Thursday, September 15, 2016

स्वराज वृद्धाश्रम

परसों हम फ़िर पूछते-पांछते पहुंचे स्वराज आश्रम। पनकी स्थित इस आश्रम के रास्ते में केडीए के तमाम फ़्लैट बनते दिखे। किसी खाली जमीन पर किसी पब्लिक स्कूल का बोर्ड लगा हुआ था। जब आबादी बस जायेगी तब स्कूल चलेगा धक्काड़े से।
वृद्धाश्रम के बाहर ही एक महिला बैठी खुद से बतिया रही थी। अन्दर पहुंचे तो पहली महिला जो मिली उसके पिता आर्डनेन्स फ़ैक्ट्री में काम करते थे। पति रहे नहीं तो अब यहां रहती है।
गेट के पास ही बने आफ़िस में दो बुजुर्ग बैठे थे। आफ़िस में सोफ़ा, तखत, मेज आदि लगा हुआ था। दोनों बुजुर्गों में से एक चौधरी जी थे और दूसरे गुप्ता जी। चौधरी जी अपनी पत्नी समेत रहते हैं वृद्धाश्रम में। यहां रहने का कारण पूछने पर बताया -’ पीढीगत सोच का अन्तर मुख्य कारण है। हम बुजुर्ग लोग पुराने जमाने के टिकट सरीखे हैं जिनमें मशीन से तारीख खुदकर निकलती थी। नई पीढी कम्प्यूटर से छपी टिकट सरीखी है जिससे सोच नहीं मिली।’
एक बेटी और एक बेटे के पिता चौधरी जी ने बताया - ’ बेटी की शादी हो गयी। वह अपने ससुराल में सुखी है। बेटा गुजरात में रहता है। प्राइवेट नौकरी करता है। बहू यहां पाता में गेल में नौकरी में रहती है। सरकारी नौकरी है छोड़ना मुश्किल। इसलिये बेटा-बहू अलग-अलग रहते हैं। चौधरी जी पिछले डेढ साल से रह रहे हैं यहां पत्नी समेत।’
चौधरी जी के साथ वाले गुप्ता जी अस्सी साल के बुजुर्ग हैं। एक आंख में रोशनी नहीं है शायद। दस हफ़्ते से हैं यहां पर। उनका बेटा गुड़गांव में सर्विस करता है।
बातचीत चली तो पता चला कि चौधरी जी आर्डनेन्स फ़ैक्ट्री खमरिया में नौकरी कर चुके हैं। 1957 से 1978 तक। इसके बाद एलिम्को, कानपुर चले आये। 21 साल नौकरी करने के बाद भी पेंशन नहीं मिलती आर्डनेन्स फ़ैक्टी से। लिखापढी चल रही है। चौधरी जी अम्बरनाथ से अप्रेन्टिस ट्रेनिंग किये हैं। अम्बरनाथ की ट्रेनिंग किये लोग आर्डनेंस फ़ैक्ट्रियों के सबसे जहीन लोगों में माने जाते रहे। जैसे-जैसे वे लोग रिटायर हुये, अम्बरनाथ में ट्रेनिंग बन्द हुई- आयुध निर्माणियों के वर्किंग लेवल पर तकनीकी कौशल का मालिक भगवान होता गया।
चौधरी जी पेंशन की बात चली तो हमने कहा कि आप हमको अपने विवरण दीजिये। अगर नियमानुसार आपको पेंशन मिलनी है तो मिलेगी। हम दिलायेंगे। चौधरी जी ने बताया किSatish Tewari जी उनका केस देख रहे हैं। लिखा-पढी कर रहे हैं। हमने कहा -ठीक है लेकिन तिवारी अभी रिटायर हो चुके हैं। हम अभी नौकरी में हैं। हम देखते हैं क्या हो सकता है।
बताते चलें कि जब हम नौकरी में आये थे तब तिवारी जी आर्डनेन्स फ़ैक्ट्री में काम करते थे। मेंटिनेन्स के क्षेत्र के उस्ताद रहे तिवारी जी। उनके अनगिनत चेले आज भी फ़ैक्ट्री में काम करते हैं। गुरु जी अपने नाती-पोतों के साथ मजे और मस्ती से जिन्दगी का मजा ले रहे हैं।
चौधरी जी ने अपनी पत्नी के साथ मुझे वृद्धाश्रम दिखाने को भेजा। कुल 62 लोग हैं वृद्धाश्रम में। हर बुजुर्ग को एक-एक बिस्तर एलाट है। उसी में कुल सामान रखा रहता है उनका। बिस्तर पर रखे बक्से को देखकर मैंने एक जन से पूछा कि इसको नीचे क्यों नहीं रख लेती तो वे बोली -नीचे रखने से सफ़ाई में दिक्कत आती है।
पहली महिला ही जो दिखी वे अपने से बतिया रही थीं। मानसिक संतुलन कुछ कमजोर रहा होगा। सब बुजुर्ग अपने-अपने बिस्तरों पर बैठे-लेटे थे। हमसे सबका परिचय कराती जा रहीं थी श्रीमती चौधरी। एक सफ़ेद बाल वाले आदमी से परिचय कराते हुये बताया -’ ये हमारे बेटे जैसा है। हमको जरा सी भी तकलीफ़ होती है तो रात भर जागकर खैर-खबर लेता रहता है।’ ऐसे ही एक महिला के बारे में भी बताया कि वो उनकी बिटिया सरीखी है। श्रीमती चौधरी ने अपना ठीहा दिखाया। चौधरी जी का बिस्तर अलग पुरुष वृद्धों के कमरे में है। मतलब बुजुर्ग लोग यहां दम्पति की तरह नहीं वरन बुजुर्गों की तरह अलग-अलग रहते हैं।
ज्यादातर लोग कानपुर के आसपास के ही रहने वाले थे। कुछ लोग अपने बच्चों के पास भी आते-जाते रहते हैं। लोग यहां आकर संतुष्ट भले दिख रहे थे , बता भी रहे थे, लेकिन परिवार के नाम पर एक बेबस बेचैनी उनकी आवाज में दिखी। मजबूरी में ही रह रहे थे लोग यहां।
इस बीच नीचे कुछ महिलायें आपस में लड़ने लगीं। ऊपर से बुजुर्ग लोग उनकी कहा-सुनी का मजा लेते हुये नजारा देख रहे थे। इस बीच किसी ने उनको अलग कर दिया। मजा खत्म हो गया।
एक बिस्तर पर एक लडकी भी मिली। वह आर्मापुर पोस्ट ग्रेजुएट कालेज में बीए में पढती है। चलने के लिये बैशाखी का सहारा लेती है। जो क्लास नीचे लगती है उनको तो कर लेती है लेकिन जो क्लास ऊपर की मंजिल में लगती हैं उनको अटेंड नहीं कर पाती। बता रही थी कि उनकी प्रिंसिपल गायत्री सिंह उसकी ऊपर वाली क्लास नीचे करने के बारे में कोशिश कर रही हैं।
वृद्धाश्रम में रहने वालों को सारी सुविधायें मुफ़्त में मिलती हैं। इसका खर्च मंजू भाटिया उठाती हैं। कुछ पैसा विभिन्न स्वयं सेवी संस्थाओं से दान दाताओं से मिलता है। बाकी जो कम पड़ता है वह मंजू भाटिया अपने पास से देती हैं। जब यह लिख रहे थे तब 2014 की एक खबर भी दिखी कि यह वृद्धाश्रम अवैध जमीन पर बना है। जिस व्यक्ति ने मंजू भाटिया को अपनी जमीन बताकर वृद्धाश्रम के लिये दिया था वह जमीन उसके नाम थी ही नहीं।
बातचीत करते समय वहां कुछ लोग किसी को रखने के हिसाब से पूछताछ करने आये। पता चला कि फ़िलहाल पुरुष वृद्धों के लिये जगह नहीं है वहां। केवल महिला बुजुर्गों के लिये जगह है। किदवई नगर में कोई बड़ा वृद्धाश्रम खुला है, वहां जाने की सलाह दी गयी उनको।
लौटकर फ़िर चौधरी जी के पास आये। उन्होंने अपने कागजात दिये। हमने उनसे उनका पेंशन का काम देखने का वादा किया और चले आये। कल अपने तमाम दोस्तों और एक्सपर्ट से जानकारी की तो पता चला कि चौधरी जी की पेंशन में दो पेंच हैं:
१. जिस समय उन्होंने नौकरी छोडी उस समय बीस साल की नौकरी पर पेंशन का नियम था कि नहीं?
२. पेंशन स्वैच्क्षिक सेवानिवृत्ति की स्थिति में मिलती है। नौकरी से इस्तीफ़ा देने पर नहीं।
बहरहाल अभी तो पूरा मामला पता कर रहे हैं। यह भी सोच रहे कि हमारे विभाग की यूनियन/एशोसियेशन सेवारत लोगों के उन कामों को कराने के लिये तो मेहनत करती रहती हैं जिनको मैनेजमेंट खुद अपने से करने को बाध्य है। लेकिन एक बार सेवा से निकल जाने के बाद अपने कर्मचारियों की सहायता करने का चलन नहीं युनियनों में जितना फ़ैक्ट्री में रहते होता है। उनका रवैया जनप्रतिनिधियों से अलग नहीं है शायद इस मामले में।
लौटे तो पानी बरसने लगा था। लेकिन हम मोमिया में मोबाइल और बटुआ धरकर सरपट फ़टफ़टिया दौड़ाते हुये चले आये। इस बार आये तो रास्ता 4-5 किमी ही रहा। जाते समय भटकते हुये काफ़ी दूर चलना हो गया। लेकिन भटकने के अलावा रस्ता पता कहां चलते हैं।
वृद्धाश्रम जाने का विचार अपने बालक Anany Shukla से मिला था। उसने एक अद्भुत शक्सियत , दिलीप घोष , के बारे में बताया था। जुलाई में अनन्य जब गया था पहली बार वृद्धाश्रम तो दिलीप घोष से मिला था। हमारी भी उनसे मुलाकात हुई। लेकिन वह किस्सा अलग से 

