क़ल दो किताबें और आईं। पहली उमेश पंत की पूर्वोत्तर प्रदेशों की यात्रा पर केंद्रित -'दूर, दुर्गम, दुरूस्त।' दूसरी अनुराधा बेनीवाल की -'लोग जो मुझमें रह गए।' दोनों मूलतः यात्राओं से मिले अनुभवों पर आधारित हैं।
अनुराधा बेनीवाल की -'आजादी मेरा ब्रांड' बहुत चर्चित किताब रही। उसके बाद उनकी दूसरी किताब को पढ़ना भी सुखद अनुभव होगा।
साथ में Mario Vargas Llosa लिखित Aunt Julia and the Scriptwriter भी चल रही है। Prabhat Ranjan जी ने इसे जल्दी खत्म करने को कहा हैं। उनकी बात मानते हुए बिना नागा इसे पढ़ने में लगे हैं। कोशिश करते हैं कि रोज एक चैप्टर बांच ले। अंग्रेजी हालांकि सरल है लेकिन फिर भी कई शब्द पर अटक जाते हैं तो उसका मतलब देखकर पेंसिल से लिख लेते हैं। खासकर आंटी जूलिया से जुड़ी कोई बात पढ़ते समय। एक बुजुर्ग महिला के अपने से छोटी उम्र के लड़के से रोमांस के किस्से पढ़ना अपने में रोचक है।
होमवर्क की तरह पढ़ी जा रही इन किताबों के अलावा अपनी अमेरिका यात्रा पर लिखे संस्मरण भी फाइनल करने का मन बनता है। लगभग तैयार संस्मरण को किताब के रूप में छपवाना बहुत पहले से तय है। नाम भी तय है -'कनपुरिया कोलम्बस'। सब कुछ तय होने के बाद भी किताब फाइनल नहीं हो पा रही। आलस्य और इधर-उधर की अड़चने आड़े आ जाती हैं।
उमेश पंत की किताब पढ़ने के बाद लगा कि इसी अंदाज में रोज के किस्से लिखते हुए फाइनल की जाए किताब। नोट्स नहीं लिए लेकिन अधिकांश तो वहीं के वहीं लिख दिए गए। अब तय किया है कि महीने भर में इसे फाइनल करके छपने के लिए तैयार कर लेंगे। कुछ नहीं तो ई बुक तो बना ही लेंगे।
सुबह का इतना संकल्प कम है क्या ?
कल हमारे कालेज सीनियर Neeraj Sharma जी का फोन आया। हम कभी मिले नहीं लेकिन उनका प्यार हमको हमेशा मिलता रहता है। मेरी पोस्ट पढ़कर हमेशा मेरा उत्साह बढ़ाते रहते हैं। वे इलाहाबाद गए थे। मोतीलालनेहरू राष्ट्रीयप्रोद्योगिकीसंस्थान इलाहाबाद भी गए। एक पीढ़ी भर बाद भी पुरानीं चीजें यादों में वैसी ही रहती हैं जैसी हम कभी छोड़ आये थे।
कल जब कालेज पहुंचे शर्मा सर तो उनको कालेज एकदम बदला हुआ मिला। बदले हुए होने से अधिक यह भाव कि उनका कोई जानना वाला नहीं बचा वहां। बदलाव भले ही कितना सुखद हो लेकिन पुरानी जगह पर कोई परिचित न मिले यह अपने में बड़ा झटका होता है। वहां अचानक उनको रमानाथ अवस्थी जी की कविता याद आई। बोले -'अनूप भाई , हो सके तो वह कविता भेजो।'
कविता मिल गयी। भेज भी दी। आप भी पढिये:
आज इस वक्त आप हैं हम हैं लेकिन
कल कहाँ होंगे कह नहीं सकते
जिंदगी ऐसी नदी है जिसमें
देर तक साथ बह नहीं सकते।
यह कविता 2000 में हुये कवि सम्मेलन में सुनी थी। उस समय टेप भी की थी। बाद में इंटरनेट से जुड़ने के बाद इसको नेट पर पोस्ट किया था -2010 में। कल साझा करने में परेशानी हुई तो कविता चलाकर व्हाट्सअप पर रिकार्ड करके भेजी। अभी भी साझा करने का जुगाड़ खोज रहे हैं।
रमानाथ जी की कुछ और भी कविताएं हैं मेरे पास ऑडियो में। लेकिन उनकी कविता :
सो न सका कल याद तुम्हारी आई सारी रात,
और पास ही बजी कहीं शहनाई सारी रात।
उनकी आवाज में सुनने का मन है। कहीं कोई रिकार्डिंग मिल सकती है क्या ?
याद आया कानपुर में शतदल जी थे। उनके पास अनेक कवि सम्मलेनों, गीतकारों के टेप थे। अब वे रहे नहीं। क्या पता टेप उनके घर वालों के पास हों।
रमानाथ जी जब आये थे तो उनसे तमाम बातें हुई थी। साथ में मामा जी कन्हैया लाल नन्दन जी भी आये थे। दो दिन घर रहे थे। उन दो दिनों में जितनी बातें हुईं थीं उतनी जिंदगी में कुल मिलाकर नहीं हुईं थीं।
इसी बहाने न जाने कितनी यादें ताजा हो गयीं। यादों में डूबना भी बीते समय में यायावरी ही है। बिना टिकट घुमक्कड़ी।
https://www.facebook.com/share/p/Su4YMWv5yNfhZiyz/
No comments:
Post a Comment