http://web.archive.org/web/20110101193618/http://hindini.com/fursatiya/archives/68
अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।
आज मन कुछ अनमना सा हैं। कारण पता नहीं । कुछ ऐसा भी लग रहा है कि
साजिशन हम अपने मन का तंबू ढीला किये हैं।कतिपय चिट्ठाकार हमारी खिंचाई के
लिये दंड पेल रहे हैं। हमारे दोस्त भी मजा ले रहे हैं। लोग और उकसा रहे हैं
लोगों को। हम गरीब की लुगाई हो गयें कि लोग-लुगाइयां हमें छेड़ रहे हैं और
हम भी छिड़ रहे हैं। छिड़ाई तो खैर क्या लेकिन अब मज़ा आ रहा है।हमारे
स्वामीजी शराफत ओढ़ लिये हैं,जीतू थाली के बैगन हो गये और खिंचाई करने
वालों के साथ ताली बजा रहे हैं। अवस्थी जो काम खुद नहीं किया वो अब कर रहे
हैं -बिटिया को पढ़ा रहे हैं। अतुल अभी तक धर्मेंद्र के रोल पर फिदा थे अब
वे भी कटिंग कराने आ गये। देबू जुट गये हैं अपना अखाड़ा लीपने-पोतने में।
हम रह गये अकेले। खीचने वाले खीच रहे हैं ऐसे कि जो पढ़ेगा समझ शायद ही
पाये। ये नैन-बैन-सैन अदा है। बहरहाल हमारे करम हैं। मौज लेंगे तो ली भी
जायेगी
खिंचाई करने वालों ने सारे समाधान हमारी पत्नी के आगमन में खोजें।गोया हमारी एकमात्र पत्नी, पत्नी न होकर चलता-फिरता आपातकाल हो जिसके लगते ही हम अनुशासित हो जायेंगे। हमने अपने बच्चे से पूछा – क्यों बेटा अनन्य क्या मम्मी तुम्हारी इतनी डरावनी हैं कि उनके डर से हम सुधर जायेंगे? बच्चा बोला-मेरी मम्मी डरावनी ? यह किसने कहा? मैंने बताया ये लोग कह रही हैं । वो बोला-पिताजी,मैंने बहुत पहले कहा था कि जो जैसा होता है वैसा कहता है।आंटी लोग जैसे अंकल लोगों को डरा के रखती होंगी वैसा ही मम्मी के बारे में सोचती होंगी। मैंने कहा -नहीं बेटा ,ऐसी बात नहीं हैं ये लोग तो बहुत अच्छा व्यवहार करने वाली हैं।मीठा-मीठा बोलती हैं। बहरहाल वह माना नहीं -बोला छोड़िये इसको। आप परेशान न हों । बहुत दिन से कविता नहीं लिखी । कविता लिखिये-मूड ठीक हो जायेगा।
तो हमने अपने को कविता रस सागर में डुबा दिया। कवितायें लिखने के विचार से शुरु किया तो लगा कि अपने नामाराशि अनूप भार्गव के अंदाज में कुछ कहा जाये। वे गणित के बहुत अच्छे जानकार हैं। सारी गणित की जानकारी कविता में ढेल देते हैं। हमारी न गणित मजबूत है न कविता ।लेकिन गणितीय कवि सम्मेलन की इच्छा बहुत हो रही है। सो दिल के हाथों मजबूर कवि सम्मेलन का आयोजन कर रहा हूं। तमामकवि बुला लिये। संयोजक मिला नहीं तो संचालन खुद ही करना पढ़ रहा है।
सभी संत-असज्जनों के चरणों में प्रणाम निवेदित करते हुये मैं अनुरोध करता हूं वरिष्ठ कवि गोलापरसाद से कि वे आकर अध्यक्ष पद को सुशोभित करें।इसके बाद मैं अनुरोध करूंगा माननीया रेखा जी से कि इस अनूठे गणितीय कवि सम्मेलन
का आरम्भ मां सरस्वती की वंदना से करें।आइये रेखा जी:-
रेखाजी ने इस बीच अपने जेबी आइने में चेहरा-मोहरा देख लिये था। साड़ी का पल्लू पहले फहराया फिर समेटा। माइक
पर आईं। सांस ली। छोड़ी। चारो तरफ देखा। आंखें बंद की ।खोली फिर ऊँऊँऊँ … करके वंदना शुरु की:-
वर दे,
मातु शारदे वर दे!
