Thursday, November 24, 2005

श्रीलाल शुक्ल से एक बातचीत

स्वातन्त्रता के बाद के भारत के ग्रामीण जीवन की मूल्यहीनता को परत-दर-परत उघाड़ने वाले अपने ढंग के पहले व्यंग्य उपन्यास 'रागदरबारी' के लेखक श्रीलाल शुक्लजी समकालीन कथा साहित्य में निस्संग और उद्देश्यपूर्ण व्यंग्य के लिये विख्यात हैं। ३१ दिसम्बर,१९२५ को लखनऊ जिले के अतरौली गांव में जन्मे श्रीलाल जी ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक की शिक्षा के बाद उत्तरप्रदेश प्रशासनिक सेवा में तमाम महत्वपूर्ण पदों पर कार्य किया। साहित्य की विविध विधाओं में लेखन करने वाले श्रीलाल जी की प्रमुख कृतियां निम्नवत हैं:-
उपन्यास: सूनी घाटी का सूरज, अज्ञातवास, रागदरबारी, आदमी का जहर, सीमायें टूटती हैं, मकान, पहला पड़ाव, विश्रामपुर का संत

कहानी संग्रह: यह घर मेरा नहीं , सुरक्षा तथा अन्य कहानियां

व्यंग्य संग्रह: अंगद का पांव, यहां से वहां ,मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनायें,उमरावनगर
में कुछ दिन,कुछ जमीन पर कुछ हवा में,आओ बैठ लें कुछ देर, अगली शताब्दी का शहर, जहालत के पचास साल

आलोचना: अज्ञेय:कुछ राग और कुछ रंग

विनिबंध: भगवती चरण वर्मा, अमृतलाल नागर

बाल साहित्य: बढ़वर सिंह और उसके साथी

रागदरबारी का अंग्रेजी सहित सभी भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ तथा दूरदर्शन धारावाहिक का भी निर्माण हुआ।

रागदरबारी के लिये १९६८ में साहित्य अकादमी से सम्मानित श्रीलालजी को प्राप्त अन्य सम्मानों में प्रमुख हैं साहित्य भूषण सम्मान, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय का गोयल साहित्य पुरस्कार, लोहिया अतिविशिष्ट सम्मान, म.प्र. शासन का शरद जोशी सम्मान , मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, व्यास सम्मान।

इसी माह की ३१ तारीख को श्रीलालजी अपने जीवन के ८१ वें वर्ष में प्रवेश करने वाले हैं। इस अवसर पर श्रीलाल शुक्ल जी के स्वस्थ-दीर्घायु की कामना करते हुये हम शब्दांजलि के पाठकों के लिये श्रीलालजी से प्रख्यात कथाकार व तद्भव के संपादक अखिलेश से तद्भव के प्रथम अंक के लिये हुयी बातचीत के प्रमुख अंश प्रस्तुत कर रहे हैं।


-बचपन का गांव किस तरह याद करते हैं?
इसके दो पक्ष हैं। जमींदारी वाले दिनों की व्यवस्था में जकड़ा हुआ गांव जिसमें अलग-अलग जातियों की अपनी-अपनी परम्परायें
,अपने तौर तरीके थे। किसी भी तरह की वर्ग चेतना नहीं थी। हर आदमी की अपनी हैसियत मुकर्रर थी। गंदी गलियां,बच्चे रास्ते आदि थे और एक भी पक्का मकान नहीं था। दूसरा पक्ष परिवेश और प्रकृति का था। गांव के तीन ओर खेत और विस्तीर्ण जंगल थे। चौथी ओर लखनऊ जाने वाली सड़क थी और घनी अमराइयों का सिलसिला था। आज जब उस गांव के बारे में सोचता हूं तो वह एक ओर कई अद्भुत व्यक्तित्वों और दूसरी तरफ अपनी प्राकृतिक मोहकता के कारण याद आता है।