दिलीप घोष

सबेरे स्वराज वृद्धाश्रम के बारे में लिखा तो दिलीप घोष जी का जिक्र छोड़ दिया। सोचा तसल्ली से और तफ़सील से लिखेंगे। तो आइये आपको मिलवाया जाये दिलीप घोष जी से।
दिलीप घोष पिछले चार साल से वृद्धाश्रम में रह रहे हैं। उम्र 68 साल के करीब है। लेकिन जो बात बताने की है वह यह कि घोष जी तीन विषयों में डीलिट हैं। अंग्रेजी, अटामिक इनर्जी और केमिकल इन्जीनियरिंग। अध्यापन के क्षेत्र से जुड़े रहे। बीस साल अमेरिका , दस साल लन्दन , पांच साल फ़ांस में रहने और पढाने के बाद आखिरी में आई.आई.टी. कानपुर में अध्यापन कर रहे थे।
अंग्रेजी में घोष जी की थीसिस शेक्सपियर पर थी। विषय था "अनामलीस आफ़ टाइम एंड प्लेस इन 30 आउट आफ़ 37 प्लेस बाई शेक्सपियर" मतलब शेक्सपियर के 37 में से 30 नाटकों में समय और स्थान की विसंगतियां। 400 पेज की इस थीसिस में बताया गया था कि शेक्सपियर के 30 नाटकों में क्या-कया विसंगतियां थीं। घोष जी हंसते हुये बताया -"जब थीसिस लिखी गयी तो दोस्तों ने कहा कि अंग्रेज लोग तुमको पकड़कर पीटेंगे।" लेकिन जब थीसिस प्रकाशित हुई तो उसकी इंग्लैंड में बहुत चर्चा हुई।
शेक्सपियर के कई नाटकों की कहानी खड़े-खड़े सुनाई घोष जी ने। उनके बिस्तरे पर ढेर सारी किताबें रखी थीं। अंग्रेजी, गणित, विज्ञान, सामान्य विषयों की और डेल कार्नेगी की हाऊ टु विन फ़्रेंड्स घराने की किताबें भी। सामने शेक्सपियर के संपूर्ण नाटकों की किताब रखी थी। लेकिन घोष जी की आंखों की रोशनी पढने लायक नहीं रही अब। बताया कि अटामिक इनर्जी की रिसर्च के दौरान उनकी आंख का रेटिना क्षतिग्रस्त हो गया है। आपरेशन कराया लेकिन रेटिना तक सिग्नल नहीं जाते। बताया कि शेक्सपियर का सारा लेखन उनको मुंहजबानी याद है।
शेक्सपियर के समय के किस्से सुनाते हुये बताया कि उस समय दर्शक भूतप्रेतों के किस्सों में यकीन करते थे। उनको ’एलिजाबैथियन दर्शक’ कहते थे। शेक्सपियर गरीब घर में पैदा हुआ था लेकिन अपने नाटकों के जरिये बहुत अमीर हुआ।
अमेरिका, इंगलैंड और फ़्रांस के कई किस्से सुनाये घोष जी ने। अंग्रेजी, फ़्रेंच, हिन्दी, बांगला के अलावा और भी कई भाषाये जानते हैं। लंदन के कई रोचक किस्से सुनाये।
लंदन की लम्बाई चौड़ाई के बारे में बताते हुये कहा- ’समझ लीजिये यहां से लखनऊ तक लम्बा और उतना ही चौड़ा शहर है लन्दन। लेकिन वहां धूप देखने को तरस जाते हैं लोग। इसीलिये हमको पसन्द नहीं।’ मुझे मुस्ताक अहमद युसूफ़ी के खोया पानी की यह संवाद याद आ गया- " यूं लंदन बहुत दिलचस्प जगह है और इसके अलावा इसमें कोई खराबी नजर नहीं आती कि गलत जगह पर स्थित है। थोड़ी-सी कठिनाई जुरूर है कि आसमान हर समय बादलों और कोहरे से घिरा रहता है। सुब्ह और शाम में अंतर पता नहीं लगता। इसलिए लोग A.M. और P.M. बताने वाले डायल की घड़ियां पहनते हैं।" (http://www.hindisamay.com/contentDetail.aspx… )
लंदन की यादें साझा करते हुये घोष जी ने बताया कि वहां लोगों के छातों में रेडियो लगे रहते हैं । लोग रेडियो सुनते चलते जाते हैं (यह मेरे लिये नई जानकारी थी)। और भी अनेक किस्से सुनाये घोष जी ने।
बातचीत के दौरान पता चला कि घोष जी के पिताजी ( स्व. श्री पी आर घोष) आर्डनेन्स फ़ैक्ट्री के अधिकारी थे। आर्डनेन्स फ़ैक्ट्री से जुड़े कई लोगों से जानपहचान के किस्से सुनाये घोष जी ने।
यहा वृद्धाश्रम में रहते हुये अक्सर मेडिकल कालेज में अंग्रेजी और मेडिसिन/केमिकल की क्लास लेने जाने जाते हैं घोष जी। उसका मानदेय मिलता है। मेडिकल कालेज से लोग लेने और छोड़ने आते हैं।
बात शौक की चली तो बताया घोष जी ने उनको तबला, गिटार आदि बजाने का शौक है। इधर उंगलियां सुन्न रहने लगी हैं तो डाक्टर ने तबला बजाने की सलाह दी थी लेकिन अभी तक अमल में नही लाई गयी सलाह। लेकिन अब बजाने की सोचते हैं।
प्रकृति की संगत में रहना अच्छा लगता है घोष जी को। नहाना दिन में चार बार होता है। आखिरी स्नान रात के दस बजे होता है।
इन सब खूबियों वाले घोष जी ने घर नहीं बसाया। बताया कि वे अपने लिये परफ़ेक्ट जीवन साथी खोज रहे थे। इसी चक्कर में शादी नहीं कर पाये। अब महसूस करते हैं कि घर बसाना चाहिये था।
हमने कहा - ’अब भी समय है। कोई जीवन साथी खोजकर रहिये मजे से।’
’अब तो ऊपर वाले के साथ ही रहने के लिये अप्लाई किया है। उसी के साथ रहेंगे। लेकिन वहां वेटिंग लाइन लम्बी है।’ -घोष जी ने कहा।
हमने उनके कन्धे पर हाथ रखकर और हाथ अपने हाथ में लेकर दोस्ताना अंदाज में सलाह दी -’ घर मत बसाइये लेकिन कोई महिला दोस्त ही बना लीजिये। कुछ तो भरपाई होगी आपकी परफ़ेक्शन के चक्कर में घर न बसाने के निर्णय की।’
इस पर उन्होंने एक महिला का जिक्र करते हुये बताया कि वो आती थीं। अपने साथ चलने के लिये कहा भी लेकिन गये नहीं घोष जी। अभी भी कभी-कभी बात होती रहती है।
मैं इस बात का पक्का हिमायती हूं कि जीवन में दाम्पत्य जीवन बिताना सबसे जरूरी अनुभव है। इन्सान को अपना घर अवश्य बसाना चाहिये। इसका अनुभव अपने आप में अनोखा और अमूल्य होता है।
काफ़ी देर बतियाने के बाद हम लौट आये। कई बातें इधर-उधर हो गयीं । आज शाम को बात हुई तो पता चला कि शाम को घुटने में चोट लग गयी। खून भी निकला। गिरने का किस्सा बताते हुये बोले-’ मुझे अपनी चोट से ज्यादा अपना पायजामा खराब होने की चिन्ता थी। दर्द हल्का है। लेकिन दो-तीन दिन तो लग ही जायेंगे ठीक होने में।’
चोट के बावजूद शाम का नहाने का कार्यक्रम उनका यथावत हुआ। घुटने में पालीथीन लपेटकर नहा लिये।
घोष जी को एक आम बंगाली भद्रजन की तरह खाना बनाने का भी शौक है। वेज और नानवेज दोनों बना लेते हैं। हमने कहा -’एक दिन चलेंगे घर पर आपके हाथ का बना खाना खायेंगे।’ उन्होंने कहा -’जरूर चलेंगे। हम आपको रेसिपी लिखकर दे देंगे। उसके हिसाब से तैयारी कर लीजियेगा। फ़िर हम चलकर बनायेंगे खाना।’
देखिये अगली बार कब मुलाकात होती है घोष जी से। उनसे मिलकर बहुत आनन्द आया था। बहुत विलक्षण व्यक्तित्व हैं घोष जी। ज्ञान और बेहतरीन अभिव्यक्ति का बेहतरीन संगम । उनसे फ़िर से मिलने का इंतजार है।
https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10209096126333767

Wednesday, September 14, 2016

ये सब तो ऊपर वाला करता है

कल छुट्टी थी। बकरीद की। वैसे बुढवा मंगल भी था आज ! सबेरे तैयार होकर निकल लिये शहर मुआयने के लिये।
आज फ़ैक्ट्रियों की छुट्टी थी। उनके बाहर लगने वाली फ़ुटपाथिया दुकाने भी नहीं लगी थीं। जब ग्राहक नदारद तो दुकान क्या करेगी सजकर !
विजयनगर चौराहे के आगे एक महिला मोटरसाइकिल की पिछली सीट पर बैठी चली जा रही थी। उसकी धोती का पल्लू हवा में हल्का सा उड़ रहा था। हमको याद आया कि लड़कियों के उड़ते दुपट्टे के गाने तो बहुत हैं फ़िल्मों में - ’हवा में उड़ता जाये मेरा लाल टुपट्टा मलमल का’ लेकिन गृहस्थिन की साडियों पर भी गीत लिखे गये हैं क्या कभी?
जरीब चौकी के पास बायीं तरफ़ की सड़क पर बकरीद की नमाज पढ रहे थे लोग। सफ़ेद झक्क कपड़े में। एकदम अनुशासित , लाइन में लगे नमाजी। एकदम क्रासिंग के आगे सड़क थोड़ी दूर के लिये बन्द कर दी गयी थी। लोग बगलिया के दायीं तरफ़ से निकल रहे थे। पुलिस वाले चुस्तैद थे व्यवस्था देखने के लिये।
क्रासिंग पार करके आगे पहुंचे जहां पंकज बाजपेयी बैठते हैं। वे अपने ठीहे पर ही थे। देखते ही लीबिया, जार्डन, कोहली, बच्चे, दंगा, पुलिस , दीदी वाली बातें कहने लगे। हमने पूछा - ’चाय पिये कि नहीं?’ बोले -’ अभी जायेंगे पीने मामा के यहां।’
हम बोले - ’चलो आज हम भी पीते हैं मामा की चाय।’
मामा के पास पहुंचकर पंकज जी ने अपने झोले से ग्लास निकाला। मामा ने उस ग्लास में चाय डाली। पंकज कुछ देर साथ खड़े चाय पिये। दो-चार घूंट सुड़कने के बाद अपने डीहे पर लौट गये। हम मामा से बतियाने लगे।
मामा ने बताया कि अफ़ीम कोठी से लेकर यहां (अनवरगंज के पास तक की सड़क) की सब प्रापर्टी इन्ही की थी। न जाने कैसे दिमाग का बैलन्स गड़बड़ा गया। सबेरे यहां रहते हैं, फ़िर दिन भर डीएम दफ़्तर के पास। सामने ’प्रकाश मशीनरी स्टोर्स’ जो दिख रहा है वो इनके ही मकान में किराये पर है।
मामा तो पंकज कहते हैं, कभी जीजा भी। कभी कुछ और जैसा मन आये। लेकिन नाम है सुरेन्द्र कुमार गुप्ता। जौनपुर के रहने वाले हैं। 12-15 साल पहले आये थे यहां। तब से जमे हुये हैं यहीं पर। आर्डर पर भी चाय और काफ़ी का काम करते हैं। पंकज को चाय मुफ़्त पिलाते हैं। बोले- "ये सब तो ऊपर वाला करता है।"
गुप्ता जी की चाय की दुकान पर कुछ मुस्लिम और हिन्दू भी चाय पी रहे थे। एक जन आये तो टोपी वाले ने उनको ठाकुर साहब कहकर मजे लिये। चुहलबाजी चली कुछ देर। हमको चाय छानकर दी गुप्ता जी ने। फ़ोटो लिये तो बोले- चाय छानते हुये फ़ोटू खैंचिये। खैंचा तो देखकर खुश हो गये। अपना विजिटिंग कार्ड निकालकर थमाया। उसमें उनका मोबाइल नंबर भी दिया था। मल्लब विजिटिंग कार्ड आजकल लकदक अटैची उठाये चलने वाले तक ही नहीं सीमित रहा। फ़ुटपाथ पर चाय बेचने वाले गुप्ता जी भी रखते हैं विजिटिंग कार्ड।
जब हम चाय पी रहे थे तभी एक बुजुर्ग व्यक्ति ने ,जिसको शायद दिखता नहीं था, जेब से माचिस निकाली। अंदाज से टटोलकर तीली निकाली। रगड़वाला हिस्सा टटोलकर तीली सुलगाई और बीड़ी जला कर सुट्टा मारने लगा। एक सुट्टा मारने के बाद उसने साथ के व्यक्ति के हाथ में अपना हाथ फ़ंसाया और उसके साथ सड़क पार करने लगा।
इस बीच पंकज अपने ठीहे पर जम गये थे। सामने से गुजरते एक बुजुर्ग को देखकर जोर से बोले-’ चाचा पांय लागी।’ चाचा नमाज पढकर लौटे थे शायद। उन्होंने हाथ हिलाकर चरण स्पर्श कबूल किया और आशीष में हाथ हिलाया।
हम वापस चले तो सोचा आज गली से चला जाये। जीटी रोड के अंदर से गली में घुसते ही एक चाय की दुकान दिखी। एक बड़ी सफ़ेद मूछों वाले बुजुर्ग फ़सक्का मारकर सड़क पर बैठे चाय पी रहे थे। एक महिला नाली के ऊपर ”बच्ची चरपईया’ पर बैठी अपनी बिटिया को खिला रही थी। आगे रेलवे क्रासिंग पर एक आदमी क्रासिंग पर जमा पत्थर पर अखबार अपने दोनों बाहों की चौड़ाई तक फ़ैलाये सारी खबर अकेले पढे जा रहा था।
गली में जगह-जगह छोटे-छोटे मन्दिर उगे हुये थे। एक जगह कथा चल रही थी। सड़क पर भण्डारा चल रहा था। पता चला कल बुढ़वा मंगल था। उसी का प्रसाद जगह-जगह बंट रहा था। लोग प्रसाद लेकर उसके दोने वहीं सड़क पर छितराकर निकल ले रहे थे।
हमने सोचा था कि कल पनकी मंदिर के पास स्थित वृद्धाश्रम जायेंगे। लेकिन पनकी तक पहुंचे तो देखा बीहड़ भीड़। हम आगे बढें कि पीछे हटे सोच ही रहे थे कि एक महिला पुलिस की सिपाही ने मोटर साइकिल देखकर लिफ़्ट मांगी। यह हमारे लिये आगे बढ़ने का संकेत था। सिपाही को पनकी थाने जाना था। रास्ते में पता चला कि वे 12 साल से नौकरी पर हैं। शहर से आती हैं रोज पनकी थाने डयूटी करने।
लिफ़्टित सवारी को थाने पर उतारकर हम आगे बढे। लेकिन आगे बैरियर लगा था। पास में एक मोटरसाइकिल पर बैठा एक पुलिस का सिपाहा अपने मोबाइल में मुंडी घुसाये कुछ देख रहा था। बाकी चार की मुंडिया भी उसकी खोपडिया के साथ टैग थी। हमने आगे जाने का रास्ता पूछा तो जिस तरह बताया उससे लगा कि आगे जाना ठीक नहीं। लेकिन फ़िर याद आयी कविता पंक्ति:
देखकर बाधा विविध बहु विध्न घबराते नहीं।
इस कविता पंक्ति की किक से हम आगे बढ लिये। एक जगह पूछने के लिये रुके तो बालक ने जबरियन पूडी का दोना थमा दिया। बिना छिले आलू और गांठ लगी पूडी को खाना अपने आप में वीरता का काम था। लेकिन फ़िर खाई एक पूड़ी वहीं खड़े-खड़े। फ़िर पूछते हुये वृद्धाश्रम पहुंच ही गये। उसका किस्सा आगे।
फ़िलहाल तो इतना ही। आप मजे से रहें।

