Thursday, September 12, 2024

गुप्तकाल का ईंटों का मंदिर

 



दो दिन पहले भीतरगाँव जाना हुआ। भीतरगाँव में गुप्तकाल का ईंटों का बना मंदिर है। गुप्तकाल मतलब क़रीब 240/275–550 इस्वी का काल। मतलब आज से लगभग 1500 से 1700 साल पहले का काल। मंदिर जाना बहुत दिन से उधार था। टलता रहा। तमाम दूसरी इच्छाओं की तरह। इस बार भी जाने के पहले कई दिन टला मामला। लेकिन फिर निकल ही लिए।
अकेले ही निकले। कोई साथ जाने वाला मिला नहीं। न ही पूछा हमने। पूछते तो कोई न कोई मिल ही जाता।
गाड़ी में बैठे। लोकेशन के हिसाब से 42 किलोमीटर दूर था भीतरगाँव। रास्ता नौबस्ता होकर था वाया विजयनगर, गोविन्दपुर। गोविन्दपुर पुल के पहले काफ़ी भीड़ थी। चौराहे पर महिला होमगार्ड ट्राफ़िक कंट्रोल कर रही थी। मुँह में रूमाल बांधे। गर्मी से बचाव के लिए।
चौराहे के पहले गूगल मैप के भरोसे थोड़ा ग़लत बढ़ गए। आगे बढ़ते ही अन्दाज़ हो गया कि ग़लत बढ़े हैं। फ़ौरन रुककर एक ट्रक वाले से रास्ता पूछा। वह ट्रक पर सामान लदवा रहा था। रास्ता पूछने पर सामान लदवाना स्थगित करके रास्ता बताया गया। इसीबीच वहीं ट्रक पर खड़े एक बुजुर्ग को कुछ लोगों ने ज़ोर से बोला –‘असल्लाम वालेकम चचाजान।‘ चचाजान ने भी सामान लादते हुए उनको ‘पलट सलाम’ किया। हम भी पलट लिए।
गाड़ी पीछे करते हुए किसी ने हमारी गाड़ी को ठोंका। घूमकर देखा तो एक आटोवाला पीछे से जो बता रहा था उसका मतलब था -‘देखकर चलाओ गाड़ी। भिड़ा ही दोगे क्या पीछे की गाड़ी से।’ बड़ी गाड़ी का लिहाज़ में ही शायद उसने ‘अंधा है क्या बे’ नहीं बोला। बोला भले न हो उसने लेकिन हमको सुनाई पड़ गया।
हम तुरंत सहम गए। फ़ौरन ब्रेक मारा। कुछ देरतक खड़े रहे। आटोवाला तो फ़ौरन चला गया। अपन आहिस्ते-आहिस्ते पलटकर सही रास्ते मुड़कर चल दिए।
हम चल तो दिए आगे लेकिन बहुत दूरतक याद करते रहे कि आटो वाले ने पीछे से जो ठोंका था वह उसका हाथ था या उसका आटो। ठोकर आटो की रही होगी तो आटो-कार मिलन के निशान भी कार में पड़े होंगे। कुछ देर तक सहमते हुए उसकी आवाज़ का मतलब निकालते रहे। कुछ दूर आगे चलकर हिम्मत करके उतरकर देखा तो कार बेखरोंच थी। हमने खड़े-खड़े कई चैन की साँसे ले डाली।
फिर चले आगे तो गोविंदनगर पुल पर एक छुटका खुला टेम्पोवाला पानी के कंटेनर लादे लिए चला जा रहा था। बीस-बीस लीटर वाले। कुछ कैंटर ख़ाली थे। भरे कंटेनर तो चुपचाप खड़े थे लेकिन ख़ाली कंटेनर आटो के चलने पर हवा में किसी गर्म कड़ाही में पापकार्न की तरह उछल रहे थे।
ख़ाली कंटेनरों को उछलता देखकर हमको ऐसे लगा कि पानी के कंटेनर चुनाव के समय चिरकुट नेताओ की तरह उछल-कूद कर रहे हैं। बाद में हमने नेताओं वाली बात को दिमाग़ की कार्यवाही से निकाल दिया जैसे लोकसभा में तमाम सरकार विरोधी बातें कार्यवाही से निकाल दी जाती हैं।