-उस गांव में आप बड़े हो रहे थे। घर परिवार,साहित्यिक वातावरण कैसा था?
गांव में मेरे वंश के कई परिवार थे जिनमें दो सम्पन्न थे,बाकी बहुत गरीब थे। मेरा परिवार गरीबों कापरिवार था पर पिछली दो-तीन पीढ़ियों से पढन-पाठन की परम्परा थी। बचपन से लेकर १९४८ तक जब मुझे विपन्नता के कारण एम.ए. और कानून की पढ़ाई छोड़नी पड़ी गरीबी तथा साहित्य के प्रति अदम्य आग्रह, इम तत्वों के द्वारा मेरे व्यक्तित्व का संस्कार
होता गया।

-आपने अपने परिवार में दो तीन पीढ़ियों से पठन पाठन की परम्पराकी बात कही है, उसके बारे में कुछ अधिक बतायें।
मेरे बाबा अध्यापक थे और उर्दू फारसी की सामान्य जानकारी के साथ संस्कृत के बहुत अच्छे पंडित थे। उनके द्वारा रचित कुछ श्लोक भी उपलब्ध हैं। मेरे पिता बहुत छोटे किसान थे; उन्होंने स्कूली शिक्षा नहीं पायी थी पर हिंदी ,उर्दू ,संस्कृत का उन्हें सामान्य ज्ञान था। पिता के चचेरे भाई चंद्रमौलि शुकुल १९०७ के ग्रेजुएट थे और बी.ए. की परीक्षा में उन्होंने सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया था। अपने समय के वे अच्छे लेखक और शिक्षाशास्त्री थे। इस वातावरण के कारण मुझे १०-११ वर्ष की अवस्था से ही हिन्दी की तत्कालीन सभी पत्र-पत्रिकायें और पुस्तकें पढ़ने का अवसर मिलने लगा था;उसी के साथ साहित्यिक रचना का प्रोत्साहन भी।



-उक्त प्रोत्साहन से क्या-क्या लिखा?
बहुत अच्छा है कि उन दिनों की लिखी हुई चीजें अब उपलब्ध नहीं हैं। पर ग्यारह वर्ष की अवस्था से लेकर उन्नीस वर्ष तक मैंने उन दिनों के फैशन के अनुकूल न जाने कितनी कवितायें लिखीं,कहानियां लिखीं और उपन्यास भी लिखे,कुछ आलोचनात्मक निबंध भी। इनमें से कुछ की प्रशंसा भी हुई और कुछ कवितायें छपीं भी। इनमें से दो-तीन कहानियां मेरे संग्रह 'यह घर मेरा नहीं है' में देखी जा सकती हैं जैसे 'अपनी पहचान',और 'सर का दर्द'। पर बी.ए. तक आते-आते
मेरा रचनात्मक उफान खत्म हो गया था और मैं अपनी शिक्षा तथा जीवन यापन की समस्याओं में धंस गया था।

-लेखन में वापसी कब और कैसे संभव हुई?
लिखने से विरत हो जाने के दिनों में भी मैं आधुनिक हिन्दी और अंग्रेजी साहित्य बराबर पढ़ता रहता था। उ.प्र. प्रशासनिक सेवा में मेरे आ जाने के बाद १९५३-५४ में हमीरपुर जिले के दूरस्थ क्षेत्रों में रहते हुये वहां के अपेक्षाकृत शांत जीवन में मुझे पुन: लिखने की प्रेरणा मिली। एक रेडियो नाटक की रूमानियत और अवास्तविकता से भरी हुई प्रवृत्ति के खिलाफ प्रतिक्रिया दिखाते हुये मैंने 'स्वर्णग्राम और वर्षा' नाम की एक घोर यथार्थपरक व्यंग्यपूर्ण रचना लिखी। इसे धर्मवीर भारती ने निकष-१ में स्थान दिया। मुझे सुखद विस्मय हुआ कि निकष-१ पर आने वाली पाठकों की चिट्ठियों में मेरी इस रचना का उत्साह
से स्वागत हुआ और कई पत्र पत्रिकाओं के सम्पादकों ने भारती से मेरे बारे में पूछताछ की। उसके बाद भारती ,विजयदेवनारायण साही और केशव चंद्र वर्मा जैसे मित्रों के प्रोत्साहन से मैंने नियमित लेखन शुरु कर दिया। वास्तव में मेरा उपन्यास 'सूनी घाटी का सूरज' इन्हीं मित्रों को समर्पित है।

