Wednesday, January 31, 2018

दिल्ली में साहित्यकार साहित्य के अलावा सब कुछ रचते हैं-- यशवन्त कोठारी



1. दिल्ली में साहित्यकार साहित्य के अलावा सब कुछ रचते हैं। दिल्ली-वाद ने हिंदी रचनात्मक साहित्य का बड़ा नुकसान किया है।
2. आजकल के सम्पादक- लेखक तो बस.... बोसिज्म के मारे हैं।
3. किसी लेखक को नीचा दिखने का आसान उपाय ये है की उसकी रचना को नक़ल घोषित कर दो, करवा दो।
4. जिस तरह औरत ही औरत की सबसे बड़ी दुश्मन होती है ठीक उसी तरह लेखक ही लेखक का सबसे बड़ा दुश्मन होता है।
5. इधर फेसबुक पर गज़ब का धमाल है। हर व्यक्ति कवि है यह माध्यम मुझे भी रुचा, हिसाब चुकाने की सबसे सुरक्षित व आसान जगह। बड़े लेखक तक घबराते दिखे। कब कौन भाटा फेंक दे, बाल्टी भर के कीचड़ उछाल दे। लेकिन मज़ेदार जगह है। लगे रहो मुन्ना भाई व बहनों. कभी तो लहर आएगी।
6. नैतिकता और ईमानदारी का पाठ पढाने वाले हम सब कितने नीच और गिरे हुए हैं यह साहित्य ने ही दिखाया, सिखाया, सैकड़ों उदहारण दे सकता हूं।
7. एक शाल, अंगोछे, रूमाल, कागज के प्रमाण पात्र के लिए कैसे-कैसे हथ-कंडे हैं हम लोगों के पास? यदि नकद राशि भी है तो देने वाले का मंदिर बना देंगे या दाता चालीसा लिख देंगे, या नकद राशि को निर्णायकों को चढ़ा देंगे। दो पांच लाख का इनाम लेने बाद भी एक अंगोछे व इक्क्यावन रूपये के इनाम के लिए गिडगिड़ाते हैं, ये कैसे नाखुदा है, मेरे खुदा।
- यशवन्त कोठारी
रचनाकार द्वारा आयोजित संस्मरण लेखन पुरस्कार आयोजन के लिये लिखे गये लेख के अंश। पूरा लेख यहां बांचिये http://www.rachanakar.org/2018/01/13.html


Monday, January 15, 2018

एक तसल्ली भरा इतवार

चित्र में ये शामिल हो सकता है: 2 लोग, दाड़ी
82 साला बुजुर्गवार अल्ताफ
कल सुबह तसल्ली से उठे। इतवार देर से जगने, उठने के पहले करवट बदलने और फ़िर पलटकर सो जाने का दिन होता है। लिहाजा जब जगे तो सूरज भाई की सरकार आसमान में पूर्ण बहुमत में आ गयी थी। हर तरफ़ उनका ही जलवा।

बाहर निकलते ही सूरज भाई ने अपनी किरणों वाली बाहों को फ़ैलाते हुये हमको गले लगा लिया। हम गुनगुना गये। गर्मा गये। इसके बाद शर्मा गये।

शर्माने का कारण यह रहा कि सूरज भाई के गले लगाने के अंदाज से हमको लगा सीन कुछ ऐसा बना है जैसे प्रधानसेवक टाइप लोग प्रोटोकॉल तोड़कर किसी की अगवानी करते हैं- गर्मजोशी से खौलती हुई अगवानी। ऐसी कल्पना करना हमारे प्रोटॉकाल के खिलाफ है।

आगे एक जगह कूड़े का अलाव जल रहा था। एक कुत्ता अकेले अलाव का साथ दे रहा था। कुछ देर बाद दूसरा कुत्ता भी आ गया। लेकिन दूसरे कुत्ते को अलाव का साथ ज्यादा जमा नहीं। वह टहलता हुआ चल दिया। हमने उतरकर कुत्ते और अलाव का फ़ोटो लेना चाहा। जब तक उतरे तब तक कुत्ते निकल लिये। हम निराश होना ही चाहते थे कि एक नया कुत्ता आकर अलाव तापने लगा। हमने उसका फ़ोटो लिया। उसने भी एतराज नहीं किया। तसल्ली से फ़ोटो लेने दिया।
थोड़ी देर बाद बाहर निकले तो देखा सड़क एकदम गुलजार थी। बैटरी रिक्शे वाले धक्काड़े से सड़क पर सवारी लादे चले जा रहे थे। आगे वाली सीट पर अपने साथ एक सवारी बैठाये रिक्शे वाला दायीं तरफ़ झुका हुआ रिक्शा चला रहा था। दांयी तरफ़ झुके होने के कारण उसको दक्षिणपंथी रिक्शा वाला कहा जा सकता है? यह सवाल हमने जितनी तेजी से सोचा उससे भी तेजी से भुला दिया। दिमाग को डांट भी दिया यह कहते हुये - ’माननीय आपको राजनीति शोभा नहीं देती।’

चित्र में ये शामिल हो सकता है: लोग खड़े हैं और बाहर
अलाव तापता कुत्ता
दोपहर को आराम से धूप सेंकी। बगीचे में धूप और छाया आराम से एक-दूसरे की संगत में खुश-खुश पसरी हुई थीं। हवा दोनों के बीच बिना वीजा के टहल रही थी। कहीं-कहीं तो धूप के बीच छाया और दीगर जगह छाया के बीच धूप घुसी हुई थी। लेकिन दोनों के बीच कोई तनाव नहीं था। न कोई तोप-गोले चल रहे थे। प्रकृति और आदमी में यही अंतर होता है।
शाम ढलने के बाद कार से टहलने निकले। बहुत दिनों के बाद। बिरहाना रोड जो दीगर दिनों में भीड़-भाड़ वाला रहता है, एकदम तसल्ली में दिखा। दुकाने बंद।
एक मंदिर के बाहर कुछ लोग उकड़ू बैठे थे। वे गरीबी और जाड़े के संयुक्त आक्रमण को सिकुड़कर झेलते हुये, मांगने वाले थे। कुछ लोग कार से निकालकर उनको खाने का सामान दे रहे थे। जाड़े का समय लगभग बीच सड़क पर यह लेन-देन चल रहा था। सहज मानवीयता और पुण्य़ का ट्रान्जैक्शन हो रहा था।
जगह-जगह दूध की दुकाने दिखीं। ज्यादातर दूध की दुकानों पर पहलवान दूध भंडार लिखा हुआ था। मतलब दूध बेचने के लिये पहलवान होना जरूरी टाइप होता है। होते भी हैं, भले ही सींकिया हों।
एक दुकान पर कुछ सामान खरीदने के लिये रुके। इस बीच एक सफ़ेद दाड़ी वाले बुजुर्ग वहां आ गये। अपनी छ्ड़ी वहां खड़े हुये एक लड़के की तरफ़ बन्दूक की तरह तानते हुये ठां ठां करने लगे। हम उनसे बतियाने लगे तो उन्होंने कड़क गुडमार्निंग करते हुये ’हाऊ आर यू’ दाग दिया। रात नौ बजे कड़क गुडमार्निंग सुनना ऐसा ही लगा मानों किसी अंग्रेजी में तंग आदमी से मिलते मिलते ही वह शट्टाप, गेट्टाउट बोलते हुये गर्म जोशी से हाथ मिलाने लगे।
बुजुर्गवार ने बतियाते हुये जानकारी दी कि वे पश्चिम बंगाल से आये थे। सालों पहले। उमर 82 साल हो गयी है। लाल आंख के बारे में पूछा तो बताया - दो बार आपरेशन करा चुके हैं। एक पैर में चप्पल दूसरे में पट्टी का किस्सा सुनाते हुये बताया - ’ यहां चबूतरे पर सोये हुये थे। चार कुत्तों ने एक बाहर के कुत्ते को दौड़ा लिया। बचने के लिये वह कुत्ता पैर के पास आकर दुबक गया। कुछ देर बाद पैर फ़ैलाया तो डरे हुये कुत्ते ने पंजे पर काट लिया।’
चलते हुये कुछ खिलाने की बात की बुजुर्गवार ने। हमने दुकान से जो मन आये ले लेने की बात कही। उन्होंने कुछ मूंगफ़ली की एक गोल चिक्की की तरफ़ इशारा किया। हमने उठाकर उनको दे दी। ढेर सारी अंग्रेजी के फ़ुटकर वाक्य बोलकर गुड्ड्नाईट किया बुजुर्गवार ने। विदा होते हुये हमने नाम पूछा तो अल्ताफ़ बताया। वल्दियत भी बताई थी। लेकिन ठीक से सुन नहीं पाये।
चलते हुये लोगों ने बताया कि यहीं चबूतरे पर रहते हैं। अगल-बगल खड़े कुछ लड़के उस पर हंस रहे थे। शायद हम पर भी। लेकिन हंसी पर कोई गोंद थोड़ी लगा था जो हम पर चिपक गई हो। बस याद आ रही है।
लौटते हुये देखा लगभग हर फ़ुटपाथ पर लोग चादर, कम्बल ओढे सो रहे थे। शरीर को गोलाकार बनाकर ऊष्मा को बाहर जाने से रोकने की कोशिश करते हुये। हजारों लोग भद्दर जाड़े में ऐसे ही खुल्ले में सोते हैं। आज सूरज भाई से बात होगी तो उनसे कहेंगे रात की शिफ़्ट में भी थोड़ी देर आ जाया करो। देखते हैं क्या बोलते हैं।
आपको क्या लगता है मेरी बात सूरज भाई मानेंगे?
https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10213454024438496