हिन्दी दिवस के कुछ अनुभवों से



१. सितम्बर का महीना देश में हिन्दी का महीना होता है। हिन्दी नहीं, राजभाषा का। देश भर में राजभाषा माह, पखवाड़ा, सप्ताह, दिवस मनाया जाता है। श्रद्धा और औकात के हिसाब से। क्या पता कल को राजभाषा घंटा, मिनट या फ़िर सेकेंड भी मनाया जाने लगे।
२. एक दक्षिण भारतीय ने बताया कि -पहले उनको लगता था हिन्दी कविता में हर पांचवी लाइन के बाद वाह-वाह बोला जाता है।
३. एक कवि ने अपनी किसी कविता में ’कड़ी’ शब्द का प्रयोग किया। उन्होंने उसको ’कढ़ी’ समझकर ग्रहण किया और कल्पना करते रहे कि क्या स्वादिष्ट कल्पना है।
४.आज अगर नेता, पुलिस पर कविता लिखना बैंन हो जाये तो आधे हास्य कवि या तो बेरोजगार हो जायें।
५.आपातकाल में तमाम लोगों ने इस तरह की कवितायें लिखीं जिनके व्यापारियों के खातों की तरह दो मतलब होते थे। एक जो सारी जनता समझती थी दूसरा वह जिसे सिर्फ़ वे समझते थे। अपना मतलब उन्होंने दुनिया भर को आपातकाल के बाद बताया और अपने लिये क्रांतिकारी कवि का तमगा गढ़कर खुदै ग्रहण कल्लिया।
६. एक कवि सम्मेलन में वीर रस के कुछ कवियों ने पाकिस्तान कोी गरियाया। पाकिस्तान को गरियाते हुये एक ने तो इत्ती जोर से कविता पढ़ी कि मुझे लगा कि अगर पाकिस्तान कहीं उसको सुन लेता तो एकाध फ़ुट अफ़गानिस्तान की तरफ़ सरक जाता।
७. पाकिस्तान में भी हिन्दुस्तान के विरोध में वीर रस की कवितायें लिखीं और चिल्लाई जाती होंगी। सोचता हूं कि क्या ही अच्छा हो कि दोनों देश की वीर रस की कविताओं की ऊर्जा को मिलाकर अगर कोई टरबाइन चल सकता तो इत्ती बिजली बनती कि अमेरिका चौंधिया जाता। ऐसा हो सकता है। दोनों देशों के वीर रस के कवि जिस माइक से कविता पाठ करें उसके आवाज बक्से के आगे टरबाइन फ़िट कर दी जाये। इधर कविता शुरू हो उधर टरबाइन के ब्लेड घर्र-घर्र करके चलने लगें और दनादन बिजली उत्पादन होने लगे। बिजली के तारों पर सूखते कपड़े जलकर खाक हो जायें। हर तरफ़ रोशनी से लोगों की आंखें चमक जायें।
८.हिन्दी लिख-पढ़ लेने वाले लोग हिन्दी दिवस के मौके पर पंडितजी टाइप हो जाते हैं। उनके हिन्दी मंत्र पढ़े बिना किसी कोई फ़ाइल स्वाहा नहीं होती। काम ठहर जाता है। हिन्दी का जुलूस निकल जाने का इंतजार करती हैं फ़ाइलें। हिन्दी सप्ताह बीते तब वे आगे बढ़ें।
९. हिन्दी दिवस के दिन साहब लोग हिन्दी का ककहरा जानने वालों को बुलाकर पूछते हैं- पांडे जी अप्रूव्ड को हिन्दी में क्या लिखते हैं? स्वीकृत या अनुमोदित? ’स’ कौन सा ’पूरा या आधा’ , ’पेट कटा वाला’ या सरौता वाला?
१०. काव्य प्रतियोगिताओं में लोग हिन्दी का गुणगान करने लगते हैं। छाती भी पीटते हैं। हिन्दी को माता बताते हैं। एक प्रतियोगिता में दस में से आठ कवियों ने हिन्दी को मां बताया। हमें लगा कि इत्ते बच्चे पैदा किये इसी लिये तो नही दुर्दशा है हिन्दी की?
११. कवि आमतौर पर विचारधारा से मुक्ति पाकर ही मंच तक पहुंचता है। किसी विचारधारा से बंधकर रहने से गति कम हो जाती है। मंच पर पहुंचा कवि हर तरह की विचारधारा जेब में रखता है। जैसा श्रोता और इनाम बांटने वाला होता है वैसी विचारधारा पेश कर देता है।
१२. कोई-कोई कवि जब देखता है कि श्रोताओं का मन उससे उचट गया तो वो चुटकुले सुनाने लगता है। वैसे आजकल के ज्यादातर कवि अधिकतर तो चुटकुले ही सुनाते हैं। बीच-बीच में कविता ठेल देते हैं। श्रोता चुटकुला समझकर ताली बजा देते हैं तो अगला समझता है- कविता जम गयी।
१३. विदेश घूमकर आये कवि का कवितापाठ थोड़ा लम्बा हो जाता है। वो कविता के पहले, बीच में, किनारे, दायें, बायें अपने विदेश में कविता पाठ के किस्से सुनाना नहीं भूलता। सौ लोगों के खचाखच भरे हाल में काव्यपाठ के संस्मरण सालों सुनाता है। फ़िर मुंह बाये , जम्हुआये श्रोताओं की गफ़लत का फ़ायदा उठाकर अपनी सालों पुरानी कविता को -अभी ताजी, खास इस मौके पर लिखी कविता बताकर झिला देता है।
१४. कोई-कोई कवि किसी बड़े कवि के नाम का रुतबा दिखाता है। दद्दा ने कहा था- कि बेटा तुम और कुछ भी न लिखो तब भी तुम्हारा नाम अमर कवियों में लिखा जायेगा। कुछ कवि अपने दद्दाओं की बात इत्ती सच्ची मानते हैं कि उसके बाद कविता लिखना बंद कर देते हैं। जैसे आखिरी प्रमोशन पाते ही अफ़सर अपनी कलम तोड़ देते हैं।
१५. बिहार से रीसेंटली अभी एक मेरे फ्रेंड के फादर-इन-ला आये हुए थे, बताने लगे - 'एजुकेसन का कंडीसन भर्स से एकदम भर्स्ट हो गया है. पटना इनुभस्टी में सेसनै बिहाइंड चल रहा है टू टू थ्री ईयर्स. कम्प्लीट सिस्टमे आउट-आफ-आर्डर है. मिनिस्टर लोग का फेमिली तो आउट-आफ-स्टेटे स्टडी करता है. लेकिन पब्लिक रन कर रहा है इंगलिश स्कूल के पीछे. रूरल एरिया में भी ट्रैभेल कीजिये, देखियेगा इंगलिस स्कूल का इनाउगुरेसन कोई पोलिटिकल लीडर कर रहा है सीजर से रिबन कट करके.किसी को स्टेट का इंफ्रास्ट्रक्चरवा का भरी नहीं, आलमोस्ट निल  ( १५ नम्बर रिटेन बाय Indra Awasthi )
पिछले साल की पोस्ट को दुबारा पोस्ट किया
https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10209081853456954