-आपके ये मित्र साहित्य की यथार्थवादी परम्परा के लेखन के घोर विरोधी संगठन 'परिमल' के आधार स्तम्भ थे। आपका परिमल से क्या नाता बना?
लेखक के रूप में जब मैं उभरा तब तक इलाहाबाद में परिमल की धार खत्म हो चुकी थी और उसके सदस्य अलग-अलग ढंग से अलग-अलग स्थानों पर जाकर लिखने लगे थे।
-लेकिन परिमल के बारे में आपका अपना दृष्टिकोण क्या रहा?
विजय देव नारायण साही,भारती,सर्वेश्वर,केशवचंद्र वर्मा से मेरी घनिष्ठ मैत्री थी। ये सब परिमल के सक्रिय सदस्य थे लेकिन परिमल ने मुझे कभी आकृष्ट नहीं किया।

-आपके रागदरबारी के पूर्व के दो उपन्यासों में ग्रामीण जीवन के दुखों,संघर्षों,मुसीबतों के प्रति आपका रवैया सहानुभूतिपूर्ण दिखता है। उसे मैं पक्षधरता भी कहना चाहूंगा लेकिन तमाम लोगों का कहना है कि राग दरबारी में गांव के प्रति आपका दृष्टिकोण उपहासपूर्ण है।
उपहासपूर्ण दृष्टि मैंने नहीं डाली है। ग्रामीण जीवन में जो प्रवत्तियां थीं मैंने उन्हें लिखा । गांव में आदमी भांग घोटता है,नंगे बदन रहता है,विपन्न है तब भी वह ठिठोली करता है,हंसता है,बातें करता है,एक जीवंत वातावरण सृजित करता है...

-राग दरबारी में ग्रामीण समाज की संकट में भी हंसते रहने की दुर्घर्ष क्षमता का चित्रण है कि या समाज में व्याप्त पतनशीलता का चित्रण है?
दोनों है।
-लेकिन कभी-कभी ऐसा हुआ कि जिसे सहानुभूति मिलनी चाहिये वह आपके निशाने पर है,जैसे लंगड़।
राग दरबारी में अनेक छोटे-छोटे चरित्र हैं जिनकी उपहास्पदता को लेकर मैंने सम्पूर्ण वातावरण का निर्माण किया है,मगर अंतत:
वे तंत्र के ऊपर किये गये मेरे आघात को अधिक तीव्र बनाते हैं। लंगड़ को ही लें, उसका चरित्र उपहास्पदता ज्यादा प्रकट करता है या सत्ता तंत्र के अन्याय को?

-क्या ऐसा नहीं सम्भव हो सकता था कि लंगड़ को बख्स देते और सिर्फ सत्ता तंत्र को ही निशाने पर रखते?
लंगड़ को बख्शने न बख्शने का क्या सवाल है? वह जैसा है मैंने वैसा ही चित्रित किया है। उस पर मैंने कोई वैल्यू जजमेण्ट नहीं दिया है।

-रागदरबारी व्यंग्य का महाविस्तार है लेकिन कुछ आलोचकों का कहना है कि रागदरबारी का जो व्यंग्य है वह कथा के बाहर की टिप्पणियों में है न कि स्थितियों में।
वे मानकर चलते हैं कि व्यंग्य को स्थितियों में ही अंतर्निहित होना चाहिये। अपनी उसी मान्यता पर वे राग दरबारी को कसते हैं। जबकि मैं दूसरी तरह की लेखन शैली अपने लिये चुनता हूं। और यह तो मानना पड़ेगा कि कोई लेखक अपनी विषयवस्तु के अनुरूप शैली चुनने के लिये स्वतंत्र है। अगर यथार्थ के उद्‌धाटन में मेरी शैली आलोचकों के ढांचे से अलग चली जाती है तो यह मेरा दोष नहीं है, उनके बनाये पूर्व निर्धारित ढांचे की अपर्याप्तता है।

