Tuesday, October 07, 2014

किस्सा पांव लचकने का


दशहरे के दिन छुट्टी थी। दुर्गा पूजा पंडाल में खिचड़ी भोग का न्योता भी था। दोपहर को चले पैदल। रास्ते में इधर-उधर निहारते। 

कमरे से निकले। रास्ते के हनुमान मंदिर को पार किया। सड़क किनारे एक महिला ईंधन के लिए लकड़ी इकट्ठा रही थी। आगे दूसरी महिला सर पर लकड़ियाँ  इकट्ठा करके ले जा रही थी। आधा दिन तो इनका ईंधन जुटाने में निकल जाता होगा यह सोचते हुए सड़क के मोड़ तक पहुंचे।

मोड़ पर पहुंचते ही एक संदेशा आया मोबाइल में।टन्न से आवाज हुई। हम जेब से मोबाईल निकालकर देखे। संदेश में दशहरे की शुभकामनाएं देते हुए एक मित्र ने बुराई पर अच्छाई की विजय की कामना की थी।
सड़क पर खड़े होकर हमने संदेशा बांचा।  बांचकर हमने मोबाईल जेब में धर लिया। उसके बाद चल दिए। सड़क और फुटपाथ के मिलन पर कुछ उंच नीच थी। वहीं पाँव पड़ा तो दायाँ पैर कुछ लचक गया। दर्द हुआ। हम वहीं पास खड़े एक फल वाले से बतियाते हुए दर्द को दबाने की कोशिश करता रहे।कुछ देर बाद खरामा-खरामा चलते हुए पूजा पंडाल पहुंचे। प्रसाद खाया। दर्द ज्यादा लगा तो गाडी मंगाकर वापस आये। लौटते समय अस्पताल होते हुए आये। ’क्रैप पट्टी’ बंधाकर और कुछ दवाई लेते हुए। एक्सरे अगले दिन होना तय हुआ।

कुछ देर के दर्द के बाद सूजन कम होती गयी। अगले दिन तक और कम हो गयी। लेकिन एक्सरे कराया तो पता चला कि बाल बराबर फ्रैक्चर है। डाक्टर ने सलाह दी की प्लास्टर करवा लिया जाए। करवा लिया। अब उसके बाद कमरे पर क्या करें यह समझ नहीं आया तो दफ्तर चले गए। इसके पहले बाजार से चप्पल खरीदी। एक पैर में चप्पल और दूसरे में प्लास्टर पहनकर पहली बार दफ्तर जाना हुआ।

दफ्तर में कमरे तक पहुंचने के रास्ते में कई लोगों ने पूछा। लोगों को पता चल गया तो पूछने लगे कैसे चोट लगी? हमने बताया- "अच्छाई की बुराई पर जीत हो गयी दशहरे में मौके पर।" :)

इसके बाद तो हम जिस किसी से कोई भी काम पूछें तो अगला पूछने लगे- "काम छोडिये पहले बताइये कि आपकी चोट कैसी है? कैसे लगी?"

हम यह सोचकर दफ्तर आ गये थे कि लोग समझेंगे कितना गम्भीर है अपने काम के प्रति। लेकिन जैसे बात कर रहे थे उससे लग रहा था कि वे कहना चाह रहे हों कि अजीब बेवकूफ है ये। चोट की भी इज्जत नहीं करता।
जिसको बताओ वही कहता इधर-उधर देख रहे होगे। मोबाइल में डूबे होगे। लापरवाही की तो यह तो होगा ही। श्रीमतीजी के अलावा सब दोस्तों ने मजे ही लिए। हमें लगा तुलसीदास जी सही ही कहें हैं:
"धीरज,धर्म,मित्र अरु नारी,
आपत काल परखिये चारी।"

कई मित्र सप्ली पाए हैं इस आपतकाल में।

फेसबुक पर बताये चोट के बारे में तो लोग ठेलुहई करने लगे। शुरुआत इसी बात से -" यह पैर आपका  है यह कैसे मान लें?" अरे भाई  फोटो में भी पाँव का डी एन ए होता  है क्या? अगले ने कहा- "पूरा फोटो लगाओ।" अरे अगर झूठ ही बोलना होगा तो फोटो शाप से नहीं लगा देंगे। 

कई मित्र बोले- "ये उमर फिसलने की नहीं।"लेकिन यह नहीं बताया किसी ने कि वे कब फिसले थे या किस उमर में प्लान है उनका फिसलने का।

हर काम फ़ैशनेबल अंदाज में करने वालों ने सवाल पूछा कि ये भारी वाला पलस्तर क्यों करवाया? स्लिम, ट्रिम, रंगबिरंगा क्यूटवाला ’प्लास्टर’ क्यों नहीं करवाया। फ़ेसबुक पर गांधी जी के अनुयायी बहुत कम हैं, कम से कम हमारे मित्रों में तो नहीं ही हैं वर्ना कोई कहता -"ये वाला प्लास्टर क्यों करवाया? बांस की खपच्ची बांधकर मिट्टी का लेप करके प्राकृतिक चिकित्सा करनी चाहिये थी।"

