Sunday, October 05, 2014

कौन कितना जानता है परसाई को





[परसाईजी मेरे पसंदीदा लेखक हैं। तबसे जब मैं जबलपुर आया नहीं था। यहां जबलपुर में रहते हुये कई लोगों से मिलना हुआ जिन्होंने परसाईजी के साथ बहुत समय गुजारा है। अपने प्रिय लेखक के बारे में और बहुत कुछ जाना है यहां रहने के दौरान। इसी क्रम में पिछले दिनों परसाईजी पर लिखा ज्ञानरंजन  जी का एक संस्मरणात्मक लेख उनके लेखों के संकलन ’कबाड़खाना’ में फ़िर से पढा। मन किया कि यह लेख अपने मित्रों को भी पढ़वाया जाये। सो इसे यहां पोस्ट कर रहा हूं।]



मृत्यु के बाद हमारे देश में कुछ धार्मिक कर्मकांड होते हैं और अगर मौत एक साहित्यकार की है तो कुछ साहित्यिक कर्मकांड भी होते हैं। इसके बाद सारे दायित्व पूरे हो जाते हैं। भारतीय समाज में एक खास प्रवृत्ति यह भी है कि जब तक देह सामने होती है तब तक वाचाल संस्कृति और उसके क्रियाकलाप बने रहते हैं पर जैसे ही आदमी ओझल हुआ उसके मूल्यांकन और उसके क्रियाकलाप बने रहते हैं पर जैसे ही आदमी ओझल हुआ उसके मूल्यांकन, उसके अधूरे काम के प्रति लोग विमुख हो जाते हैं। हालांकि परसाईजी ने अपनी तरफ़ से कुछ भी काम अधूरा नहीं छोड़ा पर आज तक उनका वास्तविक मूल्यांकन नहीं हुआ है। एक ही गम्भीर प्रयास विश्वनाथ त्रिपाठी ने किया है। पर अभी आलोचना कर्म की बहुत सारी जिम्मेदारियां बकाया है।

मौत के बाद एक दूसरी चीज द्रष्टव्य यह है कि मरने वाले व्यक्ति को कुछ ज्यादा ही जान लेने का दावा किया जाता है। एक तरह से लोग मृतात्मा पर लद जाते हैं। मैं परसाई की ही शैली के पालन का प्रयास कर रहा हूं। अपने जीवन के अन्तिम काल में परसाई की आवाज में कमजोरी ही नहीं थी, एक गहरी करुणा थी। इस संसार की अनेक विफ़लतायें और मनुष्य-जाति की  सांस्कृतिक पतनोन्मुखता और संसार के संवारने वालों के क्षीण संघर्ष की त्रासदी परसाई की वाणी में उतर आई थी। इस आवाज में एक तन्हाई थी। बलिष्ठ लोग परसाई के साथ केवल दिखावटी रूप में थे।बलिष्ठ संस्कृति परसाई को निगलना चाहती थी।


मैं आपको काफ़ी पुराने दिनों में ले चलना चाहता हूं। वह समय जब परिमल का उभार था और प्रयोगवाद, कलावादी घरानों का हिन्दी पर गहरा दबदबा था। यह सातवें दशक की शुरुआत थी। परिमल का एक विशाल साहित्यकारी समुदाय परसाई को नापसन्द करता था। प्रगतिशील लोग परसाई को सूंघ रहे थे और परसाई के लेखन में गहरी आस्था उनमें नहीं थी। बाद में परसाई उनको उपयोगी लेखक लगे। अनेक समाजवादी भी उनको पसन्द नहीं करते थे। मैं यह बताना चाहता हूं कि परसाई ने इस तरह कठिन परिस्थितियों में अपना लेखन प्रारम्भ किया। वे लगभग अकेले थे। अपने कुछ मित्रों के सिवाय। स्थानीय मित्रतायें उनके पास थीं। मुक्तिबोध जैसे लोग उनके साथ थे पर मुक्तिबोध स्वयं अकेले थे और एक अकेला आदमी दूसरे अकेले व्यक्ति को जितना दे सकता है इतना परसाई को मिला। मैं यह भी कहना चाहता हूं कि परसाई को मध्यप्रदेश ने अपना लेखक माना। प्रिय लेखक माना। यह गहरी लोकप्रियता और आवेग उनके साथ रहा। लोकप्रिय हो जाना बहुत खतरनाक है। ऐसे लोग प्राय: भीतर से अकेले होते हैं। बाहर जगमग संसार, एक समुद्र की तरह हहराती जनप्रियता और भीतर खुशी और उदासी की दुनिया। परसाई का उद्देश्य व्यंग्य लिखना और यशकामना नहीं था। वे एक स्वप्न संसार की पूर्ति के लिये कंटीले मार्ग पर चल निकले थे।