राग दरबारी में जो भाषा है ,वह आपके यहां पहले नहीं थी,बल्कि समूचे हिंदी लेखन में वह सम्भव न थी। वह भाषा एक विस्फोट थी। कैसे वह भाषा आविष्कृत हुई?
एक तरफ अवधी है और दूसरी तरफ आपने गौर किया होगा ,अंग्रेजी के मुहावरे आते हैं। अंग्रेजी का मुहावरा जहां मैंने इस्तेमाल किया है ,वह अनुवाद कर के नहीं ,उसकी प्रकृति को हिंदी में आत्मसात करने की कोशिश की है। हां ज्यादा मूलभूत रूप से अवधी है जिसको इस्तेमाल किया है खड़ी बोली के क्रियापदों और व्याकरण के अंतर्गत।

राग दरबारी में बेला को छोड़ कर स्त्री पात्र नहीं हैं। और बेला की भी कोई खास अहमियत नहीं है।
दरअसल भारतीय ग्राम पुरुष प्रधान है। वहां स्त्री आनुषांगिक अस्तित्व मात्र है। मगर राग दरबारी में स्त्री चरित्रों के न होने के पीछे अनिवार्यत: यह कारण नहीं है। राग दरबारी का जो तंत्र है, कथा का सूत्र है, उसमें स्त्री चरित्रों की गुंजाइस नहीं बनती।
राग दरबारी छपने से पूर्व आपको यह उम्मीद थी कि यह इतनी महत्व पूर्ण कृति सिद्ध होगी?
मेरे दिमाग में यह बात स्पष्ट थी कि कुछ हो न हो ,भौतिक तथ्य तो यह था ही कि परिहास की मुद्रा में ४५० पृष्ठों का हिन्दी का तो क्या, मैं समझता हूं कि समस्त भारतीय भाषाओं का यह पहला उपन्यास है। जब एक नितांत भिन्न प्रकार का प्रयोग किया जायेगा तो तो कहीं न कहीं खामियां भी होंगी;यही हुआ। तब भी और आज भी मेरे भीतर स्पष्ट है कि अच्छी रचना दोषरहित हो यह आवश्यक नहीं। बहरहाल... राग दरबारी लिख लेने के बाद यह तो मुझे मालूम था कि इसमें खामियां भी हैं लेकिन इसकी अन्य विशेषताओं के कारण मैं अवश्य आशा करता था कि इसका कोई विशेष प्रभाव होना चाहिये।
उपन्यास को आप कितनी बार लिखते हैं?
कम से कमतीन बार तो लिखना ही पढ़ता है।
सबसे अधिक ड्राफ्ट किस उपन्यास के हुए?
मैं समझता हूं कि राग दरबारी भी तीन चार बार लिखा गया था।विस्रामपुर का संत बहुत बार लिखना पड़ा।

कौन सी चीजें आपको एक ही कृति को पुन: लिखने को विवश करती हैं?
दो चीजें । एक तो उपन्यास लिखने में जो उपकथायें होती हैं उन्हें मैं पहले से पूरी तरह सोचता नहीं हूं, उनका आविष्कार लिखते समय ही होता है। बाद में पहले की घटनाओं का भी रूप बदलना पड़ता है और कभी- कभी वे घटनायें खारिज कर दी जाती हैं। दूसरी चीज ,जहां मुझको भाषागत कृत्रिमता नजर आती है या पता चला कि भावना का आवेग उसमें ज्यादा है या अनावश्यक विशेषणों की भरमार हो रही है तो उनको काटता छांटता हूं। कोशिश करता हूं कि वह देखने में, पढ़ने में बहुत ही साधारण मालूम दे,हां ध्वनि उसकी असाधारण मालूम हो।
जैसा आपने कहा है कि कहानी को आप दोयम दर्जे की विधा मानते हैं उपन्यास की तुलना में ,फिर भी आपने कहानियां लिखीं?