पैर भारी होने वाला सवाल चिरकुट सवाल  भी अपेक्षानुरूप लोगों ने पूछा ही।

पांव लचकने पर सवाल तो कई लोगों ने उठाया।उनके हिसाब से लचकने का सर्वाधिकार तो कमर के पास ही सुरक्षित है। पांव का लचकना कमर के इलाके में उसका अनधिकृत प्रवेश है। इसी की सजा मिली उसे।

हमारे सीनियर नीरज शर्माजी ने सही ही लिखा- "ऐसे दोस्तों के रहते दुश्मनों की क्या दरकार?" हमें वो शेर याद आया-
 "मेरे सहन में उस तरफ से पत्थर आये,
जिधर मेरे दोस्तों की महफिल थी।"

सबसे ज्यादा चिंता लोगों को पुलिया की रही। हाय पुलिया क्या होगा? उसके अपडेट कैसे मिलेंगे? कुछ ने यह भी कहा- "पुलिया की हाय लगी।" जितने मुंह उससे ज्यादा बातें।पुलिया के प्रति लोगों की जैसी सहानुभूति थी उससे आधी भी हमारे प्रति होती तो हमारी चोट सहानुभूति के दबाव में ठीक हो जाती।

बहरहाल अब जो चोट लगी सो लगी। चोट और फ्रैक्चर की इज्जत तो करनी ही है। तीन हफ्ते प्लास्टर चलेगा। इसके बाद मुक्ति।दफ्तर जाना जारी है। चोट लगने पर भी दफ़्तर जाने से साथ के लोगों पर काम के प्रति समर्पण का हवा पानी मारने का अच्छा मौका मिलता है। लेकिन कुछ लोग जिस तरह देखते हैं उससे लगता है उनकी निगाहें कह रहीं हों-"प्लास्टर चढ़ा है लेकिन चैन नहीं है। आ जाते हैं दफ्तर हलकान करने।"

वैसे चोट हमारे लिए सुकून दायक रही। वह ऐसे कि दशहरे में छुट्टी के बावजूद घर नहीं गये। इसी समय कानपुर में  हमारी घरैतिन की तबियत गड़बड़ा गयी।हम जा नहीं पाए। चोट लग गयी तो हम भी बिस्तर से आ लगे। इससे बीमारी में  हमारा अपराध बोध कम हो गया। भला हो इस चोट का जो सही समय पर लगी। न लगती तो कितना नजरे झुकाए-झुकाए जाते दीवाली में। अब जाएंगे तो सर उठाकर जायेंगे। कभी-कभी तकलीफें भी कितनी हसीन लगती हैं।

कई भले दोस्तों ने जिस आधिकारिक प्रेम के साथ ’फ़ौरन ठीक होने’ (गेट वेल सून) की आधिकारिक शुभकामनायें दी हैं उससे लगा कि अगर जरा भी देर की ठीक होने में तो फ़ौरन अपनापे की कार्यवाही शुरु हो जायेगी।

फिलहाल प्लास्टर और पैर का गठबंधन चकाचक चल रहा है। चलेगा कुछ दिन और। पैदल चलने की मनाही होने के चलते पुलिया के पास से गुजरना भर होता है। रुकना नहीं इसलिए पुलिया के नियमित अपडेट दीपावली के बाद ही मिलेंगे। तब तक ऐसे ही मजे करिए।

[यह पोस्ट सीधे स्मार्ट फोन से। पहली बार स्मार्ट फोन का उपयोग करके पोस्ट लिख रहे हैं। आगे और लिखी जायेंगी। तकनीक की बलिहारी है।]

8 comments:

  1. माफ़ करिएगा शु कूल जी ,ये अच्छाई की बुराई पर जीत नहीं है बल्कि आपके मोबाइल का गुस्सा है ....जो बिन फोटू खिचे जेब में धर देने से उसे आया था !!!!!

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  2. आप जल्द से जल्द ठीक हों हमारी यही कामना है सर!


    सादर

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  3. कल 12/अक्तूबर/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    धन्यवाद !

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  4. FB और Whats app पर तो ऐसा ही होता है... भला ये भी कोई बात ह जो शेयर की जाये.
    हो सकता है दोस्तों की आपको आपके दर्द के अहसास को कम करने की योजना हो.

    जल्द से जल्द स्वस्थ होने की कामना करता हूँ.

    आप मेरे ब्लॉग पर आमंत्रित  हैं. :)

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  5. सादर अभिवादन
    सच में पैर मेें ही लगी है न चोट...
    हाथ में गर लगी होती तो ये पोस्ट कैसे बना पाते
    क्षमस्व में श्री शुक्ल जी
    सादर

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  6. Aap jaldi theek ho jaayein ishwar se kaamna hai chitr ke anusaar hame lagta hai yah to bahut hi jyada peeda de rahi hogi.. Kintu koi na sab behtar hoga jald hi ....

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  7. Anonymous4:32 PM

    After several days I could get time to see your blog.The narration is very real. It is really difficult to know the real intention of friends and relatives who react on such (mis)happening.God willing you will be OK very soon.AKA

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  8. Anonymous4:33 PM

    After several days I could get time to see your blog.The narration is very real. It is really difficult to know the real intention of friends and relatives who react on such (mis)happening.God willing you will be OK very soon.AKA

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