http://web.archive.org/web/20140419051026/http://hindini.com/fursatiya/archives/70
फुरसतिया भागते चले आ रहे थे- गब्बरसिंह की तरह जिसे धर्मेन्दर दौड़ा रहा हो। हांपते हुये बोले- गुरु बताओ आप फिल्में किस किये देखते हो?
शुकुल गुरु बोले- हम देखते ही नहीं फिल्में।
फुरसतिया: फिर भी बताना है कि फिल्में काहे देखते हो?
गुरु: अरे जब नहीं देखते तो काहे बतायें? जिस रस्ते जाना नहीं उसके कोस गिनने से क्या फायदा?
फुरसतिया: नहीं गुरु बताना तो पड़ेगा । आज नहीं बताया तो बेइज्जती खराब हो जायेगी।मिर्ची सेठ बोलेगा- बताया नहीं।
गुरु: हम बतायेंगे लेकिन हिंदी में। तुम अनुवाद कैसे करोगे अंग्रेजी में? हिंदी तो ऊ लोग समझ नहीं पायेंगे!
फुरसतिया: अरे नहीं गुरु, वो तो दूसरा लफड़ा है। वो जो हिंदी न जानने वाले हैं वो तो बहुत ज्ञानी लोग हैं। ऊंचे लोग ऊंची पसन्द टाइप। वो सारे देश के लोगों की बात है वहां विद्वान लोग हिंदी में अटकते हैं। यहां अभी ऐसा नहीं है। कुछ दिन बाद शायद इतना विकास हो जाये कि अंग्रेजी में ही लोग समझ पायें। अभी तो यहां हिंदी की खिचड़ी ही पकती है।
गुरु: अच्छा ये मामला है। चलो अच्छा पूछो सवाल हम लिखाये देते हैं जवाब।
फुरसतिया: गुरु,पहला सवाल तो वही है कि आप फिल्में क्यों देखते हैं?
गुरु: फिल्में बनती हैं इसलिये देखी जाती हैं। न बने तो कौन देखेगा जाकर?
फुरसतिया: बनता तो बहुत कुछ है गुरु। एटम बम भी बनते हैं ,चरस ,स्मैक भी तो क्या सबका प्रयोग किया जाता है?
गुरु: देखो बालक सवाल के जवाब में सवाल वर्जित है आज की सभा में। फिर भी जवाब यह होगा कि जो अपनी पहुंच में होगा उसे ही तो प्रयोग में लाया जायेगा। अब मानो तुमसे कहा जाये अंग्रेजी लिखने को तो लिये भार्गव डिक्शनरी पड़े रहोगे हफ्ते भर लेकिन लेकिन दो पन्ना नहीं लिख पाओगे। सो फिल्में हमारी पहुंच में हैं मनोरंजन का साधन है सो देख लेते हैं।
फुरसतिया: और कोई फायदा नहीं मसलन शिक्षा , आदर्श आदि?
गुरु: शिक्षा का तो ऐसा है कि देखते-देखते आ जाये तो है। वर्ना खाली उपदेश तो क्लासरूम का लेक्चर हो जाता है। पब्लिक सो जाती है।
फुरसतिया: गुरु भारतीय सिनेमा के बारे में कुछ ‘परकास’ डाल दिया जाये।
गुरु:हम का डालें? देखो ये किताब लिखी है आश करण अटल ने -सिनेमा पुराण। वे कहते हैं- काफी समय से हमारी फिल्मों के कथानक में ठहराव सा आ गया है। पानी हो या कथानक ठहराव उसे गंदला कर देता है। कोई विदेशी हमारी फिल्में देखे तो यही सोचेगा कि भारत में या तो प्रेमी बसते हैं या गुंडे। दिन भर की विज्ञापन फिल्में देखकर लगता है कि हमारे बालों में डेंड्रप और कीटाणु भरे हैं, कपड़ों पर मैल जमा हुआ है, पसीना बदबू मार रहा है और तो और हमें केवल पेप्सी या कोका कोला ही पीना चाहिये। इतना दोहराव ? इतना ठहराव? हमारे छोटे और बड़े दोनों पर्दों पर?