मेरे कहने का अर्थ यह नहीं कि मुझे कहानियों से परहेज है या उसके प्रति मेरे मन में कोई आकर्षण नहीं । दूसरे यह भी था कि हिन्दी में पांचवे या छठे दशक में कहानियों के बहुत से आंदोलन चले,उनको लेकर जो घालमेल था उससे मुझे लगता था कि इस समय कहानियां लिखना केवल कहानियां लिखना नहीं है। उसे लिखने का अर्थ है किसी आंदोलन में शामिल होना, जो स्वभाववश मेरे लिये बहुत पसंदीदा स्थिति नहीं थी।

व्यंग्य आपकी रचना का मूल स्वर रहा है पर कहानियों में व्यंग्य की आजमाइश कम है?
बहुत सी कहानियां आपको ऐसी मिलेंगी जिसमें व्यंग्य का स्वर परिस्थिति में अंतर्निहित हुआ है।मेरी आरम्भिक कहानियां'अपनी
पहचान' और बाद की 'दंगा','सुरक्षा','शिष्टाचार' आदि ऐसी कहानियां हैं।

व्यंग्य को लेकर आपकी स्थापना है कि व्यंग्य विधा नहीं,एक शैली है ,इसे थोड़ा स्पष्ट करेंगे?
भारतीय साहित्य की परम्परा में व्यंग्य अभिव्यक्ति की एक भंगिमा है। अमिधा,लक्षणा,व्यंजना में व्यंजना का प्रयोग करते समय आपका जो आधार रहता है वह व्यंग्य है। इस रूप में भारतीय साहित्य में व्यंग्य को कभी वैसी विधा नहीं माना गया जिस रूप में नाटक या कविता आदि थे। पाश्चात्य साहित्य में जरूर यह एक विधा के रूप में रहा मगर बीसवीं सदी तक आते-आते वहां भी यह एक विधा के रूप में समाप्तप्राय हो गया। हुआ यह कि व्यंग्य के सभी महत्वपूर्ण तत्व सामान्य लेखन में घुलमिल गये। कहानी में,कविता में ,उपन्यास में उन सभी विशेषताओं का समावेश सम्भव हो गया जो प्राचीन समय में व्यंग्य के उपासन माने जाते थे। लेकिन जब मैं यह कहता हूं तो इसका मंतव्य यह नहीं कि व्यंग्य नाम की चीज ही समाप्त हो गयी। आज भी व्यंगात्मक शैली में लिखी गयी कहानी या उपन्यास का रस दूसरा होगा,दूसरी शैली में लिखी गयी
रचना का दूसरा।

व्यंग्य के दो रूप माने जाते हैं,त्रासदीपूर्ण व्यंग्य और हास्य व्यंग्य,आपकी दृष्टि में कौन अधिक महत्वपूर्ण है?
मैंने जिसे हाई कामेडी कहते हैं,उसी में ज्यादातर कृतियां लिखी हैं,कम से कम राग दरबारी का वही मूड है।
एक बड़े लेखक के रूप में आप भारतीय समाज की मुख्य चुनौतियां क्या पाते हैं?
बड़े लेखक की बात जाने दें ,व्यक्तिगत रूप से मेरी दृष्टि में सबसे बड़ी चुनौती राजनीतिक दिशाहीनता की है जिससे लगभग सभी पार्टियां ग्रस्त हैं। वे अपने चुनाव घोषणा पत्र भले ही अलग-अलग निकालें लेकिन किसी के घोषणापत्र में यह स्पष्ट नहीं होता कि उस पार्टी के विचार से समग्र रूप से समाज का क्या स्वरूप होना चाहिये। सभी पार्टियों के तात्कालिक लक्ष्य हैं । इसी का परिणाम है कि समाज के सर्वांगीण विकास की कोई दिशा नहीं दिखाई दे रही है।