Thursday, January 11, 2018

पुस्तक मेले में किताबें

हाल नम्बर 12, शॉप नम्बर 375 , रीड पब्लिकेशन



जाड़े में खाली रेलें ही नहीं बल्कि किताबें भी देरी से पहुंच रहीं हैं। गनीमत यही कि किताबें पहुंच रहीं हैं , निरस्त नहीं हो रहीं।
आज दिल्ली पुस्तक मेले में हम लोगों की किताबें पहुंची।
1. सेल्फी बसन्त के साथ - कमलेश पांडेय -Kamlesh Pandey
2. सूरज की मिस्ड कॉल- अनूप शुक्ल
3. झाड़े रहो कलट्टरगंज- अनूप शुक्ल
इनके साथ ही व्यंग्य के पहलवान Alok Puranik की सबसे नई किताब 'जूते की ईएमआई' भी गई थी प्रेस में। वह भी शायद कल तक पहुंचेगी पुस्तक मेले में।
किताबें रीड पब्लिकेशन, हॉल नम्बर 12, शॉप नम्बर 375 में उपलब्ध हैं। किताब पहुंचने की सूचना हमको Arvind Tiwari जी से मिली। उन्होंने ही इसका विमोचन भी कर दिया। विमोचन की फ़ोटो भी दिखाएंगे जल्दी ही। इसके फौरन बाद Abhishek Awasthi भी पहुंचे घटनास्थल पर। उन्होंने भी किताब का विमोचन किया। वह फोटो भी अलग से।
अब जो साथी पुस्तक मेले पहुंचे वे किताब रीड पब्लिकेशन से पाएं। मेले के मौके की उचित छूट भी पाएं। हमारा पहला व्यंग्य सँग्रह 'बेवकूफी का सौंदर्य' भी उपलब्ध है 'रीड पब्लिकेशन्स' पर।
जो पुस्तक मेले पहुंचने से चूक जाएं वे किताब ऑनलाइन रुझान पब्लिकेशन से मंगाएं।
Rujhaan Publications Kush Vaishnav



कोई भी स्वचालित वैकल्पिक पाठ उपलब्ध नहीं है.
एक साथ छपी किताबें तीन सहेलियों सी पुस्तक मेले में

Wednesday, January 10, 2018

कोहरा


आज सुबह अलार्म बजा। नींद खुली। फ़िर आंख भी। लगाया हमने ही था लेकिन फ़िर भी गुस्सा आया अलार्म पर।
अलार्म ने तो अपनी ड्यूटी बजाई फ़िर भी उस पर आया गुस्सा ऐसा ही था जैसे संस्थान सुरक्षा के लिये खड़ा चौकीदार अपने ही अफ़सर से परिचय पत्र दिखाने के लिये कहने पर अफ़सर सोचता है।
जगने पर पहले थोड़ा कोसा अलार्म को। बदमाश ने जगा दिया सुबह-सुबह।
वैसे हल्का वाला ही था गुस्सा! कोई हसीन ख्वाब देख रहे होते तो शायद भारी वाला आता। गुस्गुसे भी अलग-अलग वैराइटी के आते हैं आजकल। एक तरह के गुस्से से काम भी तो नहीं चलता न आजकल ! हर तरह का गुस्सा रखना पड़ता स्टॉक में। जब जरूरत पड़ी वैसा आ गया। यह बात गुस्से ही नहीं, हर मनोभाव पर लागू होती है आजकल।
बहरहाल, जब नींद टूट ही गयी तो उठना ही पड़ा। टूटी हुई नींद भी प्रेम के धारे की तरह होती है। दोबारा नहीं जुड़ती। वैसे आजकल प्रेम के संबंध टूटने पर जोड़ने का रिवाज भी नहीं है। यूज एंड थ्रो के जमाने में ’प्रेम संबंध’ की रिपेयरिंग में बहुत समय लगता है। जित्ते में पुराने संबंध की मरम्मत हो, उत्ते में कई नये संबंध बन जाते हैं।
उठ कर बाहर झांका तो अंधेरा था। अंधेरा क्या कोहरे और सर्दी की गठबंधन सरकार चल रही थी। इस संयुक्त सरकार का मुखिया अंधेरे का था या कोहरे का , पता नहीं चला।
अंधेरा तो खैर हमेशा दिख जाता है। लेकिन कोहरा जाड़े में ही मिलता है। लोग बहुत कोसते हैं कोहरे को। गाड़ियां , जहाज सब देर करवाता है बदमाश कोहरा। सूरज की किरणों के रास्ते में रुकावट पैदा करता है। जीवन की तेजी को कम करता है।
लेकिन देखा जाये तो जाड़े में जिन्दगी के लिये कोहरा उत्ता ही जरूरी है जित्ता सड़क पर चलने के लिये घर्षण। कोहरा ऊष्मा का कुचालक होता है। हमारी गर्मी को बाहर जाने से रोकता है। बाहर की सर्दी को हम तक आने में बाधा पहुंचाता है। कोहरा एक तरह से चादर है जो धरती अपने बच्चों को जाड़े से बचाने के लिये ओढा देती है।
सरकारी कामकाज में काहिली तमाम ग्रांट को घपले वाले कामों में खप जाने से रोकती है। काहिली का धवल पक्ष है यह। काहिली के चलते जब काम ही नहीं होगा तो भुगतान भी नहीं होगा। भुगतान ही नहीं होगा तो खर्च भी बचेगा। खर्च बचा तो घपला बचा।
पिछले हफ़्ते हिन्दुस्तान, पाकिस्तान , अफ़गानिस्तान तक संयुक्त परिवार के बच्चों सरीखे कोहरे की एक ही चादर के नीचे पड़े रहे। प्रकृति ने तो अपने बच्चों के लिये एक सा इंतजाम किया जाड़े से बचने के लिये। लेकिन हिन्दुस्तान और पाकिस्तान जाड़े से बचने के अपने उपाय करते रहे। एक ही रजाई में घुसकर गुत्थम-गुत्था करने वाले बच्चों की तरह आपस में लड़ते रहे। गोलीबारी, गर्मागर्म बयानबाजी में जुटे रहे। प्रकृति अपने बच्चों की इस नासमझी पर ओस के आंसू रोती रही।
कोहरा का जब भी जिकर होता है दुष्यन्त कुमार जी का शेर दहाड़ने लगता है:
"मत कहो आकाश में कोहरा घना है,
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है।"
इस शेर से ऐसा लगता है कि दुष्यन्त जी भलमनसाहत के चलते ऐसा कहे होंगे। आकाश में कोहरे की बात मत कहो, उसको बुरा लगेगा। लेकिन समय के साथ मायने बदलते हैं रचनाओं के। आज के समय में यह शेर बताता है कि ऐसा इसलिये मत कहो क्योंकि आकाश को बुरा लग गया तो मानहानि का मुकदमा ठोंक देगा। आकाश की सरकार है, एफ़ आई आर करवा देगा आकाश उसकी कमी बताने पर। सारी सचबयानी , पत्रकारिता धरी की धरी रह जायेगी।
आगे कोहरे की स्थिति देखने के लिये बाहर झांकते हैं तो सूरज भाई मुस्करा रहे हैं। कोहरा चुनाव खत्म होने के बाद जनसेवक की तरह गायब हो गया है।
अब जब कोहरा ही गायब हो गया तो उसकी बात करने से क्या फ़ायदा?

Monday, January 01, 2018

हमारी अम्मा कलेट्टर गंज के पास पराठे बेंचती थी

चित्र में ये शामिल हो सकता है: एक या अधिक लोग, लोग खड़े हैं, बाहर और भोजन
Add caption

साल सरपट निकल रहा था। हम उसको विदा करने नदी तट तक गए। नुक्कड़ पर ई रिक्शा दीवार की तरफ मुंह किये खड़े थे। बगल से निकले तब भी कोई कुछ बोला नहीं। शायद यह सोचकर कि कहीं कोई बोला तो कोई यह न कहे - ’चलो जरा शुक्लागंज तक होकर आते हैं।’