कूढ़ मगज़ लोगों के सर में
मन-मन भर बुद्धि भर दे।
बिंदु-बिंदु मिल बने लाइनें
लाइन-लाइन लंबी कर दे।
त्रिभुज-त्रिभुज समरूप बना दो
कोण-कोण समकोण करा दो
हर रेखा पर लंब गिरा दो
परिधि-परिधि पर कण दौड़ा दो
वृत्तों में कुछ वृत्त घुसा दो
कुछ जीवायें व्यास बना दो
व्यासों को आधार बना दो
आधारों पर त्रिभुज बना दो
त्रिभुजों में १८० डिग्री धर दो।
वर दे,
वीणा वादिनी वर दे।
भाव विभोर श्रोताओं ने तालियां बजाईं। रेखाजी अपनी डायरी तथा खुद को समेट कर श्रोताओं को नमस्ते करके बैठ गईं।
रेखाजी की इस सरस्वती वंदना के बाद अब मैं आवाज देता हूँ युवा कवियत्री स्पर्शरेखाजी को। आप देखेंगे कि उनके गले में जादू है। कथ्य में गहराई है। तथा नये जमाने की बहादुराना बेवकूफी भी है किसच को स्वीकारने का साहस है। अभी हाल ही में उनका कविता संग्रह आया है -हेरी मैं तो वृत्त दीवानी। मैं बडे़ प्रेम तथा आदर के साथ बुला रहा हूं स्पर्शरेखाजी को। वे आयें तथा श्रोताओं को अपने कलाम से नवाजें:-
स्पर्शरेखाजी नाजुक अंदाज में थोड़ा लापरवाही से उठीं। श्रोताओं ने उनके सम्मान में तालियां-सीटियां बजाई। वे मुस्काईं। बोलीं:-
आप सब लोगों ने जो हौसला आफजाई की है मैं उसका तहेदिल से शुक्रिया अदा करती हूं। मैं आपको अपनी सबसे पसंदीदा कविता सुनाती हूं:-
हेरी मैं तो वृत्त दीवानी
मेरो दरद न जाने कोय।
नैन लड़े हैं वृत्त देव से
किस विधि मिलना होय।
बस एक बिंदु पर छुआ-छुई है
केहिं विधि धंसना होय ?
जबसे छुआ है मैंने प्रिय को
मन धुकुर-पुकुर सा होय।
पर प्रियतम पलटा है नेता सा
मुझसे बस दूर भागता जाता
बस छुअन हमारी परिणति है
वह बार-बार चिल्लाता ।
जुड़वा बहना भी संग चली थी
उसको भी ये भरमाता है।
मैं इधर पड़ी वो उधर खड़ी
ये भी कैसा सा नाता है।
अनगिन रेखाओं को स्पर्शित कर
इस मुये वृत्त ने भरमाया ।
खुद बैठा है मार कुंडली
पता नहीं किस पर दिल आया।
मैं भी होती जीवा जैसी
इसके आर-पार हो जाती।
भले न पाती इस बौढ़म को
छेद, चाप दे जाती ।
शायद दूर पहुंचकर लगता
मैंने जीवन में क्या पाया!
हाय उसी को छेदा मैंने
जिस पर मेरा दिल आया।
इसी सोच की बंदी हूं मैं
बनी अहिल्या ऐंठी हूं।
स्पर्श बिंदु पर वृत्त देव के
मीरा बनकर बैठी हूं।
कभी प्रेम की ज्वाला से मैं
पिघल-पिघल भी जाऊँगी।
जिसे चाहती उसी परिधि पर
कभी विलीन हो जाऊँगी ।
तालियों की गड़गड़ाहट तथा वंसमोर के बाद दुबारा-तिबारा कई पंक्तियां सुनने के बाद जब श्रोता थक गये तथा जी भर के
देख चुके स्पर्शरेखाजी को तो वे बैठ गईं। तथा कवि वृत्तानंद उर्फ सर्किलपरसाद बिना परिचय के शुरु हो गये:-
ये राह बड़ी रपटीली है
रपटन से चढ्ढी ढीली है।
हर लाइन छेड़ती है मुझको
मानों मैं कोई मजनूँ हूं।
छू-छूकर खिल-खिल जाती हैं
गोया मैं कोई जुगनू हूं।
कुछ मुई लाइने हैं ऐसी
जो बर्छी सी चुभ जाती हैं।
प्रियतम मैं तेरी जीवा हूं
अन्दर ले लो कह धंस जाती हैं।
थोडा़ कहकर अंदर धंसती
फिर उथल-पुथल कर जाती हैं,
इधर काटती-उधर फाड़ती
सब बेशर्मी बहुत मचाती हैं।
कुछ त्रिभुज बनाती ,चाप काटती
सब घमासान मच जाता है,
इन लाइनों पर लाइन मारने
कोई वृत्त बेशरम घुस आता।
कुछ रेखाओं के छूने से
मन गुदगुदी मचाता है,
ये छुअन-बिंदु पर बनी रहें
ये ही अरमान जगाता है।
छुआ-छुऔव्वल से आगे
करने की मुझमे चाह नहीं,
छुअन-छुअन भर बनी रहे,
दुनिया की मुझको परवाह नहीं।
बस एक केंद्र ही ऐसा है
जो किंचित भी नहीं सनकता है,
कोई आये कोई जाये
ध्रुवतारे सा अविचल रहता है।
ये परिधि राह पर चलने वाले
बौढ़म भी बहुत भटकते हैं,
अनगिन चक्कर लगाकर भी
थे जहां वहीं पर रहते हैं।
इन बेढब चालों की चिंता ने
मेरी सारी निद्रा हर ली है,
ये राह बड़ी रपटीली है,
रपटन में मेरी चढ्ढी ढीली है।
आखिरी लाइन तक पहुंचते पहुंचते लोगों ने हूट कर दिया वृत्तानंदजी को। कुछ का विचार था कि ढीली चीज को या तो कसा जाये या उतरवा लिया जाये। इरादे किसी निर्णय के अभाव में अमल में लाये जा सके तथा वृत्तानंदजी लुढ़ककर बैठ गये।
इसके बाद बारी आई संख्यापरसाद उर्फ नंबरीदीन के। वे कविता पढ़ते हैं तो लगता है गिनती सिखा रहे हैं। पेशे से अध्यापक संख्यापरसाद जी ने जिसे गिनती सिखाई वो कविता करने लगा। जिसे कविता सिखाई वो गिनती गिनता रहा। जिसे दोनो चीजें सिखाईं वो कुछ न सीख पाया। यह संयोग है कि वे अपने हर छात्र को दोनों चीजें सिखाने की कोशिश करते। संख्यापरसाद जी ने भरे गले से शुरु किया:-
तुम दो दूनी चार पढ़ो
हम एक और एक ग्यारह
वे ३६ उलट गये ६३ में
अब तो उनकी भी पौ बारह।
नौ दो ग्यारह ही होते हैं
काहे को घर से भगते हो!
