Friday, September 20, 2024

बाबा भोकाली चाय

 


कल शहर से गुजरते हुए एक चाय की दुकान दिखी। साइन बोर्ड पर नाम था - 'बाबा भोकाली चाय।' हरसहाय जगदंबा सहाय कालेज के पास है दुकान। दुकान दिखी तो कहीं जा रहे थे। गाड़ी से। जगह नोट कर ली। तय किया कि लौटते समय या बाद में कभी यहाँ चाय पी जाएगी।
किसी भी व्यक्ति, वस्तु, दुकान, मकान, किताब, कहानी, उपन्यास का नाम उससे पहला परिचय होता है। आकर्षक और अलग नाम उसके बारे में जिज्ञासा पैदा करते हैं। कानपुर इस मामले में अनूठा शहर है। तरह-तरह के रोचक और अलग तरह के नाम और जुमले शहर में चलन में हैं। कानपुर की पंच लाइन ही अपने में अनूठी है -'झाड़े रहो क़लट्टरगंज।'
तमाम दुकानों के रोचक नाम उनके प्रति आकर्षण जगाते हैं। ठग्गू के लड्डू, जनवादी समोसा केंद्र और भी न जाने कितने नाम होंगे। लिखाई में कनपुरिया जुमले बाज़ी का हालिया नमूना मृदुल कपिल की बमबम पांडेय सीरीज़ की कानपुर की घातक कथाओं में मौजूद है।
लौटते में पहुँच ही गए बाबा भोकाली चाय की दुकान पर। हरसहाय कालेज के बाहर की फुटपाथ पर है दुकान। 1975 से 1981 के बीच पहले जीआईसी और बाद में बीएनएसडी में पढ़ने के दौरान इस जगह के सामने से निकलते थे। उन दिनों फुटपाथ चलने के लिए मुक्त थे। आज सारे फुटपाथ पर दुकानों का क़ब्ज़ा है। कोई चल नहीं सकता फुटपाथ पर। यह हाल लगभग पूरे देश में है।
बाबा भोकाली चाय की दुकान पर पहुँचकर एक चाय का आर्डर दिया। दुकान के मालिक गोविंद खड़े-खड़े चाय बना रहे थे। पीछे प्लास्टिक का स्टूल भी रखा था बैठने के लिए। लेकिन गोविंद खड़े-खड़े चाय बनाते रहे। बतियाते रहे।
दुकान के बारे में बताते हुए जानकारी दी गोविंद ने। दुकान 7 जुलाई, 1982 को शुरू हुई थी। आनंद जनरल स्टोर के नाम से। गोविंद के पिता स्व. अशोक कुमार ने दुकान शुरू की थे। पहले पिता चलाते थे दुकान। बाद में गोविंद भी बैठने लगे दुकान पर। 2016 में पिता का निधन हो गया। अब गोविंद ही देखते हैं दुकान।
1982 में जब दुकान खुली तब अपन कानपुर से बाहर इलाहाबाद चले गए थे पढ़ने। हास्टल के पीछे की सज्जन, मालन और दूसरी चाय की दुकानों की बेंच पर टांगों कैंची बनाते हुए बैठकर चाय पीते थे। उन दिनों चाय के दाम तीस पैसे थे।
हरसहाय से 1998 के स्नातक गोविंद ने चाय की दुकान दस साल पहले शूरु की। नाम खुद रखा - 'बाबा भोकाली चाय।'
पिछले दस साल में चाय वालों का भौकाल मचा हुआ है देश में । कानपुर में 'बाबा भोकाली चाय' का भौकाल है।
भौकाल का अर्थ होता है- रूतबा, जलवा, हनक। अक्सर यह बढ़ा-चढ़ा कर पेश किये गए या बनावटी रुतबे यानी हनक के लिए भी इस्तेमाल किया जाता है। इसका प्रचलन लखनऊ- कानपुर- इलाहाबाद के इलाकों में अधिक पाया जाता है।
पहले जनरल स्टोर और चाय की दुकान साथ-साथ चलते थे। बाद में जनरल स्टोर का धंधा मंदा होता गया। लोग सामान ले जाते, पैसा नहीं दे पाते। कोरोना काल में जनरल स्टोर बंद कर दिया।
चाय की दुकान ख़ूब चलती है। आसपास तमाम दुकानें हैं। उनमें काम करने वाले लोग और सड़क से गुजरते लोग ठहरकर चाय पीते हैं। दुकानों में काम करने वाले लोग छुटके, टुइयाँ कप में साझा करके चाय पीते हैं। एक चाय में कई लोग पी लेते हैं।
दुकान से खाने-पीने भर की आमदनी हो जाती है। दुकान लीज़ पर है। हरसहाय वाले किराया लेते हैं। 500 रुपए महीना किराया है दुकान का।स्कूल में भी चाय यहाँ से मंगाते हैं लोग।
'पैसा दे देते हैं स्कूल वाले?' हमारे यह पूछने पर गोविंद ने बताया -'हाँ, मैनजेमेंट अच्छा है कालेज का।'
एक चाय के दाम दस रुपए हैं। चाय का कुल्हड़ ही डेढ़ रुपए का आता है। चाय की लागत सात-आठ रुपए आती होती होगी। मतलब एक चाय पर डेढ़-दो रुपए मतलब 15-20% कमाई।
चाय पीकर पैसे दिए तो गोविंद ने चाय के बारे में राय पूछी -'कैसी लगी चाय?' हमने तारीफ़ की। वो खुश हुए। हमने दुकान के फ़ोटो लिए और बाहर आ गए।
बाहर निकलते हुए एक रिक्शे पर बैठे आदमी का चाय का आर्डर सुना- 'दो चाय देना। एक फीकी, एक शक्कर की। साथ में दो बन-मक्खन।'
'बन-मक्खन' को हम बहुत दिन तक 'बन्द-मक्खन' कहते रहे। ठीक भी लगता है। 'मक्खन', 'बन' के अंदर बंद हो जाने पर बनी हुई चीज़ 'बन्द-मक्खन' ही तो कहलाएगी।
रिक्शे पर बैठे आदमी ने आदमी ने पूछने पर बताया -'यहाँ चाय अच्छी है। कर्नलगंज से आते हैं पीने। वाज़िद नाम बताया उन्होंने।'
खड़े-खड़े और बात हुई तो वाज़िद जी ने बताया -' भोपाल से कानपुर आते हुए ट्रेन में लकवा मार गया। सत्तर साल उमर है। ठीक हो रहे हैं धीरे-धीरे।'
सत्तर साल के वाज़िद जी को हमने अपनी अम्मा का क़िस्सा सुनाया कि इसी उमर में उनको लकवा मारा था। उन्होंने ज़िद से कसरत करते हुए इसे ठीक कर लिया था।
हमारी बात सुनकर वाज़िद जी ने रिक्शे पर बैठे-बैठे हाथ फैलाकर और मुट्ठी भींचते-खोलते हुए कसरत शुरू कर दी। कहा -'हम भी खूब कसरत करते हैं।'
उनको कसरत करते देखकर हमको अपनी अम्मा याद आ गईं।
इस बीच रिक्शेवाला उनके लिए चाय और बन-मक्खन ले आया। वो खाते हुए चाय पीने लगे। उन्होंने रिक्शेवाले के लिए चाय-बन मक्खन का आर्डर किया था। उसको कहा -'तुम भी ले लो।'
रिक्शेवाले के लिए आर्डर देते हुए बोले -'अकेले खाते अच्छा नहीं लगता।'
हम उनको चाय पीता छोड़कर चल दिए।

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