Saturday, September 21, 2024

यादों की गलियों में



दो दिन पहले बैंक जाना हुआ। चुन्नीगंज चौराहे के पास। लौटते समय सोचा कुछ दूर पैदल चला जाए। पास ही बीएनएसडी इंटर कालेज है। मन किया कि ज़रा देखें जाकर कालेज। लेकिन कालेज के सामने सड़क खुदी हुई थी। गेट बंद। बताया गया कि घूम कर जाना होगा। हम पलट लिए।
पलटकर आगे चुन्नीगंज चौराहे के सामने सड़क पर घुस गए। इस सड़क पर पहली बार आए थे। दिमाग़ में यह धारणा थी कि पूरी मुस्लिम बस्ती है। लेकिन सड़क पर घुसते ही एक मंदिर दिखा। एक लड़का लपककर आया। चप्पल उतारकर बाहर से ही प्रणाम निवेदित करके चल दिया।
अग़ल-बग़ल भी तमाम दुकानें, मकान हिंदू नाम वाले दिखे। थोड़ा आगे एक और मंदिर, जो शायद ताज़ा बना था, दिखा। क़रीब दो-तीन सौ मीटर लम्बी सड़क के दोनों ओर घनी बस्ती थी।
यह लगा हम लोग अपनी धारणाओं के आधार पर सोच बना लेते हैं। उसी सोच के हिसाब से ज़िंदगी गुजर जाती है। कई बार पता ही नहीं चलता कि हमारी धारणा ग़लत है या सही।
एक घर के बाहर एक बच्चा सड़क की मिट्टी उठाकर एक छुटकी शीशी में भरता दिखा। बड़ी तल्लनीनता से चुटकी-चुटकी मिट्टी शीशी में भर रहा था। बच्चे को देखते हुए उसकी फ़ोटो खींचने की सोची। इस बीच बच्चा हमको देखकर सहम सा गया और शीशी, मिट्टी वहीं छोड़कर भागते हुए पास बैठी महिला की गोद में दुबक गया। महिला उसको अपने आँचल में छिपाकर दुलराते हुए मुस्कराने लगी।
सड़क पारकर तिराहे पर एक नल पर लोग पानी भर रहे थे। एक बच्ची हाथ में एक छुटकी सी मिट्टी की मूर्ति लिए नल के पानी से धो रही थी। पास ही ठेलिया पर भूट्टे बेचती महिला किसी ग्राहक के इंतज़ार में पंखा झल रही थी।
कर्नलगंज मोहल्ले में, बकरमंडी चौराहे की तरफ़ जाने वाली सड़क पर स्कूल की पढ़ाई के दौरान रोज़ आना -जाना होता था। क़ब्रिस्तान के पास सड़क किनारे पतंग का माँझा बनता था। सामने पंतग की दुकाने थीं। अब वहाँ न माँझा बनता है न पतंग की दुकाने हैं। क़ब्रिस्तान के अग़ल-बग़ल कई फूलों की दुकाने और होटल खुल गए हैं। बस्ती बहुत घनी हो गयी है।
एक बिरियानी वाले से हमने पतंग की दुकानों के बारे में पूछा तो उसने बताया कि वो उनके ही घर वालों की दुकाने थीं। पतंगे बिकनी बंद हो गयीं तो दुकानें भी बंद हो गयीं। उन लोगों ने होटल खोल लिए।
प्लेट में बड़े पतीले से बिरियानी निकालते देखकर हमने पूछा बिरियानी में गोश्त किसका है? उसने बताया -मुर्ग़े का। एक प्लेट में दो बोटी पड़ी थीं। सामने की दुकान पर बोर्ड लगा था - अफ़सर भाई की मशहूर चिकन बिरियानी। हमको बिरियानी खानी नहीं थी इसलिए आगे चल दिए।
आगे एक हज्जाम की दुकान पर बब्लू चश्मे वाले का इश्तहारी पोस्टर लगा था -'डा. द्वारा चश्मे का नम्बर फ्री निकलवाएं। घर बुलाकर चश्मा बनवाएँ।'
पोस्टर में मोबाइल नम्बर दिए थे। जिसको बनवाना हो सम्पर्क कर सकते हैं।
