कल धूप निकली थी। तय हुआ कि जापानी गार्डन देखने जाएंगे। 4.9 मील दूर था घर से। 4.9 मील मतलब लगभग 7.89 किमी।
हमको समझ नहीं आया कि जब दुनिया MKS सिस्टम पर आ गयी है तब अमेरिका किलोमीटर की जगह मील पर क्यों अटका हुआ। हमको हर बार दूरी के अंदाज के लिए 1.6 से गुण करना पड़ता है।
टैक्सी का खर्च ,आने जाने के करीब 30 डालर मतलब करीब 2500 , बचाने की सोच भी कम बड़ा कारण नहीं था पैदल जाने का।
घर से निकलते ही लैगून के ऊपर का पुल पड़ता है। उसके बगल में कुत्ता पार्क और वोट पार्क। कुत्ता पार्क में कुत्तों की चहल-पहल थी। कुत्तों के मालिक अपने कुत्तों को अलग-अलग तरह के हुनर सिखा रहे थे। एक कुत्ता अपने गेंद को अपने पैरों से जिस तरह ड्रिबल कर रहा था उसको देखकर लगा कि विश्व कप फुटबाल के सारे मैच मन लगाकर देखा है और फुटबाल खिलाड़ी बनने का मन बना लिया है। क्या पता कल को कुत्तों के भी फुटबाल टाइप कोई मैच होने लगें और तब वह कुत्ता नामी फुटबाल खिलाड़ी बने।
एक कुत्ते को उसकी मालकिन झुककर जितने प्यार से चूम रही थी उसे अगर कोई मंचीय हास्य कवि या स्टेज परफॉर्मर देख लेता तो पक्का कोई 'काश मैं कुत्ता होता' या ' मैं कहीं कुत्ता न बन जाऊं' टाइप की कविताएं सुनाते हुए 'अगली पंक्तियों पर आपका आशीर्वाद चाहिए' टाइप बातें कहते हुए पाया जाता।
आगे सड़क पर आए तो एक जगह कपड़ों और जूते का दान केंद्र दिखा। शायद वहां लोग कपड़े और जूते रख जाते होंगे और उनको लोग जरूरतमंद लोगों को देते होंगे।
जापानी पार्क का रास्ता गूगलमैप पर देख लिया था। यहाँ रास्ते के लिए इसी का भरोसा है। अब यह कोई कानपुर नहीं जहां बिना पूछे चार लोग एक जगह जाने के लिए चार अलग-अलग रास्ते बताने वाले मिलें।
कुछ देर तक सीधे चलने के बाद रास्ता मुड़ गया। हम भी मुड़ गए। एक बार मुड़ना शुरू हुए तो फिर कई मोड़ मिले। मुक्तिबोध की कविता का अंश याद आ गया:
भागता मैं दम छोड़
घूम गया कई मोड़।
लंबे रास्ते में सड़क मिली, फुटपाथ मिले, घर मिले लेकिन नहीं मिले तो लोग। कानपुर होता तो इतनी दूर में अनगिनत लोग मिले होते। न जाने कितने लोगों से बतिया लिए होते। लेकिन कानपुर और फॉस्टर सिटी में यही अंतर है।
करीब आधे रास्ते के बाद लगा कि कोई रेस्टरूम मिले तो हल्के हों। लेकिन नहीं मिला। हर घर के बाहर नोटिस लगा दिखा -'अनाधिकृत लोगों का प्रवेश वर्जित है।'
एक जगह कुछ लोग काम करते दिखे। मजदूर टाइप। शायद उनका लंच चल रहा था। एक भाईसाहब बीड़ी पीने वाले अंदाज में बैठा सिगरेट फूंक रहे थे। हमने उनसे पूछा -'इधर कोई रेस्टरूम है क्या?' उन्होंने उचककर देखा और बताया -'है तो लेकिन बन्द है।'
हम आगे बढ़ लिये। रास्ते में कुछ पार्क मिले। राइड पार्क और कोई एक और। लेकिन वो सड़क के दूसरी तरफ थे। हमको लगा कि देर करेंगे तो जापानी पार्क बन्द हो जाएगा। सोचा अब वहीं खोजेंगे। वहां तो पक्का होगा।
एक स्कूल भी मिला रास्ते में। अंदर बच्चे खेल रहे थे। बड़ा सा गेट। खूब सारी जगह। स्कूल के पास से गुजरते तमाम स्कूलों में हुई तमाम गोलीबारी की घटनाएं याद आईं जिनमें सिरफिरे लोग गोलीबारी करते हुए कई बच्चों को मार देते हैं।
इस बीच हम मटियो शहर में दाखिल हो चुके थे। जापानी पार्क पास आ गया था। एक नन्हा सा पिल्ला टाइप कुत्ता टहलाते आदमी से पूछा तो उसने बताया -'आगे ही है। सीधे, बाएं, दाएं और वहीं।' चलते हुए पिल्ले की उम्र पूछी। उसने बताई -'नाइन।' हमको लगा नौ महीना। लेकिन उसने बताया नौ साल। कहते हुए वह आगे चल दिया।
