राधा बीड़ी का सुट्टा सुलगाते हुए |
सबेरे टहलने निकले। नुक्कड़ पर पंक्चर वाला अपनी दुकान सजा रहा था। किसी प्रदेश में पंचर शिक्षा स्कूलों के पाठ्यक्रम में लग गई। क्या पता ऐसे ही सड़क किनारे पंक्चर बनाने वालों में कोई 'पंचर प्रोफेसर' बने। बनाने वाले तो पता नहीं कब नियुक्त हों, अभी तो सब पंचर करने में ही लगे हैं।
कोने की गन्ने की रस की दुकान चालू हो गयी थी। बच्चा उचक-उचककर , सरकती नेकर को संभालते हुए दुकान सजा रहा था। स्कूल शायद बन्द हो चुके थे उसके। 'गर्मी की छुट्टी' वाले निबंध अगर उसको लिखने को कहा जाए तो यही लिखे शायद वह -'रोज सुबह सूरज निकलने के पहले दुकान सजा लेता था मैं। सूरज इस बात से बहुत चिढ़ता था और बहुत गरम हो जाता था। दिन भर सुलगता रहता। लेकिन मैं उसकी चिंता कभी नहीं करता था, उठते ही भागकर दुकान सजा लेता।'
वहीं साईकल, स्टूल, मेज किसी अवसरवादी गठबंधन सरीखे 'सड़क रिजोर्ट' में इकट्ठा थे। सरकार बनाने वाले विधायक लोग भी इसी तरह रिजॉर्ट में जमा होते होंगे। हो सकता है ऐश थोड़ी ज्यादा हो। लेकिन हालत इससे ज्यादा जुदा नहीं होते होंगे। विनोद श्रीवास्तव की कविता है न:
जैसे तुम सोच रहे साथी, वैसे आजाद नहीं हैं हम
पिंजरे जैसी इस दुनिया में, पक्षी जैसा ही रहना है
भरपेट मिले दानापानी , लेकिन मन ही मन दहना है।
पिंजरे जैसी इस दुनिया में, पक्षी जैसा ही रहना है
भरपेट मिले दानापानी , लेकिन मन ही मन दहना है।
विधायक लोग तसल्ली से खाते-पीते हुए मन ही मन दहते हुए सोचते होंगे -'न जाने मंत्री पद मिलेगा कि नहीं।'
आगे ऐसे ही कुर्सी, ठेलिया और आइसबाक्स कि जुगलबन्दी दिखी। कुर्सी देखकर लगा कि बस आते ही कोई कब्जा करके बैठने ही वाला है।
भड़भूँजे वालों की दुकानें भी सजने लगीं थीं। एक औरत सूप से दाना फटकती हुई छिलकों को बाहर करते हुए भुने चने बेचने के लिए तैयार कर रही थी।उसकी बिटिया बगल में ऊंघती हुई। सड़क को निहार रही थी।
खाने बनाने के लिए आटा माढ़ते हुए कामगार |
आगे सुरेश चंद्र के रिक्शे के ठिकाने पर कई लोग जमा थे। एक रिक्शेवाला थाली में पहलवानी वाले अंदाज में आटा गूंथ रहा था । गीले आटे को दबाते, उलटते, पलटते हुए उसको रोटी के लिए तैयार कर रहा था। आटे को फुल मोहब्बत के साथ रोटी के लिए तैयार करता आदमी बहुत प्यारा लगा। हमने उससे पूछा -'कभी घर में भी ऐसे आटा गूंथते हो?'
वह हंसकर और तल्लीनता से आटा माड़ने लगा। और प्यारा सा हो गया।
उसका साथी चूल्हे में लकड़ी सुलगाये दाल बना रहा था।
वहीं पीछे एक महिला बैठी धड़ल्ले से बीड़ी सुलगा रही थी। उससे बतियाते हुए पूछा कितनी बीड़ी सुलगा चुकी सुबह से?