सड़क की बांयी तरफ मूँगफली कि दुकानें चल रही थीं। कुछ पर लोग मूँगफली भूंज रहे थे। भट्टी से आग की लौ निकल रही थी। ज्यादातर दुकानें महिलाएं चला रहीं थीं।
सामने शराब का ठेका था। हमें लगा आज भरा हो शायद। लेकिन उधर सन्नाटा खिंचा हुआ था। एक आदमी अलबत्ता बीच सड़क पर एक आदमी एक अदधे से दारु के घूंट भरता हुआ लपकता चला रहा था। शायद उसको साल खत्म होने की पहले बोतल खत्म करने की चिंता थी।
सड़क पर चहल-पहल बहुत कम थी। कुछ सवारियां ई रिक्शा पर शुक्लागंज की तरफ जा रही थीं। आने वाली तो बहुत कम थीं। इक्के-दुक्के लोग साइकिल पर आते-जाते दिखे।
गंगा जी कोहरे की चादर ओढ़े मजे की नींद सो रही थी। उनको नए साल की एडवांस में बधाई दी तो कुनमुना के फिर सो गई। दुबारा बोला तो हिलती-डुलती हुई बोली - ’अरे ये सब चोंचले तुमको ही मुबारक हो। हमको तो रोज बहना है। हमारा तो हर दिन नया साल है।’
पुल पर टैंकर वाली मालगाड़ी धड़धड़ाती चली जा रही थी। टैंकर के अंदर तेल को क्या पता कि नया साल आने वाला है। वह तो टैंकर के अंदर हिलता-डुलता चुपचाप अंधेरे में गुड़ीमुड़ी लेटा था।
लौटते में देखा कि पुल के पास दो लोग पत्तियां जलाते हुए आग ताप रहे थे। कुर्सी पर बैठा आदमी खड़ा हो गया। बोला - ’बैठिये। हम खड़े रहे।’
ह्म कहे – ‘आप बैठिये। हम ऐसे ही रुक गए।‘
वह फिर अंदर से दुसरी कुर्सी लाया तो फिर बैठ ही गए।
एक प्लास्टिक की कुर्सी बीच में तार से सिली हुई थी। लगा जैसे उसकी ओपन हार्ट सर्जरी हुई हो। सर्जरी के बाद सिल दी गयी हो।
चित्र में ये शामिल हो सकता है: 1 व्यक्ति, आग और रात
Add caption
पता चला दोनो लोग पिता-पुत्र हैं। बेटा पंक्चर बनाता है। साथ की जगह में मंदिर डाल लिया है शंकर जी का। कुछ कमाई उससे हो जाती है। गुस्सा है उसके मन में इस बात का कि लोग बगल में सौ रुपये की दारू पी जाते हैं लेकिन मंदिर में दान नहीं करते।
पिता की एक आंख का आपरेशन हुआ है। किसी धर्मार्थ संस्था के माध्यम से। सब खर्च उस संस्था ने वहन किया। उसको खूब दुआए दी दोनों ने।
पिता की उम्र 84 बताई। तीन साल पहले तक चुस्त थे । अब कम हो गयी ताकत। लड़का पिता की सेवा में लगा रहता है। इसी लिए शादी नहीं की। 38 का हो गया। पिता और भोले भण्डारी की सेवा में जीवन बिता रहा भला आदमी। मां भाई लोगों के साथ शुक्लागंज रहती हैं।
पिता से बात हुई तो बताया –‘हमारी अम्मा कलेट्टर गंज के पास पराठे बेंचती थी। गुलगुले भी बनाती थीं । खूब दुकान चलती थी।‘ 84 साल का बुजुर्ग बचपन की यादों में खोया बच्चा बन गया।
लौटकर सो गए। अभी सुबह उठे तो देखा नया दिन शुरू हो गया। नया साल भी। बन्दर डालें हिलाते हुए नए साल की शुभकामनाएं दे रहे हैं। हमने उनको भी ‘हैप्पी न्यू ईयर’ बोला तो वे चिंचियाते हुए वापस मुस्करा रहे हैं।
आपको भी नया साल मुबारक हो। मङ्गलमय हो।

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10213350035758844

Friday, December 29, 2017

झाड़े रहो कलट्टरगंज


और अंतत: किताब तैयार ही हो गयी -झाड़े रहो कलट्टरगंज। इस साल की तीसरी किताब। कल छापाखाना में गई किताब। इसके पहले ’सूरज की मिस्ड कॉल’ और ’आलोक पुराणिक- व्यंग्य का एटीएम’ तैयार हो ही गयी थी। सूरज की मिस्ड कॉल तो छप भी गयी है। छापेखाने से निकल चुकी है। जिन लोगों ने आर्डर की होगी उन तक पहुंचेगी आहिस्ते-आहिस्ते - जाड़े में गुनगुनी धूप की तरह। गुनगुनी धूप से याद आई यह बात:
"तुम्हारी याद
गुनगुनी धूप सी पसरी है
मेरे चारो तरफ़।
कोहरा तुम्हारी अनुपस्थिति की तरह
उदासी सा फ़ैला है।
धीरे-धीरे
धूप फ़ैलती जा रही है
कोहरा छंटता जा रहा है।"
किताब पहुंचने तक धूप एकदम बालिग होकर खूबसूरत हो जायेगी।
अब इस किताब का नाम ’ झाड़े रहो कलट्टरगंज’ रखने के पीछे का कारण भी जान लीजिये:
"किताब का नाम ’झाड़े रहो कलट्टरगंज’ रखा गया। यह नारा कनपुरिया मस्ती का पर्याय है। कभी ’भारत का मैनचेस्टर’ कहलाने वाला शहर कुली-कबाडियों के शहर में बदलते हुये अब देश के सबसे प्रदूषित आधुनिक शहरों में शामिल होने को बेताब है। लेकिन इस सबसे बेपरवाह मस्ती की अंतर्धारा शहर की हवाओं में लगातार बहती रहती है। अपने शहर के इस बेलौस फ़क्कड़ मिजाज से जुड़ने की ललक और लालच के चलते ही इस किताब का नाम - ’झाड़े रहो कलट्टरगंज’ रखा गया। जिस भी पूर्वज ने यह मस्ती भरा नारा इजाद किया हो उसकी याद को नमन करते हुये उसके प्रति आभार व्यक्त करता हूं।"
किताब का कवर पेज Kush ने बनाया है। बहुत कोशिश के बावजूद कवर पेज में कुश साइकिल न घुसा सके। वह फ़िर कभी। बहुत जल्दी ही किसी किताब में आयेगी।
किताब की भूमिका लिखने का काम किया Alok Puranik ने। उन्होंने मौके का फ़ायदा उठाते हुये मौज ले ली अनूप शुक्ल से:
"अनूप शुक्ल बहुआयामी प्रतिभा के धनी हैं। वृतांत लेखन गजब करते हैं, कैमरे के साथ प्रयोग खूब किये हैं। अफसर भी हैं और उसके बावजूद इंसान भी बने हुए हैं। उत्साही और उत्सुक विकट हैं, मंगल ग्रह पर साइकिल से चलेंगे-ऐसा प्रस्ताव कोई उन्हे मजाक में भी दे दे, तो शाम को साइकिल लेकर घर आ जायें कि चलो बता हुई थी ना चलो मंगल की तरफ। ऐसा इंसान व्यंग्य लेखन खूब कर सकता है औऱ जम के कर सकता है। वहां असल में क्या हो रहा है, यह देखने की उत्सुकता-यह व्यंग्यकार को बहुत कच्चा माल दिलाती है। अनूप शुक्ल साइकिल रोककर नदी के किनारे के उस कोने में चले जाते हैं, जहां बालक जुआ खेल रहे होते हैं और एक बालिका बालकों को डपट रही होती है-क्यों बे बड़ा दांव क्यों नहीं लगाते। अनूप शुक्ल किसी रेहड़ी पर फल बेचनेवाले की जिंदगी में पूरा झांकने की सामर्थ्य रखते हैं। मानवीय चरित्र को कई कोणों से परखने में उनकी गहरी रुचि है।"
अपन ने भी फ़ौरन बदला चुकाते हुये किताब का समर्पित कर दी उनको यह लिखते हुये:
"व्यंग्य के अखाड़े के सबसे तगड़े पहलवान
व्यवस्थित आवारा , बहुधंधी फ़ोकसकर्ता
आलोक पुराणिक के लिये
जो हमेशा नित नये प्रयोग करते हुये
यह बताते और जताते रहते हैं कि
सिर्फ काम ही समय की छलनी की पार ले जाता है।"
बाकी जो है किताब में है। किताब मंगाने के लिये इस कड़ी पर पहुंचिये।
1. http://rujhaanpublications.com/pr…/jhaade-raho-kalattarganj/
सूरज की मिस्ड कॉल मंगाने के लिये इधर क्लिकियाइये
आलोक पुराणिक - व्यंग्य का एटीएम पाने के लिये इधर आइये
व्यंग्य का एटीएम और सूरज की मिस्ड कॉल का काम्बो पैक इधर पाइये।
4. http://rujhaanpublications.com/…/combo-offer-suraj-ki-miss…/
सभी किताबें पुस्तक मेले में रुझान प्रकाशन के स्टॉल पर उपलब्ध रहेंगी।