भारतीय लोकतंत्र का भविष्य?
भारतवर्ष में अराजकता और अस्तव्यस्तता को शताब्दियों तक झेलने की असाधारण क्षमता रही है। इसी आधार पर आप कह सकते हैं कि भारतीय लोकतंत्र का भविष्य वही है जो उसका वर्तमान है।

आपके लिये सुख का क्या अर्थ है?
मेरा एक लेख है 'जीवन का एक सुखी दिन'। उसमें मैंने सब निषेधात्मक पक्षों को लिया है कि आज यह नहीं हुआ आज वह नहीं हुआ। आधुनिक जीवन के जितने भी खिझाने वाले पक्ष हैं , उनकी सूची दे दी है कि यह नहीं तो दिन अच्छा बीता । लेकिन सुख का पाजिटिव पक्ष होता है वह बहुत आध्यात्मिक विषय है। सच्चाई यह है कि इस प्रश्न के मेरे दिमाग में कई उत्तर हैं जिनका एक बातचीत में विश्लेषण करना मेरे लिये मुश्किल होगा। अब एक पहलू तो यही है कि नितांत अभाव ,कमियों के होते हुये भी एक दार्शनिक स्तर पर सुख की कल्पना की जा सकती है। जैसे जिस समय महात्मा गांधी लम्बे-लम्बे अनशन कर रहे थे ,भूखे प्यासे थे तो क्या कहा जाये कि वे बहुत दुखी थे? या सुखी ? हां,सहज ढंग से कहा जा सकता है कि कि सुख यह है कि कोई आकांक्षा न हो जो आपको कचोटती हो, ऐसा कोई तात्कालिक अभाव न हो जिससे आपके ऊपर दबाव पड़ रहा हो,मनुष्य या प्रकृति द्वारा सृजित ऐसा कोई कारण न हो जो आपको शारीरिक अथवा मानसिक कष्ट दे रहा है।
यहां भी आप देख रहे हैं कि कोई पाजिटिव बात नहीं ,निषेधात्मक चीजें ही हैं। इसी रूप में मैं भौतिक सुख की कल्पना करता हूं।

पाजिटिव चीजें मसलन संगीत,अच्छा संग,प्रकृति आदि...
एक समय था जब ये सब चीजें मुझे उत्साहित करती थीं,मगर धीरे-धीरे शायद इस समय मेरी प्रवृति बदल रही है। मुझे लगता है कि शायद इन सबके बिना भी एक ऐसे मनोलोक की सृष्टि की जा सकती है जिसमें संतोष ,आत्मिक शांति यानी सुख का अनुभव हो सकता है। हो सकता है कि यह अवस्था के कारण हो...

जिस तरह की दृष्टि की बात आप कर रहे हैं उसकी रचना में बाह्य जगत के उपादान हैं या वह पूरी तरह आत्यंतिक और निरपेक्ष सृष्टि है?
चारो ओर जो हताशा का वातावरण बन रहा है राजनीतिक,सामाजिक,आर्थिक परिदृश्य पर ,उसके भीतर रहते हुये आपको कुछ न कुछ ऐसी युक्तियां खोजनी पड़ेंगी जिनसे आप संतोष और सार्थकता का अनुभव कर सकें, अन्यथा आप खीझ की स्थिति में रहेंगे। इनसे बचने के लिये संगीत,विविध कलायें,अच्छे मित्रों का साथ, ये स्थूल आधार मदद करते हैं। मगर कुछ समय बाद ये अपना जादू खोने लगते हैं। तब आपको अपने भीतर ,कह लीजिये कि आध्यात्मिक स्तर पर कोई खोज करनी पड़ेगी। में आध्यात्मिक शब्द का प्रयोग कर रहा हूं,किसी धार्मिक अनुष्ठान की बात नहीं कर रहा हूं।

एक समय तो ऐसा था ही जब आपको संगीत से गहरा लगाव था। मेरे ख्याल से वैसा उत्साह भले न हो लेकिन लगाव अभी भी है,आपको किस तरह का संगीत पसंद है?