फुरसतिया: हां वो जो आता है विज्ञापन कोका कोला का -पियो सर उठा के तो लगता कि सर झुक गया। लगता है जो पियेगा उसी का सर उठेगा बाकी का कटेगा। अच्छा आम आदमी का क्या विचार है इस बारे में? वो काहे देखता है सिनेमा?गुरु:लेखक ,निर्देशक अभिनेता चन्द्रप्रकाश द्विवेदी कहते हैं- सिनेमा के बाजार ने अपने दर्शन को जन्म दिया कि हिंदुस्तान का सर्वहारा,मजदूर ,मेहनत कश,थका-हारा, रोजमर्रा की परेशानियों में सच को सच ,यथार्थ को यथार्थ में नहीं देखना चाहता। वह इस सबसे भागना चाहता है। वह इस सबसे भागना चाहता है। वह ऐसे सपने देखना चाहता है,जहां असंभव भी संभव हो। वह मन बहलाने के लिये पागलपन की हद तक गुजर जाना चाहता है। इसलिये ऐसे सपनों का ताना बाना सिनेमा ने बुना जो खूब चला। उन सपनों में रचने-बसने वाला दर्शक वहीं रहा। मजदूर वहीं रहा। सपना देखने वालों की जेबें खाली होतीं रहीं। सपना दिखाने वाले जेबें भरते रहे। आवाम के अंतिम आदमी तक पहुंचने के नाम पर सिनेमा मानसिकता की सबसे निचली सीढ़ी पर पहुंचा और बदले में अपने लिये धन की सबसे ऊपरी सीढ़ी निश्चित कर ली।
फुरसतिया: अच्छा कुछ बातें आपके फिल्म प्रेम के बारे में पूछ लेता हूं। इससे आपकी अभिरुचि पता चल जायेगी कि आप कितने पानी में हैं?
गुरु : हां पूछ लो।
फुरसतिया: सबसे पहले यह बतायें कि आपने सबसे पहले कौन सी फिल्म देखी तथा कैसे?
गुरु: हमें याद है हमारा एक दोस्त था। वह भी जीतेंदर टाइप था। खूब पिक्चर देखता था। एक दिन घर से पैसे चुरा के वह ब्लैक में ‘वक्त’ की टिकट लाया। जैसे ही वह जाने वाला था अंदर कि उसका ‘बउआ’ टाइप का एक दोस्त किसी सनसनीखेज
सिनेमा की दो टिकटें ले आया। वो मेरे दोस्त को ले गया। उसने मुझे अपना टिकट दे दिया मुफ्त में। सो पहली फिल्म हमने मुफ्त में देखी किसी को मजबूरी से उबारने के लिये। राजकुमार का डायलाग मुझे अभी तक याद है- जानी,जिनके घर कांच के बने होते हैं वे दूसरों के घर पत्थर नहीं फेंकते।
फुरसतिया: यह शुरुआत फिर आगे बढ़ी?
गुरु: न कहीं। हमारे हिस्से में सिनेमा हाल में देखी गई फिल्मों का औसत प्रति साल एक सिनेमा से भी कम आता है।पता नहीं कैसे हमें यह ज्ञान हुआ कि यह सब बकवास है। तब से हम वही पिक्चर देखते हैं जो जनता कहती है कि देखने लायक है। हम इस मामले में सबसे पहले होने के लालच में नहीं पड़ते। क्या फायदा कोलम्बस बनने से?
फिर तो बेकार है सर खपाने से आपके पास। चलता हूं भगवान आपका भला करे। हमें यह लेख आज पोस्ट करना है वैसे ही देर हो गई।यह कह कर फुरसतिया भाग लिये पता नहीं किस ओर!