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10213325772312273

Thursday, December 28, 2017

ये दुनिया बड़ी तेज चलती है


अंतरिक्ष बहुतों की तरह हमारे लिये भी जिज्ञासा का विषय रहा है। बचपन से अब तक इत्ती बातें पढ़ीं हैं कि बहुत कुछ तो गड्ड-मड्ड हो गयी हैं। कोई बताता है सारी आकाश गंगायें एक-दूसरे से दूर भागी जा रही हैं। भागी जा रहीं हैं। ऐसी-वैसी स्पीड से नहीं प्रकाश की स्पीड से। मतलब तीन लाख किलोमीटर प्रति सेकेंड! मतलब अपनी राजधानी एक्सप्रेस भी तेज! 
मैं सोचता हूं कब तक भागेंगी ये आकाश गंगायें। काहे को भागी चली जा रही हैं। कहां तक जायेंगी? कभी हांफ़ते हुये सुस्ताने की बात भी करेंगी क्या?
हम तो इस पर कवितागिरी भी कर दिये थे :):
ये दुनिया बड़ी तेज चलती है ,
बस जीने के खातिर मरती है। पता नहीं कहां पहुंचेगी ,
वहां पहुंचकर क्या कर लेगी ।
हमारी औकात देखिये। ससुर छह फ़िटा आदमी ताजिदगी ऐंठा रहता है। हिटलर की तरह गरदन अकड़ाये! साठ-सत्तर साल में गो-वेन्ट-गान हो लेता है। बड़े उछल के कहते हैं इत्ती स्पीड से गाड़ियां चलती हैं। ये है वो है! ये तीर मार लिया वो जलवे दिखा दिये। ये झगड़े निपटा दिये वो बलवे करा दिये!
मतलब हमका अईसा वईसा न समझो हम बड़े काम की चीज!
तुलना करिये जरा! सबसे पास जो तारा है सूरजजी के बाद वाला उस तक पहुंचने में प्रकाश को चार साल से ज्यादा लगते हैं। तीन लाख किलोमीटर प्रति सेकेंड के हिसाब से लगातार चार साल से ज्यादा चलो तब पहुंचो उसके द्वारे।
सूरज अपना माल ऊर्जा जो फ़्री में सप्लाई करते हैं उसको हम तक पहुंचने में आठ मिनट लग जाते हैं। लोग कहते हैं अगर हम अपने पास उपलब्ध सबसे तेज साधन से भी चलें तो भी पहुंचने में पचास-साठ पीढ़ियां निपट लेंगी। अब अगर वहां जाने की बात करी जाये जहां से हम तक प्रकाश पहुंचने में हज्जारों साल लेता है तो कित्ते साल में पहुंचेंगे। सोचते हैं और बस सोचते ही रह जाते हैं। सोचने में कुछ पल्ले से जाता नहीं है न! 
उधर दूसरे बयान भी हैं! हनुमान जी सूरज को मधुर फ़ल जान कर लील जाते हैं! लक्ष्मण कहते हैं अगर राम जी आज्ञा दें तो इस ससुरे ब्रम्हाण्ड को गेंद की तरह उठाकर कच्चे घड़े की तरह फ़ोड़ दूं:
जौ राउर अनुशासन पाऊं। कंदुक इव ब्रम्हाण्ड उठाऊं॥
कांचे घट जिमि डारौं फ़ोरी। सकऊं मेरू मूलक जिमि तोरी॥
इसी बहाने हमें आज फ़िर लगा कि जब आदमी गुस्सा होता है तो तर्क उसके पास से विदा हो लेता है। अब बताओ दुनिया को उठाओगे गेंद की तरह और फोड़ोगे घड़े की तरह! दूसरी बात कि जब आप खुद ब्रम्हाण्ड में मौजूद हैं तो उसे उठायेंगे कैसे! हो सकता कि प्रभु भक्तों के पास कोई भक्तिपूर्ण तर्क हो इस बात का। लेकिन सहज बुद्धि की बात है अपनी सो कह गये। भक्तगण क्षमा करेंगे। 
लोग कहते हैं कि अगर आदमी की गति प्रकाश की गति से तेज हो तो वह अतीत में जा सकता है। अतीत की घटनाओं को नियंत्रित कर सकता है। गणितीय सूत्रों से भी यह बात तय पायी गई। लेकिन वैज्ञानिको ने शायद इसे सहज बुद्धि के तराजू पर तौल कर खारिज कर दिया। उनका कहना है कि अगर ऐसा होगा तो कोई अतीत में जाकर अपने मां-बाप का टेटुआ दबा देगा। फ़िर उसकी पैदाइश डाउटफ़ुल हो जायेगी।
क्या बतायें बहुत उलझ से गये दुनिया के बारे में सोचते-सोचते। कहते हैं लोग कि ब्रम्हाण्ड में हर क्षण हजारों तारे जन्म ले रहे हैं, हजारों मर रहे हैं। एक दूसरे से दूर भाग रहे हैं! नजदीक भी आ रहे हैं। कृष्णजी तो सब कुछ अपने मुंह में दिखा दिये थे अर्जुन को। बेचारे इत्ता डर गये कि मरने-मारने पर उतारू हो गये।
न जाने कित्ती बड़ी है दुनिया। अभी तो हमारे और हमारी फ़ैक्ट्री तक सीमित है! जा रहे हैं अपनी दुनिया में! 

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10213318871699762


Sunday, December 24, 2017

नानी की दुकान


भोपाल की सुबह बड़े तालाब के किनारे टहलते हुए बीती। लौटते हुए नानी की दुकान पर चाय पी गयी। पोहा खाया गया।
दो महीने हुए नानी को अपनी दुकान लगाए। इसके पहले एक हॉस्टल में बच्चों के लिए खाने-पीने का इंतजाम देखती थी। इंजीनियर बच्चे पहले साल सीधे होते हैं, दूसरे साल में शरारतें सीख जाते हैं। इसीलिए तीसरे साल के बच्चों को हॉस्टल में नहीं रखती थीं।
नानी की दुकान नाम नातिन , रोशनी के, कहने पर रखा गया।
हौसला गजब का। हाईस्कूल तक पढ़ीं हैं नानी लेकिन भाषा पर चकाचक अधिकार। पति 28 साल पहले नहीं रहे।
पोहा और चाय चकाचक। दोनों के दाम पांच रुपये। हमने कहा- 'हमारी तरफ से आप भी चाय पियो, पोहा खाइए।' उन्होंने चाय तो पी लेकिन पोहा बोलीं -अभी खाएंगे।
सुबह पोहा, फिर समोसा, फिर पूड़ी-सब्जी और दीगर नाश्ते की व्यवस्था। घर परिवार की तमाम बातें साझा हुईं। बताया की उनका नाम कांता शुक्ला है।
सामने ही नानी की नातिन रोशनी धूप में अखबार बांच रही थी। हमने पूछा - "नानी को कुछ सहयोग करती हो? " वह बोली -"गल्ला काटते हैं।" गल्ला काटना मतलब काउंटर पर बैठना।
नानी के देवर बड़े लेखक हैं। कोई व्यास जी। नानी कोई और काम भी करना चाहती हैं। आगे बढ़ना चाहती हैं।
नानी की चाय पीकर और उनके हौसले की तारीफ करते हुए हम वापस लौटे।

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10213288151451775

भोपाल में प्रवासी मजदूर




सवेरे जब आगे चले से तो देखा एक भाई जी तालाब की मुंडेर पर बैठे दातुन कर रहे थे। पता किया तो मालूम हुआ कि भाई जी बैतूल के एक गांव के रहने वाले हैं । भोपाल काम के सिलसिले में आए थे । यहीं पर रोज मेहनत मजदूरी करके गुजारा करते हैं। पास में केवल एक झोले में कुछ कपड़े थे।
हमने पूछा कैसे गुजारा होता है? रात कहां सोते हैं ? तो सामने के पार्क की तरफ इशारा करके बोले वहीं सो जाते हैं। मजदूरी कभी मिलती है , कभी नहीं मिलती। बैतूल के गांव में पूरा परिवार है। यहां भोपाल में कमाई के लिए आए हैं ।
उनसे बात करके हम आगे ही पड़े थे कि देखा एक भाई जी शीशे में चेहरा देखते हुए बाल काढ़ रहे थे। तल्लीनता से। हमको देखकर थोड़ा ठिठके। लेकिन फिर बाल संवारने में जुट गए। उनको देखकर भी यही लगा वे भी आसपास के किसी इलाके से यहां रोजी-रोटी के चक्कर में आये हैं।
इन दोनों लोगों को देखकर एहसास हुआ कि जिंदगी के कितने रूप हैं। किसी के लिए सुगम, सुखद, सुहानी और किसी के लिए कठिन, जटिल और चुनौती भरी।

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10213291757301919

Saturday, December 23, 2017

अपन सही तो सब सही



भोपाल स्टेशन गाड़ी पहुंची डेढ़ बजे। मल्लब केवल 4 घण्टे लेट। स्टेशन पर ही चाय पी। घर के बाद की पहली ठीक चाय। इसके पहले कानपुर , झांसी में पी लेकिन वह स्टेशन की चाय की तरह ही थी। फ़ीकी, बेस्वाद, ठण्डी।



हमने जुमला भी सोच लिया था -'अपने देश की स्टेशन की चाय और जनसेवक कभी सुधर नहीं सकते। ' लेकिन फिर लिखा नहीं। सच क्या लिखें बार-बार बेफालतू में।
स्टेशन पर चाय की दुकान पर एक आदमी चाय वाले से बतिया रहा था। किसी बात पर बोला -'किसी भोपाली की बात पर भरोसा नहीं करना चाहिए। '
हमने उसकी इस बात पर भरोसा करते हुए पूछा - 'फिर जो पता और रास्ता बताया उस पर भरोसा करें कि नहीं?' वह हंसने लगा।
बाहर रसीद मियां मिले। ऑटो वाले। बोले 180 रुपये लेंगे। हमने ओला चेक किया । किराया बताइस 185 रुपया । हम बैठ गए ऑटो में। बतियाते हुए आये। आने के पहले। स्टेशन पर ही सचिन भाई से 500 के फुटकर ले लिए रसीद भाई ने।
27 साल से ऑटो चला रहे हैं रसीद। रात को निकालते हैं ऑटो। 150 रूपया किराया। तीन -चार सवारी मिल गई तो काम हो गया। दिन में सोते हैं। हमारे रूप में पहली सवारी मिली रात 2 बजे।
'अपन सही तो सब सही' मानने वाले रसीद के खुद के ऑटो थे। 3-4रखे। फिर बेंच दिये। कौन कागद के झंझट में पड़े। किराए वाले में 150 रुपये दिए। चलाया। खड़ा कर दिया।
दोनों बेटे काम करते हैं रसीद के। एक कपड़ा मिल में, दूसरा दर्जी है। बेटी 12 वीं में पढ़ती है। कोई नशा नहीं। दाल-रोटी मजे में चल जाती है।
जरा देर में ही आ गए गेस्ट हाउस। रात में चाय बनवाई । मजे से पीते हुए फेसबुकिया स्टेटस बांचते रहे। देखा कि आलोक बाबू ट्रेन से पिछली पोस्ट को लाइक करते पाये गए। वो भी आ रहे हैं भोपाल। पहला ज्ञान चतुर्वेदी सम्मान समारोह है कल। कैलाश मन्डलेकर जी को मिलना है।
इस सम्मान की मूल भावना से असहमत रहे अपन। इस बारे में विस्तार से लिख भी चुके। लेकिन जब हो रहा है तो आ ही गए भोपाल। अब ज्यादा कुछ लिखेंगे तो सुशील जी अनफ्रेंड और ब्लाक कर देंगे। वे थानवी जी के बाद दूसरे नम्बर के 'ब्लाक प्रमुख' हैं।खैर पहुंच गए मौका-ए-वारदात पर। इसी बहाने तमाम दोस्त लोगों से मिलना होगा।
इस सम्मान के बहाने कैलाश मन्डलेकर जी से परिचय हुआ। बढिया लिखते हैं।
इनाम शुरू हुआ भोपाल के ज्ञानजी के नाम पर। घोषणा की दिल्ली के सुशील सिद्धार्थ जी ने। इंतजाम का जिम्मा ठेल दिया भोपाल के लोगों पर।संयोजक सुशील जी ट्रेन में मजे से सो रहे होंगे। बेचारे भोपाल वाले आने वालों की ट्रेन की आवाजाही देख रहे हैं। हमको भी शांतिलाल जी के कई संदेशे दे चुके। अपन आ गए। मजे में हैं ।
अब फिलहाल इतना ही। बाकी की खबर सुबह।