लोकप्रिय व्यक्तियों को बाहर ही बाहर जान लिया जाता है। उनसे बहुसंख्यक समाज का और प्रशंसकों का संवाद-रिश्ता बन्द हो जाता है। लोकप्रिय व्यक्ति भीतर से अकेले होते हैं। अगर परसाई के पास एक अचूक दृष्टि न होती, अगर वे एक गोताखोर जैसे न होते, अगर वे बालमुकुन्द गुप्त से चली आई हिन्दी की विरल निबन्ध परम्परा की अग्रगामी कड़ी न बन जाते, अगर उन्होंने अपनी एक अद्वितीय शैली की रचना न कर ली होती और अगर उनके पास सदैव कुलबुलाता एक विचार न होता, अगर उनके पास गहरी मार्मिकता और बेचैनी के साथ एक सुन्दर मनुष्य और संसार का स्वप्न न होता तो आप मेरी बात पर गौर करिये कि शास्त्रीय संसार में परसाई पर हमला बोल दिया जाता और परसाई के बारे में एक क्रूर हिंसक प्रतिक्रिया का बोलबाला होता। पर एक अद्भुत बेमिसाल लोकप्रियता ने उन्हें बचा लिया। अब परसाई नहीं हैं तो उनको बचाने वाले जिन मर्मज्ञों की जरूरत साहित्य संसार में है उसकी प्रतीक्षा हमें करनी है।

परसाई जैसे लेखक पर कभी भी हमला हो सकता है। उपेक्षा जो मन्द है, उभर सकती है। क्योंकि ताउम्र अनेक लोग बैठे रहे हैं अवसरों की तलाश में। परसाई के भक्त उनकी रक्षा नहीं कर सकते। रक्षा-कवच साहित्य और कला और समाज के मार्ग से ही निर्मित होता है। परसाई और उनके विचार को पसन्द करने वाले पाठक हैं। परसाई को नापसन्द करने वाले लेकिन इसको छिपाकर रखने वाले और ऊपरी तारीफ़ करने वाले पाठक हैं और परसाई को एक तात्कालिक आस्वाद के धरातल पर पसन्द करने वाले लोग हैं। इस सबके साथ उनका पाठक संसार बनता है जो शायद प्रेमचन्द के बाद हिन्दी में सबसे बड़ा संसार है।

बस आलोचक इससे जबर्दस्त हाल से विचलित हैं। वे इसी कारण परसाई के पास आये हैं। वे परसाई की उपेक्षा का, आत्मघात करने का जोखिम नहीं उठा सकते। वे बहादुर लोग नहीं हैं। से साफ़ परसाई को इनकार भी नहीं कर सकते। इसलिये जब परसाई का प्रारम्भ काल था, जब वे  सृजनात्मक और राजनीतिक दंगल में कूद रहे थे, जब जल-प्लावन में से एक अंकुर या पत्ता निकल रहा था तब परसाई के पास एक अच्छा मित्र-समाज था। प्यारे लोग थे जो अब भी उनके  साथ हैं। उनमें से कुछ दिवंगत भी हो गये जैसे मुक्तिबोध जैसे मायाराम सुरजन, पर साहित्य संसार में दिग्गजों ने चुप्पी मार ली थी। इस बात की पड़ताल की जानी और किस्से को साफ़ कर देना चाहिये। जैसे यह पता लगाया जाये कि आलोचना में परसाईजी के ऊपर नामवर सिंह ने क्या कभी कोई परसाई की महत्ता को रेखांकित करने वाली बहस चलाई? प्रगतिशील लेखक संघ की मध्यप्रदेशीय दावतों में आने के बाद नामवर जी ने होशियारी दिखाई कि परसाई का नाम लेने लगे। विदित हो कि मिथिलेश्वर जैसे लेखक को सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड दिया गया परसाई को नहीं जबकि यह नामवर सिंह के हाथ में था।

