्सिंग होम में पैदा हो रहे हैं। बतौर पुश्तैनी धंधा नाई परिवार की औरतें आज भी पुराने चलन के काम घरों में रसोईघर के काम करती हैं। जैसे कि दाल पीसना,मालिश करना, आटा गूंथना तथा नवजात शिशु की साफ सफाई करना। बिंदा प्रसाद के अनुसार, नाई एक तरह से दिहाड़ी मजदूर का भी काम करते हैं।सरकार ने दैनिक मजदूरी की दर ८५ रुपये (लगभग दो डालर)कर रखी है लेकिन नाई महिला को बदले में एक समय का भोजन खिलाकर चलता कर दिया जाता है।
समय चक्र के साथ ये सारी इकाइयां विलीन समाप्त होती गईं। इनके साथ ही इनसे जुड़े तमाम सूत्र भी खत्म होते गये। पहले नाई बच्चों को तमाम पुश्तों से जुड़े किस्से सुनाते रहते। हमारे पिताजी को शौक था कि वे गांव जाते तो गांव के नाई से मालिश करवाते ,पैर दबवाते,चंपी मालिश करवाते। जितनी देर यह सब होता रहता उतनी देर नाई ,जो नाऊ लाला के नाम से जाने जाते थे,उनको गांव भर के सारे किस्से सुना देता जिसे वे हुंकारी भरते हुये सुनते तथा शहर के किस्से सुना भी देते।अब शहर के नाई को क्या पता आप कौन हैं,आपके पुरखे कौन हैं। वह तो आपसे पूछेगा -साहब बाल कैसे काट दूं?
सहारा समग्र अखबार के अनुसार कानपुर में नाइयों की फुटपाथिया तथा छोटी-बड़ी सैलूनों को मिलाकर कम से कम दस हजार दुकाने खुली हैं। इन्हें चलाने वाले अधिकतर अपने नाम के साथ सविता,शर्मा,सेन,ठाकुर,वर्मा,अहमद तथा अंसारी जैसे जातिसूचक नाम जोड़ते हैं।
फुटपाथिया दुकानदारों के धंधे की कुल जमा पूंजी वही युगों पुराना उस्तरा,मालिश का तेल ,कैंची-कंधा ,फिटकरी,साबुन है। एड्स के हल्ले के चलते समय के साथ हर दाढ़ी या कटिंग में अब आधे नये ब्लेड प्रयोग शुरु हो गया है। जमीन से उठकर अब धीरे-धीरे लोग कुर्सी पर आते जा रहे हैं। किसी पेड़ के नीचे ग्राहक के एक ऊंची कुर्सी डालकर दुकान शुरु ।
कानपुर में सविता सामाजिक एवं सांस्कृतिक संस्था के महामंत्री सुरेंद्र सविता एक लंबे समय से अपने समाज को एकजुट करने में लगे हैं। वे दर्द के साथ कहते हैं- हमें तो आरक्षण तक नसीब न हुआ। शायद सरकार हमें ऊँची जाति तथा सम्पन्न श्रेणी का समझती है।तभी हमें आरक्षण सूची से बाहर रखा गया।
बहरहाल, नाई समाज के लोगों का कहना है कि सरकार ब्यूटीशियन दुकान तथा मसाज सेंटर खोलने के लिये लाइसेंस अनिवार्य करे। इन्हें खोलने की अनुमति केवल नाई समाज के लोगों को मिले। हर रेलवे स्टेशन पर किताब और खानपान की दुकान की तरह सैलून भी खोले जायें।सरकारी विभागों में जलपान की कैंटीन की तरह ही अपना सैलून खोलने की सुविधा दी जाये।
आगे की बात तो आगे का समय बतायेगा लेकिन जो बात सोचने की है कि परिवर्तन के चक्र में देखते- देखते पेशों के स्वरूप कैसे बदल जाते हैं। गांव से जो शहर भागने का क्रम शुरु हुआ है उससे सारे परंपरागत पेशे प्रभावित हुये हैं। लोग अपने पेशे छोड़ रहे हैं। दूसरे अपना रहे हैं। घरों में मिट्टी के बर्तन कम हुये धातु के आये। तो कुम्हार खतम हो गये। कुंये खतम हुये नल आये हैंड पंप आये-कहार खतम हो गये। सौन्दर्य प्रसाधन की दुकाने खुली- मनिहार बेकार हो गये। बफे सिस्टम आये लोग खुद लगाकर लोगों को धकियाकर खाने लगे-पत्तल उठाने वाले बारी गैरजरूरी हो गये। रेडीमेड पूजाविधियां ,कुंडली बनाने की विधियां तरकीबें पुरोहितों को बेकार कर रही हैं।
शायद आपको लगे कि परिवर्तन तो प्रकृति का नियम है तथा समय के अनुसार पेशे तो बदलने ही पड़ेंगे। यह सच है लेकिन यह भी
सोचे कि दिमागी तौर पर बहुत जहीन लोग भी जब अपने पेशे मजबूरी में बदलते हैं तो नये पेशे में सहज होने में कितना समय लेते हैं।
समय के साथ तमाम सुविधायें जिनके लिये मनुष्य की सेवायें जरूरी होती थीं वे कृत्तिम साधनों,मशीनों के जरिये सुलभ होने लगी हैं। क्या यह नाऊ,बारी,भाट,पुरोहित,कहार,मनिहार के पेशों की तरह मनुष्य को भी गैरजरूरी बनाने की दिशा में बढ़ाये गये कदम हैं!
स्वयं सर्वसक्षम बनने तथा क्रमश: गैरजरूरी होते जाने के दो पाटों के बीच मनुष्य को अपनी स्थिति तय करनी है। यह सही है या गलत, क्या सोचते हैं आप?
मेरी पसंद
एक घर को कई पीढ़ियों तक धीरे-धीरे
बनाना चाहिये।
जल्दी बनाने पर लुत्फ नहीं रहता
जल्दी बनाने पर जल्दी बिगड़ता है
एक घर को बनाने में कई पीढ़ियों को लगाना चाहिये
मजदूरों की तरह
भरपूर नींद लेकर
और थोड़ा कम खाकर।
उजड़ते हुये संसार में उजड़ जाओ
बसने के लिये।
-दूधनाथ सिंह,इलाहाबाद।
Posted in बस यूं ही | 10 Responses
हमे जहाँ तक याद है, हमारे घर मे भूरेलाल नाई आया करते थे, दादाजी की शेव वगैरहा के लिये, वो दिन हम सभी लड़कों के लिये भारी हुआ करता था, चाचाजी का आदेश था, जब भी भूरेलाल आये, सारे लड़कों के बाल भी छोटे छोटे करवा दिये जाय।अब भूरेलाल भी चाचाजी की शह पर हम सभी को हड़काता था और बार बार उस्तरा दिखाकर धमकाता था, हालांकि हम लोगो के बाल कैन्ची और मशीन से ही कटते थे, फिर भी। एक दिन ऊँट पहाड़ के नीचे आ ही गया। पूरा किस्सा पढने के लिये…पढिये रहिये मेरा पन्ना .
लेकिन मेरी टिप्पणी झेलने के लिए आपको इंतजार नही करना पड़ेगा। मेरी प्रविष्टी हाजिर है।
ज्ञानवर्धक पोस्ट ।