By फ़ुरसतिया on December 1, 2005
फुरसतिया भागते चले आ रहे थे- गब्बरसिंह की तरह जिसे धर्मेन्दर दौड़ा रहा हो। हांपते हुये बोले- गुरु बताओ आप फिल्में किस किये देखते हो?
शुकुल गुरु बोले- हम देखते ही नहीं फिल्में।
फुरसतिया: फिर भी बताना है कि फिल्में काहे देखते हो?
गुरु: अरे जब नहीं देखते तो काहे बतायें? जिस रस्ते जाना नहीं उसके कोस गिनने से क्या फायदा?
फुरसतिया: नहीं गुरु बताना तो पड़ेगा । आज नहीं बताया तो बेइज्जती खराब हो जायेगी।मिर्ची सेठ बोलेगा- बताया नहीं।
गुरु: हम बतायेंगे लेकिन हिंदी में। तुम अनुवाद कैसे करोगे अंग्रेजी में? हिंदी तो ऊ लोग समझ नहीं पायेंगे!
फुरसतिया: अरे नहीं गुरु, वो तो दूसरा लफड़ा है। वो जो हिंदी न जानने वाले हैं वो तो बहुत ज्ञानी लोग हैं। ऊंचे लोग ऊंची पसन्द टाइप। वो सारे देश के लोगों की बात है वहां विद्वान लोग हिंदी में अटकते हैं। यहां अभी ऐसा नहीं है। कुछ दिन बाद शायद इतना विकास हो जाये कि अंग्रेजी में ही लोग समझ पायें। अभी तो यहां हिंदी की खिचड़ी ही पकती है।
गुरु: अच्छा ये मामला है। चलो अच्छा पूछो सवाल हम लिखाये देते हैं जवाब।
फुरसतिया: गुरु,पहला सवाल तो वही है कि आप फिल्में क्यों देखते हैं?
गुरु: फिल्में बनती हैं इसलिये देखी जाती हैं। न बने तो कौन देखेगा जाकर?
फुरसतिया: बनता तो बहुत कुछ है गुरु। एटम बम भी बनते हैं ,चरस ,स्मैक भी तो क्या सबका प्रयोग किया जाता है?
गुरु: देखो बालक सवाल के जवाब में सवाल वर्जित है आज की सभा में। फिर भी जवाब यह होगा कि जो अपनी पहुंच में होगा उसे ही तो प्रयोग में लाया जायेगा। अब मानो तुमसे कहा जाये अंग्रेजी लिखने को तो लिये भार्गव डिक्शनरी पड़े रहोगे हफ्ते भर लेकिन लेकिन दो पन्ना नहीं लिख पाओगे। सो फिल्में हमारी पहुंच में हैं मनोरंजन का साधन है सो देख लेते हैं।
फुरसतिया: और कोई फायदा नहीं मसलन शिक्षा , आदर्श आदि?
गुरु: शिक्षा का तो ऐसा है कि देखते-देखते आ जाये तो है। वर्ना खाली उपदेश तो क्लासरूम का लेक्चर हो जाता है। पब्लिक सो जाती है।
फुरसतिया: गुरु भारतीय सिनेमा के बारे में कुछ ‘परकास’ डाल दिया जाये।
गुरु:हम का डालें? देखो ये किताब लिखी है आश करण अटल ने -सिनेमा पुराण। वे कहते हैं- काफी समय से हमारी फिल्मों के कथानक में ठहराव सा आ गया है। पानी हो या कथानक ठहराव उसे गंदला कर देता है। कोई विदेशी हमारी फिल्में देखे तो यही सोचेगा कि भारत में या तो प्रेमी बसते हैं या गुंडे। दिन भर की विज्ञापन फिल्में देखकर लगता है कि हमारे बालों में डेंड्रप और कीटाणु भरे हैं, कपड़ों पर मैल जमा हुआ है, पसीना बदबू मार रहा है और तो और हमें केवल पेप्सी या कोका कोला ही पीना चाहिये। इतना दोहराव ? इतना ठहराव? हमारे छोटे और बड़े दोनों पर्दों पर?
