सैनफ्रांसिसको हवाई अड्डे पर पूछते-पूछते हम अराइवल पर पहुँचे। उड़ान आने की सूचना बोर्ड पर चमक रही थी। जहाज़ समय से लैंड कर गया। अब हम बैगेज प्वाइंट पर पहुँचकर दीदी का इंतज़ार करने लगे। उनके आने पर हम बाहर के लिए निकले। गेट नंबर 2-3 के सामने ही टैक्सी प्वाइंट था। टैक्सी प्वाइंट पर पहुँचकर टैक्सी बुक करने के लिए हमने एप खोला। टैक्सी के लिए बुकिंग करते समय पूछा गया -‘किस प्वाइंट पर टैक्सी चाहिए A, B, C या D पर?’ हमने आसपास देखा तो कहीं पर A,B,C या D नज़र नहीं आया। हम समझ गए कि हम ग़लत जगह पर खड़े हैं।
हम फिर अंदर गए। यहाँ के हवाई अड्डे की ख़ास बात है कि इनमें चेक इन प्वाइंट या फिर बैगेज कलेक्शन तक बिना किसी टिकट के जाने की अनुमति होती है। किसी बस स्टैंड की तरह। अपने यहाँ हवाई अड्डे पर बिना टिकट घुसने को नहीं मिलता। वही जा सकता है जिसको हवाई यात्रा करनी हो।
अंदर जाकर पूछा तो बता चला कि एप आधारित टैक्सी प्वाइंट जहां हम खोज रहे थे वहाँ से काफ़ी दूर, क़रीब आधा किलोमीटर की दूरी पर है। मंज़िल भी अलग। एस्केलेटर से पहले नीचे गए फिर लिफ़्ट से ऊपर। बहुत बड़ा है सैनफ्रांसिसको हवाई अड्डा। एकदम भूलभुलैया सरीखा। अंग्रेज़ी न आती हो तो भटकते रहो या फिर इशारे से बात करो।
इसके बाद टैक्सी बुक की। प्वाइंट B पर खड़े हो गए। शेड बना था। बारिश हो रही थी हल्की। स्टील के मोटे पाइप पर रैक्सीन का कवर टिका हुआ था। हवा तेज चल रही थी। आसमान में बादल छाए थे। भीड़ बिलकुल नहीं थी। टैक्सी आने तक हमने आसपास का सारा नजारा देखा। नीचे गाड़ियाँ तरतीब से खड़ी थीं। उसके भी नीचे गाड़ियाँ एक सुरंग जैसी ओपनिंग से निकलकर सड़क पर भागती दिख रहीं थीं। सुरंग से निकलकर सड़क पर भागती गाड़ियों को देखकर लग रहा था मानो किसी कांजी हाउस से जानवर निकलकर भाग रहे हों।
कुछ ही देर में हमारी गाड़ी आ गयी। ड्राइवर का नाम था डेविस। गाड़ी -होंडा एकार्ड हाईब्रिड। गाड़ी रुकते ही ड्राइवर साहब ने अपनी सीट से उतरकर डिक्की खोली। हमारा सामान रखा और गाड़ी स्टार्ट करके चल दिए।
गाड़ी स्टार्ट होते ही हमारी बातें भी स्टार्ट हो गईं। ड्राइवर साहब भी हमारी तरह बतरसिया हैं । बतियाते रहे। बताया कि गाड़ी वो शौक़िया चलाते हैं। शौक़िया मतलब मन किया तो चला लिया। उमर 60 साल है। 57 साल के थे तब तक खूब काम किया। कम्प्यूटर से सम्बंधित कंपनियों में काम किया। एप्पल, गूगल आदि में। 57 साल बाद काम छोड़ दिया। रिटायरमेंट ले लिया। अब शौक़िया काम करते हैं।
परिवार के बारे में बताते हुए डेविस जी ने बताया -‘पत्नी रहीं नहीं। जब डेविस 55 के थे तब पत्नी का निधन पैंक्रियास कैंसर से हो गया। कोई संतान है नहीं। अकेले रहते हैं। खाना बाहर ही खाते हैं। तीनों टाईम। खाना बनाने में मज़ा नहीं आता डेविस को ।’