परसाई जब ख्याति की चोटी पर थे, परसाई जब एक बहुत कपटपूर्ण संघर्ष से बाहर निकल आये तब शाबासी  देने वाले सामने आते हैं। दूसरी तरफ़ अशोक वाजपेयी परसाई के भक्त, प्रशंसक और मददगार थे। इसमें कोई भी भ्रम नहीं कि परसाई के जीवन-सम्बन्धी संकटों में वे सदा काम आये। उन्होंने प्रचार-प्रसार के साथ मदद करने में उत्साह दिखाया। लेकिन परसाई के विचारों का कांटा ऐसा था कि अशोक वाजपेयी परसाई पर ’पूर्वग्रह’ का अंक कभी नहीं निकाल पाये।श्रीकांत वर्मा पर तो उन्होंने निकाला जबकि उनको प्राथमिक तौर पर परसाई ने ही वसुधा में छापा था लेकिन श्रीकान्त वर्मा अशोक वाजपेयी को  इसलिये प्रिय थे क्योंकि वे कम्युनिस्ट विरोधी थे। अशोक वाजपेयी अंतत: कम्युनिस्ट विरोधी विचारधारा की उपज हैं। अशोक वाजपेयी के एक ताजा साक्षात्कार की इस पंक्ति पर लोग गौर करें, " जिनकी मार्क्सवाद में अगाध आस्था है उनके साहित्यिक अवदान से मैंने कभी इस कारण कभी संकोच नहीं किया। जिनमें मुक्तिबोध, त्रिलोचन से लेकर धूमिल, विनोदकुमार शुक्ल, केदारनाथ सिंह, नामवर सिंह आदि शामिल हैं।" इनमें हरिशंकर परसाई नहीं हैं या फ़िर आदि-आदि में होंगे। हरिशंकर परसाई को मुकम्मल जानना आसान नहीं है। इसका दावा करना भी असम्भव है। इसमें समाजशास्त्र , सौंदर्यशास्त्र और आलोचना-कर्म की बहुतेरी जटिलतायें हैं। कबीर ने कहा था कि जो घर फ़ूंकै आपना सो चले हमारे साथ। शायरी में भी कहा गया है यह इश्क नहीं आसां इतना ही समझ लीजै, इक आग का दरिया है और डूब के जाना है। तालस्ताय जैसे महान साहित्यकार और मनुष्य की भीतरी तहों तक प्रवेश कर जाने वाले साहित्यकार तक ने दोस्तोएवस्की की मौत पर लिखा था कि ’वे मुझे बहुत प्रिय थे, मैं उनसे कभी नहीं मिला,  मैं उनको बहुत नहीं समझ सका लेकिन उनकी मृत्यु पर ऐसा लगा कि  मेरे भीतर का कोई आधार जैसे टूट गया।" इस दौर में तो लेखक सबसे बदनसीब व्यक्ति है। साहित्य के बाहरी संसार में तो एक लपलपाता हिंसात्मक लावा उबल रहा है। और लोग उसमें लोगों को फ़ेंकने के लिये इंतजार कर रहे हैं। परसाई को वे लोग सबसे कम जानते हैं जो धड़ाधड़ व्यंग्य लिख रहे हैं और विक्रय संसार के जरूरी अंग बन गये हैं। विडम्बना यह है कि कहते हैं कि उनकी प्रेरणा परसाईजी हैं। कल्पना की जा सकती है कि परसाई इससे कितने मर्माहत होते रहे होंगे। परसाई को गालिब, मीर, तुलसी, फ़ैज और फ़िराक बहुत पसन्द थे। इससे परसाई के भीतरी मिजाज का अन्दाज लगाया जा सकता है। परसाईजी के व्यक्तित्व की  विवेचनात्मक खोज और उनके विपुल साहित्य की उपयुक्त आलोचना अभी शेष है।