फुरसतिया: हां वो जो आता है विज्ञापन कोका कोला का -पियो सर उठा के तो लगता कि सर झुक गया। लगता है जो पियेगा उसी का सर उठेगा बाकी का कटेगा। अच्छा आम आदमी का क्या विचार है इस बारे में? वो काहे देखता है सिनेमा?गुरु:लेखक ,निर्देशक अभिनेता चन्द्रप्रकाश द्विवेदी कहते हैं- सिनेमा के बाजार ने अपने दर्शन को जन्म दिया कि हिंदुस्तान का सर्वहारा,मजदूर ,मेहनत कश,थका-हारा, रोजमर्रा की परेशानियों में सच को सच ,यथार्थ को यथार्थ में नहीं देखना चाहता। वह इस सबसे भागना चाहता है। वह इस सबसे भागना चाहता है। वह ऐसे सपने देखना चाहता है,जहां असंभव भी संभव हो। वह मन बहलाने के लिये पागलपन की हद तक गुजर जाना चाहता है। इसलिये ऐसे सपनों का ताना बाना सिनेमा ने बुना जो खूब चला। उन सपनों में रचने-बसने वाला दर्शक वहीं रहा। मजदूर वहीं रहा। सपना देखने वालों की जेबें खाली होतीं रहीं। सपना दिखाने वाले जेबें भरते रहे। आवाम के अंतिम आदमी तक पहुंचने के नाम पर सिनेमा मानसिकता की सबसे निचली सीढ़ी पर पहुंचा और बदले में अपने लिये धन की सबसे ऊपरी सीढ़ी निश्चित कर ली।
फुरसतिया: अच्छा कुछ बातें आपके फिल्म प्रेम के बारे में पूछ लेता हूं। इससे आपकी अभिरुचि पता चल जायेगी कि आप कितने पानी में हैं?
गुरु : हां पूछ लो।
फुरसतिया: सबसे पहले यह बतायें कि आपने सबसे पहले कौन सी फिल्म देखी तथा कैसे?
गुरु: हमें याद है हमारा एक दोस्त था। वह भी जीतेंदर टाइप था। खूब पिक्चर देखता था। एक दिन घर से पैसे चुरा के वह ब्लैक में ‘वक्त’ की टिकट लाया। जैसे ही वह जाने वाला था अंदर कि उसका ‘बउआ’ टाइप का एक दोस्त किसी सनसनीखेज
सिनेमा की दो टिकटें ले आया। वो मेरे दोस्त को ले गया। उसने मुझे अपना टिकट दे दिया मुफ्त में। सो पहली फिल्म हमने मुफ्त में देखी किसी को मजबूरी से उबारने के लिये। राजकुमार का डायलाग मुझे अभी तक याद है- जानी,जिनके घर कांच के बने होते हैं वे दूसरों के घर पत्थर नहीं फेंकते।
फुरसतिया: यह शुरुआत फिर आगे बढ़ी?
गुरु: न कहीं। हमारे हिस्से में सिनेमा हाल में देखी गई फिल्मों का औसत प्रति साल एक सिनेमा से भी कम आता है।पता नहीं कैसे हमें यह ज्ञान हुआ कि यह सब बकवास है। तब से हम वही पिक्चर देखते हैं जो जनता कहती है कि देखने लायक है। हम इस मामले में सबसे पहले होने के लालच में नहीं पड़ते। क्या फायदा कोलम्बस बनने से?
फिर तो बेकार है सर खपाने से आपके पास। चलता हूं भगवान आपका भला करे। हमें यह लेख आज पोस्ट करना है वैसे ही देर हो गई।यह कह कर फुरसतिया भाग लिये पता नहीं किस ओर!
Posted in अनुगूंज | 10 Responses
और अब ये भी खुलासा कर दिया जाय, उस दिन संगीत टाकीज मे “गरम जवानी” वाली पिक्चर के पोस्टर देखने गये थे, या फ़िल्म भी देखी थी।
जीतू