आज हिंदी दिवस है। इस मौके पर लेख लिखने की परंपरा है। अधिकतर में हिंदी की स्थिति के मजे लिए जाने का चलन है। लोग देवनागरी में अंग्रेजी लिखकर हिंदी की खिल्ली टाइप उड़ाते हैं। थोड़ा पढ़े लिखे लोग परसाई जी का कथन दोहरा देते हैं -'दिवस तो कमजोर का मनाया जाता है।'
इस मौके पर हिंदी के प्रसार में तमाम लोगों के योगदान की चर्चा होती है। फिल्मों, गानों और दीगर लोकप्रिय माध्यमों का हवाला दिया जाता है। देवकीनंदन खत्री के चंद्रकांता सीरीज लेखन के बारे में बताया जाता है कि लोगों ने उसको पढ़ने के लिए हिंदी सीखी।
इधर बेवसीरिज और ओटीटी प्लेटफॉर्म पर आई पिक्चरों ने भी हिंदी के प्रसार में काफी योगदान किया है। इन फिल्मों ने गाली-गलौज और नितान्त अकेले में प्रयोग की जाने वाली शब्दावली को सार्वजनिक रूप से प्रयोग करने में होने वाली झिझक मिटाने में बहुत मेंहनत की है। जिस तरह हमारे देश की राजनीति ने भृष्ट आचरण को सहज और स्वीकार्य बनाया है उसी तरह इन फिल्मों ने भी खराब मानी जानी वाली बातचीत को प्रचलित करते हुए भाषा की संपदा में इजाफा किया है। इनका योगदान भी कालजयी फिल्मों से कमतर नहीं है।
तमाम लोगों के योगदानों के अलावा राजनीति के माननीयों ने भी हिंदी के प्रसार में काफी योगदान दिया है। आम बोलचाल की भाषा में अपने बयान देते हुए गाली-गलौज, गलीच और गुंडई की भाषा का प्रयोग करते हुए आम जनता को संदेश दिया है कि भाषा की गरिमा के चक्कर में पड़कर अपनी भाषा के विकास में रुकावट न पैदा करें।
कुछ महानुभावों की भाषा सुनकर उस प्रदेश के गुंडे-माफिया कहते होंगे -“माननीय , आप तो हमारे पेट पर लात मार रहे हैं। आपने तो दिन-दहाड़े हमारी भाषा का अपहरण कर लिया है। हमारी भाषा में जनता को सम्बोधित कर रहे हैं। हम पर दया करिए। हम किसी को धमकाते हैं तो लोग धमकने से इनकार कर देते हैं। कहते हुए -'ये भाषा तो हमारे मुखिया बोलते हैं। तुम उनकी नकल करके हमको धमकाने की कोशिश मत करो।' “
माननीयों ने आम लोगों की समझ में आने वाली भाषा का प्रयोग करते हुए भाषा के प्रसार में अमूल्य योगदान दिया है। पहले जो भाषा लोग ढंके-छिपे प्रयोग करते थे उसे मंच पर लाकर सम्मान दिया है। ठोंकना, पेलना, गाड़ देना जैसे सभा वर्जित शब्दों को आम बोलचाल की भाषा बनाया है। बहुत काम किया है माननीयों ने। गाली-गलौज और पहले कभी गन्दी समझी जाने वाली भाषा को खुलेआम प्रयोग करके जनभाषा के रूप में मान्यता दिलाई है।
गलीच माने जाने वाली भाषा को जनभाषा के रूप में स्थापित करने के अलावा माननीयों ने अपने आचरण से भाषा के व्याकरण में भी बहुत काम किया है। मुहावरों के मतलब बदलने में योगदान दिया है। कुछ दिनों तक ‘गले लगना’और ‘गले पड़ना’ अलग-अलग माने जाते थे। उनके अर्थ अलग-अलग माने जाते थे। माननीय ने अपने आचरण दोनों के मतलब एक ही कर दिए। दोनों का मतलब ‘गले पड़ना’ ही हो गया।
हिंदी भाषा के विकास और प्रचार-प्रसार में माननीयों ने अतुलनीय योगदान किया है। उनके योगदान की हमेशा उपेक्षा की गई है। यहाँ जो चंद उदाहरण जो पेश किए गए वह तो माननीयों के सार्वजनिक वक्तव्यों और आचरण को देखते हुए किये गए। अपने निजी और 'तखलिया' व्यवहार में अगर उनके योगदान शामिल कर लिया जाए तो उसकी महिमा का बखान असम्भव ही हो जाएगा।
अपनी भाषा के प्रसार में सभी को योगदान करना चाहिए। हमसे इतना ही हो पाया। बाकी आप भी करिए। सब कुछ माननीय ही करेंगे क्या? वो यही सब करेंगे तो जोड़-तोड़ और माननीय बने रहने के लिए जरूरी दीगर सियासी हरकतें कौन करेगा?
हिंदी दिवस के मौके पर आपको शुभकामनाएं।
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