Monday, July 31, 2017

लाला भइया की फेमस चाय


कल टहलते हुये तमाम लोगों से मेल-मुलाकात हुई। गये थे ’सैंट्रो सुन्दरी’ की सर्विंग कराने। गाड़ी को सर्विस के लिये छोड़कर पैदल , ऑटो , बस से टहलते हुये आये।
फ़जलगंज से ’ई रिक्शा’ में बैठकर आये नरेन्द्र मोहन सेतु तक। वहां उतारकर रिक्शावाला चला गया। हम आगे चल दिये। कुछ देर बाद फ़िर पीछे से आया और हमको जबरियन टाइप बैठाकर पचास कदम और आगे छोड़ दिया। मुफ़्त में।
रीजेन्सी में एक साथी को देखने गये। बिजली मिस्त्री का काम करते हैं। ओईएफ़ में। पिछले हफ़्ते खम्भे की बिजली ठीक कर रहे थे। ’ऊंचे वाले प्लेटफ़ार्म’ गाड़ी पर। अचानक ढाल पर खड़ी गाड़ी पीछे चल दी। खम्भों से टकराती हुई गाड़ी पीछे चल दी। एक गड्डे में घुस गयी। जान बचाने के लिये ऊंचाई से कूद गये सत्यवान। दोनो पैर, दोनो हाथ और जबड़ा टूट गये। जान बच गई का सुकून लिये रीजेन्सी में इलाज करा रहे हैं।
जरा सी असावधानी जिन्दगी के लिये कितनी भारी पड़ जाती है इसका एहसास फ़िर से हुआ कल।
रीजेन्सी के बाहर ही ’लाला भइया की फ़ेमस चाय’ की दुकान’ बैनर फ़ड़फ़ड़ा रहा था। बैनर चाय का लेकिन बिक चाय के अलावा और तमाम कुछ रहा था। हम भी फ़ेमस चाय का जायका लेने के लिये रुक गये। चाय बनने की जगह दुकान ’लाला टी स्टॉल’ हो गयी थी। भइया गोल हो गये। चुनाव घोषणा पत्र और उसके अमली जामें में अन्तर टाइप।
बड़े भगौने में चाय ’चुर’ रही थी। भइया जी सफ़ेद दाढी में तल्लीनता से चाय बनाये जा रहे थे। बनने के बाद सबको बांटी। कुछ लोग ले जाने के लिये भी आये थे चाय। चार चाय का एक नपना भी था। उसमें पॉलीथीन को घुसाकर चाय डालते और फ़िर लपेटकर दे देते। नपाई और सफ़ाई की व्यवस्था एक साथ। फ़िर भी काउंटर पर काम भर की गंदगी थी। एल्युमिनियम का प्लेटफ़ार्म काला पड़ गया था। लेकिन कहे कौन ? कहते तो क्या पता अगल-बगल की दुकानों की गंदगी दिखाते हुये कहते उनसे तो साफ़ है। राजनीतिक दल ऐसा ही तो करते हैं। किसी की कोई गड़बड़ी की बात करो तो दूसरे दल की बड़ी गड़बड़ी का हवाला देते हुये अपनी गड़बड़ी को दुरुस्त बताता है।
एक चाय के दाम छह रुपये। हमने कुल्हड़ में ली। चाय बढिया लगी। तारीफ़ की तब थोड़ा खुश हुये भइया जी। छह रुपये लिये। हम आगे बढे!
https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10212193538407133

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