ये तीन में थे न तेरह में
काहे को इनसे डरते हो?
नौ की लकड़ी लाकर तुम
नब्बे का खर्च दिखाओगे,
निन्न्यानबे के चक्कर में
कौड़ी के तीन हो जाओगे।
हम नौ हैं उनकी तिकड़ी है,
पकड़ेंगे उनको बीन-बीन,
रगड़-रगड़ कर मारेंगे,
चढ़ एक-एक पर तीन-तीन।
इसके बाद बारी आई वीर रस के कवि त्रिभुजप्रसाद की। वे जब वीर रस की कविता पढ़ते तो लगता डर के मारे कांप रहे हैं। जाडे़ के मौसम में जब वे कविता पढ़ते हुये कांपने लगते तो लोग सोचते उन्हें ठंड लग रही है। पुलिस केस से बचने के लिये लोग उन्हें कंबल या शाल ओढ़ा देते। ये समझते लोग हमारी कविता से प्रभावित हैं। कई गलतफहमी में धक्कामुक्की हो जाती। त्रिभुजप्रसाद ने शुरु किया-कांपते हुये:-
हे ज्यामिति देवी नमस्कार
अपनी सभी भुजाओं के संग
करता हूं तुमको बहुत प्यार।
सब देशों की सीमाओं सा
मैं रेखायें जोड़े रहता हूं,
ये इधर भागतीं उधर भागतीं
मैं इनके सब नखरे सहता।
ये तीनों कोण संभाले हैं,
लालच में कभी नहीं आता,
१८० डिग्री में गुजारा करता हूं,
उतने में ही मन भर जाता।
अनुशासित रहता आया हरदम,
रेखाओं को हरदम हटका ,
एक-दूजे पर कभी मत लेटो,
बाकी सब कुछ करो बेखटका।
तीन तिगाड़ा ,काम बिगाड़ा
कह सबने मुझे चिढ़ाया है,
इतिहास जानता है लेकिन
मैंने जनहित में कितना खून बहाया।
जब पड़ी जरूरत तुमको है,
मैंने अपने कोने कटवाये हैं,
त्रिभुजों का वेतन लेकर के
बड़े बहुभुजों के काम कराये हैं।
जब पड़ी आफतें वृत्तों पर,
अपने अंदर कर लाड़ किया,
जब-जब उनने भौंहें ऐंठीं
अन्दर घुस उनको फाड़ दिया।
समबाहु-द्विबाहु,सम-विषमकोण,
चाहे जैसा हो मेरा आकार,
जब पड़े जरूरत बुलवाना,
दौड़ा आऊंगा सुनकर पुकार।
हे ज्यामिति देवी नमस्कार,
अपनी सभी भुजाओं के संग
करता हूं तुमको बहुत प्यार।
त्रिंभुजप्रसाद के इस जबरदस्ती तथा जबरदस्ती कविता पाठ के बाद मैं अब आवाज दे रहा हूं फिर से जानी-मानी कवियत्री रेखा देवी से। वे हायकू भी बहुत अच्छे लिखती हैं। इतने अच्छे कि अक्सर लोग उन्हें हायकू मानने से इंकार कर देते। मैं अनुरोध करूंगा कि वे अपने कुछ हायकू सुनायें।रेखाजी:-
रेखाजी ने कहा-साथियों आप लोग जिस मूड से कविता सुन रहे हैं उससे मुझे लग रहा है कि मैं अपनी सारी रचनायें सुना डालूं। लेकिन रात काफी हो रही है लिहाजा मैं अपने कुछ ताजा तरीन हायकू सुनाकर इजाजत चाहूंगी। ये वे हायकू हैंजो मैंने अभी-अभी लिखे। कुछ का मतलब मेरे भी समझ में नहीं आया हैं ।लेकिन मुझे यकीन है कि आपलोग मतलब समझ लेंगे। इसमें मैंने वृत्त आदि का मानवीकरण करके अपनी बात कहने की कोशिश की है। मुलाहिजा फरमायें:-
हे मेरे देव,
किये बढ़िया सेव,
पास आओ न!
