Thursday, May 31, 2018

सावधान कार्य प्रगति पर है

गन्ने का रस पीने का नबाबी अंदाज। निरीह जनता की तरह खड़ा घोड़ा

सुबह निकले। निकलते ही खुदी सड़क दिखी। आदमी की गहराई के बराबर खुदी सड़क के मलवे के सीने पर बोर्ड लगा था-“ सावधान, कार्य प्रगति पर है।“

मलवे और प्रगति का ऐसा रिश्ता है कि जहां मलवा दिखता है , लगता है जरूर प्रगति हुई हैं यहां। जहां प्रगति वहां मलवा। बोले तो - मलवा प्रगति का बाप है।

'सावधान' लाल रंग से लिखा था। लाल रंग मने खतरे का निशान। इशारे से बता दिया कि प्रगति हो रही है। काम की। संभल जाओ। सावधान कर दिया। फ़िर न कहना कि बताया नहीं। चेताया नहीं। प्रगति खतरनाक है। इसीलिये दुनिया के तमाम प्रगतिशील देश दशकों से प्रगतिशील बने हुए हैं। विकसित नहीं बने हैं। कौन बवाल मोल ले प्रगति का। जहां हैं वहीं बने रहो। प्रगति के लालच में सवा सौ करोड़ देशवाशियों को खतरे में झोंक दें ऐसे बेवकूफ़ नहीं हैं अपन। तमाम विकास वाले काम इसीलिये अटके रह जाते हैं काहे से उनकी प्रगति में खतरा है। जान है तो जहान है।

आगे एक कुत्ता होटल से फ़ेंकी गयी एक रोटी को पंजे में दबाये खा रहा था। कुत्ता अकेला था। रोटी किसी और से बंटने का खतरा नहीं था। फ़िर भी रोटी पंजे के नीचे दबाये था। खाते समय भी पंजा रोटी पर। जैसे माल काटता नेता अपनी निगाह वोट बैंक पर बनाये रखे। टुकड़ा-टुकड़ा करके कुतर रहा था कुत्ता रोटी। कुत्ते का मुंह देश के संसाधन कुतरते कारपोरेट सरीखा लग रहा था। उसके पंजे जनप्रतिनिधियों जैसे। दोनों मिलकर जनता के हिस्से की रोटी कुतरते जा रहे हैं।

नुक्कड़ पर एक आदमी कुर्सी पर बैठा दाढी बनवा रहा था। नाई ऊंघते हुये अनमने ढंग से दाढी पर ब्रश के साबुन फ़ेर रहा था। आईना बुजुर्ग टाइप हो गया था। मोतिया बिंद हो गया हो मानो। धुंधलाया आईना देखकर मुझे वासिफ़ साहब का शेर याद आ गया:
साफ़ आईने में चेहरे भी नजर आते हैं साफ़,
धुंधला चेहरा हो तो आईना भी धुंधला चाहिये।

आगे एक आदमी नबाबी अंदाज में खड़खड़े पर बैठा गन्ने का रस पी रहा था। खड़खड़े की रेलिंग पर बैठने का अंदाज ऐसे जैसे जनता को दर्शन दे रहे हों राजा साहब। घोड़ा चुपचाप अपने निरीह जनता की तरह नबाब साहब को लादे कोड़े के इंतजार में खड़ा था। जैसे ही फ़टकारा जायेगा, वह आगे चल देगा।

सड़क किनारे खड़ी एक महिला आते-जाते लोगों का ’नजर मुआइना’ करती अपने बच्चों को जगा रही थी। उसका टुपट्टा उसके जूड़े में अटका सा था। जूड़ा-टुपट्टा देखकर मिसिर जी के एक गीत की पंक्ति याद आ गयी जिसमें चूल्हे से निकले धुंये के आंगन के पेड़ में अटके रहने का बिंब था। महिला के उचके हुये जूड़े से टुपट्टा पूरी मोहब्बत से लिपटा हुआ था। उसके सर इधर-उधर झटकने के बावजूद जमा हुआ था जूड़े से। शायद गाना भी गा रहा हो:

ये दोस्ती हम नहीं छोड़ेगे
तोड़ेंगे दम मगर, तेरा साथ न छोड़ेंगे।

सड़क पर एक आदमी बड़ी मोमिया बिछाये काटने के पहले उसका मुआयना कर रहा था। मोमिया पर टाटा डोकेमो का विज्ञापन छपा था। 3 जी का। 4 जी के आने के बाद 3 जी बेकार हो गया है। इसलिये कट-पिटकर बिकने के लिये आ गया था सड़क पर। मंहगी चीजें अप्रासंगिक होने पर कौड़ी की तीन हो जाती हैं। बाजार का यही मूल सिद्धांत है।
चित्र में ये शामिल हो सकता है: 1 व्यक्ति
जान हलकान किये हैं मुला इनकी गाली शबाब हैं
आगे ’रिक्शे अड्डे’ पर राधिका जी अपने 'तख्ते-ताउस' पर पूरी ठसक के साथ बैठी थीं। बाकी के लोग काम से लगे थे। पहुंचते ही ’राधिका-प्रताड़ित’ कामगारों ने अपने दुखड़े रोने शुरु कर दिये। अलग-अलग लोगों के अलग-अलग दर्द थे:
-सोने नहीं देतीं। रात बारह बजे रिक्शा चला के आओ। जरा देर लेटो। जगा देती हैं- ’बीड़ी पिलाओ। पानी लाओ।’
-तीन बजे से उठके बैठ जाती हैं। हल्ला मचाते हुये सबको जगा देती हैं।
-जाती हैं। इधर-उधर से मांग लाती हैं। लोग दे देते हैं। ठसक से पैसा देकर कहती हैं-’हमरे खातिर खाना मंगाओ।’
-खाने की बड़ी शौकीन हैं। बिना मछली रोटी नहीं खातीं।
-अरे रात जगा के बोली- ’हमार पांव छुऔ। गोड़ दबाओ।’
-जाती ही नहीं हैं। कहती हैं -’हम हियैं रहब। आदमी होय कौनौ तो मार-पीट के भगा दीन जाय। इनका कैसे भगावा जाये। जान आफ़त किहे हैं।’
एक बुजुर्ग अपना दर्द बड़ी शिद्धत से सुना रहे हैं। मुंह में दांतों की सरकार गिर गयी है। मसूढों का राष्ट्रपति शासन चल रहा है। मुंह की निकली आवाज बाहर अनुमान लगाने वाली हवा में बदल जा रही है। वे दुखड़ा रोते हुये कहते हैं- ’इनकी गालियां शबाब हैं। सुनते हैं बरक्कत होती है। कल हल्ला-गुल्ला के बाद गये रिक्शा चलाने- साठ रुपया घंटा भर में आ गये।’
राधा मजे से बीड़ी का सुट्टा मारते हुये इस बतकही के मजे ले रहे हैं। कहीं बतकही कमजोर लगती दिखी तो कोई जुमला फ़ेंककर किसी की ऐसी तैसी करके गर्मा रही हैं।
इसी समाज में लोग हैं जो अपनी गाड़ी छूने वाले को गोली मार देते हैं। उसी समाज का एक सच यह भी है जिसमें एक अनजान महिला के आ जाने से हलकान लोग उसी की गालियां शबाब की तरह माने लोग। दुनिया के तमाम इन्द्रधनुषी रंगों में यह भी एक रंग है।
गंगा किनारे झोपड़ी में जैनब की बच्ची बाहर बैठी चुटिया कर रही थी। छोटे शीशे को अपनी चप्पल के स्टैंड पर टिकाये। बहुत तसल्ली से अपने बालों की एक-एक चोटी संवारती हुई। पंत जी के ’प्रकृति यहां एकान्त बैठ, निज रूप संवारति’ की तरह चोटी करती हुई बच्ची। गंगा के हाल ’तापस बाला, गंगा निर्मल’ सरीखे हो रहे थे।
हमने बच्ची से बात की। पता चला उसकी अम्मी जैनब अभी घर में हैं। बहन खाना बना रही थी। संदीप सो रहा था। घर में टेलिविजन है। पिक्चर देखती है बालिका। छतरी लगी है। नये गाने पसंद हैं बच्ची को। कौन सा सबसे ज्यादा पसंद है पूछने पर एक कोई बताया। ’छलिया से छलिया’ शायद बोल थे। हमको याद नहीं अभी। असल में इधर अपन नयी हीरोइनों के टच में नहीं है। इसलिये नये गाने भी याद नहीं रहते।
लौटते हुये बीच सड़क पर दो रिक्शेवाले अगल-बगल खड़े होकर गपियाते दिखे। एक की बीड़ी से दूसरे ने अपनी सुलगाई। जब तक फ़ोटो खैंचे तब तक वे आगे चल दिये। दो रिक्शों का जोड़ा बिछुड़ गयो रे टाइप फ़ीलिंग देकर अपने को।
एक बच्ची अपने से डेढ गुना ऊंची साइकिल चलाती आती दिखी। पैडल तक पैर पहुंच नहीं रहे थे। उचक-उचककर चलाते हुये साइकिल डगर-मगर कर रही थी। इधर-उधर बहक रही थी। लेकिन बच्ची बड़ी सावधानी से साइकिल का संतुलन बनाये हुये थी। चेहरे पर सावधान वाला आत्मविश्वास पसरा हुआ था। उस पर पसरी हुई सूरज की किरणें उसको और चमका रहीं थीं। खुशनुमा और खूबसूरत बना रहीं थीं।



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