बोली -'चार बंडल।नौ चिलम भी पी सुलगा चुके।'
उत्सुकता हुई तो और बतियाये। पता चला कि राधिका नाम है उनका। लोग राधा कहते हैं। पटना घर है। पांच बच्चे हैं। सब समर्थ। पति 'शान्त' हो चुके है। कुछ सालों में कई तीर्थ कर चुकी हैं। फिलहाल कानपुर में डेरा है। यहीं के लोग खाना-पीना, बीड़ी-चरस का इंतज़ाम कर देते हैं।
जब तक चूल्हे में जलती रहेगी आग, जिंदगी का मधुर बजता रहेगा राग। |
सुरेश जो रिक्शे के ठेकेदार हैं ने बताया कि महीने भर से यहां टिकी हैं। कहती हैं यहीं रहेंगे। सब लोगों के साथ खाती-पीती हैं। नशा-पत्ती भी। कोई दारू भी पिला देता है।
कोई अनजान औरत अपने घर से दूर लोगों में घुलमिल जाए। लोग उसके खाने-पीने की व्यवस्था कर दे। यह अपने में रोचक है। कामगारों का समाजवाद है यह। अनजान लोगों के साथ इतनी सहजता से रिश्ते बनने की बात पर प्रमोद तिवारी की कविता याद आई:
राहों में भी रिश्ते बन जाते हैं,
ये रिश्ते भी मंजिल तक जाते हैं।
ये रिश्ते भी मंजिल तक जाते हैं।
बातचीत हुई तो राधा ने कई गाने अपनी आवाज में सुनाए। एक के बाद दूसरे गाने। मानो कोई कवि किसी श्रोता के मिल जाने पर अपने सारे कलाम जबरियन सुना डाले। गाने उनकी आवाज में आवाज जैसे ही मुड़-तुड़ गए। बोल इधर-उधर। कुछ के वीडियो भी बनाये।
'तुम तो ठहरे परदेशी, साथ क्या निभाओगे' सबसे ज्यादा दोहराया। 'जादुगर सैयां, छोड़ो मेरी बैंया,,अब घर जाने दो' भी सुनाया।'
चलते हुए तख्त से उतरकर हमारे सर पर हाथ फेरते हुए गाल भी सहला दिए।
वहां से आगे हम गंगा किनारे तक आये। नीचे उतरकर गंगा के पानी को छूने का मन था। नीचे उतरने के पहले किनारे की झोपड़ी में एक महिला अपनी तीन बच्चियों और एक बच्चे के साथ दिखी तो उससे बतियाने लगे।
जुनैब अपनी बेटी शबनम और बालक संदीप के साथ बगल में सिक्का बटोरने वाले चुम्बक के साथ |
महिला का नाम जैनब है। देवरिया मायका। ससुराल गोरखपुर। आदमी ऊपर दुकान करता है। सब पैसा दारू में उड़ा देता है। तीन बेटियां हैं। बच्चियों को पालने के लिए जैनब घास छीलने का काम करती है। बच्चियां पांच-सात तक पढ़ने के बाद घर बैठ गईं। बोली -'मन नहीं लगता पढ़ाई में।'
झोपड़ी में बिजली है। बच्ची के हाथ मे रिमोट भी दिखा टीवी का। मीटर लगा है । बिल अभी आना शुरू नहीं हुआ। घास छीलने वाली महिला के घर टीवी, बिजली है। लेकिन गरीबी भी है। गरीबी आजकल बहुरंगी हो गयी है।
जैनब रोजा नही रखती। बोली -'दिन भर धूप में हालत खराब हो जाते हैं।'
पास में बैठे बच्चे संदीप के बारे में जानकारी देते हुए बताया -'इसके मां-बाप रहे नहीं। भाई एक मसाला बेंचता था। जेल में बंद हो गया किसी केस में। दूसरा भाई शुक्लागंज में रहता है। यह यहीं आ आ जाता है। जब भूख लगती है। यहीं खाता है।'
बच्चे संदीप के हाथ में गोल चुम्बक हैं। उनसे गंगा में फेंकने वाले पैसे बटोरता है। भूख लगती है तो जैनब के घर भगा चला आता है।
संदीप के बारे में बताते हुए जैनब बोली-'बहुत कहते हैं स्कूल जाया करो। जाता नहीं। बस पैसे बिनता रहता है। बस भूख लगने पर ही आता है। हम भी खिलाते है। जब तक बड़ा होगा, खायेगा। फिर अपना खुद देखेगा।'
हिन्दू-मुसलमान पर तमाम बहसें होती हैं हर जगह। वो सब बहसें जैनब-संदीप की सहज ममता, मानवता के मूर्तमान रिश्ते को देखकर और चिरकुट, लगीं। यह भी लगा कि हमारे आसपास अनगिनत उदात्त मानवीय रिश्ते बिखरे होते हैं। हम उन सबको चिरकुट लोगों के भुलावे में आकर अनदेखी करते हुये दुखी होते रहते हैं।
जैनब अपनी एक बेटी के साथ झोले में खुरपिया रखकर चली गयी। हम भी वापस लौट लिए। हमे भी अपनी तरह की घास छीलनी थी।
फोटुओं में राधा के गीत के वीडियो भी हैं। सुनियेगा।
https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10214463586436915
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