आज सुबह चाय बना रहे थे। एक चाय बिना दूध की बननी थी। बाक़ी दूध वाली। पानी चढ़ा कर दूध डाल दिया । चीनी डाल दी। तुलसी की पत्ती डाल दी। अदरख घिसते हुए देखा कि दूध वाली चाय में दूध पड़ा ही नहीं है। इधर-उधर देखा। कहीं दिखा नहीं। दूध के कप में दूध के निशान दिख रहे थे लेकिन दूध ग़ायब।
फिर देखा तो पता चला कि दूध बिना दूध वाली चाय में खौल रहा था। दूध वाली चाय बिना दूध के उबल रही थी। उसको ज़रूर ग़ुस्सा आ रहा होगा।
बहरहाल चाय का पानी इधर-उधर करके चाय बनी और पी गयी। सुबह की शुरुआत भुलक्कड़ी से हुई।
कुछ दिन पहले एक और घटना हुई। हम बाज़ार गए थे। कुछ सामान लेना था। कार सड़क पर खड़ी करके सामान लिया। वापस आकर कार खोलने के लिए चाबी लगाने की कोशिश की। चाबी लगी नहीं। दरवाज़ा खुला नहीं। हम बार-बार चाबी घुसाने की कोशिश की लेकिन चाबी घुसी ही नहीं।
हमने सोचा क्या लफड़ा है। इसके आगे कुछ सोचें तब तक अंदर से कार का शीशा बजाने की आवाज़ आई। देखा अंदर कोई बैठा था ड्राइविंग सीट पर। वह हाथ से इशारे करके कुछ कह रहा था। हमें लगा कि कौन घुस गया हमारी कार में। लेकिन फिर उसके इशारे एहसास हुआ कि कुछ लफड़ा है।
लफड़े का एहसास होते ही बग़ल में देखा। पता चला कि हमारी कार आगे खड़ी थी। मतलब हम बेध्यानी में दूसरी कार को खोलने की कोशिश कर रहे थे। वो तो कहो हम कानपुर में थे जहां इस तरह की बातें आम हैं। कार में बैठा इंसान और अपन दोनों मुस्करा कर चल दिए। किसी और शहर में होते तो कार वाला बग़ल के थाने में रिपोर्ट लिखाने के लिए मचल जाता।
ऊपर की दोनों बातें भुलक्कड़ी की हैं, बेध्यानी की हैं। अंग्रेज़ी में इसे अबसेंटमाइंडेडनेस कहते हैं। भुलक्कड़ी के अनगिनत किस्से कहानियाँ हैं। तमाम किस्से चलन में हैं। बड़े-बड़े वैज्ञानिक भुलक्कड़ बताए गए हैं। इससे लगता है भुलक्कड़ मतलब तेज दिमाग़ वाला।
लोग भुलक्कड़ी या बेध्यानी को अक़्ल से भी जोड़कर देखते हैं। जितना बड़ा भुलक्कड़ उतना बड़ा वैज्ञानिक। भाषण देते समय बड़े लोग बोलते-बोलते अटक जाते हैं। लोग इसके लिए उनकी खिल्ली उड़ाते हैं। लेकिन असल में वे लोग वैज्ञानिक चेतना सम्पन्नता की स्थिति में होते होंगे। उनकी खिल्ली उड़ाने की बजाय तारीफ़ करना चाहिए। ख़ुशी मनानी चाहिए कि एक निठल्ले नेता के वैज्ञानिक बनने की राह खुल रही है।
भुलक्कड़ी को अक़्ल से जोड़ने वाली बात अगर सही है तो इसके लिए इंसान को बनाने वाले ईश्वर की ज़िम्मेदारी बनती है। इंसान की असेम्बली करते हुए एक की अक़्ल दूसरे में फ़िट कर दी। एक में थोड़ी कम अक़्ल डाली, दूसरी में ज़्यादा कर दी। पता नहीं यह उसने बेध्यानी में किया या अक़्ल में चूक के चलते लेकिन ज़िम्मेदारी तो उसी की बनती है। उसकी बेध्यानी के चलते न जाने कितने 'डिफ़ेक्टिव इंसानी पीस' धरती पर सप्लाई हो गए। धरती को बरबाद कर रहे हैं।
मज़ेदार बात यह कि ऐसे तमाम लोग कमअक़्ल लोग अपने को अक़्लमंद मानते हुए दुनिया भर में ग़दर काटे हुए हैं। वे शायद इस प्रसिद्ध कथन को जायज़ ठहराने पर लगे रहते हैं -"दुनिया का आधा नुक़सान उन लोगों के चलते होता है जो अपने को ख़ास समझते हैं।"( Half of the harm in the world is done by the people who think that they are imporatant)
चाय बनाने की बात से शुरू हुई बात अक़्ल तक आ पहुँची। ऐसा ही हो रहा है आजकल। विकास की बात करने वाले लोग विनाश का बटन दबा रहे हैं। क्या पता ऐसा वे बेध्यानी में कर रहे हों। भुलक्कड़ी और बेवकूफ़ी किसी की बपौती थोड़ी है।
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