नौबस्ता से आगे बढ़ते हुए ऐसा लगा जैसा पूरा शहर ही बाहर भागा जा रहा है। शहर से लगाव के चलते गाड़ियों बेमन से और थकी हुई सी जाती दिखीं।
आगे तमाम ऐसे इलाक़े मिले जिनके नाम सुनते आए थे लेकिन कभी वहाँ जाना नहीं हुआ था। सांड, मझावन, रमईपुर, पतारा। मझावन से याद आया बचपन में बग़ल में रहने वाले किरायेदार याद आए। उनको हम मुंशी के नाम जानते थे। अकेले रहते थे। परिवार मझावन में ही। उनकी याद करने पर उनका बनियाईन पहने , तौलिया लपेटे , गोल चेहरा याद आया। बस्स। इसके अलावा सब गोल। पचास साल पहले की बात।
मझावन के आगे बढ़ने पर एक पुलिया टूटी हुई थी। वहाँ मौजूद आदमी ने साइन लैंगुएज में बताया घूमकर जाओ। घूमकर जाने में कई बार रास्ता भटके। हर बार भटककर, पूछकर लौटे।
एक बार पतली गली में फँसकर लौटना हुआ। गाड़ी मुड़ने में नानी तो नहीं याद आयी। अलबत्ता पत्नी और बच्चा बार-बार याद आए। हर मुड़ने की कोशिश में यह लगता कि गाड़ी अब भिड़ी, तब ठुकी। हमारी हर मुड़ने की वहाँ खूँटों में बांधे गाय-भैंसे पगुराते देख रहे थे। हमें लगा इनको वहाँ हमारे घर वालों ने निगाह रखने को लगा रहा रखा है ताकि कोई खरोंच लगे गाड़ी में तो ये सचाई बताकर हमारे बहानों को झूठा साबित कर सकें और क़ायदे से हड़का सकें ।
तमाम को कोशिशों के बाद मुड़कर सही रास्ते पर आए। आख़िर में उस जगह पर पहुँच ही गए जिसके बाहर भारतीय पुरातत्व विभाग का बोर्ड लगा था जिस पर लिखा था – ‘गुप्त क़ालीन ईंटों का प्राचीन मंदिर।‘
सदियों पुराने मंदिर को एक पतली सड़क के किनारे चुपचाप खड़ा देखकर ऐसा लगा मानों कोई बुजुर्ग अपने घर के किसी कोने पड़ा हो। हमको रमानाथ अवस्थी जी की कविता याद आ गई:
“भीड़ में भी रहता हूँ वीरान के सहारे
जैसे कोई मंदिर किसी गाँव के किनारे”
मंदिर में भीड़ के नाम पर कुल जमा आठ-दस लोग थे। दो लड़के मंदिर को फ़टाक से देखकर उसके साथ अलग-अलग पोज में सेल्फ़ी ले रहे थे। मंदिर बेचारा चुपचाप खड़ा बालक के साथ सेल्फ़ी में क़ैद होता रहा। मंदिर के हाल मुझे किसी देश के संविधान की तरह की तरह लगे जिसका नाम लेकर वहाँ की सरकारें , उसकी मूल भावना के विपरीत , तमाम असंवैधानिक हरकतें करती रहती हैं।
एक बालक-बालिका मोटरसाइकिल से आए, मंदिर देखा और पलटकर चल दिए। हम अकेले थे लिहाज़ा हम इत्मिनान से मंदिर को देखने लगे।
मंदिर को देखने के सिलसिले में हमने पहले मंदिर को चारों तरफ़ से देख डाला। ईंटों का सदियों पुराना मंदिर नीचे से देखने से ताज़ा बना लग रहा था। ईंटों पर काई नहीं थी। पुरानेपन का कोई निशान नहीं। ऊपर की ईंटें अलबत्ता उखड़ी हुई थी और इमारत के पुराने होने की गवाही दे रहीं थी। उन उखड़ी और उजड़ी ईंटों की ख़ाली जगहों पर कुछ कबूतर बैठे दिखे। वे आपस में ज़रूर कुछ बतिया रहे होंगे लेकिन हम तक उनकी बातचीत नहीं पहुँच रही थी।