तुमको देखा
अंखियां तर गईं
दूर जाओ न!
रेखायें बोलीं,
चलो करें ठिठोली
गोले पे चढ़ें।
त्रिभुज बोला
ये भैया मेरे गोला
छानोगे गोला!
समांतर हूं
मिलूंगी नहीं भाई
दूरी निभाओ।
बिंदु बिंदु से
लाइन निकली है
दूर भागतीं।
छुओ मत रे
गुदगुदी होती है
रेखा बिंहसी।
अच्छा चलो
आंख दो चार करे
पियार करें।
मिट जाऊंगी
रोशनी बनकर
तुम्हारे नाम।
लोग कहेंगे
बेकार में हो गया
काम तमाम।
यही होता है,
भंवर देखा,कूदे
व डूब गये।
रेखाजी को लोग वाह-वाह करके बैठने ही नहीं दे रहे थे। उधर वाह-वाह के हल्ले से अध्यक्ष गोलापरसाद की नींद टूट गई तथा वे लुढकते पुढकते हुये बिन बुलाये माइक पर आ गये। रेखाजी कुछ देर पास में यह सोचकर खड़ीं रहीं कि शायद अध्यक्षजी उनकी किसी कविता की तारीफ करें लेकिन वे खुद शुरु हो गये तो वे बुझे मन से सबको प्रणाम निवेदित करके बैठ गईं। गोलापरसाद दगने लगे:-
मैं गोला हूं बम भोला हूं
बाहर कड़ा अंदर से पोला हूं।
मैं गोलमटोल बना बैठा
सबको गोली दे जाता हूं।
सब गोली में जब होंय टुन्न
मैं कहीं लुढ़क सा जाता हूं।
मैं धक्कामुक्की से डरता हूं
बस एक बिंदु पर लड़ता हूं
हर ओर एक सा रहता हूं
चिकने पर सरपट भगता हूं।
हैं मेरे कितने रूप अनेक
मैं अब तक खुद न समझ पाया,
मूझे बुलाया था आपने यहां
या खुद ही चलता फिरता आया?
ये सम्मेलन लंबा चलेगा तो
मैं यहीं लुढ़क गिर जाऊँगा,
मैं यहीं समापन करता हूं
फिर आगे कभी सुनाऊंगा।
कहकर गोलापरसाद लुढ़कने लगे। श्रोता उनके वजनी शरीर के नीचे दबने से बचने के लिये जहां जगह मिली भागने लगी। सब जगह भगदड़ मच गई।पहले गणियीय कवि सम्मेलन का गणित बिगड़ गया। इसलिये लोग घरों को लौटने लगे।
हमारा मूड भी कवितायें सुनकर कुछ ठीक सा होने लगा ।आपके क्या हाल हैं?
खिंचाई करने वालों ने सारे समाधान हमारी पत्नी के आगमन में खोजें।गोया हमारी एकमात्र पत्नी, पत्नी न होकर चलता-फिरता आपातकाल हो जिसके लगते ही हम अनुशासित हो जायेंगे। हमने अपने बच्चे से पूछा – क्यों बेटा अनन्य क्या मम्मी तुम्हारी इतनी डरावनी हैं कि उनके डर से हम सुधर जायेंगे? बच्चा बोला-मेरी मम्मी डरावनी ? यह किसने कहा? मैंने बताया ये लोग कह रही हैं । वो बोला-पिताजी,मैंने बहुत पहले कहा था कि जो जैसा होता है वैसा कहता है।आंटी लोग जैसे अंकल लोगों को डरा के रखती होंगी वैसा ही मम्मी के बारे में सोचती होंगी। मैंने कहा -नहीं बेटा ,ऐसी बात नहीं हैं ये लोग तो बहुत अच्छा व्यवहार करने वाली हैं।मीठा-मीठा बोलती हैं। बहरहाल वह माना नहीं -बोला छोड़िये इसको। आप परेशान न हों । बहुत दिन से कविता नहीं लिखी । कविता लिखिये-मूड ठीक हो जायेगा।
तो हमने अपने को कविता रस सागर में डुबा दिया। कवितायें लिखने के विचार से शुरु किया तो लगा कि अपने नामाराशि अनूप भार्गव के अंदाज में कुछ कहा जाये। वे गणित के बहुत अच्छे जानकार हैं। सारी गणित की जानकारी कविता में ढेल देते हैं। हमारी न गणित मजबूत है न कविता ।लेकिन गणितीय कवि सम्मेलन की इच्छा बहुत हो रही है। सो दिल के हाथों मजबूर कवि सम्मेलन का आयोजन कर रहा हूं। तमामकवि बुला लिये। संयोजक मिला नहीं तो संचालन खुद ही करना पढ़ रहा है।
सभी संत-असज्जनों के चरणों में प्रणाम निवेदित करते हुये मैं अनुरोध करता हूं वरिष्ठ कवि गोलापरसाद से कि वे आकर अध्यक्ष पद को सुशोभित करें।इसके बाद मैं अनुरोध करूंगा माननीया रेखा जी से कि इस अनूठे गणितीय कवि सम्मेलन
का आरम्भ मां सरस्वती की वंदना से करें।आइये रेखा जी:-
रेखाजी ने इस बीच अपने जेबी आइने में चेहरा-मोहरा देख लिये था। साड़ी का पल्लू पहले फहराया फिर समेटा। माइक
पर आईं। सांस ली। छोड़ी। चारो तरफ देखा। आंखें बंद की ।खोली फिर ऊँऊँऊँ … करके वंदना शुरु की:-
वर दे,
मातु शारदे वर दे!