संगीत अगर अच्छा हो तो सब तरह का पसंद है मगर मुख्यत: शाष्त्रीय संगीत ,ख्याल की गायकी ज्यादा आकर्षित करती है।

कोई ऐसी ध्वनि ,संगीत से इतर कोई ध्वनि जो आपको आकर्षित करती है?
कुछ ध्वनियां तो मुझे बहुत आकर्षित करती हैं। जैसे रात को और अलस्सुबह खिड़की के बाहर बारिश की आवाज। इसी प्रकार खास तौर पर जाड़े में,हल्की हवा की आवाज मेरे लिये अत्यंत उत्तेजक है।

पसंदीदा रंग कौन सा है?
फूलों को छोड़कर चटक रंग मुझे पसन्द नहीं । मेरे पास शायद ही कोई कमीज ,कुर्ता या ऐसी शर्ट होगी जो गाढ़े रंग की हो। हल्का भूरा,हल्का नीला,स्लेटी,सफेद कुछ इस प्रकार के रंग मुझे ज्यादा आकर्षित करते हैं।

आपके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी शक्ति क्या है और सबसे बड़ा दुर्गुण क्या है?
दुर्गुण मैं बड़ी आशानी से बता सकता हूं। वह यह है कि मैं किसी भी विषय के ऊपर एकाग्र होकर लम्बे समय तक काम नहीं कर पाता हूं। शक्ति अगर है तो वह है कि मैकेनिकल और तकनीकी चीजों को छोड़कर नयी चीजों ,नये व्यक्तियों,नये विचारों के प्रति मुझमें तीव्र जिज्ञासा रहती है। इन सबको जानने ,समझने या कहूं किसी मानवीय अनुभव के लिये मेरा दिमाग ज्यादा खोजपूर्ण है।

ऐसी कोई चीज जिससे आप मुक्त होना चाहें?
पान तम्बाकू की लत थी लगभग तेरह वर्ष पहले छोड़ दी। रहा सुरापान ,मैं चाहता हूं उससे भी पूरी तौर पर मुक्त हो जाऊं। लम्बे-लम्बे समय तक उससे मुक्त भी रहा। मैं सुरापान को अपने व्यक्तित्व की समग्रता में असंगत पाता रहा हूं । इसी से आगे के लिये आशान्वित हूं।

खाने में क्या पसंद है?
खाने में कोई विशेष रुचियां नहीं हैं।मैं शाकाहारी हूं । दूसरी संस्कृतियों के भोजन एग्जाटिक फूड में मेरी विशेष दिलचस्पी नहीं है। शाकाहारी भोजन जो भी ठीक ढंग से बना हुआ हो , वही अच्छा लगता है। मिर्च मशाले ज्यादा पसंद नहीं ,पर 'ब्लैंड' चीजें भी उतनी ही कम पसंद हैं।