Thursday, December 21, 2017

झाड़े रहो कलट्टरगंज - नया हास्य-व्यंग्य संग्रह

चित्र में ये शामिल हो सकता है: 5 लोग
पिछले इतवार को लैपटॉप लेकर बैठे तो पिछले चार-पांच साल में लिखे गये हास्य-व्यंग्य लेख उछल-उछलकर हल्ला मचाने लगे कि हमको किताब में कब जगह मिलेगी, हम कब विमोचित होंगे? हम कब पुस्तक मेले जायेंगे?
हमने पहले तो डपट दिया - क्या जनसेवकों की तरह हरकतें करते हो जिनको जनसेवा के लिये सांसद/विधायक/मंत्रीपद ही चाहिये।
लेकिन फ़िर लगा कि लेखों की मांग इत्ती नाजायज भी नहीं। लेखों का मन लेखकों जैसा ही तो होगा। लेखक का मन होता है उसके लिखे की किताब आये तो लेखों का भी सहज मन होता है कि वे किताब में आयें।
खैर फ़िर बईठ के छांटे लेख और किताब की पांडुलिपि बनाकर भेज दी, अपनी बात और समर्पण सहित अपने मेहनती प्रकाशक Kush Vaishnav के पास। भूमिका के लिये अपने व्यंग्य बाबा Alok Puranik को पकड़ा और याद दिलाया कि मंडी हाउस में इस बार चाय के पैसे हमने दिये थे। भाई साहब ने फ़ौरन भूमिका लिख भेजी। मजे लेते हुये अनूप शुक्ल के। देखिये क्या लिखते हैं वे :
"अनूप शुक्ल बहुआयामी प्रतिभा के धनी हैं। वृतांत लेखन गजब करते हैं, कैमरे के साथ प्रयोग खूब किये हैं। अफसर भी हैं और उसके बावजूद इंसान भी बने हुए हैं। उत्साही और उत्सुक विकट हैं, मंगल ग्रह पर साइकिल से चलेंगे-ऐसा प्रस्ताव कोई उन्हे मजाक में भी दे दे, तो शाम को साइकिल लेकर घर आ जायें कि चलो बता हुई थी ना चलो मंगल की तरफ। ऐसा इंसान व्यंग्य लेखन खूब कर सकता है औऱ जम के कर सकता है। वहां असल में क्या हो रहा है, यह देखने की उत्सुकता-यह व्यंग्यकार को बहुत कच्चा माल दिलाती है। अनूप शुक्ल साइकिल रोककर नदी के किनारे के उस कोने में चले जाते हैं, जहां बालक जुआ खेल रहे होते हैं और एक बालिका बालकों को डपट रही होती है-क्यों बे बड़ा दांव क्यों नहीं लगाते। अनूप शुक्ल किसी रेहड़ी पर फल बेचनेवाले की जिंदगी में पूरा झांकने की सामर्थ्य रखते हैं। मानवीय चरित्र को कई कोणों से परखने में उनकी गहरी रुचि है।"
जब इत्ता सब हो गया तो फ़िर किताब आ ही जानी चाहिये न ! इतवार की शाम को शुरु हुई किताब का कवर पेज भी कुश ने वुधवार को बना दिया। फ़िर क्या बन गई किताब - झाड़े रहो कलट्टरगंज !
’झाड़े रहो कलट्टरगंज’ लिखा तो बोला हम किताब का शीर्षक बनेंगे। हम बोले बन जाओ। कौन रोकता है भईया तुमको। तो भाई किताब का शीर्षक भी तय भी हो गया - झाड़े रहो कलट्टरगंज !
तो इसी बहाने लेखक की पांचवी किताब और इस साल इस महीने की भी छपने वाली तीसरी किताब फ़ाइनल हो गयी - झाड़े रहो कलट्टरगंज।
बधाई -सधाई दीजिये वो तो ठीक है लेकिन यह भी बताइये कि कवर पेज कैसा है?

Tuesday, December 19, 2017

चुनाव के बाद वोटिंग मशीन


1. गुंडा जब अपने दीन-धरम छोड़ देता है तो नेता हो जाता है।
2. जिन महिलाओं से छेड़छाड़ होती है उसके जिम्मे सफ़ाई देने का ही काम बचता है।
3. गुंडों के बीच फ़ंसना तो नेताओंं के बीच फ़ंसने से सौ गुना बेहतर है!
4. नेताओं से ज्यादा उनके पिछलग्गुओं से डर लगता है।
चुनाव के बाद वोटिंग मशीने सुस्ता रहीं थी। आपस में अपने-अपने किस्से सुना रही थीं। लोगों ने कैसे उनका उपयोग किया। कैसे वोट डाला। कैसे दबाया। कैसे सहलाया। आइये सुनाते हैं कुछ उनकी गप्पागाथा:
ईवीएम 1: एक वोटर ने तो इत्ती जोर से बटन दबाया कि अभी तक दर्द कर रहा है। लगता है अगले चुनाव में चल न पायेंगे हम।
ईवीएम 2: याद आ रही है क्या उस वोटर की?
ईवीएम 3: अरे उसकी याद की कड़ाही में तू काहे अपनी जलेबी छान रही है? तुमको किसी की याद नहीं आती तो क्या किसी को नहीं आयेगी? क्यों री दर्द कैसा हो रहा है मीठा कि खट्टा?
ईवीएम 1: भक्क उस तरह वाला दर्द थोड़ी हो रहा। तुम तो सबको अपनी तरह समझ लेती हो। सबके भाग्य में वो मीठा-खट्टा दर्द कहां?
इस गप्पाष्टक को एक बुढिया ईवीएम मशीन दूर से सुन रही थी। अंजर-पंजर ढीले होने के चलते उसको चुनाव में ले नहीं जाया गया था। ऊंचा सुनती थी । इसीलिये दूर की बातों पर कान लगे रहते थे।
बुजुर्गा ईवीएम आवाज में बोली- ’सुना है तुम लोगों से कुछ छेड़छाड़ हुई वहां चुनाव में। तुम लोग भी छेड़छाड़ में इत्ती बेसुध हुई कि वोट दिये किसी और को गये पर तुमने गिनाये किसी और के नाम।’
छेड़छाड़ के नाम से ईवीएम मशीने एकदम प्याज-टमाटर की तरह लाल हो गयीं। (बुजुर्ग और सांवली मशीने प्याज की तरह, युवा और गोरी टमाटर की तरह) लेकिन उनको लगा कि लाल होने से काम नहीं चलेगा तो सफ़ाई देने लगीं। वैसे भी जिन महिलाओं से छेड़छाड़ होती है उसके जिम्मे सफ़ाई देने का ही काम बचता है।
वे बोलीं-- ’हम लोग कोई ऐसी-वैसी मशीन थोड़ी हैं। हमको कौन छेड़ेगा। हम कोई खूबसूरत टाइप मशीन भी नहीं जो हमको कोई छेड़े। खूबसूरत होती तो कोई हीरो-हीरोइन हमारा विज्ञापन करता। भले घर की लड़कियों की तरह हम चुनाव आयोग के गोदाम से सीधे पोलिंग बूथ जाते हैं वहां से सीधे वापस आ जाते हैं। कहीं इधर-उधर ताकते तक नहीं। झांकने की तो बात ही छोड़ दो। ’
सफ़ाई से बुजुर्ग ईवीएम मशीन और उत्साहित हो गयी। बोली-’ लेकिन जब हवा उड़ी है तो कुछ तो बात हुई ही होगी कि छेड़छाड़ का हल्ला है। हमने भी चुनाव करवाये हैं। हमको भी लोगों ने दबाया है। इधर-उधर थपथपाया है। किसी-किसी ने तो पटका भी है। खटखटाकर भी वोट डाला है लेकिन मजाल है जो आजतक किसी ने छेड़छाड़ की हो। तुम लोगों ने जरूर कुछ ऐसा किया होगा जो छेड़छाड़ की खबर फ़ैली। लाख समझाओ लेकिन तुम लोग मनमानी से बाज कहां आते हो। ये नयी हवा का असर है।’ बुढिया ईवीएम बड़बड़ाते हुये खांसने लगी।
फ़िर तो सब ईवीएम मशीने छेड़छाड़ का आरोप लगाने पर फ़िरंट हो गयीं। पता लगा कि मशीनों से छेड़छाड़ का आरोप लगाने वाले वही लोग थे जो हार भी गये थे। उनको इस बात से तसल्ली हुई कि जीते हुये लोगों ने उन पर छेड़छाड़ का आरोप नहीं लगाया।
फ़िर तो ईवीएम मशीनों के सुर बदल गये। वे ठिठोली करते हुये बतियाने लगीं।
बकने दो हरंटो को। सरकार तो हमारे समर्थन में होगी।
तब क्या एक ने नारा लगाया:
"जिसके साथ खड़ी हो सरकार
उसको कौन बात का डर यार।"
जिसने हम पर छेड़खानी की बात कही उसको अगले चुनाव में टिकट न मिले।
अरे नहीं री। टिकट तो मिले लेकिन टिकट के दाम दोगुने हो जायें।
और टिकट जिस इलाके से मिलें उस इलाके में उसको कोई जानता न हो।
फ़िर तो वो जीत जायेगा बे। लोग उसकी करतूतें जानेंगे नहीं तो भला समझ कर जिता देंगे।
दिन भर इसी गपड़चौथ में जुटी एवीएम मशीनों ने शाम को महसूस किया कि वे तो अपनी छेड़छाड़ के ही किस्से में जुटी रहीं।
एक बोली- ’इस चुनाव में हम ईवीएम के हाल तो रजिया की तरह हो गये तो जो नेताओं के चक्कर में फ़ंस गयी हो।’
अबे रजिया तो गुंडों के बीच फ़ंसी थी। -दूसरी ने सुधारने की कोशिश की।
हां यार। रजिया की किस्मत अच्छी थी जो गुंडों के बीच फ़ंसी थी। हमारे ही करम फ़ूटे हैं जो नेताओं के बीच फ़ंस गये।- तीसरी न कहा।
ये क्या आंय-बांय-सांय बक रही है तू। क्या चुनाव सभा में भाषण दे रही है। गुंडों के बीच फ़ंसना अच्छी किस्मत है? - चौथी ने हड़काया।
गुंडों के बीच फ़ंसना तो नेताओंं के बीच फ़ंसने से सौ गुना बेहतर है यार- दूसरी ने समझाया।
कैसे ? -कईयों ने एक साथ पूंछा।
गुंडों का कुछ तो दीन-धरम होता है। गुंडा जब अपने दीन-धरम छोड़ देता है तो नेता हो जाता है।’- दूसरी ने अनुभवामृत बांटा।
सही कह रही है तू। लेकिन इस बात को बाहर किसी से कहना नहीं वर्ना लोग जीना दूभर कर देंगे। अभी छेड़छाड़ की बात कही फ़िर न जाने क्या गत करायें हमारी। नेताओं का कोई भरोसा नहीं आजकल।
हमको तो नेताओं से ज्यादा उनके पिछलग्गुओं से डर लगता है।
न जाने कौन जनम के पाप थे तो हम ईवीएम मशीन बने। एक ईवीम मशीन ने अपना मत्था ठोंकते हुये कहा।
एक भक्तिन टाइप ईवीएम मशीन रामचरित मानस की चौपाइयां बांचने लगी:
कर्म प्रधान विश्व रचि राखा
जो जस करै तो तस फ़ल चाखा।
दूसरी पैरोडीबाजी करने लगी:
कोऊ नृप होय हमें का हानी
ईवीएम छोड़ न होइहैं रानी।
हम ईवीएम मशीनों को उनके हाल पर छोड़कर चले आये। कर भी क्या सकते थे?