‘दुबारा कोई और जीवन साथी खोजने के बारे में नहीं सोचा?’ पूछने पर बोले -‘अभी तक तो नहीं सोचा। ऐसा कुछ ज़रूरत लगती नहीं मुझे।’
डेविस के साथ उनका कुत्ता भी रहता है। उसे बहुत पसंद करते हैं। खुश हैं उसके साथ। समय मज़े से कट जाता है।
भारत के बारे में डेविस की बड़ी अच्छी यादें हैं। बताया कि काम के दिनों में अक्सर भारत ज़ाया करते थे। बंगलोर, मुंबई, दिल्ली। दो-दो हफ़्ते के लिए जाते थे। भारत के लोगों की गर्मजोशी, हल्ला-गुल्ला और लोगों का आपस में हंसी-मज़ाक़ करना डेविस को बहुत अच्छा लगता था। ख़ूबसूरत यादें हैं भारत की डेविस के ज़ेहन में।
डेविस से बात करते हुए मुझे लगा कि कम्प्यूटर फ़ील्ड का एक्सपर्ट अपने मन से नौकरी छोड़कर गाड़ी चला रहा है। ख़ुशी-ख़ुशी अपनी सवारी के लिए गाड़ी की डिक्की खोल रहा है और बिना किसी अकड़ के मज़े के लिए काम करते हुए गाड़ी चला रहा है। अपने यहाँ कोई इतने सफल कैरियर वाला इंसान ऐसे सहज रूप में इस तरह काम करना शायद ही पसंद करे। करे भी तो दूसरे लोग उसको टोंक-टोंक कर हलकान कर दे। यह यहाँ इसलिए सम्भव है कि यहाँ काम का महत्व है, कोई काम छोटा नहीं माना जाता।
अपने यहाँ काम के सिलसिले में सामंतशाही का असर बाक़ी है।किसी अच्छी मानी जाने वाली पोस्ट से रिटायर हुआ आदमी कोई मेहनत का काम करने की सोच नहीं पाता। करना तो दूर की बात। इसीलिए रिटायर होने के बाद लोग बोर होकर अकबर इलाहाबादी का शेर सही साबित करने में पूरी ताक़त लगा देते है :
हम क्या कहें अहबाब (दोस्त) क्या कार-ए-नुमायाँ (उल्लेखनीय काम) कर गए,
बीए हुए नौकर हुए पेंशन मिली फिर मर गए।
जाते समय जिस यात्रा में 13 मिनट लगे थे और किराया लगा था 16.83 डालर उसी दूरी लौटते समय तय करने में 20 मिनट लगे और किराया लगा -30.99 डालर। जितना समय ज़्यादा लगा उसी हिसाब से पैसे लगे। लौटते समय दफ़्तर का था। उस समय सड़क पर ट्रैफ़िक भी बढ़ गया था।
अपने टीहे पर पहुँचकर विदा होने से पहले डेविस के साथ फ़ोटो ली। ख़ुशी -ख़ुशी फ़ोटो खिंचाकर गाड़ी स्टार्ट करके चले गए डेविस।
शाम घूमने निकले तो सूरज भाई विदा होने के मूड में थे। विदा होते समय सूरज भाई को काले बादलों ने घेर रखा था। सूरज भाई के आसपास के आसमान को छोड़कर अधिकतर आसमान काला-भूरा था। जिन बादलों की सुबह सूरज भाई के पास तक खड़े होने की हिम्मत नहीं हो रही थी उन्हीं के खान-दान के बादल सूरज भाई से एकदम सटे हुए इंतज़ार कर रहे थे कि सूरज भाई के विदा होते ही उनकी जगह पर वे क़ब्ज़ा कर लें।
सड़क पर गाड़ियों की आवाजाही लगी थी। गाड़ियाँ तेज़ी से भाग रहीं थी। लोग घर वापस लौट रहे थे।
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