दोस्त कैसे अच्छे लगते हैं?
पारस्परिक निष्ठा और निश्छलता तो होनी ही चाहिये। इसके अलावा जिन विषयों में मेरी रुचियां हैं ,साहित्य,संगीत,इतिहास,नाटक,सिनेमा आदि में जिनसे इन विषयों पर संवाद बन सके। इसके अतिरिक्त लेखक कलाकार
तो आते ही हैं मुकाबले दूसरे व्यवसाय के लोगों के । साथ ही वंश के लोगों से, रिश्तेदारों से भी मेरे बराबर मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध बने रहे हैं।उनके साथ बैठकर अवधी में गांव घर की बातें करने का अटूट आकर्षण है। इसके अवसर भी बराबर मुझे मिलते रहते हैं।
कैसी स्त्रियां आपको सुंदर लगती हैं?आपका यह प्रश्न सुनकर मेरे दिमाग में कई चेहरे कौंधे और लगता है कि चेहरे का कोई ऐसा माडल नहीं है जो सभी में समान रूप से मौजूद हो। फिर भी जो रूप की सुंदरता है वह कुछ हद तक तो होनी ही चाहिये। घरेलूपन की कद्र करता हूं पर मात्र घरेलूपन उबाऊ चीज है। जीवन की विराट सम्भावनाओं से से कुछ खींचने की जिसमें रुचि हो,चाहे वह साहित्य संगीत कला का क्षेत्र हो या किसी व्यवसायिक विशिष्टता का वही मुझे ज्यादा आकर्षित कर सकती है। अत्यंत बहिर्मुखी प्रवृत्ति न
तो मुझे पुरुष मित्रों में अच्छी लगती है , न नारी मित्रों में ही। और कहने की शायद जरूरत नहीं कि व्यवहार में निष्कपटता भी सौन्दर्य का लक्षण है।
इन गुणों की कसौटी पर किसे खरा पाया आपने?इसे दिखावा न समझें तो मैं अपनी दिवंगता पत्नी का जिक्र कर सकता हूं। इसके अलावा ,मेरा सौभाग्य रहा कि पुरुष मित्रों की तरह इस कोटि की नारी मित्रों को लेकर भी मैं सर्वथा विपन्न नहीं हूं। पर उनका नाम न लेना ही बेहतर होगा क्योंकि उसके बाद हो सकता है आपके प्रश्न साक्षात्कार को छोड़कर जिरह के दायरे में पहुंच जायें।

लेखक का विचारधारा से क्या रिश्ता होता है?
लेखक अपने सामान्य जीवन व्यापारों में किसी भी विचारधारा से प्रतिबद्ध रहे,यह उसका हक है। पर रचनाकार की हैसियत से
लेखक की प्रतिबद्धता उसको राह खोजने की ,चुनौतियों से जूझने की ,भटकने की कठिनाइयों से बचा लेती है। यदि लेखक वास्तव में अत्यधिक संवेदनशील और प्रतिभाशाली न हुआ तो वह इसके रूढ़िग्रस्त इकहरेपन में फंसने का खतरा भी पैदा कर सकती है।
आपकी विचारधारा क्या है?
जिसे आप दक्षिणपंथ कहते हैं ,उससे मैं बहुत दूर हूं। मैं भारतीय परिस्थितियों में रचनाकर्म की पहली शर्त उसकी समाज धर्मिता को मानता हूं और इस सिद्धांत को कि रचनाकार की मूल प्रतिबद्धता केवल अपनी रचना के प्रति होती है एक अस्पष्ट और वायवीय वक्तव्य मानता हूं। लेकिन पिछले कई दशको में राजनीतिक उठापटक के दौरान साहित्य में प्रगतिशील विचारधारा की जो गति बनी है और उसे अपने बचाव के लिये जितने मैकेनिज्म खोजने पड़ रहे हैं,उससे मैं बहुत ज्यादा आश्वस्त नहीं हो पा रहा हूं। संक्षेप में ,भले राजनीति की भाषा में इस रुख को संदिग्ध माना जाये,मैं सड़क के बीच कुछ कदम पर बायीं ओर खड़ा हूं।

आज आप मुड़कर अपने अब तक के लेखन को देखते हैं तो कैसा लगता है?शायद प्रत्येक लेखक का यह अनुभव हो ,मुझे य ही लगता है कि अब तक जितना हुआ तटवर्ती लेखन भर है, अभी धारा के बीच जा कर लहरों से मुकाबला करना बाकी है।

2 comments:

  1. आज 16/मार्च/2015 को आपकी पोस्ट का लिंक है http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    धन्यवाद!

    ReplyDelete
  2. श्रीलाल शुक्ल जी से बातचीत के अंश प्रस्तुति हेतु आभार!
    बहुत सुन्दर प्रेरक वार्ता प्रस्तुति ..

    ReplyDelete