जापानी पार्क पहुंचकर हमने सबसे पहले वहां की रेस्टरूम सुविधा का उपयोग किया। हल्के होकर फिर पार्क के अंदर गए। हमें लगा था कि पार्क खूब बड़ा होगा। तमाम फूल-पौधे होंगे। लेकिन पार्क तो मुन्ना भाई एमबीबीएस के कमरे की तरह शुरू होते ही खत्म हो गया। स्थानीय लोगों और जापानी के सहयोग से बने पार्क में पैगोडा, बुद्ध की मूर्ति और कुछ फव्वारे दिखे। कुछ देर रहकर बाहर आ गए।
बाहर आकर आसपास पार्क देखा। लोग अपने बच्चों के साथ घूम रहे थे। कुछ अकेले भी। बेंच पर बैठी एक महिला से मैंने पार्क के बारे में कुछ पूछा तो उन्होंने अंग्रेज़ी में कहा -'आई डोंट स्पीक इंग्लिश।' हम अंग्रेजी नहीं बोलते। मन किया पूंछे -'भोजपुरी बोलती है?' लेकिन नहीं पूछे। क्या पता बुरा मान जाए मजाक का।
कुछ देर बाद वापस लौट लिए। भूख लगी थी। सोचा कहीं कुछ खाया पिया जाए। नेट पर खोजा स्टारबक्स की दुकान दस मिनट की दूरी पर थी। हम बढ़ते गए , दूरी बढ़ती गयी। फिर समझ में आया कि दुकान पीछे छूट गईं। पीछे जाकर दुकान में चाय और सैंडविच आर्डर की। काउंटर कन्या ने बिल के लिए नाम पूछा। हमने बताया -अनूप। उसने बिल बनाया उसमें नाम लिखा था - Anor. हमको एक बिल में ही सही नया नाम मिल गया।
उच्चारण की समझ के कारण नाम के लफड़े बहुत होते हैं। कानपुर के ही दस स्पेलिंग बना डाली अंग्रेजों ने अब तक।
काफी और सैंडविच के कुल सवा आठ डालर करीब हुए। हमने 20 डालर का नोट दिया तो काउंटर कन्या ने मुझे 11 डालर और बाकी रेजगारी वापस की। यह देखकर अच्छा लगा कि यहां अभी भी रेजगारी चलन से बाहर नहीं हुई है। अपने यहां एक रुपये से कम का सिक्का अब बिरला ही दिखता है।
चाय पीने के बाद वापस लौटे। रास्ते में राइड पार्क मिला। कुछ देर वहां भी बैठे। पानी की कमी के कारण पानी के खेल रद्द होने की सूचना थी। रेस्टरूम के हाल यहां वैसे ही थे जैसे सार्वजनिक स्थलों पर हो सकते हैं। लोगों ने पाट में कागज ठेल रखे थे। इस मामले में हर जगह इंसान एक जैसा ही व्यवहार करता है।
आगे जहां पहले मज़दूर टाइप का आदमी मिला था उस जगह से गुजरे तो देखा वे लोग छुट्टी होने के बाद घर वापस जा रहे थे। अपनी ड्रेस को कार में डालकर। एक मजदूर से बात की तो उसने बताया कि वह कंक्रीट डालने का काम करता है। 45 डालर प्रति घण्टे के हिसाब से मजदूरी मिलती है। 21 डालर प्रति महीना वो यूनियन को देते हैं। इसके बदले यूनियन वाले उनके लिए काम खोजते हैं। काम खोजने की चिंता नहीं करनी पड़ती उनको।
अपना नाम विलियम बताया उसने। मेरा पूछा। मैंने भी बताया। कार में बैठने से पहले उसका फ़ोटो खींचा। देखकर उसने मुट्ठी मिलाई और मुस्कराते हुए चला गया।
जाने से पहले उसने यह भी बताया कि उसके सैन होजे और सनी वेल दोनों जगह घर हैं। हमारा कहने का मन हुआ -'जलवे हैं तुम्हारे तो।' लेकिन कहा नहीं। कहते तो बोलता -'हमको हिंदी नहीं आती।' हम उसको जलवे की अंग्रेजी क्या बताते।
अब शाम होने वाली थी। लौटने की जल्दी थी। मोबाइल की बैटरी भी खत्म होने वाली थी। पहले तो यह डर लगा कि कहीं ऐसा न हो कि बैटरी खत्म हो जाए और हम रास्ता न खोज पाएं। भटक जाएं। लेकिन कुछ देर में ऐसी जगह पहुंच गए जहां से आगे का रास्ता हमको पता था। हम तसल्ली से चलते हुए आगे बढ़े।
रास्ते में एक बस भी दिखी। बुजुर्गों के लिए बस। उठो और चल दो। बस खड़ी थी। बुजुर्ग लोग शायद घूमकर वापस आ गए होंगे।
घर के पास पहुंचते हुए थकान हो गयी थी। ग्यारह बजे के निकले चलते-बैठते-चलते साढ़े चार बज गए थे। इस बीच करीब तीस हजार कदम और बीस किलोमीटर की दूरी नाप चुके थे। यह अभी तक की एक दिन में स्मार्ट वाच से नाप के तय की हुई अभी तक की सबसे अधिक दूरी थी।
घर वापस आकर। सोफे सामान की तरह गिर गए और चाय का इंतजार करने लगे।
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