किताबें पढ़ते हुए अक्सर हम बहुत कुछ सीखते हैं। ‘कई चाँद थे सरे –आसमां’ इस मामले में अनूठी किताब है। जबरदस्त किस्सागोई वाली इस किताब में उर्दू के कुछ शब्द हैं जिनके मतलब पता न होने के चलते थोड़ा अटक भले हुयी लेकिन इसी बहाने तमाम नए शब्दों के बारे में पता चला। ऐसा ही एक शब्द पता चला – नस्साब।
नस्साब के बारे में जानने के लिए उपन्यास का यह मौजू होगा:
“मैं पेशे से आंखों का डाक्टर हूं। शेरो-शायरी का कुछ शौक मैं भी रखता हूं, लेकिन अगर मैं पुराने जमाने में होता तो मुझे नस्साब कहा जाता, इस मानी में कि मुझे खानदानों के हालात मालूम करने, उनके शिजरे बनाने और दूर-दूर के घरानों की कड़िया से कड़ियां मिलाने का शौक है और अब हालांकि मेरी उम्र बहुत ज्यादा नहीं है, मैंने डाक्टरी का पेक्षा छोड़ दिया है , मेरा ज्यादातर वक्त शिजरे बनाने और बनाए हुए शिजरों को और भी व्यापक और पेचीदा बनाने में गुजारता है।“
रोचक शब्द पता चला - नस्साब।
यह इस मामले में भी रोचक है कि आज देश में ऐसे लोगों की संख्या बढ़ रही है जो अपना मूल पेशा छोड़कर नस्साब का काम अंजाम दे रहे हैं। खानदानों के मनचाहे शिजरे बना रहे हैं और उनको व्यापक और पेचीदा बना रहे हैं। खानदानों के शिजरे बनाने के साथ लोग तमाम इमारतों के नस्साब भी बन रहे हैं।
एक और शब्द पहली बार पढ़ा –म्यूज। म्यूज के बारे में बताते हुए लिखते हैं फारुकी साहब :
“अच्छे मकान यहाँ आम रास्तों पर लबे-सड़क होते हैं। ऐसे मकानों के पीछे एक तंग गली होती है ,जिनमें इन मकानों के गैराज (पहले समय में कैरिज हाउस) बने होते हैं। इन्हें म्यूज कहा जाता है। बाद में कुछ लोगों ने गाड़ीखाने को शागिर्दपेशा बना लिया तो जिन घरों में शागिर्दपेशा का इंतजाम घर के अंदर ही था, उन्होंने अपने म्यूज को गैराज बना लिया और कुछ ने उन्हें अपेक्षाकृत सस्ते किराये पर नौजवानों के लिए एक कमरे का फ्लैट बना दिया। सेंट्रल लंदन के इलाके में ये म्यूज को बेहद लोकप्रिय और रिहाइश का दर्जा रखते थे।“
लंदन में न्यूज की तर्ज पर दिल्ली में घरों की छत पर बने छोटे कमरों में तमाम लोग किराये पर रहते हैं। इनको ‘बरसाती’ के नाम से जाना जाता है। तमाम लोग इन बरसातियों में जिंदगी का बड़ा हिस्सा गुजारते हैं।
इसके अलावा दाईपिलाई( बच्चे को दूध पिलाने वाली) , दाईखिलाई( बच्चे को खान खिलाने वाली) भी पढ़ने को मिले।
किताबों को पढ़ते हुए जब हम शब्दों के बारे में जो जानकारी होती है वह शब्दकोश में शब्दों के बारे में मिली जानकारी से अलग तरह की होती है।
ऐसे ही याद हावर्ड फ्रास्ट के मशहूर उपन्यास के अमृत राय द्वारा किए हिन्दी अनुवाद आदि विद्रोही को पढ़ते हुए ग्लेडीएटर शब्द से परिचय हुआ। रोमन साम्राज्य में गुलामों की प्रथा थी। ग्लेडीएटर उन गुलामों को कहते थे जिनको रोमन लोग अपने मनोरंजन के लिए अखाड़े में तब तक लड़ाते थे जबतक उनमें से एक की मौत नहीं हो जाती थी। ग्लेडीएटर को मरते-तड़पते देखकर रोमन अपना मनोरंजन करते थे।
ग्लेडीएटर शब्द की शुरुआत भले ही रोमन समय में हुई लेकिन लगता है समय के साथ इसका पूरी दुनिया में विस्तार ही हुआ है। सम्पन्न, समृद्ध, ताकतवर लोग जिनके हाथ में सत्ता है बाकी जनता को ग्लेडीएटर की तरह अपने बनाए अखाड़े में तब तक लड़ाते रहते हैं जब तक उनमें से एक की मौत नहीं हो जाती है। लोग भी सब कुछ जानते समझते हुए आपस में मारकाट में लगे हुए हैं।
आदि विद्रोही अपने आप में अनूठा उपन्यास है। इसको फिर से पढ़कर इसके बारे में विस्तार से लिखेंगे।
https://www.facebook.com/share/p/2pgJhxYckeNyt2FL/
No comments:
Post a Comment