सुबह शुक्लागंज की तरफ निकले। अधबने पुल के पास आगे जाते आदमी की पिछली जेब दिखी। जेब का मुंह खुला था। अंदर से रुमाल टाइप कपड़ा झांक रहा था। जेब की खिड़की से उचककर दुनिया देखने की कोशिश करते हुए। जब तक रुमाल की शक्ल ठीक से देखते, आदमी फुर्ती से आगे निकल गया।
दुनिया में तमाम राग-ताग , ऐसे ही होते हैं। जब तक वह होकर आंखों के आगे से निकल जाते हैं। अनगिनत घपले घोटाले भी ऐसे होते हैं जिनकी हवा लगने के पहले वो घट चुके होते हैं। दुनिया भी तो ऐसी ही है। जब तक पता चला होगा किसी को 'बिग बैंग' तब तक दुनिया, दुनिया भर में पसर चुकी होगी।
सामने से दस बारह लोग आते दिखे। जुलूस की शक्ल में। पता चला कामगार हैं। मजूरी के लिए खड़े होने बाजार जा रहे हैं। हमने अपने को फौरन वहीं खड़े होकर भाग्यवान समझा कि हमको इनकी तरह रोज-रोज अनिश्चितता के माहौल में नहीं जीना होता। पुख्ता मजूरी का इंतजाम है।
पीछे एक राजगीर अकेला चला जा रहा था। कन्नी-वसूली झोले में। झोला कंधे में रखी अलुमिनियम की पटरी पर जो फर्श को समतल करने के काम आती है। कुछ अनमना सा दिखा। शायद अकेले होने के चलते या मजदूरी की अनिश्चितता के कारण। अनमना और उदासी से अंसार कम्बरी की गीत पंक्ति याद आ गयी:
फिर उदासी तुम्हें घेर बैठी न हो,
शाम से ही रहा मैं बहुत अनमना।
शाम से ही रहा मैं बहुत अनमना।
इस गीत की आखिरी पंक्तियां हैं:
पंक्तियां कुछ लिखी पत्र के रूप में
क्या पता क्या लिखा उसके प्रारूप में
चाहता तो ये था सिर्फ इतना लिखूँ
मैं तुम्हें बांच लूं तुम मुझे बांचना।
क्या पता क्या लिखा उसके प्रारूप में
चाहता तो ये था सिर्फ इतना लिखूँ
मैं तुम्हें बांच लूं तुम मुझे बांचना।
एक आदमी अपने मकान से टिकी सीढ़ी पर सड़क से पांच फुट ऊपर बैठा मोबाइल में मुंडी घुसाए था। शायद सिग्नल ऊपर पकड़ रहा हो। नीचे आता न हो।
आगे कामगार चूल्हे में खाना बना रहे थे। आदमी भगौने में न्युटी नगेट चाकू से हिलाते हुए उसमें मसाला मिला रहा था। कोई सामान कम पड़ा तो दो हाथ दूर की दुकान पर आर्डर देकर ले लिया। चूल्हे के इतनी पास दुकान। मांगते ही माल हाजिर। कौन मॉल इतनी जल्दी मांग पर आपूर्ति कर सकेगा।
चार चूल्हे में दो जल रहे थे। दो बन्द थे। आग तेज करते हुए रिक्शे वाला बोला -'होटल के खाने में मजा नहीं आता।'
राधा के अड्डे पर आज शान्ति थी। राधा कान में तेल। डाल रही थीं। बुजुर्ग दूर बैठे बीड़ी पी रहे थे। सुरेश रिक्शे की रिपेयरिंग कर रहे थे। राधा ने देखकर 'राधे-राधे' कहा और फिर काम की रिपेयरिंग में लग गईं।
सामने से जुनैब एक पांव में चप्पल पहने चली आ रही थी। उसकी दूसरी चप्पल पड़ोस का कुत्ता उठा ले जाता है। गनीमत बताई की आज एक ही ले गया। वरना दोनो ले जाता है। पड़ोसिन के घर से चप्पल पहन वो काम पर चली गयी।
नीचे गंगा किनारे एक आदमी रिन साबुन से अपनी चड्ढी बनियाइन धो रहा था। इसके बाद गंगा में उतर कर नहाने लगा।एक दूसरे बाबा जी पीतल की बाल्टी लिए आगे बीच गंगा में नहाने लगे। सूरज भाई भी वहीं बादलों की ओट से निकलकर नदी में डुबकी लगाने लगे।
पुल पर सवारियां आती जाती दिख रही हैं। आते-जाते लोग पुल पार कर रहे थे। उनको पता नहीं होगा नरेश सक्सेना जी क्या कहते हैं इस पर:
पुल पार करने से पुल पार होता है,
पुल पार करने से नदी नहीं पार होती।
पुल पार करने से नदी नहीं पार होती।
नरेश सक्सेना जी ने जब यह कविता लिखी होगी तब नदी में पानी बहुत होता होगा। पार करना मुश्किल होता होगा । अब तो नदी लोग टहलते हुए पार कर लेते हैं। नाव नहीं, जीप चलती है नदी में।
वहीं राजा मिले। उनके बारे में अलग से। सेल्फी देख लो तब तक उनके साथ। बताओ कैसी है हम आते हैं लौटकर आगे का किस्सा बताने।
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