कूढ़ मगज़ लोगों के सर में
मन-मन भर बुद्धि भर दे।
बिंदु-बिंदु मिल बने लाइनें
लाइन-लाइन लंबी कर दे।
त्रिभुज-त्रिभुज समरूप बना दो
कोण-कोण समकोण करा दो
हर रेखा पर लंब गिरा दो
परिधि-परिधि पर कण दौड़ा दो
वृत्तों में कुछ वृत्त घुसा दो
कुछ जीवायें व्यास बना दो
व्यासों को आधार बना दो
आधारों पर त्रिभुज बना दो
त्रिभुजों में १८० डिग्री धर दो।
वर दे,
वीणा वादिनी वर दे।
भाव विभोर श्रोताओं ने तालियां बजाईं। रेखाजी अपनी डायरी तथा खुद को समेट कर श्रोताओं को नमस्ते करके बैठ गईं।
रेखाजी की इस सरस्वती वंदना के बाद अब मैं आवाज देता हूँ युवा कवियत्री स्पर्शरेखाजी को। आप देखेंगे कि उनके गले में जादू है। कथ्य में गहराई है। तथा नये जमाने की बहादुराना बेवकूफी भी है किसच को स्वीकारने का साहस है। अभी हाल ही में उनका कविता संग्रह आया है -हेरी मैं तो वृत्त दीवानी। मैं बडे़ प्रेम तथा आदर के साथ बुला रहा हूं स्पर्शरेखाजी को। वे आयें तथा श्रोताओं को अपने कलाम से नवाजें:-
स्पर्शरेखाजी नाजुक अंदाज में थोड़ा लापरवाही से उठीं। श्रोताओं ने उनके सम्मान में तालियां-सीटियां बजाई। वे मुस्काईं। बोलीं:-
आप सब लोगों ने जो हौसला आफजाई की है मैं उसका तहेदिल से शुक्रिया अदा करती हूं। मैं आपको अपनी सबसे पसंदीदा कविता सुनाती हूं:-
हेरी मैं तो वृत्त दीवानी
मेरो दरद न जाने कोय।
नैन लड़े हैं वृत्त देव से
किस विधि मिलना होय।
बस एक बिंदु पर छुआ-छुई है
केहिं विधि धंसना होय ?
जबसे छुआ है मैंने प्रिय को
मन धुकुर-पुकुर सा होय।
पर प्रियतम पलटा है नेता सा
मुझसे बस दूर भागता जाता
बस छुअन हमारी परिणति है
वह बार-बार चिल्लाता ।
जुड़वा बहना भी संग चली थी
उसको भी ये भरमाता है।
मैं इधर पड़ी वो उधर खड़ी
ये भी कैसा सा नाता है।
अनगिन रेखाओं को स्पर्शित कर
इस मुये वृत्त ने भरमाया ।
खुद बैठा है मार कुंडली
पता नहीं किस पर दिल आया।
मैं भी होती जीवा जैसी
इसके आर-पार हो जाती।
भले न पाती इस बौढ़म को
छेद, चाप दे जाती ।
शायद दूर पहुंचकर लगता
मैंने जीवन में क्या पाया!