कर्मवीर



देख कर बाधा विविध, बहु विघ्न घबराते नहीं।
रह भरोसे भाग के दुख भोग पछताते नहीं
काम कितना ही कठिन हो किन्तु उकताते नही
भीड़ में चंचल बने जो वीर दिखलाते नहीं।।
हो गये एक आन में उनके बुरे दिन भी भले
सब जगह सब काल में वे ही मिले फूले फले।।
आज करना है जिसे करते उसे हैं आज ही
सोचते कहते हैं जो कुछ कर दिखाते हैं वही
मानते जो भी है सुनते हैं सदा सबकी कही
जो मदद करते हैं अपनी इस जगत में आप ही
भूल कर वे दूसरों का मुँह कभी तकते नहीं
कौन ऐसा काम है वे कर जिसे सकते नहीं।।
जो कभी अपने समय को यों बिताते है नहीं
काम करने की जगह बातें बनाते हैं नहीं
आज कल करते हुए जो दिन गँवाते है नहीं
यत्न करने से कभी जो जी चुराते हैं नहीं
बात है वह कौन जो होती नहीं उनके लिये
वे नमूना आप बन जाते हैं औरों के लिये।।
व्योम को छूते हुए दुर्गम पहाड़ों के शिखर
वे घने जंगल जहां रहता है तम आठों पहर
गर्जते जल राशि की उठती हुई ऊँची लहर
आग की भयदायिनी फैली दिशाओं में लपट
ये कंपा सकती कभी जिसके कलेजे को नहीं
भूलकर भी वह नहीं नाकाम रहता है कहीं।
-अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध

Monday, September 12, 2016

तलवार की जगह एटीएम कार्ड

कल इतवार था। कई सारे कामों की लिस्ट लटकाये हम ऐसे निकले जैसे कभी राजा महाराजा लोग दिग्विजय के लिये निकलते थे। राजाओं को उनकी पत्नियां तलवार थमाकर टीका करके भेजती थीं। हमें तलवार की जगह एटीएम कार्ड थमा दिया गया। जो काम युद्ध में तलवारें करतीं रहीं होंगी वो काम बाजार में पैसे वाला कार्ड करता है। खाते में पैसा तलवार की धार सरीखा चमकता है।
घर से निकलते ही साइकिल पर एक आदमी तमाम सामान लादे जाते दिखा। साइकिल पर मिनी माल सरीखा। सब सामान प्लास्टिक के। पता नहीं कहां बेचने जा रहा होगा। पीछे से फ़ोटो लिया। सामने से लेने के बारे में सोचते ही फ़िर नहीं लिया यह सोचकर कि बोहनी का समय काहे खराब किया करें उसका।
खरीद के लिये निकले थे तो सोचा कुछ पैसे भी निकाल लिये जायें। हर एटीएम खाली दिखा। कार्ड डालते ही पैसा न होने के लिये माफ़ी मांगने लगा। मन किया हडका दें कि माफ़ी मांगने से हमारा काम हो जायेगा क्या? लेकिन फ़िर छोड़ दिये। उस बेचारे का क्या दोष। वह तो हुकुम का गुलाम है। जिसने मांगा पैसा उसने उगल दिया। हमने माफ़ कर दिया एटीएम को।
एक एटीएम को माफ़ करके निकले ही थे कि एक रद्दी वाला दिख गया। उसने हमको पहचाना और कहा-’ बहुत दिन बाद दिखे आप।’ हम बतियाने लगे। उसने कहा-’ आपका बनवाया हुआ पास अभी तक चल रहा है। कई बार कैंसल होने की बात हुई लेकिन किसी ने किया नहीं।’
ह्मने सोचा कि आठ साल पहले किसी को खाली इस्टेट में आने-जाने की अनुमति मिल जाने मात्र से वह आदमी सालों तक याद रखता है। हमारे लिये कोई बात बहुत छोटी भले हो लेकिन किसी के लिये बहुत मायने रखने वाली हो सकती है। सोचा तो यह भी कि कई लोग ऐसे भी होंगे जो हमको देखकर कोसने लगते होंगे जिनके काम हमारे कारण बिगड़े होंगे। यह ख्याल आते ही हम सर झटककर आगे चल दिये। आदमी अपने बारे में खराब बात नहीं सुनना चाहता।
सड़क पर धूप के फ़व्वारे से चल रहे थे। पूरी सड़क धूप में नहाई हुई थी। धूप स्नान के लिये पसरी सड़क पर आते-जाते वाहन उसको रौंदते हुये निकलते जा रहे थे। सड़क के दोनों ओर खड़े पेड़ पौधे वाहनों को गुजरता देखते अपनी फ़ूल पत्तियां हिलाकर उनका स्वागत कर रहे थे। छोटी गाडियों के गुजरने पर तो धीरे-धीरे हिलाते। लेकिन ट्रक या बस जब गुजरता तो बड़ी तेज-तेज हिलते। कोई ट्रक जब तेजी से निकलता तो कोई-कोई पेड़ तो अपने सर की पत्तियां तेजी से हिलाते हुये एकदम चीयरबालाओं की तरह ठुमकने लगता।
सब्जी की ठेलिया पर धनिया बेचने वाले बुजुर्ग का मुंह एकदम धनिया की ही तरह सूखा हुआ था। बड़ी हुई दाढी। सांस भी धीरे-धीरे चल रही थी। क्या जाने कौन सी परेशानियां होंगी उनके घर में। सब्जी कहां से लेकर बेंचते होंगे यहां यह भी नहीं पता लेकिन उनकी उदासी देखकर पांच रुपये की धनिया और खरीद लिये।
पांच रुपये की धनिया खरीदकर हम ’परदुखकातर’ का खिताब अपने लिये खुदई उठा के सीने पर सजा लिये। आजकल का यही चलन है भईये। तारीफ़ के मामले में आत्मनिर्भर होना बहुत जरूरी है। सरकारें तक यही कर रही हैं। जित्ता पैसा विकास में खर्चती हैं उससे डेढ गुना अपनी तारीफ़ में फ़ूंक देती हैं। न फ़ूंके तो सरकार कैसे चले, विकास कैसे हो? काम से ज्यादा काम का हल्ला जरूरी है भाई।
काकादेव में चिलचिलाती धूप में तीन महिलायें सर पर लकड़ी लादे सरपट चली जा रहीं थी। हमको जबलपुर में जंगली लकड़ी लादे महिलाओं की याद आ गयी। यहां की लकड़ी जंगली नहीं थी। शहरी लकड़ी थी। सनमाइका के टुकड़े, कुर्सी की टांग, मेज का पेट जैसी लकड़ी थी। एकाध दिन बाद सब लकड़ियां एक साथ जल जायेंगीं पेट की आग बुझाने के लिये।
लकड़ी ले जाती महिलाओं को जाते देखकर ख्याल आया कि अगर इनके पास भी स्मार्ट फ़ोन होता तो क्या ये अपनी सेल्फ़ी डालतीं किसी सोशल मीडिया में? डालती तो क्या लिखतीं? शायद लिखतीं -’ काकादेव चौराहे पर सुलगती सड़क पर। आज लकड़ी खूब मिल गयीं- फ़ीलिंग रिलैक्स्ड।’ लेकिन हमने इस बेहूदे ख्याल को इत्ता तेज हड़काया कि सरपर पैर धरकर फ़ूट लिया।
आगे एक बोर्ड में घुटने रिपेयर कराने का बोर्ड लगा था। बढिया क्वालिटी के बोर्ड की बात कही गयी थी। मन किया कि कल को लोगों के दिमाग बदलने का भी काम होने लगा। जनप्रतिनिधियों को पद और गोपनीयता की शपथ दिलाते ही उनके दिमाग में देश सेवा की भावना और ईमानदारी का साफ़्टवेयर डाउनलोड कर दिया जायेगा। लेकिन लफ़ड़ा है कि ऐसा होने पर उनका सिस्टम ही बैठ जाये। जनसेवक के दिमाग की हार्डडिस्क ईमानदारी और जनसेवा के साफ़टेवयर से मैच न होने के कारण लोड ही न हो पाये। देशसेवा और ईमानदारी के प्रोग्राम अनईस्टाल करने पड़े और स्वयंसेवा और बेईमानी के ओरिजनल साफ़्टेवयर से काम चलाना पड़े।
आगे एक मोड़ पर मुन्नूगुरु मार्ग का बोर्ड लगा था। मुन्नू गुरु की याद ताजा होते ही वह घटना याद आई जब मुन्नू गुरु कानपुर के रेलवे स्टेशन पर अपनी मुंह बोली बहन को भेजने गये थे और बहन जी का टिकट उनके ही पास रह गया था। किस्सा ऐसा था:
" मुन्नू गुरू सबंधों की मर्यादा का हमेशा पालन करते थे। कानपुर में फूलबाग में किसी साल प्रसिद्ध गायिका निर्मला अरुण(स्टार गोविंदा की मां) बुलाई गयीं। गुरू रोज फूलबाग जाते-मित्र मण्डली के साथ। गुरू,निर्मलाजी की गायिकी पर मुग्ध हो गये। आग्रह करके कानपुर में दो -चार दिन के लिये रोक लिया।क्योंकि सुनने वालों का मन तो भरा न था। निर्मलाजी से ठुमरी की एक बंदिश- ‘ना जा पी परदेश’ खूब सुनी जाती। रोज सुनी जाती,पर किसी का दिल न भरता।
मुन्नू गुरू तो इसे सुन कर रो पड़ते।कई दिनों बाद निर्मलाजी को कानपुर कानपुर से बिदा किया गया।संगी साथी उन्हें स्टेशन छोड़ने गये। विदा करते समय सबकी आंखें नम। ट्रेन चली गई।
स्टेशन से बाहर आकर गुरू को याद आया कि निर्मलाजी का टिकट तो उनकी जेब में ही पड़ा रह गया। गुरू बोले-‘यार, बहिनियाँ क्या सोचेगी! कनपुरिया कितने गैरजिम्मेदार हैं। परेशानी में पड़ जायेगी प्यारे ,बम्बई तक का सफर है।’
सोचा गया,अब क्या हो? गुरू ने तत्काल फैसला किया। बोले- ‘तुरन्त टैक्सी बुलाओ,चलते हैं पुखरायाँ तक गाड़ी पकड़ लेंगे और टिकट निर्मला जी के हवाले कर देंगे।’
गाड़ी का पीछा करते-करते झाँसी पहुंच गये। प्लेटफार्म पर जा खड़े हुये। टिकट निर्मलाजी के हवाले करके भूल सुधारी गई और ठहाका लगा।"
यह बात जब अभी लिख रहे थे तब ही याद आया कि घरैतिन अपना मोबाइल तो घर में ही भूल गयीं। हमें लगा कि दिन भर बिना मोबाइल के कैसे रहेंगी। हम फ़ौरन भागे बाहर। ख्याल रखने के नंबर ज्यादा मिलें इसलिये ’पच्चल’ बिना पहने भागे। खैरियत रही कि वे घर के मोड़ पर ही आटो का इंतजार करतीं मिल गयीं। लेकिन ख्याल रखने के नंबर मिलने के बजाय इस बात नंबर कट गये कि नंगे पैर क्यों बाहर आये?
इसी जगह पर मुझे याद आया गज की पुकार पर उसको बचाने के लिये भगवान का नंगे पांव भागना। मुझे लगता है भगवान जी अपनी स्क्रीन पर गज को ग्राह द्वारा पकड़े जाने का सीन आराम से देख रहे होंगे। सोचते होंगे जब गज पुकारेगा चिल्लाते हुये तब चले जायेंगे बचाने के लिये। यमराज से पहले ही सेटिंग हो गयी होगी कि इसको मारना नहीं है, बचाना है। स्पीड से निकलने वाले होंगे तब तक उनका पब्लिसिटी आफ़िसर आया होगा और चप्पल उतरवा दिया होगा कि भगवन इससे ज्यादा पब्लिसिटी मिलेगी। भगवान अपने पब्लिसिटी आफ़ीसर की बात कैसे मना करते ? लिहाजा चप्पल उतार के गये होंगे और बचाया होगा गज को।
अब फ़िलहाल इतना ही। आप मजे कीजिये। हम भी चलें दफ़्तर वर्ना हमको लेट होने से कोई बचाने नहीं आयेगा।
आपका हफ़्ता चकाचक शुरु हो।

