सुबह का समय बड़ा कीमती होता है , बड़ा बवालिया भी। दो-तीन घंटे में तमाम काम कर लेने का मन होता है। इस चक्कर में कोई पूरा नहीं होता ।
पहला तो काम होता है हड़बड़ाते हुए टहलने का। वो तो कर लेते हैं, अक्सर। इसके बाद मन करता है कि साइकिलिंग के लिए निकला जाए। जब तक टहलाई पूरी होती है , तब तक लगता है - 'आज देर हो गई , अब कल निकलेंगे ,पक्का !'
इसके बाद आता है नंबर पढ़ाई का। मन करता है कि कोई किताब पूरी पढ़ ली जाए। लेकिन अक्सर मामला आधा-अधूरा ही छूट जाता है।
‘कई चाँद थे सरे –आसमां’ पढ़ने के बाद सोचा था कि कोई और किताब पूरी पढ़ेंगे। इस चक्कर में दो किताबें तय की थीं -एक हावर्ड फ्रास्ट की लिखी और अमृत राय द्वारा अनूदित 'आदि विद्रोही' और दूसरी Jack Kerouac की लिखी On the Road । आदि विद्रोही तो कई बार पढ़ चुके हैं लेकिन लगता है इस बार पढ़ेंगे तो कायदे से। कायदे से मतलब चुनिंदा अंशों पर निशान लगाते हुए। यह किताब अब छपाई में उपलब्ध नहीं है तो यह भी सोचा कि इसको टाइप करके नेट पर भी डाल दें। लेकिन इत्ते पेज टाइप करने का समय मिलना मुश्किल।
On the Road एक बार शुरू की थी लेकिन कुछ पन्ने पढ़ने के बाद रुक गए। अब दुबारा फिर पढ़ेंगे। यह किताब Priyanka Dubey ने सुझाई थी एक बातचीत में। सुझाने की बात चली तो बताएं कि ‘कई चाँद थे सरे –आसमां’ खरीद तो मैंने दो साल पहले ही ली थी लेकिन इसको पढ़ने का मन बना S Nath Bhardwaj शम्भूनाथ जी की एक बातचीत को सुनकर।
समगोत्रीय ,कनपुरिया , युवा और सक्रिय बुजुर्ग का इतना असर तो होता ही है। यह अलग बात कि उनकी सुझाई एक और किताब खान अब्दुल गफ्फार खां की आत्मकथा ' मेरा जीवन मेरा संघर्ष' आधी पढ़ी हुई रुक गई। दूसरी किताबों ने इसको पढ़ना स्थगित करा दिया।
Mario Vagas Liosa लिखित Aunt Juliya and the Scriptwritre भी मनोहर श्याम जोशी की सुझाई Prabhat Ranjan जरिए पता लगी किताब भी एक तिहाई पढ़ने के बाद ठहर गई। जूलिया आंटी के किस्से भी पूरी पढ़ने हैं।
होता अक्सर यह है कि जब कोई किताब पढ़ने बैठो तो तमाम दूसरी किताबें ललचाती हैं। ऐसी में अनगिनत किटाबे अधपढ़ी छूट जाती हैं। कल ही शाम को श्रीलाल शुक्ल जी की 'मकान' देखने लगे तो शुरुआत हुई :
'इस नगर की सड़के जितनी गंदी हैं , नगर-निगम का दफ़तर उतना ही शानदार है।'
इसको पढ़ते हुए युसूफ़ी साहब का लंदन के बारे में पढ़ा हुआ जुमला याद आ गया - 'लंदन में और कोई खराबी नहीं सिवाय इसके कि यह गलत जगह बसा हुआ है। '
इसके बाद इसके सम्मोहन में आ गए। बीस-पच्चीस पेज पढ़ गए। पहले भी पढ़ चुके हैं लेकिन लगता है पहली बार पढ़ रहे हैं। कुछ देर बार ठहर गए। लगता है फिर पढ़ेंगे -तसल्ली से।
अच्छी किताबें पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि यह किताब खत्म हो गई तो फिर क्या करेंगे ! यह बेवकूफी वाला भाव भी कई बार अवरोध पैदा करता है पढ़ाई में ।
इसी चक्कर में तमाम दोस्तों की किताबें भी अधपढ़ी रह जाती हैं।
आपके साथ भी ऐसा होता है क्या ?
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