हाय उसी को छेदा मैंने
जिस पर मेरा दिल आया।
इसी सोच की बंदी हूं मैं
बनी अहिल्या ऐंठी हूं।
स्पर्श बिंदु पर वृत्त देव के
मीरा बनकर बैठी हूं।
कभी प्रेम की ज्वाला से मैं
पिघल-पिघल भी जाऊँगी।
जिसे चाहती उसी परिधि पर
कभी विलीन हो जाऊँगी ।
तालियों की गड़गड़ाहट तथा वंसमोर के बाद दुबारा-तिबारा कई पंक्तियां सुनने के बाद जब श्रोता थक गये तथा जी भर के
देख चुके स्पर्शरेखाजी को तो वे बैठ गईं। तथा कवि वृत्तानंद उर्फ सर्किलपरसाद बिना परिचय के शुरु हो गये:-
ये राह बड़ी रपटीली है
रपटन से चढ्ढी ढीली है।
हर लाइन छेड़ती है मुझको
मानों मैं कोई मजनूँ हूं।
छू-छूकर खिल-खिल जाती हैं
गोया मैं कोई जुगनू हूं।
कुछ मुई लाइने हैं ऐसी
जो बर्छी सी चुभ जाती हैं।
प्रियतम मैं तेरी जीवा हूं
अन्दर ले लो कह धंस जाती हैं।
थोडा़ कहकर अंदर धंसती
फिर उथल-पुथल कर जाती हैं,
इधर काटती-उधर फाड़ती
सब बेशर्मी बहुत मचाती हैं।
कुछ त्रिभुज बनाती ,चाप काटती
सब घमासान मच जाता है,
इन लाइनों पर लाइन मारने
कोई वृत्त बेशरम घुस आता।
कुछ रेखाओं के छूने से
मन गुदगुदी मचाता है,
ये छुअन-बिंदु पर बनी रहें
ये ही अरमान जगाता है।
छुआ-छुऔव्वल से आगे
करने की मुझमे चाह नहीं,
छुअन-छुअन भर बनी रहे,
दुनिया की मुझको परवाह नहीं।
बस एक केंद्र ही ऐसा है
जो किंचित भी नहीं सनकता है,
कोई आये कोई जाये
ध्रुवतारे सा अविचल रहता है।
ये परिधि राह पर चलने वाले
बौढ़म भी बहुत भटकते हैं,
अनगिन चक्कर लगाकर भी
थे जहां वहीं पर रहते हैं।
इन बेढब चालों की चिंता ने
मेरी सारी निद्रा हर ली है,
ये राह बड़ी रपटीली है,
रपटन में मेरी चढ्ढी ढीली है।
आखिरी लाइन तक पहुंचते पहुंचते लोगों ने हूट कर दिया वृत्तानंदजी को। कुछ का विचार था कि ढीली चीज को या तो कसा जाये या उतरवा लिया जाये। इरादे किसी निर्णय के अभाव में अमल में लाये जा सके तथा वृत्तानंदजी लुढ़ककर बैठ गये।
इसके बाद बारी आई संख्यापरसाद उर्फ नंबरीदीन के। वे कविता पढ़ते हैं तो लगता है गिनती सिखा रहे हैं। पेशे से अध्यापक संख्यापरसाद जी ने जिसे गिनती सिखाई वो कविता करने लगा। जिसे कविता सिखाई वो गिनती गिनता रहा। जिसे दोनो चीजें सिखाईं वो कुछ न सीख पाया। यह संयोग है कि वे अपने हर छात्र को दोनों चीजें सिखाने की कोशिश करते। संख्यापरसाद जी ने भरे गले से शुरु किया:-
तुम दो दूनी चार पढ़ो
हम एक और एक ग्यारह
वे ३६ उलट गये ६३ में
अब तो उनकी भी पौ बारह।
नौ दो ग्यारह ही होते हैं
काहे को घर से भगते हो!
ये तीन में थे न तेरह में
काहे को इनसे डरते हो?
नौ की लकड़ी लाकर तुम
नब्बे का खर्च दिखाओगे,
निन्न्यानबे के चक्कर में
कौड़ी के तीन हो जाओगे।
हम नौ हैं उनकी तिकड़ी है,
पकड़ेंगे उनको बीन-बीन,
रगड़-रगड़ कर मारेंगे,
चढ़ एक-एक पर तीन-तीन।
इसके बाद बारी आई वीर रस के कवि त्रिभुजप्रसाद की। वे जब वीर रस की कविता पढ़ते तो लगता डर के मारे कांप रहे हैं। जाडे़ के मौसम में जब वे कविता पढ़ते हुये कांपने लगते तो लोग सोचते उन्हें ठंड लग रही है। पुलिस केस से बचने के लिये लोग उन्हें कंबल या शाल ओढ़ा देते। ये समझते लोग हमारी कविता से प्रभावित हैं। कई गलतफहमी में धक्कामुक्की हो जाती। त्रिभुजप्रसाद ने शुरु किया-कांपते हुये:-
हे ज्यामिति देवी नमस्कार
अपनी सभी भुजाओं के संग
करता हूं तुमको बहुत प्यार।
सब देशों की सीमाओं सा
मैं रेखायें जोड़े रहता हूं,
ये इधर भागतीं उधर भागतीं
मैं इनके सब नखरे सहता।
ये तीनों कोण संभाले हैं,
लालच में कभी नहीं आता,
१८० डिग्री में गुजारा करता हूं,
उतने में ही मन भर जाता।
अनुशासित रहता आया हरदम,
रेखाओं को हरदम हटका ,
एक-दूजे पर कभी मत लेटो,
बाकी सब कुछ करो बेखटका।
तीन तिगाड़ा ,काम बिगाड़ा
कह सबने मुझे चिढ़ाया है,
इतिहास जानता है लेकिन
मैंने जनहित में कितना खून बहाया।
जब पड़ी जरूरत तुमको है,
मैंने अपने कोने कटवाये हैं,
त्रिभुजों का वेतन लेकर के
बड़े बहुभुजों के काम कराये हैं।
जब पड़ी आफतें वृत्तों पर,
अपने अंदर कर लाड़ किया,
जब-जब उनने भौंहें ऐंठीं
अन्दर घुस उनको फाड़ दिया।
समबाहु-द्विबाहु,सम-विषमकोण,
चाहे जैसा हो मेरा आकार,
जब पड़े जरूरत बुलवाना,
दौड़ा आऊंगा सुनकर पुकार।
हे ज्यामिति देवी नमस्कार,
अपनी सभी भुजाओं के संग
करता हूं तुमको बहुत प्यार।
त्रिंभुजप्रसाद के इस जबरदस्ती तथा जबरदस्ती कविता पाठ के बाद मैं अब आवाज दे रहा हूं फिर से जानी-मानी कवियत्री रेखा देवी से। वे हायकू भी बहुत अच्छे लिखती हैं। इतने अच्छे कि अक्सर लोग उन्हें हायकू मानने से इंकार कर देते। मैं अनुरोध करूंगा कि वे अपने कुछ हायकू सुनायें।रेखाजी:-
रेखाजी ने कहा-साथियों आप लोग जिस मूड से कविता सुन रहे हैं उससे मुझे लग रहा है कि मैं अपनी सारी रचनायें सुना डालूं। लेकिन रात काफी हो रही है लिहाजा मैं अपने कुछ ताजा तरीन हायकू सुनाकर इजाजत चाहूंगी। ये वे हायकू हैंजो मैंने अभी-अभी लिखे। कुछ का मतलब मेरे भी समझ में नहीं आया हैं ।लेकिन मुझे यकीन है कि आपलोग मतलब समझ लेंगे। इसमें मैंने वृत्त आदि का मानवीकरण करके अपनी बात कहने की कोशिश की है। मुलाहिजा फरमायें:-
हे मेरे देव,
किये बढ़िया सेव,
पास आओ न!