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10209062442931703

Sunday, September 11, 2016

अरे भाई मेरे इतवार

अरे भाई मेरे इतवार
जरा हौले चलो यार।
हफ्ते भर बाद मिले हो
आते ही जाने को तैयार।
आओ बैठो चाय पियो,
थोड़ा बतियाते हैं यार।
--कट्टा कानपुरी

Saturday, September 10, 2016

संतोष की सांस

कल घर से निकलते समय हमने अपनी गाड़ी का मुखड़ा देखा। दफ़्तर से लौटते समय एक आटो अनजान तरीके से मेरी गाड़ी को रगड़ता चला गया था कुछ ऐसे जैसे भीड़ भरी बसों में मर्दाने लोग जनानी सवारियों पर हाथ/बदन साफ़ करते चलते हैं। मेरी गाड़ी सही सलामत थी। मैंने ईश्वर को लाख-लाख शुक्रिया दिया। लेकिन फ़िर याद आया कि शुक्रिया तो खुदा को दिया जाता है। ईश्वर तो धन्यवाद ग्रहण करते हैं। भन्ना न गये हों कहीं धन्यवाद की जगह शुक्रिया देखकर। हमने फ़ौरन ईश्वर को डेढ-डेढ लाख धन्यवाद रवाना किया और अनुरोध किया कि हमारे शुक्रिया वापस कर दें ताकि हम उनको खुदा के हवाले कर दें। लेकिन शुक्रिया वापस आया नहीं। जमा हो गया होगा कहीं गुप्त खाते में ईश्वर के। बहुत गड़बड़झाला है ऊपर वाले के यहां।
जब निकले तो तीन बच्चियां स्कूल जाते दिखीं। कन्धे पर हाथ धरे बतियाती, खिलखिलाती चली जा रही थीं। उत्फ़ुल्ल, उमंग भरी बच्चियों को स्कूल जाते देखकर मन खुश हो गया।
ओएफ़सी फ़ैक्ट्री के बाहर सड़क पर बैठी महिला की बिटिया उसके जुयें बीन रही थी। महिला टांग फ़ैलाये बैठी थी। उसका छुटका बच्चा उसकी पीठ से सटा इधर-उधर ताक रहा था। महिला जिस तरह बैठी थी आराम से उससे लग रहा था कि अपने आंगन में बैठी है । सड़क उसका आंगन ही तो हो गया है।
बगल में तमाम छुटपुट सामान बेचने वाले अलग-अलग कम्पनियों का छाता लगाये धूप से बचते हुये अपना बिक्री-बोहनी में जुटे थे। जिस कम्पनी का छाता था सामान सबका उस कम्पनी से अलग था। उसई तरह जैसे किसी पार्टी द्वारा दिये लैपटाप पर चलने वाले सोसल मीडिया के सहारे विरोधी पार्टी उसको चुनाव में पटक देती है।
आगे एक बुजुर्गवार बीच सड़क को अपना बाथरूम बनाये हर-हर गंगे कर रहे थे। पीछे मंदिर था, उसके पीछे फ़ुटपाथ। मतलब सड़क पर भगवान के भक्त कब्जा किये धर्म का प्रचार करने में जुटे हुये थे। धर्म का धंधे से सहज जुड़ाव धर्म के प्रसार में सुविधाजनक होता है।
ध्यान से देखा तो हर पन्द्रह-बीस कदम पर एक मंदिरनुमा अतिक्रमण सड़क पर दिखा। धार्मिक स्थल आजकल कमाई के स्थाई और कम खर्चे में लगाये जाने वाले धंधे बन गये हैं। क्या पता है कल को फ़लाने क्या करते हैं ? का जबाब लोग देना शुरु करें-" उनका अपना मंदिर है। अंधाधुंध कमाई है। दरोगा खुद वहां पूजा करता है। सोचते हैं हम भी गली के मुहाने पर एक मंदिर डाल लें।"
घर से निकलने में जरा देर हो गयी थी कल इसलिये जरा स्पीड से चल रहे थे। आगे वाली हर गाड़ी को दायें- बायें से ओवरटेक करते हुये निकलते जा रहे थे। कोई पैदल सवारी दिखती तो डर लगता कि कहीं उसको बीच से ओवरटेक करने का मन न हो जाये। यह सवारी का असर भी बहुत बुरा होता है। जितना आदमी उन पर चढता है उससे ज्यादा वे आदमी के सर पर सवार हो जाती हैं।
क्रासिंग भी खुली मिली जबकि हमने इसके लिये रेलवे मिनिस्टर को ट्विट भी नहीं किया था। एक ट्रक आगे इतना धीमे चल रहा था मानो सामने जयमाल के लिये कोई वाहन इंतजार कर रहा हो उसका। उसके बगल में एक खड़खड़ा वाला अपने घोड़े को उचकाता हुआ चला जा रहा। उसी खड़खड़े पर पीछे एक लड़का हाथ में थामे स्मार्टफ़ोन में मुंडी घुसाये चला जा रहा था। दुलकी चाल से जाते घोड़े को हमने हानियाया तो भड़ककर पहले थोड़ा बीच में फ़िर ज्यादा किनारे हो गया। हम फ़ुर्र से
आगे निकल लिये।
आगे पंकज बाजपेयी जी को देखकर हार्नियाये तो वे निपटान मुद्रा से उठकर खड़े हो गये। खिड़की खोलकर हाथ मिलाया। बोले-" जार्डन वाले लोग आये हैं। बच्चे खा जाते हैं। जयप्रकाश मिश्रा के बेटे को ले गये थे। कोहली के आदमी हैं। झकरकटी पुल के नीचे पकड़े गये हैं। कोई गन्दी चीज दे तो खाना नहीं।"
इसी तरह की बाते करते हैं बाजपेयी जी। एक दूसरे से संबद्ध-असंबद्ध। लेकिन भागते-दौड़ते बस दुआ सलाम ही हो पाती है। कभी तसल्ली से मिलने की प्रयास किया जायेगा। उनसे नमस्ते करते हम जो निकले तो सीधे दिहाड़ीखाने की चौखट पर ही रुके। समय से पांच मिनट पहले पहुंचने पर जो सांस ली उसे लोग संतोष की सांस कहते हैं।
वीकेन्ड वालों को वीकेंड मुबारक। बकिया को नौकरी मुबारक। फ़िलहाल इतना ही। शेष अगली पोस्ट में। 

Wednesday, September 07, 2016

व्यंग्य के बहाने-2



"अनूप शुक्ल कहते हैं कि कोई मठाधीशी नहीं है| हँसी आती है उनकी सीमित ज्ञान और अनुभव पर आधारित मान्यताओं पर| अरे, लिखने से पहले किसी भी अच्छे लेखक से पूछकर तो देख लेते| मसलन सुशील सिद्धार्थ से ही| जिन्होंने अपनी जगह बना तो ली, अगर वैसा कहा जा सके तो, पर कितने अवरोधों और उपेक्षाओं से पार पाने के बाद!"
यह बात सुरेश कांत जी ने अपनी 2 सितम्बर की एक पोस्ट में ’प्रभात खबर’ में छपा एक लेख साझा करते हुये कही (पोस्ट का लिंक यह रहाhttps://www.facebook.com/profile.php…)
मैंने जो लिखा था वह यह था :
" आज की तारीख में छपने, छपाने, पाठकों तक पहुंचने की जैसी सुविधा है उसके चलते मठाधीशी जैसी स्थिति कत्तई सम्भव नहीं है। अगर किसी के पास लिखने का हुनर है तो उसको छापने के अनगिनत मंच हैं। अगर कोई अच्छा लिखता है तो वह किसी ने किसी तरीके से देर-सबेर लोगों तक पहुंचता ही है। कोई भी खलीफ़ा किसी को अपने पाठकों तक पहुंचने से रोक नहीं सकता। किसी की मठाधीशी नहीं चल सकती आज के समय में किसी भी विधा में। लोग अपने-अपने ग्रुप बनाकर अपने पसंदीदा की तारीफ़ करें, अपने पसंदीदा को देवता बनाकर पूजें वह बात अलग है। संविधान भी अनुमति देता है अपने हिसाब से पूजा पाठ के लिये। "
सुरेश जी की पोस्ट पर मैंने टिप्पणी करते हुये लिखा था कि इस बात पर फ़िर कभी लिखूंगा।
सुरेश जी ने हमारी बात को सीमित ज्ञान और अनुभव पर आधारित मान्यता बताते हुये किसी अच्छे लेखक से पूछने की सलाह दी। मसलन सुशील सिद्धार्थ से ही। सुशील सिद्धार्थ को ’मसलन’ हम भी अच्छा लेखक मानते हैं लेकिन फ़ेसबुक पर उन्होंने हमको ब्लाक कर रखा है क्योंकि हमने एक लेख में ज्ञान जी (जिनको सुशील जी व्यंग्य लेखन में देवता मानते हैं) एक लेख पर उनके लेख के विपरीत टिप्पणी की थी। तो उनसे कैसे पूछे?
यह तो खैर मजे लेने की बात हुई। आज सुशील जी से बात हुई व्हाट्सएप पर तो उन्होंने सुरेश जी बात को उनका बड़ प्पन बताया, सुरेश जी के लिये नमस्कार पठाया और उनकी बात को विचारणीय बताया।मठाधीशी बहुत दिन चली। नामवर सिंह, कालिया, राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर की बहुत चली। आज भी किसी न किसी रूप में जारी है। ये रूप इतने स्थूल नहीं हैं जितने हम समझ रहे हैं। इसके पहले उन्होंने यह भी कहा -आज, यह कहा आपने तो सोशल मीडिया आने के बाद कम हुई है (मठाधीशी)
हमारी बात आज के ही संदर्भ में थी। आज सोशल मीडिया में हर व्यक्ति को यह सुविधा है कि वह अपना लिखा हुआ कूड़ा या कालजयी लेखन दुनिया भर में पहुंचा सकता है। किसी संपादक की कृपा का मोहताज नहीं है कोई। अखबारों, पत्रिकाओं में छपना आज भी अच्छा लगता है लेकिन अगर लिखा अच्छा है तो अखबार चुराकर छापेंगे ।
हम अपने अनुभव से जो जानते हैं वह यह है कि आज के समय में अगर कोई अच्छा लिखता है तो उसके लिखे को सामने आने से कोई रोक नहीं सकता। किसी को अगर लगता है कि उसकी मठाधीशी चल रही है तो वह भरम में ही होगा। हाँ, लाभ के पद पर कोई है तो उपकृत करने का धंधा करते हुए तात्कालिक फायदे कोई किसी को भले पहुंचा सकता हो। कोई किसी की किताबें छपवा दे, कोई किसी को इनाम दिलवा दे, कोई किसी को महान घोषित करा दे, कोई किसी की कृति को महानतम बता दे।
इसके उलट किसी के बारे में प्रायोजित नकारात्मक प्रचार भी किया जा सकता है। किसी कृति को खराब बताते हुए उसकी ऐसी-तैसी कर सकता है कोई। जैसी 'हम न मरब' की व्यंग्य यात्रा में छपे लेख में की गयी। पर इससे उस कृति का कुछ बिगड़ता कुछ नहीं। उलटे प्रचार ही होता है। हमने जब उस लेख के बारे में पढ़ा तो किताब मंगवाई। उसको पढ़ा। उसके बारे में लिखा। फिर कल वह लेख मंगवाया। लेख और किताब दोनों पढ़ने के बाद यही लगा कि लेख एकांगी है। वह केवल गालियों पर केंद्रित है। उपन्यास , बावजूद तमाम गालियों के, बेहतरीन उपन्यास है। व्यंग्य या फिर उपन्यास के इतिहास वह उपन्यास कहाँ रखा जाएगा यह समय बताएगा।
मठाधीशी इनाम लेने- देने में हो सकती है। ज्यादा समय जो जिस विधा में रहा और पहले आने के चलते अपनी प्रतिभा या जुगाड़ से इनाम कमेटियों में घुस गया वह अपने पसंद के लोगों को इनाम-विनाम दिलवा सकता है। यह भी कर सकता है कोई कि किसी को 5 लाख इनाम दिलाने में किसी ने सहयोग किया इसके बाद टिप के रूप में 5 लाख इनाम पाने वाले ने इनाम दिलाने वाले को 1 लाख रूपये का इनाम अपनी माता-पिता के नाम ट्रस्ट बनाकर दिला दिया। 4 चार तो बचा लिए। यह काम लोग जितने गुपचुप तरीके से और मासूमियत से करते हैं लोगों को उतनी ही तेजी से इनका पता चलता है। लेकिन इस तरह के काम तो जीवन के हर क्षेत्र में हो रहे हैं। बेचारा व्यंग्यकार ही क्यों इनसे वंचित रहे।
मठाधीशी का हल्ला कुछ आदतन भी मचाया जाता है। शायद यह लगता है कि बिना विरोध हुए प्रसिद्धि नहीं मिलती इसलिए लोगों के विरोध कम उपेक्षा को लोग बढ़ाचढ़ाकर प्रचारित करते हैं। स्यापा करते हैं। दो चार लोगों के विरोध को 'इंट्रीगेट करके' पूरे जहां का विरोध बताते हैं। कुछ ऐसा जैसा गीतकार उपेन्द्र जी बताते हैं:
'माना जीवन में बहुत-बहुत तम है
लेकिन तम से ज्यादा तम का मातम है।'
मेरा अपना अनुभव है कि अगर आज कोई बढ़िया लिखता है तो उसके लेखन को कोई सामने आने रोक नहीं सकता है। हो सकता है दुर्भावनावश कोई उपेक्षा करे या विपरीत विचार व्यक्त करे लेकिन अगर कोई अच्छा लिखता है तो लोग उसके लेखन तक अवश्य पहुंचेंगे। कोई इसको रोक नहीं सकता। पाठक जिक्र करते हैं, लेखक बताते हैं कि फलाने का लिखा पढ़ो।
आज के समय लेखन का लोगों तक पहुंचना आसान है। रांची में छपा 'प्रभात खबर' में छपा मुंबई वाले और मुंबई में छपे नवभारत टाइम्स का कालम न्यूयार्क में छपने के फ़ौरन बाद पढ़ा जा सकता है। कोई अच्छा लिखता है तो उसके लिंक वायरल होते हैं। परसाई जी के उद्धरण हमने पोस्ट किये तो सैकड़ों लोगों ने साझा किये। अच्छे लेखन सुगन्ध की तरह अपने आप फैलता है। उसको बहुत दिनों तक दबाया नहीं जा सकता। वह लोगों तक पहुंचेगी ही। देर भले हो जाए पहुंचने में लेकिन पहुंचेगी जरूर।
बाकियों के अनुभव पता नहीं कैसे रहे होंगे लेकिन मुझे तो यही लगता है कि आज के समय में लेखन के क्षेत्र में किसी की मठाधीशी चल नहीं सकती। जो कभी मठाधीश रहे भी होंगे उनके हाल आज के संचार के युग में रागदरबारी के दूरबीन सिंह सरीखे ही होते जाएंगे।
यह मेरा मानना है। अपने अनुभव और विश्वास के आधार पर। कोई मठाधीशी लेखन और खासकर व्यंग्य लेखन के क्षेत्र में चल नहीँ सकती।
आपका क्या मानना है?