कानपुर शहर की साइट के अनुसार मंदिर की हजारों उखड़ी हुई ईटें लखनऊ संग्रहालय में सुरक्षित हैं।
मंदिर को चारों तरफ़ से देखने के बाद विवरण पट्ट पढ़ा। विवरण की भाषा से सिर्फ़ इतना समझ आया कि मंदिर गुप्तकाल का है, इष्टिका स्थापत्य में बना मंदिर लगभग 20 मीटर रही होगी, मंदिर की मूर्तियों में विष्णु का वाराह अवतार, चार हाथों वाली दुर्गा और चार हाथों वाले गणेश प्रमुख हैं। मंदिर की शैली देखते हुए यह पाँचवी सदी का मंदिर लगता है। मतलब आज से क़रीब 1500 -1600 साल पहले का मंदिर।
मंदिर के अहाते की घास कटाई चल रही थी। पता चला कोई वीआइपी आने वाले हैं। मंदिर की देखभाल के लिए तीन लोग हैं। उनमें से एक शाही जी ने हमको तसल्ली से बैठने के लिए कहा। हम तसल्ली से वहाँ मौजूद बेंच पर बैठ गए।
कुछ देर की तसल्ली के बाद शाही जी ने हमको फिर से मंदिर दिखाया। दुर्गा जी चार हाथों वाली मूर्ति तो साफ़ दिख रही थी, गणेश जी की हम पहचान गए। मंदिर के चारों तरफ़ इँटो के खंभों पर बनी कलाकारी कमाल की लगी। इँटो पर नक्कासी अद्भुत है। शाही जी ने ताला खोलकर हमको गर्भग्रह भी दिखाया। अंदर कोई मूर्ति नहीं थी। बड़ी-बड़ी इँटो वाली दीवार। गर्भ ग्रह की शुरुआती भाग अर्धचंद्राकार और अंदर का भाग एक कमरे जैसा।
लेकिन यह तो मंदिर का पुरातत्व विभाग द्वारा मंदिर का संवारा हुआ रूप है। पुराना मंदिर जिस रूप में प्राप्त हुआ उसकी फ़ोटो हमारे नामराशि Anoop Shukla ने टिप्पणी में भेजी जिसको यहाँ पोस्ट में लगा दिया।
बाहर आकर शाही जी बातचीत हुई कुछ देर। पता चला गोरखपुर के रहने वाले हैं। हमने वीरेंद्र शाही की ज़िक्र किया तो बताया – ‘हमारे चाचा लगते थे।‘ इसके बाद गोरखपुर के और माफ़ियाओ के चर्चे हुए। लेकर हरिशंकर तिवारी से आजतक। बात करते हुए माफिया लोगों की हरकतों का ज़िक्र आया तो शाही जी ने वीरेंद्र शाही से अपने को अलग करते हुए कहा –‘बकिया उनके साथ कोई सम्बन्ध नहीं था हम लोगों का।‘
हमको समझ में आया कि माफिया कितना भी बड़ा हो आख़िर में लोग उससे संबंध तोड़ना ही चाहते हैं।
कुछ देर और बैठकर हम वापस चल दिए। चलने से पहले रजिस्टर में अपना नाम, मोबाइल नम्बर लिख दिए थे। बाहर आकर कार में बैठे तो मन किया तो साथ में लाए कुछ बिस्कुट शाही जी को दिए। शाही जी घास-कूड़ा समेटवा कर गाड़ी में लदवा रहे थे। हाथ धोती में पोंछकर बिस्कुट ले लिए। हमने फ़ोटो लेना चाहा तो बोले –‘ड्यूटी पर फ़ोटो लेना ठीक नहीं है।‘ हमने उनकी बात मान ली।
बिना उनकी फ़ोटो लिए मंदिर से बाहर चले आए।

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