तुमको देखा
अंखियां तर गईं
दूर जाओ न!
रेखायें बोलीं,
चलो करें ठिठोली
गोले पे चढ़ें।
त्रिभुज बोला
ये भैया मेरे गोला
छानोगे गोला!
समांतर हूं
मिलूंगी नहीं भाई
दूरी निभाओ।
बिंदु बिंदु से
लाइन निकली है
दूर भागतीं।
छुओ मत रे
गुदगुदी होती है
रेखा बिंहसी।
अच्छा चलो
आंख दो चार करे
पियार करें।
मिट जाऊंगी
रोशनी बनकर
तुम्हारे नाम।
लोग कहेंगे
बेकार में हो गया
काम तमाम।
यही होता है,
भंवर देखा,कूदे
व डूब गये।
रेखाजी को लोग वाह-वाह करके बैठने ही नहीं दे रहे थे। उधर वाह-वाह के हल्ले से अध्यक्ष गोलापरसाद की नींद टूट गई तथा वे लुढकते पुढकते हुये बिन बुलाये माइक पर आ गये। रेखाजी कुछ देर पास में यह सोचकर खड़ीं रहीं कि शायद अध्यक्षजी उनकी किसी कविता की तारीफ करें लेकिन वे खुद शुरु हो गये तो वे बुझे मन से सबको प्रणाम निवेदित करके बैठ गईं। गोलापरसाद दगने लगे:-
मैं गोला हूं बम भोला हूं
बाहर कड़ा अंदर से पोला हूं।
मैं गोलमटोल बना बैठा
सबको गोली दे जाता हूं।
सब गोली में जब होंय टुन्न
मैं कहीं लुढ़क सा जाता हूं।
मैं धक्कामुक्की से डरता हूं
बस एक बिंदु पर लड़ता हूं
हर ओर एक सा रहता हूं
चिकने पर सरपट भगता हूं।
हैं मेरे कितने रूप अनेक
मैं अब तक खुद न समझ पाया,
मूझे बुलाया था आपने यहां
या खुद ही चलता फिरता आया?
ये सम्मेलन लंबा चलेगा तो
मैं यहीं लुढ़क गिर जाऊँगा,
मैं यहीं समापन करता हूं
फिर आगे कभी सुनाऊंगा।
कहकर गोलापरसाद लुढ़कने लगे। श्रोता उनके वजनी शरीर के नीचे दबने से बचने के लिये जहां जगह मिली भागने लगी। सब जगह भगदड़ मच गई।पहले गणियीय कवि सम्मेलन का गणित बिगड़ गया। इसलिये लोग घरों को लौटने लगे।
हमारा मूड भी कवितायें सुनकर कुछ ठीक सा होने लगा ।आपके क्या हाल हैं?
Posted in कविता, बस यूं ही | 16 Responses
कोई कुछ भी लिखे हिन्दी चिट्ठा जगत के आप ही बेताज बादशाह हैं।
(कैसी रही तारीफ:-))
गणित कवि सम्मेलन आज पहली बार पढ़ा वृत्त और जीवाओं की अठखेलियाँ बहुत पसंद आई लगा किसी नए नए जीजा को सालियाँ तंग कर रही हैं।
पंकज
वैसे लेख तो शानदार लिखा हो, गणित मे हमारी फ़ीस माफ़ थी, किसी तरह टीचर को सैट करके पास हो गये थे, इसलिये हमारी समझ मे पूरी तरह से तो नही आयी, दो चार बार पढेंगे तो शायद कुछ पल्ले पड़े।
और हाँ, आजकल चिट्ठा चर्चा काहे बन्द कर दिये हो?