मॉल मे दबा हमारा मुफ़्त का सामान



इतवार को करने को खूब सारे काम जमा हो जाते हैं करने को। 6 दिन के कामकाजी दिन जो तमाम काम छोड़ देते हैं वो बेचारे इतवार को निपटाने होते हैं। बहुत बड़ा बोझ होता है इतवार के मासूम कन्धों पर। नौकरीशुदा लोग इतवार का इंतजार उसी तरह करते हैं जैसे लोग अपने समाज के कष्टों के निवारण के लिये किसी अवतार का इंतजार करते हैं। लेकिन अकसर होता है कि इतवार भी अवतारों की तरह ऐसे ही निकल जाता है और लोग फ़िर अगले इतवार/अवतार का इंतजार करने लगते हैं।
कामकाजी लोगों के लिए इतवार का सबसे बड़ा काम होता है खरीदारी का। हफ्ते भर जो कमाया वो हिल्ले लगाने का। बाजार कहता है लाओ वो सब माल मत्ता वापस जो हमसे बचा के धर लिया अपने पास। हफ्ते भर में जो पैसा बच जाता है खर्च होने से वह बाजार जाने के लिए उसी तरह हुड़कता है जैसे महिलाएं शादी के बाद मायके जाने के लिए हमेशा तैयार रहती हैं।
इतवार को जब मॉल गए तो 10 बजे थे। एक बार फ़िर से पता चला 11 बजे खुलता है मॉल । हम टहलने लगे अंदर घुसकर। मॉल में सन्नाटा पसरा था। एक कपडे की दुकान पर एक मैनीक्वीन देखी। बिना गर्दन की मैनिक्वीन देखकर लगा कि क्या कोई इसकी गर्दन काट के ले गया रात को।
एस्केलेटर शांत थे। चुपचाप पसरे पड़े थे धूप में सूखने को डाले गए कपड़ों की तरह!
कुछ देर में मॉल की नींद टूटी। लोग पैसे खर्चने के लिये आने लगे मॉल में। लेकिन हमने सोचा हम खर्च नहीं करेंगे, पैसा बचायेंगे। हम एक कॉफ़ी की दुकान के पास खड़े हो गये। सोचा कॉफ़ी पियें लेकिन फ़िर नहीं पिये। बचा लिये 100 रुपये। बहुत दिन से जूते खरीदने की सोच रहे थे। सोचा आयें हैं तो खरीद ही लें। लेकिन नहीं खरीदे और बचा लिये 5000 रुपये। इस तरह घंटे भर में हमने करीब दस हजार रुपये तो बचा ही लिये होंगे। मल्लब मॉल में आना वसूल हो गया।
जब इत्ते पैसे बचा लिये तो सोचा इसको सेलेब्रेट भी किया जाये। सेलेब्रेट करना मतलब खर्चा करना। आजकल बिना खर्चे के लोग खुशी को खुशी नहीं मानते। खुशी मतलब खर्चा। जिनके पास पैसा इफ़रात है उनका तो मानना है - ’खर्च माने खुशी।’ ऐसे लोग अगर कभी खर्च नहीं कर पाते तो बीमार पड़ जाते हैं।
खर्चे वाली बात तो ठीक लेकिन मॉल के बचे पैसे मॉल में ही खर्च करना ऐसा ही हुआ न कि चाय पानी के लिये घूस लेकर देने वाले को ही चाय पिलाई जाये। इसलिये सोचा बाहर सड़क पर खड़े होकर चाय पीते हैं , मॉल की तरफ़ मुंह करके। पांच रुपये की चाय पियेंगे और मॉल को चिढायेंगे कि देख बचा लिये तुमसे बचाये ४५ रुपये। लेकिन फ़िर सोचा किसी की इत्ती भी बेइज्जती करना ठीक नहीं। बेचारा रुंआसा हो जायेगा।
जब तक दुकानें खुलतीं तब तक सोचा जरा टहल लिया जाये। सोच पर फ़ौरन अमल भी कर दिया। टहलने लगे। बंद दुकाने आहिस्ता-आहिस्ता खुलने लगी थीं। सामने शौचालय दिखा तो वहीं सोच भी आ गई कि इसका उपयोग भी किया जाये। लेकिन शौचालय बंद था। शायद मॉल वालों को डर लगा रहता होगा कि बाहर सड़क से आकर शौचालय का उपयोग न कर जाये। कोई सड़क वाला मॉल में निपट के चला जाये तो मॉल की बेइज्जती होगी न ! इसीलिये शौचालय के पट भी 11 बजे ही खुलते होंगे।
वहीं एक लड़की अपने साथी के साथ एस्केलेटर पर चढने से डर रही थी। साथी उसको हिम्मत बंधा रहा था। लेकिन लड़की डरती जा रही थी। छुट्टी का दिन होने के चलते लड़की डरने में कोई हड़बड़ी नहीं कर रही थी। इत्मिनान से डर रही थी। लड़का भी बिना जल्दबाजी के तसल्ली से हिम्मत बंधा रहा था। हमारा मन किया लड़की को एस्केलेटर पर चढने के लिये हम भी जल्दी से थोड़ी हिम्मत बंधा दें। लेकिन फ़िर उसके अंजाम के बारे में सोचकर हमने हिम्मत को दफ़ा कर दिया। जब हमारी हिम्मत हमको टाटा करके विदा हो रही थी तब ही देखा कि लड़के की हिम्मत परवान चढ गयी। दोनों लोग मुस्कराते हुये एस्केलटर पर चले गये। उनको मुस्कराता देखकर एस्केलेटर भी मुस्कराने लगी। मॉल भी साथ लग लिया। हम भी कैसे पीछे रहते फ़िर। हमने मुस्कराते हुये सोचा - मुस्कान भी संक्रामक होती है।
11 बजे के बाद मॉल खुल गया पर वह दुकान नहीं खुली जिसमें हमको सामान लेना था। लेकिन शीशे वाले दरवाजे से दिख रहा था कि अंदर सामान बेचने वाले सज-संवर रहे थे। ज्यादातर महिलायें। पहले तो हमने सोचा कि लगता है कि इनको पता चल गया है कि हम आये हैं सामान लेने इसीलिये अच्छे से तैयार होने के बाद ही खोलेंगे लोग दुकान। यह भी सोचा कि मना कर दें कि इत्ता सब ताम-झाम काहे के लिये भाई। लेकिन फ़िर नहीं किये। सजने संवरने से किसी को क्या टोंका जाये। आजकल देख ही रहे हैं पहनने ओढने पर कोई टोंकता तो लोग कित्ता गुस्साने लगते हैं टोंकने वाले पर।
12 बजे जब सब लोग सज लिये तब मॉल खुला। हम सामने के तीन-चार पुरुषों वाले काउंटर फ़लांगते हुये एक महिला काउंटर पर पहुंचे। लेकिन उसने हमको बगल वाले पुरुष काउंटर पर भेज दिया। हमको बड़ा गुस्सा आया कि अरे वही दे देती सामान तो क्या घट जाता उनका। सोचा आगे भुगतान करते समय हिसाब बराबर हो जाये शायद लेकिन वहां भी एक बालक मिला। उसने सामान के पैसे तो लिये ही साथ में पूछकर एक रुपया और धरा लिया चैरिटी के नाम पर। दुकान वाले का कोई एनजीओ चलता है उससे बच्चों की पढाई होती है। अब बच्चों की पढाई के लिये कोई कैसे मना करे।
काउंटर पर बातचीत न हो पाने की कमी हमने लौटते समय दुकान के गेट पर तैनात महिला दरबान से बतिया के पूरी की। उसने बताया कि रात दस बजे तक खड़े-खड़े ड्यूटी बजानी होती है। अब तो आदत हो गयी है। हमको कोई भी मॉल इसई लये पसंद नहीं क्योंकि वहां कामगारों के बैठने का कोई इंतजाम नहीं होता।
दूसरी दुकान से भी कुछ सामान लेना था। वहां गये तो लगा कि किसी स्कूल की बच्चियों को मॉल वाले पकड़ लाये हैं सामान बेंचने के लिये। या फ़िर शायद छोटी-छोटी बच्चियां इतवार को स्कूल की छुट्टी के दिन अपना होमवर्क छोड़कर यहां चली आई हैं।
हर सामान में बताया गया था कि इसको खरीद लो इत्ता इसमें मुफ़्त में मिलेगा। हमारा मन किया काउंटर पर जाकर बोलें- ’ यार भाई तू ऐसा कर कि ये जो मुफ़्त वाला सामान है बस वही तौल दे हमको। हमारा काम इत्ते में ही चल जायेगा। इससे ज्यादा हमें और कुछ नहीं चाहिये।’ लेकिन मुझे पता है कि वह देगा नहीं आसानी से। आसानी से क्या मुश्किल से भी नहीं देगा।
हर मॉल वाला हमारा मुफ़्त का मिलने वाला सामान दाबे हुये हैं। हम कुछ कर नहीं पा रहे हैं। सरकारे भी चुप्प हैं।
कभी-कभी तो मन करता है कि थाने मे रिपोर्ट लिखाई जाये कि ये मॉल वाला मुफ़्त वाला हमारा सामान हमको नहीं दे रहा। इसके खिलाफ़ फ़ौरन कार्रवाई की जाये। लेकिन हमको पता है कि थाने वाला भी मिला हुआ है मॉल वाले से। इसलिये कुछ होना -जाना है नहीं।
यही सब सोचते हुये वापस चले आये। बात तो दो दिन पुरानी है लेकिन सोचा आपको बता दें।