Friday, December 08, 2017

सड़क पर जाम, एक नया झाम


समय के साथ तमाम परिभाषायें बदल जाती हैं।
पहले दूरी का मात्रक मील/किलोमीटर हुआ करता था। फ़िर घंटे/दिन हुआ। किदवई नगर से स्टेशन आधा घंटा की दूरी पर है। चमनगंज से फ़जलगंज एक घंटा। भन्नाना पुरवा से माल रोड पौन घंटा।
इधर जाम ने दूरी के सारे मात्रकों का हुलिया बिगाड़ के धर दिया है। हर मात्रक में जाम का हिस्सा शामिल हो गया है। अगर जाम नहीं मिला तो आधा घंटा। अगर जाम मिल गया तो खुदा मालिक। जाम ने दुनिया की सारी दूरियां बराबर कर दी हैं। आप हो सकता है कि लखनऊ से लंदन जित्ते समय में पहुंच जायें उत्ते समय में( जाम कृपा से) लखनऊ से कानपुर न पहुंच सकें। शहरों में रहने वाले लोग जाम से उसी तरह डरते हैं जिस तरह शोले फ़िल्म में गांव वाले गब्बर सिंह से डरते थे। शहरातियों की जिंदगी में ट्रैफ़िक-जाम उसी तरह् घुलमिल गया है जिस तरह नौकरशाही में भ्रष्टाचार।
जाम की खूबसूरती यह है कि यह हर गाड़ी को समान भाव से अटकाता है। मारुति 800 और हीरो हांडा में यह कोई भेदभाव नहीं करता। खड़खड़े और टेम्पो को बराबर महत्व देता है। टाटा का ट्रक और बजाज की मोटरसाइकिल इसको समान रूप से प्रिय हैं। यह सबको समान भाव से अपने प्रेमपास में लपेटता है। जाम के ऊपर कोई यह आरोप नहीं लगा कि उसने कोई गाड़ी घूस लेकर निकाल दी।
जाम का दर्शन दिव्य है। जाम में फ़ंसा हुआ आदमी कोलम्बस हो जाता है। वह दायें-बांये,आगे-पीछे, अगल-बगल से होकर जाम से निकल भागना चाहता है। जाम में फ़ंसा हुआ हर व्यक्ति मुक्ति का अमेरिका पाना चाहता है। लेकिन जाम उसे और फ़ंसा देता है। वापस भारत में पटक देता है। हर गलत साइड से निकलता आदमी दूसरे को रांग साइड चलने के टोंकता है। हर चालक आपसे जरा सा साइड देने की बात करता है।
कुछ गीत अगर आज के समय में दुबारा लिखे जाते तो उनमें जाम जरूर शामिल होता:
हम तुम्हे चाहते हैं ऐसे, मरने वाला कोई जिंदगी चाहता हो जैसे
अगर आज लिखा तो शायद लिखा जाता तो शायद इस तरह बनता-
हम तुम्हें चाहते हैं ऐसे, जाम में फ़ंसा कोई उससे निकलना चाहता हो जैसे मरने का अनुभव हरेक को नहीं होता। लेकिन जाम के अनुभव की बात से यह गाना ज्यादा अपीलिंग होता। ज्यादा लोगों तक पहुंचता।
सडकों में जाम लगने के कारण मांग और आपूर्ति वाले घराने के हैं। गाड़ियां ज्यादा सड़कें कम। ज्यादा समय नहीं लगेगा जब शहरों में गाड़ियों का कुल क्षेत्रफ़ल शायद शहरों की सड़कों के क्षेत्रफ़ल से आगे निकल जाये। सड़कें का कुल क्षेत्रफ़ल कम गाड़ियों का ज्यादा। आज भी गाड़ी बेचने वाली कंपनिया तमाम तरह के आफ़र दे रही हैं। कल को शायद वे गाड़ी बेंचने के लिये गाड़ी के साथ एकाध किलोमीटर सड़क भी उपहार में दें। गाड़ी के साथ शहर से साठ किलोमीटर दूर एक किलोमीटर की सड़क आपकी गाड़ी के लिये मुफ़्त में। आप कभी भी वहां ले जाकर अपनी गाड़ी चला सकते हैं। पहली बार गाड़ी ले जाने की व्यवस्था कंपनी की तरफ़ से की जायेगी। इसके बाद आपको खुद ले जानी होगी।
इस समस्या से निपटने के लिये तमाम व्यवहारिक/तकनीकी उपाय भी सोचें जायेंगे। जाम का आने वाले समय में क्या प्रभाव हो सकता है देखिये तो सही:
1. सड़कों पर गाड़ी रखने की जगह कम होने के चलते गड़ियां इस तरह की बनने लगेंगी कि उनको चारपाई की तरह खड़ा करके धर दिया जायेगा।
2. घर आकर जैसे कपड़े खूंटियों पर टांग दिये जाते हैं वैसे ही गाड़ियों को भी दीवारों पर टांगने की व्यवस्था होने लगे।
3. गाड़ियों के फ़ौरन खोलने की व्यवस्था होने लगे। जो हिस्सा अटका जाम में उसको लपेट के अंदर कर लिया और निकल गये।
4. गाडियों को तहाकर होल्डाल की तरह लपेट सकने का जुगाड़ होने लगे गाड़ियों में।
5. गाड़ियां इत्ती हल्की बनने लगें कि चारपाई की तरह उसको सर पर उठाकर जाम के झाम से निकल जाने का जुगाड़ हो।
6.हर गाड़ी अपने साथ एकाध किलोमीटर फ़ोल्डिंग सड़क लेकर चले शायद। जहां फ़ंसे अपनी गाड़ी से सड़क निकाली, बिछायी और फ़ुर्र से निकल लिये।
घर से निकलने से पहले ज्योतिषियों की सेवायें लेने लगें लोग! ज्योतिषी लोग आपके गंतव्य और गाड़ी की कुंडली मिलाकर देखें और बतायें कि कित्ते गुण मिलते हैं। जिस मामले में गुण कम मिलें उस तरफ़ आप न जायें। जिधर मिल जायें उधर निकल लें। क्या पता कल को जाम के कारण हमेशा ठिकाने से दूर रह जाने वाली गाड़ियों के लिये कालसर्प योग पूजा की व्यवस्था भी हो जाये।
लोग जाम के चलते रात-विरात यात्रा करने लगें। फ़िर सूनसान अंधेरे में होने वाले अपराध कम हो जायेंगे। लोग शायद सलाह देने लगें- दिन के उजाले में चलने की क्या जरूरत। रात को निकलना चाहिये जब सड़कों पर खूब गाड़ियां चलती हैं।
शहरों में सड़क के लिये जगह कम होने के कारण गाड़ियों के चलने के लिये गांवों में सड़क बनाई जायें। इससे गांवों का मजबूरी में विकास होने लगे।
शहरों की सड़कों पर जाम के चलते देहात से शहर आने वालों का पलायन रुक जायेगा। लोग कहेंगे कि जब शहर में जाकर जाम में ही फ़ंसना है तो अपना गांव क्या बुरा है। यहां भी तो अब जाम की व्यवस्था करा दी है सरकार ने।
हो सकता है आने वाले समय में शहर में लगने वाला जाम शहर की समृद्धि का पैमाना बन जाये। औसत पांच घंटे वाले जाम को औसत तीन घंटे जाम वाले शहर से ज्यादा समृद्ध माना जाये ।
इन उपायों को देखकर आपको अंदाजा लग गया होगा कि हम जाम की समस्या से कित्ता हलकान हैं।
लेकिन यह पोस्ट करने समय हम यह भी सोच रहे हैं कि कोई मंहगाई/भूख से पटकनी खाया इंसान अगर इसे देखेगा तो शायद कहे, ” ससुर के नाती -जाम की समस्या तो बढ़ती गाड़ियों के चलते हुयी जो कि दो सदी पहले से बनना शुरू हुई। लेकिन आदमी तो न जाने कब से बनना शुरु हुआ था इस दुनिया में। उसके पेट में भूख का जाम तो सदियों से लगा हुआ है। भूख से मरता आदमी कब तुम्हारी चिंता के दायरे में आयेगा?”
हमें कौनौ जबाब नहीं सूझता सिवाय इसे पोस्ट करके फ़ूट लेने के! 

