Monday, January 13, 2025

अखबारी खबरों के बहाने



आज सबेरे अख़बार में मोटे अक्षरों में छपने वाली कुछ खबरें ये पढ़ीं :
1. महाकुंभ का आज से आरम्भ
2. कानपुर में कड़ाके की सर्दी जारी
3. भाजपा चुनाव अधिकारी को जूते का बुके दिया, मर्दाबाद के लगे नारे
4. कन्नौज रेलवे स्टेशन हादसे में ठेकदार और इंजीनियर पर मुक़दमा दर्ज
5. अमेरिकी राष्ट्रपति का शपथ समारोह इस बार ख़ास होगा
6. यूपी -बिहार के बजट से भी ज़्यादा लॉस एंजिल्स में आग से नुक़सान
7. बीमारी के लिए छुट्टी लेने वाले कर्मियों की हो रही जासूसी
महाकुंभ इलाहाबाद में शुरू हो रहा है। 144 साल बाद आता है इस तरह का महाकुंभ। उनकी तैयारियों, इंतज़ाम और सम्भावित घपलों की अनेक आती रहती हैं। साधुओं की ट्रेन में मारपीट और एक साधु द्वारा यूट्यूबर को चिमटिया देने के वीडियो वायरल हो रहे हैं। साधुओं को मिलने वाली सुविधाओं को देखते हुए क्या पता आने वाले समय में 'मनरेगा' की तर्ज़ पर 'सधुरेगा' योजना बने। इतने भजन गाने /इबादत करने पर या इतनी बार किसी का नाम लिखकर जमाकरने पर इतना भत्ता मिलेगा। इसके लाभ लेने के लिए क्या पता पढ़े-लिखे बेरोज़गार युवा इसके लिए अप्लाई करें और काम से लगें।
सर्दी के क़िस्सा तो पूरे उत्तर भारत में जारी है। कानपुर में कड़ाके की सर्दी पड़ रही है। क्या पाता सर्दी से निजात पाने के लिए भाजपा चुनाव अधिकारी से अलग तरह का व्यवहार किया गया हो। अलग तरह की पार्टी में अलग तरह का व्यवहार चलता है।
कन्नौज रेलवे स्टेशन में पचास मीटर की स्लैब गिर जाने से पचास से ऊपर मज़दूर घायल हो गए थे। शटरिंग ठीक से न होने से हादसा हुआ बताया गया है। ठेकेदार,इंजीनियर पर मुक़दमा होने के बाद मामला कुछ दिन तक चलने के बाद कहीं बैठ जाएगा। आराम करेगा।
अमेरिकी राष्ट्रपति के शपथ ग्रहण की खबरें लगातार चर्चा में हैं कई दिनों। चर्चाओं में अपने प्रधानमंत्री के न बुलाए जाने की चर्चा, अधिकतर में चटखारे लेकर, हो रही है। चर्चा का टोन ज़ाहिर करता है कि अमेरिका के राष्ट्रपति के शपथ ग्रहण में देश के प्रधानमंत्री को न बुलाना मतलब ट्रम्प की नाराज़गी है। लोग इतने विश्वास से बयानबाज़ी कर रहे हैं मानों वहाँ के निमंत्रण पत्र पर हल्दी-रोली उन्हीं लोगों ने लगायी है। नहीं बुलाया तो न सही। जाड़े में पंद्रह-बीस घंटे उड़कर जाना जी हलकान करने वाला ही काम है। हो सकता है उनके यहाँ चलन ही न हों।
लॉस एंजेल्स में लगी आग अमेरिका के लिए चुनौती तो है ही। उस इलाक़े के तमाम घर जल गए हैं। वहाँ तो बिजली के खंभे भी लकड़ी के होते हैं। सब कुछ लकड़ी का। जल गया। जल रहा है। पता चला कि बीमा कम्पनियों ने लोगों के बीमे में घपला किया। आग लगने के पहले बीमा निरस्त कर दिया। अब मामला अदालतों में जाएगा। निपटेंगे लोग। लेकिन इससे यह तो पता चलता है कि पूँजीवादी समाजों में संस्थाएँ धोखेबाज़ होती हैं। कानूनों की सलवार पहनकर मजमे से फूट लेती हैं। सरकारें भी अपने हिसाब से, कानूनों के छेद से निकालकर, घपलेबाजी क़रके उनको सहायता देती हैं।