Monday, September 05, 2016

ये वाला पेड़ हमको फ़ैलने नहीं देता



आज सबेरे निकले तो घर के बाहर ही एक कुत्ता पीठ के चारो टांग ऊपर किये सड़क से पीठ खुजा रहा था। पीठ के जिस हिस्से में खुजली हो रही थी उस हिस्से को सड़क पर रगड़ने के लिये वह इधर-उधर हो रहा था। चारो पैर आसमान की तरफ़ नागिन वाले डांस की मुद्रा में उठे हुये थे। सूरज भाई उसके खुले पेट पर किरणों की बौछार करते हुये विटामिन डी का छिड़काव कर रहे थे। कुत्ता खुजली और धूप का एक साथ आनन्द लेते हुये मस्त था। कौन उसको दफ़्तर जाना था।
कुत्ते के बगल से गुजरते हुये मैंने सोचा अगर कहीं यह भी फ़ेसबुक पर होता तो अपने मित्रों को टैग करते हुये चैलेन्ज करता । फ़िर उसके मित्र सड़क पर पीठ खुजाते हुये छाती धूप में सुखाते हुये ’चैलेंज एक्सेप्टेड’ का बवाल काटते। लेकिन थैंक गाड ,मल्लब शुक्र खुदा का, यानि की भगवान की दुआ से ये कुत्ता फ़ेसबुक पर नहीं है ।
स्कूल के पास दो बच्चे साइकिल के कैरियर पर बैठे बतिया रहे थे। बच्चे उमर में छोटे थे लेकिन अपनी उमर से बडे लग रहे थे। उनकी मुद्रा से लग रहा था शायद वे आपस में इस बात की चर्चा कर रहे हों -’यार ये मास्टर लोग पढ़ाना कब सीखेंगे।’ शायद अगला कह रहा हो-’मास्टर को कन्या विद्याधन, मिड डे मील, जनसंख्या और चुनाव ड्यूटी से फ़ुरसत मिले तब तो पढाये।’
आगे सड़क पर एक बच्चा पीठ पर बस्ते को बम की तरह लादे एक संटी सड़क से सटाये रगड़ता हुआ चला आ रहा था। ऐसा लगा कि स्कूल पहुंचते ही उस मास्टर को पीट देगा जिसके जिम्मे बच्चों को पुस्तक वितरण का काम है। दो महीने हो गये अभी तक मुफ़्त बंटने वाली किताबें नहीं बंटी। आईं ही नहीं अब तक छपकर। जिम्मेदार कोई हो -पिटना तो मास्टर को ही है।
अस्पताल चौराहे पर एक बच्ची को कोई स्कूटर सिखाता दिखा। बच्ची ने हेलमेट लगा रखा था। सिखाने वाला नंगे सर। लगता है उनका समझौता हुआ है सड़क से कि गिरेंगे तो उनको चोट नहीं लगेगी।
सड़क एकदम खाली थी। सामने दूर-दूर तक पेड़ किनारे खड़े पेड़ ऊपर के आसमान पर कब्जा करने की कोशिश में सड़के के ऊपर छाये हुये थे। बांय़े तरफ़ का एक पेड़ दायीं तरफ़ के पेड़ के आसमान पर छाया हुआ था। दायीं तरफ़ का आसमान पीछे होकर हिलते हुये उसको गरिया सा रहा था। शायद कह रहा हो- ’ये वाला पेड़ हमको फ़ैलने नहीं देता।’
जरीब चौकी के पास बायीं तरफ़ एक बुजुर्ग वार सूरज को जल चढा रहे थे। लोटा सर के ऊपर किये उपर से जलधार सड़क पर छोड़ते जा रहे थे। जल सीधे सूरज तक पहुंचे इसलिये थोड़ा सा उचकते भी जा रहे थे जल चढाते हुये। जिस जगह पानी गिर रहा था सड़क पर उस जगह की धूल अकबकाकर अगल-बगल भागी। जो नहीं भाग पायी वह भीग गयी। भीगने के बाद फ़िर वह वहीं पड़ी रही। उसको लग रहा होगा -"कपड़े भीगने के बाद भागेगी तो कोई फ़ोटो खैंचकर फ़ेसबुक पर अपलोड कर देता तो भद्द होती न!" बड़ी आफ़त है सार्वजनिक जीवन में आधी आबादी के लिये।
पंकज बाजपेयी अपनी जगह पर बैठे दिखे। देखते ही गुडमार्निंग हुआ। बोले-’ विदेशी आये हुये हैं। बजरिया थाने में पकड़े गये हैं। बच्चों को पकड़ के ले जा रहे हैं। जार्डन से आये हैं। बच्चों को बचा के रखना। अकेले मत निकलना। सावधान रहना।’ हम उनसे हाथ मिलाकर चले आये। वे वहीं सूरज भाई की तरफ़ मुंह करके बैठ गये।
टाट मिल के आगे चौराहे पर बच्चे सड़क पर खेल रहे थे। सड़क और बिखरा समाज ही उनका गुरु है। शिक्षक दिवस के दिन कभी गुरु को याद करने का मौका मिला तो यही सब याद करेंगे बच्चे। उनको देखते हुये हम आगे चलते हुये समय पर दाखिल दफ़्तर हो गये।
यह फ़ोटो जो लगाई वह कल की है। इसके बारे में फ़िर कभी। वैसे ठग्गू के लड्डू का डायलाग लगता है आज सबने अपना लिया है:
ऐसा कोई सगा नहीं,
जिसको हमने ठगा नहीं।

Saturday, September 03, 2016

'मॉर्निंग, मॉर्निंग', 'सूरज, सूरज'

कल सुबह चार बजे उठे। हड़ताल थी न कल। इसलिए जल्ली जाना था। हड़ताल सुबह 6 बजे से शुरू थी। हमको उसके पहले जमा हो जाना था फैक्ट्री में।
तैयार होकर निकले तो 5 बज चुके थे। पक्षी अलग-अलग आवाजों में हल्ला मचा रहे थे। सबसे पहली आवाज पीहू पीहू की सुनाई दी। फिर केहु केहु की। इसके बाद तो फिजां में प्राइम टाइम सरीखा हल्ला मचने लगा। हर तरफ से आवाज। एक आवाज के जबाब में चार आवाजें। मनो पक्षी लोग भी आपस में आरोप प्रत्यारोप खेल रहे हों। किसी ने एक आरोप लगाया तो अगले ने उसके चार गिना दिए।
घर गेट के पास दो कुत्ते आरामफर्मा थे। गाड़ी की आवाज सुनकर उबासी लेते हुये एक ने मेरी तरफ देखा मनो कह रहा हो -'बगल से निकाल लो यार।' उसके 'यार मुद्रा' से लगा कि बताओ अब कुत्ते भी 'यार' बोलने लगे। पर हमने 'बी पॉजिटिव' होते हुए सोचा कि कितनी अच्छी बात है कि कुत्ते तक यार बोलते हैं। यह पॉजिटिव सोच बहुत सहायक होती हमेशा। आदमी नर्क में भी स्वर्ग सरीखे एहसास के साथ जी लेता है।
लेकिन यह 'कुत्ता यार' वाली बात किसी से बताई नहीं वर्ना कोई कह सकता है -' कुत्ते ही तुम्हारे यार हो सकते हैं।' आप भी अपने तक ही सीमित रखना यार । किसी को बताना मती। बेकार बवाल होगा।
'यार कुत्ते' के साथ वाला कुत्ता समझदार था। चुपचाप उठा और किनारे सो गया। पहलेवाले ने भी मुझे देखना छोड़कर थोड़ी झल्लाहट के साथ रास्ते से हटने का विकल्प अपना लिया।
सड़क पर टहलने वाले मुस्तैद थे। कुछ लोग फुर्ती से और कुछ आराम से टहल रहे थे। कुछ अकेले। कुछ जोड़े से। लोगों को टहलते देख हमारा मन किया कि हम भी सुबह जल्दी उठा करें। लेकिन आज वह मन अपने तन सहित सुबह सोता ही रहा।
सड़क पर गायें 'धरना मुद्रा' में थीं। पूरी सड़क छेंक कर बैठी गायें हड़ताल को मूक समर्थन सा दे रही थीं। गायें पढ़ी लिखी नहीं होतीं वर्ना जो अख़बार वे चबाती हैं उनको अगर वे पढ़ पातीं तो उनको इस बात का एहसास होता कि वे कितनी ताकतवर हो सकती हैं। उनके खबर मात्र हुकूमत हिला देती हैं।
मुझे लगा कि गायें अगर अपनी ताकत पहचान पातीं और उनकी भी ट्रेड यूनियन होती तो इस तरह सड़क पर आँख मूँद कर पगुराते हुए धरना सड़क पर बैठने के बजाए पूँछ उठाकर कहीं नारेबाजी कर रहीं होती:
'हमें पालीथीन नहीं चारा दो
हमको अधिकार हमारा दो।
दूध दिया हमने तुमको पीने को
हमें जीने का अधिकार हमारा दो।'
लेकिन जहां पढ़ा-लिखा आदमी अपनी मर्जी से 'खुद कुर्बानी' और 'खुद बर्बादी' वाले विकल्पों पर निशान लगा रहा हो वहां गायों से आंदोलन की आशा करना तो बेवकूफी से भी बड़ी वाली 'आशावादिता' होगी।
फैक्ट्रियों के बाहर हड़ताल समर्थक लोग झंडे फहराने में लगे थे। हम चूंकि जरा जल्ली ही निकले थे इसलिए आसमान ताकने लगे।
सबेरा अभी हुआ नहीं था लेकिन पेड़ पौधे हिल-डुलकर सबेरे के स्वागत में मुस्तैद खड़े हो गए थे। आसमान में एक तरफ जरा ज्यादा उजाला था। पेड़ों की फुनगियों को अंदाज लग गया कि सूरज भाई वहीं से निकलेंगे। युवा फुनगियां उचक-उचककर 'मॉर्निंग, मॉर्निंग', 'सूरज, सूरज' कहते हुए हवाओं की सीटियां बजाते हुए सुबह का स्वागत कर रहीं थी।
सड़क किनारे डिवाइडर पर कुछ पौधे जालीदार जंगलों में खड़े आती-जाती गाड़ी का धुआं गटकते हुए चुपचाप खड़े थे। जंगलों के अंदर खड़े पौधों को देखकर ऐसा लग रहा था मानों किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में बड़े हाल में क्यूबिकल में कैद युवा बिना हिले-डुले काम कर रहे हों। एक पौधा जंगले समेत डिवाइडर पर लुढ़का पड़ा था। शायद वह प्रदूषण का दबाब सहन नहीं कर पाया और 'शांत' हो गया।
सुबह ज्यादा थी। पंकज बाजपेयी दिखे नहीं। उनको कौन काम पर जाना था। हम आगे निकल लिए।
सड़क किनारे लोग गुड़ीमुड़ी हुए सो रहे थे। एक आदमी अपनी मुंडी घुटने में घुसाये सो रहा था। दुष्यंत कुमार का शेर सामने आकर खड़ा हो गया :
ना हो कमीज तो पावों से पेट ढँक लेगें,
ये लोग कितने मुनासिब है, इस सफ़र के लिए !
आगे एक दूध की गाड़ी जा रही थी। एक आदमी अपनी ऊंचाई से भी ऊँची लोहे की ट्रे में दूध के पैकेट सम्भाले हिलता-डुलता खड़ा था। हमसे बहुत पहले निकला होगा वह। रोज निकलता होगा।
फैक्ट्री जब पहुंचे तो सूरज भाई सामने दिख गए। मुस्करा के गुडमार्निंग किया। उनके साथ की किरणें खिड़की से अंदर घुस आयीं और हमारी कमीज पर उछलने - कूदने लगीं। हमने टोंका -'अरे क्या करती हो कमीज गन्दी हो जायेगी।' इस पर वे इत्ता जोर से खिलखिलाने लगी की हर तरफ उजाला फ़ैल गया।
यह तो कल का किस्सा । आज का फिर कभी। ठीक न ? :)ना हो कमीज तो पावों से पेट ढँक लेगें, ये लोग कितने मुनासिब है, इस सफ़र के लिए !