Sunday, December 03, 2017

एक गुनगुनी सुबह


चित्र में ये शामिल हो सकता है: 1 व्यक्ति, बाहर
गंगा स्नान करके लौटती महिला

सुबह टहलने निकले। सुलभ शौचालय दिखा। कुछ लोग अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे। एक आदमी अखबार पढ़ रहा था। शायद दबाब बना रहा हो। पता नहीं किस खबर को पढ़ते ही प्रेसर बन जाये। अलग-अलग रुझान वाले लोगों को अलग-अलग ख़बरों से प्रेशर बनते होंगे।

आजकल स्वच्छता अभियान पर जोर है। खुले में शौच की खिल्ली उड़ाते हुए उसके खिलाफ हवा बनाई जा रही है। गांवों में शौचालय बन रहे हैं। भले ही उनमें सामान रखा जा रहा हो। लेकिन बन रहे हैं तो उनका उपयोग भी होने लगेगा कभी।
सुलभ शौचालय के बाहर अखबार पढ़ते देख आइडिया आया कि खुले में शौच रोकने के लिए खूब सारे शौचालय बनाये जाएं। उनकी सुविधाएं बढ़ाई जाएं। अखबार के साथ इंटरनेट भी मुहैया करवाये जाएं। और भी हेन-तेन। इतना कि लोग घर के ट्वायलेट छोड़कर 'शौचालय मॉल' में आने लगे निपटान के लिए।
सरकार को यह सब करने में बहुत समय लगेगा। प्राइवेट सेक्टर को सौंप दिया जाए यह काम। तमाम निजी इंजीनियरिंग कॉलेज बेकार हो रहे। लड़के आ नहीं रहे भर्ती होने। वे सब बदल दिए जाएं बड़े शौचालयों में। पैसा वसूल हो जाएगा। शिक्षा अभियान को स्वच्छता अभियान में बदल दिया जाए।
चित्र में ये शामिल हो सकता है: भोजन और बाहर
मंदिर के बाहर भक्त, फूल की दुकान और भिखारियों का कम्बो पैकेज
यह फालतू की सोच लिए-लिए हम आगे बढ़े। देखा एक महिला तेज-तेज चलती हुई जा रही थी। हाथ में लुटिया में पानी। बहुत मन लगाकर चल रही थी। आगे निकलकर हम साईकल स्टैंड पर खड़ी करके फोटो लिए। पूछकर। फ़ोटो खिंचाने से पहले उसने पल्लू सर पर धरा। चेहरे की व्यस्तता हटाकर सुकून वाली मुस्कान धारण की। लोटे को दोनों हाथ से पकड़कर संतुलित किया। फ़ोटो खिंचाई। देखने के बाद -थैंक्यू अंकल जी कहा।

पता चला कि रोज घण्टाघर से चलकर गंगा नहाने जाती हैं। करीब पांच किलोमीटर होगा। गंगा के प्रति आस्था। हम बताओ बगल में रहते हुए आज तक न नहाए। अनास्था है यह? एक दिन सूरज की किरणों के साथ चमकते हुए नहाएंगे। जल्ली ही।
आगे घंटाघर के पास एक मंदिर गुलजार हो रहा था। घण्टा बज रहा था। बाहर फूल वाला अपनी दुकान सजा चुके थे। मंदिर के सीन का कोरम पूरा करने के लिए भिखारी भी बैठ गए थे। एक को आने में कुछ देरी हुई तो लपककर आता दिखा। संग में बैठ गया। भक्त लोग खरामा-खरामा अंदर जाते हुए घण्टा बजाते चले गए। भगवान बेचारे अंदर बैठे होंगे। जो आता होगा उनको आशीर्वाद या प्रसाद या मनोकामना पूरी होने का आशीष दे देते होंगे। 

चित्र में ये शामिल हो सकता है: 3 लोग, मुस्कुराते लोग, लोग बैठ रहे हैं, लोग खा रहे हैं, मेज़ और भोजन
इटवार की सुबह पराठे सेंकता बालक
कभी-कभी सोंचते भी होंगे कि यार, यहाँ जाड़े ने ठिठुर रहे हैं। बाहर होते तो गुनगुनी धूप सेंकते। क्या पता कोई दूसरे देवता उनको समझाते -
कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता,
कभी जमीं तो कभी आसमां नहीं मिलता।
घण्टाघर के आगे एक ठेलिये पर सब्जी -पराठा का ठेला लगा था। एक लड़का ठेलिये पर बईठे हुए उचक-उचककर पराठा सेंक रहा था। बतियाते हुए मुस्कराता गया। जितना शरीफ लोग दिन भर में नहीं मुस्कराते उतना पांच मिनट में मुस्करा दिया बच्चा। पढ़ने जाता है लेकिन इतवार होने के चलते पिता का साथ दे रहा था।


20 रुपये के दो पराठे सब्जी सहित भाव थे। जीएसटी का हिसाब गोल। कभी शायद पुलिस वाले हर ठेले वाले से जीएसटी की पूछताछ करने लगें। जब करेंगे तब देखा जाएगा अभी तो सुबह की गुनगुनी धूप का मजा लिया जाए।