बधाई …. एक बहुत अच्छे लेख के लिये ।
छू गई मन को, तुम्हारे व्यंग की वो स्पर्श रेखा …
अनूप (भार्गव)
वैसे, आपके टैलेंट की दाद देनी पडेगी। गणित तो है ही, मगर ये जो हाइकुनुमा कविता है…उसमें भी गणित…बहुत अच्छा लेख लिखा है आपने और हमेशा लिखते रहिये।
वैसे कवि सम्मेलन मे मज़ा आया. गणित बेचारी आई थी ,कह गई
गणित बोली
ऐसी जग हँसाई
रो पडूँगी मैं
याद रखना
काम हमसे तुम्हें
पडेगा फिर
मैं भी तब यूँ
खिसका दूँगी शून्य
तेरे अँगना
कृपया नोट किया जाये, आपके खिंचाई अभियान में हमारा कोई योगदान नही है। हमारा कटिंग सैलुन तो आपकी ही प्रेरणा से लिका गया है। यहाँ गणित का यह हाल देख श्री बी जी द्विवेदी न जाने क्या सोचेंगे। बाकी सारी कविताऐ तो अति सुँदर हैं पर एकाध कविता के कुछ अँश अगर संदर्भ से बाहर निकाल लिये जाये तो आजकल निरंतर के (अ)भूतपूर्व संपादक मँडल में छिड़ी चर्चा के दायरे में आ सकते हैं।
कुछ मुई लाइने हैं ऐसी
जो बर्छी सी चुभ जाती हैं।
प्रियतम मैं तेरी जीवा हूं
अन्दर ले लो कह धंस जाती हैं।
थोड़ा कहकर अंदर धंसती
फिर उथल-पुथल कर जाती हैं,
इधर काटती-उधर फाड़ती
सब बेशर्मी बहुत मचाती हैं
पर, आपकी साइकिल यात्रा कहां अटक गई?
आप फिर बाजी मार ले गये। मैं गणित का अध्यापक हूँ और कविता भी लिखता हूँ लेकिन दोनों का बेहतरीन समन्वय तो आपने किया है। मैं आपकी प्रतिभा का कायल हूँ।
कालीचरन भैया,आपकी आनंद अनुभूति की खबर से मन मयूर हर्षित हुआ जाता है।
मिर्ची सेठजी, स्वयं से कहलाया तो गया है कि ऐसी बात नहीं हैं ये लोग तो बहुत अच्छा व्यवहार करने वाली हैं।मीठा-मीठा बोलती हैं।यह बड़ी खुशी की बात है मेरे लिये कि इस पोस्ट ने आपको सालियां के नजदीक पहुंचा दिया।
जीतू,काम काज के बारे में तुम्हारी चिंता विस्मित करने वाली है। क्या राज है इस कामपीडा़ का? कविता समझ में नहीं आई यह कह कर क्या यह साबित करना चाहते हो कि बाकी चीजें समझ आ गईं।चिट्ठा चर्चा दनादन चालू आहे!
अनूप भाई,इस लेख की प्रेरणा निश्चित तौर पर आपकी गणितीय कवितायें ही रहीं। यदि यह पसंद आया तो इसका पूरा श्रेय आपको ही जाता है। स्पर्शरेखा छू गई (छुअन ही परिणति है) -धन्यवाद।
मानोशी,पत्नी से डरने की सलाह पर विचार हो रहा है।तारीफ के शुक्रिया।लिखना चलता रहेगा यह आशा है।
प्रत्यक्षाजी,कवि सम्मेलन में मज़ा आया तो ये लीजिये शुक्रिया।गणित से कहिये-लौट जाये किताबों में कुछ दिन के लिये।
बोलो उससे
परीक्षायें आ गईं
वो चली जाये।
बच्चों को देखे
सरके दिमाग में
कमजोर के।
शून्य को छोड़े
विद्यार्थियों को देखे
उन्हे संभाले।
अतुल,इतनी सफाई पसन्दगी भी ठीक नहीं होती ।लोग तिनका तलाशने लगेंगे । द्विवेदीजी शायद कहते-वृत्त का दर्द समझ में आया तो रेखाओं की पीड़ा भी समझो जो वृत्त के दर्द से पहले की चीज है:-
अनगिन रेखाओं को स्पर्शित कर
इस मुये वृत्त ने भरमाया ।
खुद बैठा है मार कुंडली
पता नहीं किस पर दिल आया।
मैं भी होती जीवा जैसी
इसके आर-पार हो जाती।
भले न पाती इस बौढ़म को
छेद, चाप दे जाती ।
शायद दूर पहुंचकर लगता
मैंने जीवन में क्या पाया!
हाय उसी को छेदा मैंने
जिस पर मेरा दिल आया।
रवि भाई,शुक्रिया। आपको हर तरह का अधिकार है किसी भी रचना का उपयोग करने के लिये।साइकिल पर भी पैडल बस मारने ही वाला हूं।
लक्ष्मी जी,तारीफ के लिये शुक्रिया।
आपका गणतीय कवि सम्मेलन वाकई काबिले तारीफ़ है…पढ़कर मज़ा आ गया …लिखते रहिए…शुभकामनाओं सहित..