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Thursday, September 01, 2016

व्यंग्य के बहाने



कल सुबह व्यंग्य पर कुछ लिखना शुरू किया था। पूरा नहीं हुआ तो सोचा बाद में लिखेंगे। सेव करके छोड़ दिया। दोपहर को लंच में जब समय मिला तो जित्ता लिखा था वो पोस्ट कर दिया। उसके बाद समय ही नहीं मिला। मिला भी तो हमारे रोजनामचे ने झटक लिया। व्यंग्य की बात किनारे धरी रह गयी। अब जब सुबह समय मिला, आधे घण्टे का, तो वो सारे आइडिया फूट लिए जो कल हल्ला मचा रहे थे कि हमारे ऊपर लिखो, हमारे ऊपर लिखो।
आजकल का अधिकांश व्यंग्य शायद इसी अंदाज में लिखा जा रहा है। न भी लिखा जा रहा हो तो हम तो ऐसा ही सोचते हैं। जैसा हम करते हैं वैसा ही तो दूसरों के बारे में सोचेंगे न।
अधिकतर व्यंग्य लेखक नौकरी पेशा वाले हैं, दिन में कब्बी समय मिला तो लिख मारा। कहीं भेज दिया। छप गया तो ठीक। वर्ना कल फिर देखा जाएगा। जो लोग नियमित लिख लेते हैं, छप भी जाते हैं वे वास्तव में 'व्यंग्य ऋषि' हैं। अपनी तपस्या मन लगाकर करते हैं। उनमें से ज्यादातर तप स्या का वरदान भी हासिल करके ही रहते हैं।
आज प्रकाशन के इतने अवसर हैं कि हर शहर में सैकड़ों तो व्यंग्य लिखने वाले होंगे। उनके व्यंग्य संग्रह नहीं आए, अख़बारों में नहीं छपे यह अलग बात होगी। अख़बार, पत्रिकाओं में छपने के लिए नियमित लेखन, नियमित भेजन और काम भर का धैर्य चाहिए होता है। अख़बार में जो भी छापने वाले होते हैं वे नियमित कॉलम वालों के अलावा पलटकर बताते नहीं हैं कि लेख छाप रहे हैं कि नहीं। आखिरी समय तक अपने पत्ते नहीं खोलते कि आपका लेख छापेंगे कि नहीं।
जब सैंकड़ों लोग लिख रहे हों और उनमें से कुछ अच्छा भी लिख रहे हों तो बाद चलने पर व्यंग्य लेखन की बात दो-तीन चार लोगों तक सीमित कर देने वाली बात 'हमारी सूर-सूर, तुलसी-शशि उडगन केशव दास' वाली परम्परा का हिस्सा है।
दो तीन नाम गिनाकर उनको व्यंग्य का पर्याय बताना अपने यहां की 'कुंजी परम्परा' का प्रसार है। इम्तहान में पास होने के लिए किताब पढ़ने की जरूरत नहीँ बस इनको पढ़ लो, पास हो जाओगे। इसीतरह लेखन को भी दो तीन नामों तक सीमित करके बाकी सब को 'उडगन' में शामिल कर दिया जाता है। अब जुगनुओं के नाम तो होते नहीं, सो जिनको सूरज नाम मिल गया उनको ही चमकने वाला बता दिया गया। नया जो आएगा इस दुनिया में वह भी इन्हीं कुंजियों से पढ़ेगा।
मेरी समझ में साहित्य हो या जीवन का कोई भी क्षेत्र हो उसमें कभी अकेले का सम्पूर्ण योगदान नहीँ होता। जो शीर्ष पर है उसके अलावा भी अनगिन लोग उस क्षेत्र में शामिल होते हैं। जिनका जिक्र सरलीकरण और समयाभाव में नहीं हो पाता होगा।
गंगोत्री और अमरकण्टक के उदाहरण से मुझे अक्सर याद आता है। नर्मदा जब अमरकंटक से निकलती है तो बहुत पतली धार होती है, एकदम घर के पानी के नल सरीखी। लेकिन आगे चलकर जब सौंदर्य की नदी बनती है। यह सौंदर्य सामूहिकता का सौंन्दर्य होता है। अमरकंटक से निकली एक पतली धार को सौंदर्य की नदी बनाने में रास्ते में मिलने वाले अनगिनत जलस्रोत सहयोग करते हैं। केवल अमरकंटक के पानी से नर्मदा जीवनदायी नदी नहीं बनती। अनगिनत जलस्रोतों का सहयोग उसमें होता , नाम भले ही केवल अमरकंटक का ही होता हो। बाकी लोगों का नाम लोग जान भी नहीं जानते हैं।
लेकिन दुनिया में संतुलन का सिद्धांत हमेशा काम करता है। जिनका अच्छा काम होता है वह कभी न कभी सामने आता है। खराब काम जो कभी बहुत उछलता कूदता रहता होगा समय उसमें उसमें अपनी पिन चुभाता रहता है।
साहित्य का क्षेत्र भी जीवन से अलग नहीं है। कुछ क्या बहुत कुछ खराब लेखन सामने हल्ला मचाता है और बहुत कुछ अच्छा सामने नहीँ आ पाता। लेकिन कभी-कभी न कभी अच्छे तक लोग पहुँचते ही हैं। समय बहुत बड़ा संतुलनकारी तत्व है।
यह सब बातें बिना किसी तारतम्य के ऐसे ही। किसी और से ज्यादा अपने लिये।
बाकी फिर कभी। लिखें कि नहीं ? 
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Wednesday, August 31, 2016

व्यंग्य के बहाने -१


व्यंग्य लेखन के बारे में अक्सर छुटपुट चर्चायें होती रहती हैं। लोग अपने अनुभव के हिसाब से बयान जारी करते रहते हैं। शिकवा, शिकायतें, तारीफ़, शाबासी भी चलती ही रहती है। कभी-कभी लम्बी चर्चा भी होती रहती है। कुछ बातें जो अक्सर सुनने में आती रहती हैं:
१. व्यंग्य संक्रमण के दौर से गुजर रहा है।
२. व्यंग्य में मठाधीशों का कब्जा है।
३. नये-नये लोग लिखने वाले आते जा रहे हैं।
४. नये लोगों को लिखना नहीं आता, उनको जबर्दस्ती उछाला जाता है।
५.पुराने लोग नये लोगों को तवज्जो नहीं देते।
६. नये लोग पुरानों की इज्जत नहीं करते।

इसी तरह की और भी बातें उछलती रहती हैं। समय-समय पर। खासकर किसी इनाम की घोषणा के समय। जिसको इनाम मिलता है, वह बेचारा टाइप हो जाता है। सामने तारीफ़ होती है, पीछे से तारीफ़ को संतुलित करने के लिये जबर खिल्ली उड़ाई जाती कि इसको भी इनाम मिल गया, इसको तो लिखना भी नहीं आता, अब तो भगवान ही मालिक है व्यंग्य का। कुछ नाम ऐसे भी हैं जिनको कोई भी पुरस्कार मिलता है तो कहा जाता है इनाम सम्मानित हुआ है इनको सम्मानित करने से। वह बात अलग है कि उनके  भी किस्से चलते हैं कि कैसे इनाम जुगाड़ा गया, क्या समझौते हुये। लेकिन इनाम की छोडिये- इनाम तो हमेशा छंटे हुये लोगों को मिलता है।

सबसे पहले बात मठाधीशी की। आज की तारीख में छपने, छपाने, पाठकों तक पहुंचने की जैसी सुविधा है उसके चलते मठाधीशी जैसी स्थिति कत्तई सम्भव नहीं है। अगर किसी के पास लिखने का हुनर है तो उसको छापने के अनगिनत मंच हैं। अगर कोई अच्छा लिखता है तो वह किसी ने किसी तरीके से देर-सबेर लोगों तक पहुंचता ही है। कोई भी खलीफ़ा किसी को अपने पाठकों तक पहुंचने से रोक नहीं सकता। किसी की मठाधीशी नहीं चल सकती आज के समय में किसी भी विधा में। लोग अपने-अपने ग्रुप बनाकर अपने पसंदीदा की तारीफ़ करें, अपने पसंदीदा को देवता बनाकर पूजें वह बात अलग है। संविधान भी अनुमति देता है अपने हिसाब से पूजा पाठ के लिये।
-आगे भी लिखा जाये क्या ? 

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10208951861127227