अपने कर्मचारियों की जासूसी कराने वाली बात काम से जुड़ी हुई है। खबर जर्मनी की है। वहाँ लोग बीमारी के बहाने छुट्टी लेकर घर बैठ जाते हैं। इससे अर्थव्यवस्था को नुक़सान हो रहा है। इसलिए अपने कर्मचारियों की जासूसी करा रही हैं कम्पनियाँ कि क्या वे सही में बीमार हैं।
इसी सिलसिले में पिछले दिनों L&T के चेयरमैन के चर्चित बयान पर भी खूब हल्ला मचा है। उनका कहना है कि हफ़्ते में 90 घंटे काम करना चाहिए। काम करने वाले हल्ला मचाए हुए हैं, बताओ ऐसा कहीं होता है? तमाम देश तो हफ़्ते में चार दिन काम की बात कर रहे हैं। ये महाराज रोज के क़रीब 13 घंटे खपाने की बात कर रहे हैं। 'घंटे बढ़ाने से परिणाम भी घंटा ही आएगा' जैसे बयान भी आ रहे हैं।
काम के घंटे बढ़ाने से आउटपुट बढ़ने की बात L&T के चेयरमैन कर रहे हैं इससे लगता है उनके हिसाब से उनके यहाँ होने वाले काम में दिमाग़ नहीं लगाना होता होगा। घंटे लगते होंगे। काम में परिणाम लगाए गए घंटों के समानुपाती होगी।
जो लोग L&T के चेयरमैन की बात विरोध कर रहे हैं। उनकी खिल्ली उड़ा रहे हैं। उनके तर्क सही हैं या ग़लत इस पर कुछ न कहते हुए यह कहना चाहता हूँ कि देश के ज़्यादातर निर्णायक पदों पर बैठे लोग काम के घंटों से अपनी ज़िम्मेदारी के निर्वाह को आंकते हैं। जिस देश का प्रधानमंत्री 18 घंटे काम करने को अपनी ज़िम्मेदारी निबाहने का पैमाना मानता हो उस देश के उच्च पद पर बैठे लोगों द्वारा काम के घंटों की महिमा का गुणगान करना स्वाभाविक है।
क्या पता वे मिलने पर बताएँ महामहिम को कि साहब 18 घंटे के हिसाब से हफ़्ते के 126 घंटे होते हैं। मैंने केवल 90 की वकालत की है। आपको कोई चिंता करने की ज़रूरत नहीं। आपकी बराबरी किसी को नहीं करने देंगे। हमको भी कुछ काम-वाम दिलाइए।
काम मिला कि नहीं यह आने वाला समय बताएगा।
हफ़्ते में 90 घंटे काम का विरोध करने वाला तबका वो तबका है जिसके पास इन सब बातों को पढ़ने, महसूस करने, समझने, प्रतिक्रिया करने की समझ, मौक़ा और साधन हैं। देश का बहुत बड़ा तबका ऐसा भी है जो बिना L&T चेयरमैन का आह्वान सुने हफ़्ते के सातों दिन 13 घंटे से ज़्यादा ही खटता रहता है। ये लोग वे लोग हैं जो असंगठित क्षेत्र में काम करते होंगे। उनकों किसी कम्पनी के चेयरमैन की बात सुनने का मौक़ा है न मतलब। वे लगे रहते हैं। काम करते रहते हैं। उनके लिए किसी की कही बात का कोई मतलब नहीं।
ज़िंदा रहने के लिए काम करने वालों के लिए काम के घंटे मायने नहीं रखते। अफ़सोस यह ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है।

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