कल सुबह चार बजे उठे। हड़ताल थी न कल। इसलिए जल्ली जाना था। हड़ताल सुबह 6 बजे से शुरू थी। हमको उसके पहले जमा हो जाना था फैक्ट्री में।
तैयार होकर निकले तो 5 बज चुके थे। पक्षी अलग-अलग आवाजों में हल्ला मचा रहे थे। सबसे पहली आवाज पीहू पीहू की सुनाई दी। फिर केहु केहु की। इसके बाद तो फिजां में प्राइम टाइम सरीखा हल्ला मचने लगा। हर तरफ से आवाज। एक आवाज के जबाब में चार आवाजें। मनो पक्षी लोग भी आपस में आरोप प्रत्यारोप खेल रहे हों। किसी ने एक आरोप लगाया तो अगले ने उसके चार गिना दिए।
घर गेट के पास दो कुत्ते आरामफर्मा थे। गाड़ी की आवाज सुनकर उबासी लेते हुये एक ने मेरी तरफ देखा मनो कह रहा हो -'बगल से निकाल लो यार।' उसके 'यार मुद्रा' से लगा कि बताओ अब कुत्ते भी 'यार' बोलने लगे। पर हमने 'बी पॉजिटिव' होते हुए सोचा कि कितनी अच्छी बात है कि कुत्ते तक यार बोलते हैं। यह पॉजिटिव सोच बहुत सहायक होती हमेशा। आदमी नर्क में भी स्वर्ग सरीखे एहसास के साथ जी लेता है।
लेकिन यह 'कुत्ता यार' वाली बात किसी से बताई नहीं वर्ना कोई कह सकता है -' कुत्ते ही तुम्हारे यार हो सकते हैं।' आप भी अपने तक ही सीमित रखना यार । किसी को बताना मती। बेकार बवाल होगा।
'यार कुत्ते' के साथ वाला कुत्ता समझदार था। चुपचाप उठा और किनारे सो गया। पहलेवाले ने भी मुझे देखना छोड़कर थोड़ी झल्लाहट के साथ रास्ते से हटने का विकल्प अपना लिया।
सड़क पर टहलने वाले मुस्तैद थे। कुछ लोग फुर्ती से और कुछ आराम से टहल रहे थे। कुछ अकेले। कुछ जोड़े से। लोगों को टहलते देख हमारा मन किया कि हम भी सुबह जल्दी उठा करें। लेकिन आज वह मन अपने तन सहित सुबह सोता ही रहा।
सड़क पर गायें 'धरना मुद्रा' में थीं। पूरी सड़क छेंक कर बैठी गायें हड़ताल को मूक समर्थन सा दे रही थीं। गायें पढ़ी लिखी नहीं होतीं वर्ना जो अख़बार वे चबाती हैं उनको अगर वे पढ़ पातीं तो उनको इस बात का एहसास होता कि वे कितनी ताकतवर हो सकती हैं। उनके खबर मात्र हुकूमत हिला देती हैं।
मुझे लगा कि गायें अगर अपनी ताकत पहचान पातीं और उनकी भी ट्रेड यूनियन होती तो इस तरह सड़क पर आँख मूँद कर पगुराते हुए धरना सड़क पर बैठने के बजाए पूँछ उठाकर कहीं नारेबाजी कर रहीं होती:
'हमें पालीथीन नहीं चारा दो
हमको अधिकार हमारा दो।
हमको अधिकार हमारा दो।
दूध दिया हमने तुमको पीने को
हमें जीने का अधिकार हमारा दो।'
हमें जीने का अधिकार हमारा दो।'
लेकिन जहां पढ़ा-लिखा आदमी अपनी मर्जी से 'खुद कुर्बानी' और 'खुद बर्बादी' वाले विकल्पों पर निशान लगा रहा हो वहां गायों से आंदोलन की आशा करना तो बेवकूफी से भी बड़ी वाली 'आशावादिता' होगी।
फैक्ट्रियों के बाहर हड़ताल समर्थक लोग झंडे फहराने में लगे थे। हम चूंकि जरा जल्ली ही निकले थे इसलिए आसमान ताकने लगे।
सबेरा अभी हुआ नहीं था लेकिन पेड़ पौधे हिल-डुलकर सबेरे के स्वागत में मुस्तैद खड़े हो गए थे। आसमान में एक तरफ जरा ज्यादा उजाला था। पेड़ों की फुनगियों को अंदाज लग गया कि सूरज भाई वहीं से निकलेंगे। युवा फुनगियां उचक-उचककर 'मॉर्निंग, मॉर्निंग', 'सूरज, सूरज' कहते हुए हवाओं की सीटियां बजाते हुए सुबह का स्वागत कर रहीं थी।
सड़क किनारे डिवाइडर पर कुछ पौधे जालीदार जंगलों में खड़े आती-जाती गाड़ी का धुआं गटकते हुए चुपचाप खड़े थे। जंगलों के अंदर खड़े पौधों को देखकर ऐसा लग रहा था मानों किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में बड़े हाल में क्यूबिकल में कैद युवा बिना हिले-डुले काम कर रहे हों। एक पौधा जंगले समेत डिवाइडर पर लुढ़का पड़ा था। शायद वह प्रदूषण का दबाब सहन नहीं कर पाया और 'शांत' हो गया।
सुबह ज्यादा थी। पंकज बाजपेयी दिखे नहीं। उनको कौन काम पर जाना था। हम आगे निकल लिए।
सड़क किनारे लोग गुड़ीमुड़ी हुए सो रहे थे। एक आदमी अपनी मुंडी घुटने में घुसाये सो रहा था। दुष्यंत कुमार का शेर सामने आकर खड़ा हो गया :
ना हो कमीज तो पावों से पेट ढँक लेगें,
ये लोग कितने मुनासिब है, इस सफ़र के लिए !
ये लोग कितने मुनासिब है, इस सफ़र के लिए !
आगे एक दूध की गाड़ी जा रही थी। एक आदमी अपनी ऊंचाई से भी ऊँची लोहे की ट्रे में दूध के पैकेट सम्भाले हिलता-डुलता खड़ा था। हमसे बहुत पहले निकला होगा वह। रोज निकलता होगा।
फैक्ट्री जब पहुंचे तो सूरज भाई सामने दिख गए। मुस्करा के गुडमार्निंग किया। उनके साथ की किरणें खिड़की से अंदर घुस आयीं और हमारी कमीज पर उछलने - कूदने लगीं। हमने टोंका -'अरे क्या करती हो कमीज गन्दी हो जायेगी।' इस पर वे इत्ता जोर से खिलखिलाने लगी की हर तरफ उजाला फ़ैल गया।
यह तो कल का किस्सा । आज का फिर कभी। ठीक न ? :)ना हो कमीज तो पावों से पेट ढँक लेगें, ये लोग कितने मुनासिब है, इस सफ़र के लिए !
https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10208978063982282
No comments:
Post a Comment