बकरमंडी की ढाल से बजरिया की तरफ़ जाने वाली सड़क गाड़ियों के लिए फिसलपट्टी सरीखी है। शहर की शायद ज़्यादा तीखी ढलान वाली सड़क है। स्कूल आते-जाते बकरमंडी में बकरों की बंधी भीड़ दिखती। यसूफ़ी साहब का जुमला -'इस्लाम के लिए सबसे ज़्यादा क़ुर्बानी बकरों ने दी है' पढ़ा तो मुझे बकरमंडी मैदान में बंधे बकरे याद आए।
बकरमंडी ढाल से उतरते हुए सड़क किनारे कई कारें दिखीं। सब पर फ़ॉर सेल का बोर्ड लगा था। नई दिखती कारें बिकने के लिए खड़ी थीं। मन किया दाम पूछा जाए लेकिन फ़िर नहीं पूछा।
आगे बजरिया थाना दिखा। थाना बजरिया देखते ही मुझे गाने का मुखड़ा याद आ गया -'बीच बजरियाँ खटमल काटे, कैसे निकालूँ चोली से।' हमको आज तक नहीं समझ आया कि बीच बाज़ार में खटमल कैसे काटता होगा। इस बात की चर्चा हमने 2008 में लिखी एक पोस्ट में की थी (लिंक टिप्पणी में)
बजरिया चौराहे के आसपास तमाम आटो से सम्बंधित तमाम दुकानें हैं। कई जगह स्कूटर मोटर साइकिल रिपेयर करते कारीगर दिखे। स्कूटर का मडगार्ड ठोंक पीट कर ठीक करते कारीगर।
बजरिया चौराहे पर ही आगे बाएँ तरफ़ एक मंदिर में सुरसा की मूर्ति है। स्कूल के दिनों में अपने दोस्त Ajay Tiwari अजय तिवारी (अप्पू) के साथ इधर से ही गुजरते थे। सुरसा की मूर्ति देखते ही भागकर मूर्ति की नाक में उँगली करते। बचपन की बातें याद करते हुए हम मूर्ति को पास से देखने गए।अब मूर्ति के चारो तरफ़ रेलिंग लग गयी है। रेलिंग के बाहर से मूर्ति तक पहुँचना मुश्किल है अब। कोई पहुँच भी जाए तो बचपन की हरकतें दोहराना ख़तरनाक है आज के दिन। पता नहीं किसकी भावनाएँ आहत हो जाएँ।
आगे हरसहाय जगदंबा सहाय कालेज है। इसके बड़े मैदान में कभी हम गांधी नगर से क्रिकेट खेलने आते थे। आसपास के न जाने कितने बच्चे खेलते थे। अब मैदान के चारों तरफ़ इमारतें खड़ी हो गयी हैं। मैदान का जैसे टेटुआ दबा दिया हो उसके आसपास की इमारतों ने। बरसात में मैदान एक तबेला सा लग रहा था। कुछ 'प्रैक्टिस नेट' जैसे लगे थे वहाँ। शायद कुछ लोगों को क्रिकेट सिखाने का काम होता होगा। कभी आम जनता के लिए खुले मैदान पर कुछ ख़ास लोगों का क़ब्ज़ा हो गया है।
देश की हर सम्पदा के साथ यही हो रहा है। आम लोगों की सम्पत्ति पर ख़ास लोगों का क़ब्ज़ा होता गया है। जेबी लोकतंत्र में यही मुमकिन है।
हरसहाय के पास 'बाबा भोकाल चाय' की दुकान पर चाय पी। आगे वह गली दिखी जहां हमारे बचपन के दोस्त संतोष बाजपेयी Santosh Bajpai रहते थे। हम लोग साथ स्कूल जाते। एक बार किसी बात पर हम लोगों में अनबन हो गयी। महीनों अबोला रहा हमारे बीच। बिना बातचीत किए हम साथ स्कूल जाते रहे। एक दिन संतोष की मम्मी ने ऊपर बुलाया। समझाया। हम लोगों का अबोला ख़त्म हुआ। पास ही प्रभात शिशु सदन में संतोष पढ़ते थे। वह स्कूल भी देखा।