परसाई ने एक खतरनाक मार्ग का चुनाव किया था इसलिये उन्हें प्रशस्ति तो बाद में कलावादी और सत्तावादी सरकारी लोग देते रहे पर उनकी समीक्षा और पड़ताल का सच्चा प्रयास नहीं किया गया। इसके पीछे एक धोखाधड़ी है।विश्वनाथ त्रिपाठी ने लिखा है और बार-बार जोर देकर लिखा है कि परसाईजी वर्तमानता के साहित्यकार हैं। उन्होंने इसको प्रमाणित करने के लिये अनेक उदाहरण भी दिये हैं। पर उदाहरण सरल मार्ग तक लाकर छोड़ देते हैं। आप अगर लेखक के तलघर में प्रवेश नहीं करते तो तो उदाहरण का अनर्थ कर सकते हैं। लेखक का तलघर सबसे रहस्यपूर्ण कबाड़ से भरी जगह होती है। यह जितनी भी ऊबड़-खाबड़ हो लेकिन यही वह जगह है जहां से लेखक की अंतरात्मा तक आप जा सकते हैं, बशर्ते कि आप जाना चाहें और यह कि आपकी गहरी मंशा हो, कूबत हो। व्यंग्य परसाईजी का शस्त्र था और निबन्ध उसकी विधा। कभी-कभी वे कहानी के इर्द-गिर्द भी घूमते हैं। उन्हें बार-बार कोरा व्यंग्यकार न कहा जाए। वे कोरे व्यंग्यकार नहीं थे। दूसरे, परसाई समय का अतिक्रमण करते हैं। बल्कि उनकी रचना यह बताती है कि समय जो आने वाला है वह कितना भयानक हो सकता है।

और यह सब उन्होंने एक छोटे शहर में रहते हुये किया जहां बुन्देली ऐंठ जबर्दस्त है। यही बात मैंने शाहजहांपुर में हृदयेश के लिये कही थी। इससे श्रीलाल शुक्ल को सख्त एतराज था। पर मैं अपनी बात से डिगा नहीं हूं। परसाई ने अवसरों को ठुकराया और एक छोटे शहर में रहने का चुनाव किया। इस छोटे शहर जबलपुर से ही उन्होंने भूमंडल का स्पर्श किया। इससे ही उनकी ताकत का, कल्पना का, दृष्टि का और चुनाव का पता चलता है। इस देश के महानगरों में एक जंजाल और गुटबंद है। अब सारी आलोचना और प्रशंसा इन महानगरों में पकड़कर कैद कर ली गयी है। अब वैसी ही संस्कृति पनप गई है वैसे ही जन्म हो रहे हैं वैसे ही मरण। आलोचना की नापतौल , आलोचना की घ्राण शक्ति, आलोचना का अवसरवाद अब इन महानगरों में अपनी दुनिया खड़ी कर रहा है। वहां बहुत सारे आकर्षण हैं। वहां बुद्धिजीवियों और अनोखे बुद्धिकर्म करने वालों की कमी नहीं है। लेकिन हिन्दी का विपुल और सर्वेश्रेष्ठ लेखन इन महानगरों से गायब है। बिल्कुल गायब यह है यह नहीं कहूंगा। पर जब लेखक बाजार से बहुत दूर रहता है और जब वह एक अत्यन्त शान्त समय का चुनाव करता है, जब वह सन्तोषी होता है तब भी उसको गर्वोन्नत भविष्य मिल सकता है यह परसाई ने सिद्ध कर दिया। संसार के अनेक महान लेखकों ने अपने एकान्त को पसन्द किया है और परसाई को जबलपुर प्यारा भी था। स्वार्थी आत्मायें अपनी लौकिक सफ़लताओं के लिये शहर-दर-शहर भटक रही हैं। उनके आगे नौकरी का सवाल नहीं है। उनको चमकीला सम्पत्ति- संसार चाहिये और चाहिये सत्ता का हक।

परसाई इस समय में, इस सबसे विरत एक अनोखे जागरण की जरूरत में लगे रहे।

-ज्ञानरंजन जी  की  पुस्तक कबाड़खाना से


ज्ञानरंजनजी की किताब कबाड़खाना का विवरण निम्न है-

किताब का नाम – कबाड़खाना, लेखक -ज्ञानरंजन

प्रकाशक-राजकमल प्रकाशन , नई दिल्ली

पृष्ठ-191,  मूल्य- 225



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