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10213127530516352

Tuesday, November 28, 2017

दुनिया बावजूद तमाम चिरकुटईयों के बहुत खूबसूरत है


कल दफ़्तर के लिये निकले। तिराहे पर मिनी जाम लगा था। एक स्कूटर और ऑटो में टक्कर हुई थी। स्कूटर दोनो टायर करवटियाये सड़क पर लेटा था। ऑटो बगल में चुपचाप खड़ा था। दोनों के सवार टक्कर के बाद अपनी-अपनी गालियों का स्टॉक खाली कर रहे थे।
हमको देर हो रही थी लेकिन इतनी भी नहीं कि बगलिया के निकल लें। इत्ती मेहनत से गाली-गलौज हो रही है उसको अनदेखा करके निकलना गालियों के सौंदर्य का अपमान लगा मुझे। खड़े होकर सुनने लगे।
स्कूटर वाला ऑटो वाले को बड़ी गाड़ी होने के नाते गरिया रहा। ऑटो वाला स्कूटर वाले पर गलत तरीके से चलाने की तोहमत लगा रहा था। दोनों ही अपनी-अपनी जगह सही थे लेकिन दूसरे की बात मान नहीं पा रहे थे क्योंकि दोनों के पास देने के लिये गालियां और निकालने के फ़ेफ़ड़े में हवा बाकी थी।
स्कूटर और ऑटो अपने मालिकों की गाली गलौज से निर्लिप्त धूप सेकने में व्यस्त थे। स्कूटर लेटे-लेटे और ऑटो खड़े-खड़े धूप से विटामिन डी खैंच रहा था। दोनों को कोई जल्दी नहीं थी कहीं जाने की। दोनों ही किसी ’हूटरी संस्थान’ में मुलाजिम भी नहीं थे जो उनको हाजिरी लगवाने की चिन्ता होती।
जनता निर्लिप्त भाव से ऑटो मालिक और स्कूटर सवार की गालियों का लुत्फ़ उठा रही थी। छोटी सवारी और सड़क पर लम्बलेट होने के नाते लोगों की सहज सहानुभूति स्कूटर वाले के साथ थी। लेकिन स्कूटर वाला गालियां ऊंची आवाज में दे रहा था और गरियाते हुये पोजीशन ऑटो के पास लिये हुये था। लोग उसको ऑटो वाला समझकर अपनीे सहानुभूति जिसके साथ नत्थी कर रहे थे वह वास्तव में वाला था। राम के खाते में जमा होने वाली सहानुभूति श्याम के खाते में जमा हो रही थीं। मल्लब सुबह-सबेरे सरे सडक जनता की आंखों में धूप झोंकते हुये सहानुभूति घोटाला हो रहा था।
लब्बो-लुआब यह कि किसी जनता दरबार में किसी भी लफ़ड़े में जनता अपनी सहज सहानुभूति उसके साथ नत्थी कर देती है जो पहले रो दिया, जिसने अपने दर्द की सूचना पहले दे दी। इसीलिये समझदार लोग किसी को पहले पीटकर पहले रोते हुये अपनी शिकायत लगा देते हैं और सहानुभूति की पूरी की पूरी खेप पर कब्जा कर लेते हैं। मामला खुलने पर दूसरे के हिस्से बची-खुची चिल्लर सहानुभूति ही आ पाती है।
कुछ देर में दोनों की गालियां खल्लास हो गयी। जनता भी गालियों में नयापन न देखकर हार्नियाने लगी और दोनों लोग अपनी गाड़ियां उठाकर अपने-अपने रास्तों पर गम्यमान हुये। विदा होते हुये दोनों ने एक-दूसरे को जिस तरह घूरा उससे लगा दोनों अगर गाड़ियों की जगह किसी प्लेट में होते तो शायद एक दूसरे को खा जाते।
हम भी सड़क खाली होते ही खरामा-खरामा चल दिये। यह सोचते हुये कि आजकल हर तरफ़ गुस्सा बहुत तेजी से बढ रहा है। जिसको देखो वह गुस्से के वाई-फ़ाई कनेक्शन से जुड़ा हुआ है। आदमी गुस्सा पहले करता है, बात बाद में करता है।
हमारे एक साहब तो इतना गुस्सा करते थे कि मारे गुस्से के हकलाने लगते। उनके गुस्से का सौंदर्य वर्णन करते हुये हमने लिखा था :
"गुस्से की गर्मी से अकल कपूर की तरह उड़ गयी। जो मोटी अकल जो उड़ न पायी वो नीचे सरक कर घुटनों में छुप गयी। दिमाग से घुटने तक जाते हुये शरीर के हर हिस्से को चेता दिया कि साहब गुस्सा होने वाले हैं। संभल जाओ। सारे अंग अस्तव्यस्त होकर कांपने लगे। कोई बाहर की तरफ़ भागना चाह रहा था कोई अंदर की तरफ़। इसी आपाधापी में उनके सारे अंग कांपने लगे। मुंह से उनके शब्द-गोले छूटने लगे। मुंह से निकलने वाले शब्द एक दूसरे को धकिया कर ऐसे गिर-गिर पड रहे थे जैसे रेलने के जनरल डिब्बे से यात्री उतरते समय कूद-कूद कर यात्रियों पर गिर-गिर पड़ते हैं।
गुस्से में साहब के मुंह से निकलने वाले बड़े-बड़े शब्द आपस में टकरा-टकरा कर चकनाचूर हो रहे हैं। बाहर निकलने तक केवल अक्षर दिखाई देते हैं। लेकिन वे जिस तरह से बाहर टूट-फ़ूट कर बाहर सुनायी देते हैं उससे पता नहीं लगता कि अक्षर बेचारा किस शब्द से बिछुड़कर बाहर अधमरा गिरा है। ‘ह‘ सुनाई देता तो पता नहीं लगता कि ‘हम‘ से टूट के गिरा है ‘हरामी’ से। हिम्मत खानदान का है या हरामखोर घराने का! अक्षरों का डी.एन.ए. टेस्ट भी तो नहीं होता।"
हम आगे कुछ और सोचते तब तक सामने दो मोटर साइकिल वाले आ गये। एक की मोटर साइकिल खराब हो गयी थी। दूसरे के सहारे आगे चलने के लिये वह कोशिश कर रहा था। पहले मफ़लर पकड़कर आगे बढने की कोशिश की। मफ़लर हाथ से छूट गया। फ़िर हाथ पकड़कर आगे बढा। खतरनाक था सड़क सुरक्षा के लिहाज से लेकिन मैंने उनको टोंका नहीं। वे दो थे हम अकेले। टोंकते तो क्या पता दोनों मिलकर हमको ठोंक देते। इसके बाद रोने लगते। जनता भी हमको ही दोषी मानती क्योंकि हमारी सवारी बड़ी थी।
हम हाथ में हाथ पकड़े मोटरसाइकिल वालों के सौंदर्य को निहारते हुये ’साथी हाथ बढाना ’ गाना गुनगुनाते हुये दफ़्तर आ गये। यह सोचते हुये कि दुनिया बावजूद तमाम सहज चिरकुटईयों के वाकई बहुत खूबसूरत है !

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10213090451149391

Thursday, November 23, 2017

हर व्यक्ति अपने में मठाधीश है



कल मंडी हाउस में चाय पी गयी। पहुंचते ही एक सर्वेरत बालक ने पकड़ लिया। किसी कंपनी में काम करता है। कंपनी की तरफ़ से सर्वे का काम मिला है। वही कर रहा है। चार-पांच सवाल थे। दस साल पहले (2007) और आज (2017) के दूध, पेट्रोल , चीनी, गैस के दाम बताये गये थे। एक आम आदमी के अनुसार हमको बताना था कि इन चीजों के दस साल बाद क्या दाम होंगे। हमने अपनी समझ के हिसाब से बताये।
अब हमसे कोई बालक मुफ़्त में कुछ पूछ जाये ये कैसे हो सकता है। हमने भी पूछना शुरु किया बालक के बारे में। पता चला बालक बनारसी है। जौनपुर से ग्रेजुएशन किया है। पिता व्यापार करते हैं बनारस में। बालक भी करना चाहता है। पिता ने कहा - ’पहले अनुभव कर लो कि व्यापार कैसे किया जाता है। क्या परेशानियां होती हैं। इसके बाद करायेंगे व्यापार।’ इसी सिलसिले में अंकुर वर्मा नामराशि बालक दिल्ली में आ गया है। पिछले चार माह से सर्वे कम्पनी में काम करता हुआ व्यापार के लिये खुद को तैयार कर रहा है।
पूछने पर बालक अपने बारे में बताता है। खाना बहुत अच्छा बनाता है। घर से आने के बाद मम्मी को परेशानी हो गयी है कि खाना बनाने वाला बालक दिल्ली चला गया। यहां दोस्तों के साथ साझे में रहता है। खाना साथ बनाता है। कंपनी करीब पंद्रह हजार देती है महीने के। ट्रान्सपोर्ट एलाउन्स मिलाकर। दिन में करीब 25 सर्वे करने होते हैं। दोपहर तक 12-13 कर चुका था।
बातचीत के दौरान खूब बाते हुईं। हमने पूछा - ’दिल्ली में कोई सहेली बनी कि नहीं?’ बालक ने बताया - ’नहीं ।’ हमने पूछा - ’क्यों ? सर्वे कम्पनी में तो कई बालिकायें भी होंगी।’
बालक ने बताया -’ हमको लड़कियों से बात करने में संकोच होता है। इसलिये अभी तक कोई बालिका-सहेली नहीं बनी।’
हमने कहा -’ संकोच कैसा? जैसे हमसे पर्चा भरवाया वैसे किसी बालिका से भरवाओ फ़िर बात करो। संकोच कम होगा।’
’लेकिन पर्चा भरवाने और बात करने में अन्तर है’- बालक ने अपनी समस्या जाहिर करते हुये कहा।
बालक से बतियाते हुये हमने आलोक पुराणिक को फ़ोन किया। फ़ोन करते ही बगल से ही गुजरते हुये आलोक पुराणिक पलटकर मिले। मल्लब फ़ोन न करते तो आगे निकल जाते।
आलोक पुराणिक ने भी अंकुर का सर्वे पर्चा भरा। बालक को बालिकाओं से बतियाने के टिप्स दिये। बालक दूसरे सर्वे करने चला गया। हम लोग मंडी हाउस टहलने लगे। थोड़ी देर बाद ही वहां कमलेश पाण्डेय आ गये। फ़िर दो घंटे गप्पाष्टक हुआ। चाय-साय पी गयी। मजे-मजे में बतियाते हुये व्यंग्य और व्यंग्यकारों पर बात-चीत हुई।
एक बात मठाधीशी पर भी हुई। आलोक पुराणिक ने हमको नवोदित मठाधीश बताते हुये फ़ोटो वायरल कर दी। हमने मना नहीं किया। कर दो।
मठाधीशी पर बात करते हुये एक मजेदार बात निकलकर सामने आयी कि हर तीसरे दिन कोई न कोई व्यंग्यकार मठाधीशी की खिल्ली उड़ाते हुये कोई पोस्ट लिखता है। ऐसी पोस्ट्स को लगभग सभी लोग पसंद करते हैं और मठाधीश/मठाधीशी की निन्दा करते हैं। तो सवाल यह उठता है कि जब सब लोग मठाधीशी के खिलाफ़ हैं, मठाधीश की निन्दा करते हैं तो यह ससुरा मठाधीश है कौन? क्या मठाधीश एलियन है?
इस पर आलोक पुराणिक ने अपना नजरिया पेश करते हुये करता हुआ कि जहां एक से अधिक व्यक्ति जुट जाते हैं वहीं मठ बन जाता है और उनमें से हर व्यक्ति कोें मठाधीश कहा जा सकता है। अपनी बात की पुष्टि करते हुये उन्होंने बताया - ’जैसे हम तीन लोग यहां चबूतरे पर चाय पीते हुये बैठे हैं तो यह अपने आप में एक मठ है।’
इस लिहाज से देखा जाये तो हर व्यक्ति अपने में मठाधीश है और अपने हिसाब से अपनी विधा की रेढ मार रहा है। इसका विस्तार किया जाये तो कहा जा सकता है कि जब भी मठाधीशी के खिलाफ़ कोई कुछ लिखता है तो वस्तुत: वह अपने खिलाफ़ लिखता है।
इस बीच कई लोगों ने हम फ़ुटपाथिया लोगों से मंडी हाउस, एनएसडी आदि के पते पूछे। हमने तुरन्त बता दिया। कुछ छिपाया नहीं। हम छिपाने में नहीं, बताने में यकीन रखते हैं।
और बहुत सी बातें हुईं। लेकिन वह फ़िर कभी। अभी तो दफ़्तर निकलना है अपन को। इसलिये फ़िलहाल इतना ही। बुराई-भलाई के बारे में जानना हो तो अलग से संपर्क किया जाये।

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10213055894805504