आगे बनखंडेश्वर मंदिर के पास अप्पू के पिताजी की चाय दुकान थी । स्कूल जाते समय हम लोग उनकी दुकान से होकर जाते। चाचा जी गल्ले से निकालकर पैसे देते। हम लोग लौटते में या जाते में लेनिन पार्क के चौराहे के पास की दुकान से गरम जलेबी खाते। बाद में जब भी कहीं जलेबी खाई तब उस जलेबी का स्वाद याद आया। बचपन में खाई चीजों के स्वाद के आगे सारे स्वाद फीके हैं।
चौराहे से अनायास अप्पू की दुकान की तरफ़ मुड़ गए। अप्पू के बड़े भाई अशोक दुकान पर थे। कई वर्षों के बाद मुलाक़ात हुई। देखकर बोले -'हाफ़ पैंट पहनकर आते थे तुम। अब रिटायर भी हो गए। समय कितनी तेज़ी से बदलता है।'
सीसामऊ चौराहे पर भारी भीड़ थे। यहाँ लोग ख़रीदारी करने दूर-दूर से आते हैं। आगे एक किताब की दुकान दिखी। बाला जी बुक स्टोर। किताबों के ढेर लगे थे। पुरानी-नई सब तरह की किताबें। दुकान देखकर कोलकता के कालेज स्ट्रीट की दुकाने याद आ गयीं। कानपुर में इस तरह की पहली दुकान दिखी।
याद आया कि यहीं नुक्कड़ पर एक कम ऊँचाई के सरदार जी किताबें किराए पर देते थे। दस पैसे एक किताब के किराए में अनगिनत किताबें पढ़ी थीं उनके यहाँ से। अब वह दुकान और सरदार जी यादों में ही हैं।
लेनिन पार्क चौराहे से खड़े होकर गांधीनगर और आनंद बाग चौराहे की तरफ़ जाने वाली सड़क देखी। इसी सड़क पर स्थित एक मकान में हम इंटरमीडिएट के बाद तक रहे। आगे आनंद बाग के प्राइमरी स्कूल में कक्षा एक से पाँच तक पढ़े। अब स्कूल टूटकर नए मकान में तब्दील हो चुका है। मकान खंडहर हो चुका है।
लेनिन पार्क,में चार बड़े-बड़े मैदान थे। वहाँ आसपास के सैकड़ों बच्चे खेलते थे। अब पार्क सिकुड़कर किसी मकान का किचन गार्डन सरीखा हो गया। मैदान पर अगडम, बग़ड़म इमारतों का क़ब्ज़ा हो गया है। देखकर कोई अंदाज़ा नहीं लगा सकता है कि कभी यहाँ कितना बड़ा पार्क रहा होगा। लेनिन के सोवियत रूस के भी तो ऐसे ही हाल हुए हैं।
आगे ज़रीब चौकी चौराहे पर भयंकर भीड़ थी। क्रासिंग खुली तो भीड़ ऐसे भागी जैसे किसी कांजी हाउस की दीवार टूटने पर उसमें क़ैद जानवर अकबका कर भागते होंगे। एक बुजुर्गवार स्कूटर पर आ रहे थे। भीड़ के आचरण से हलकान बुजुर्ग ने क्रासिंग के पास स्कूटर रोककर शायद हवा में डायलाग उछाला -'शहर के लोग जाहिल हैं।'
बुजुर्ग की बात सुनने के लिए किसी के पास समय नहीं था। पीछे से आती सवारियों के हार्न की आवाज़ों से मजबूर होकर वे अपने बाक़ी के डायलाग अपने मुँह में ही रखकर आगे बढ़ गए।
सड़क पार कर अपन ई रिक्शा में बैठकर विजय नगर चौराहे तक आए। फिर वहाँ से आर्मापर गेट तक। कुल किराया पड़ा -20 रुपया। जाते समय कुल किराया खर्च किया था 200 रुपए। आते समय पैदल, ई रिक्शे के गठबंधन के चलते 180 रूपये की बचत हुई। यादों की गली में घूमना हुआ सो अलग।

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