Wednesday, September 07, 2016

व्यंग्य के बहाने-2



"अनूप शुक्ल कहते हैं कि कोई मठाधीशी नहीं है| हँसी आती है उनकी सीमित ज्ञान और अनुभव पर आधारित मान्यताओं पर| अरे, लिखने से पहले किसी भी अच्छे लेखक से पूछकर तो देख लेते| मसलन सुशील सिद्धार्थ से ही| जिन्होंने अपनी जगह बना तो ली, अगर वैसा कहा जा सके तो, पर कितने अवरोधों और उपेक्षाओं से पार पाने के बाद!"
यह बात सुरेश कांत जी ने अपनी 2 सितम्बर की एक पोस्ट में ’प्रभात खबर’ में छपा एक लेख साझा करते हुये कही (पोस्ट का लिंक यह रहाhttps://www.facebook.com/profile.php…)
मैंने जो लिखा था वह यह था :
" आज की तारीख में छपने, छपाने, पाठकों तक पहुंचने की जैसी सुविधा है उसके चलते मठाधीशी जैसी स्थिति कत्तई सम्भव नहीं है। अगर किसी के पास लिखने का हुनर है तो उसको छापने के अनगिनत मंच हैं। अगर कोई अच्छा लिखता है तो वह किसी ने किसी तरीके से देर-सबेर लोगों तक पहुंचता ही है। कोई भी खलीफ़ा किसी को अपने पाठकों तक पहुंचने से रोक नहीं सकता। किसी की मठाधीशी नहीं चल सकती आज के समय में किसी भी विधा में। लोग अपने-अपने ग्रुप बनाकर अपने पसंदीदा की तारीफ़ करें, अपने पसंदीदा को देवता बनाकर पूजें वह बात अलग है। संविधान भी अनुमति देता है अपने हिसाब से पूजा पाठ के लिये। "
सुरेश जी की पोस्ट पर मैंने टिप्पणी करते हुये लिखा था कि इस बात पर फ़िर कभी लिखूंगा।
सुरेश जी ने हमारी बात को सीमित ज्ञान और अनुभव पर आधारित मान्यता बताते हुये किसी अच्छे लेखक से पूछने की सलाह दी। मसलन सुशील सिद्धार्थ से ही। सुशील सिद्धार्थ को ’मसलन’ हम भी अच्छा लेखक मानते हैं लेकिन फ़ेसबुक पर उन्होंने हमको ब्लाक कर रखा है क्योंकि हमने एक लेख में ज्ञान जी (जिनको सुशील जी व्यंग्य लेखन में देवता मानते हैं) एक लेख पर उनके लेख के विपरीत टिप्पणी की थी। तो उनसे कैसे पूछे?
यह तो खैर मजे लेने की बात हुई। आज सुशील जी से बात हुई व्हाट्सएप पर तो उन्होंने सुरेश जी बात को उनका बड़ प्पन बताया, सुरेश जी के लिये नमस्कार पठाया और उनकी बात को विचारणीय बताया।मठाधीशी बहुत दिन चली। नामवर सिंह, कालिया, राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर की बहुत चली। आज भी किसी न किसी रूप में जारी है। ये रूप इतने स्थूल नहीं हैं जितने हम समझ रहे हैं। इसके पहले उन्होंने यह भी कहा -आज, यह कहा आपने तो सोशल मीडिया आने के बाद कम हुई है (मठाधीशी)
हमारी बात आज के ही संदर्भ में थी। आज सोशल मीडिया में हर व्यक्ति को यह सुविधा है कि वह अपना लिखा हुआ कूड़ा या कालजयी लेखन दुनिया भर में पहुंचा सकता है। किसी संपादक की कृपा का मोहताज नहीं है कोई। अखबारों, पत्रिकाओं में छपना आज भी अच्छा लगता है लेकिन अगर लिखा अच्छा है तो अखबार चुराकर छापेंगे ।
हम अपने अनुभव से जो जानते हैं वह यह है कि आज के समय में अगर कोई अच्छा लिखता है तो उसके लिखे को सामने आने से कोई रोक नहीं सकता। किसी को अगर लगता है कि उसकी मठाधीशी चल रही है तो वह भरम में ही होगा। हाँ, लाभ के पद पर कोई है तो उपकृत करने का धंधा करते हुए तात्कालिक फायदे कोई किसी को भले पहुंचा सकता हो। कोई किसी की किताबें छपवा दे, कोई किसी को इनाम दिलवा दे, कोई किसी को महान घोषित करा दे, कोई किसी की कृति को महानतम बता दे।
इसके उलट किसी के बारे में प्रायोजित नकारात्मक प्रचार भी किया जा सकता है। किसी कृति को खराब बताते हुए उसकी ऐसी-तैसी कर सकता है कोई। जैसी 'हम न मरब' की व्यंग्य यात्रा में छपे लेख में की गयी। पर इससे उस कृति का कुछ बिगड़ता कुछ नहीं। उलटे प्रचार ही होता है। हमने जब उस लेख के बारे में पढ़ा तो किताब मंगवाई। उसको पढ़ा। उसके बारे में लिखा। फिर कल वह लेख मंगवाया। लेख और किताब दोनों पढ़ने के बाद यही लगा कि लेख एकांगी है। वह केवल गालियों पर केंद्रित है। उपन्यास , बावजूद तमाम गालियों के, बेहतरीन उपन्यास है। व्यंग्य या फिर उपन्यास के इतिहास वह उपन्यास कहाँ रखा जाएगा यह समय बताएगा।
मठाधीशी इनाम लेने- देने में हो सकती है। ज्यादा समय जो जिस विधा में रहा और पहले आने के चलते अपनी प्रतिभा या जुगाड़ से इनाम कमेटियों में घुस गया वह अपने पसंद के लोगों को इनाम-विनाम दिलवा सकता है। यह भी कर सकता है कोई कि किसी को 5 लाख इनाम दिलाने में किसी ने सहयोग किया इसके बाद टिप के रूप में 5 लाख इनाम पाने वाले ने इनाम दिलाने वाले को 1 लाख रूपये का इनाम अपनी माता-पिता के नाम ट्रस्ट बनाकर दिला दिया। 4 चार तो बचा लिए। यह काम लोग जितने गुपचुप तरीके से और मासूमियत से करते हैं लोगों को उतनी ही तेजी से इनका पता चलता है। लेकिन इस तरह के काम तो जीवन के हर क्षेत्र में हो रहे हैं। बेचारा व्यंग्यकार ही क्यों इनसे वंचित रहे।
मठाधीशी का हल्ला कुछ आदतन भी मचाया जाता है। शायद यह लगता है कि बिना विरोध हुए प्रसिद्धि नहीं मिलती इसलिए लोगों के विरोध कम उपेक्षा को लोग बढ़ाचढ़ाकर प्रचारित करते हैं। स्यापा करते हैं। दो चार लोगों के विरोध को 'इंट्रीगेट करके' पूरे जहां का विरोध बताते हैं। कुछ ऐसा जैसा गीतकार उपेन्द्र जी बताते हैं:
'माना जीवन में बहुत-बहुत तम है
लेकिन तम से ज्यादा तम का मातम है।'
मेरा अपना अनुभव है कि अगर आज कोई बढ़िया लिखता है तो उसके लेखन को कोई सामने आने रोक नहीं सकता है। हो सकता है दुर्भावनावश कोई उपेक्षा करे या विपरीत विचार व्यक्त करे लेकिन अगर कोई अच्छा लिखता है तो लोग उसके लेखन तक अवश्य पहुंचेंगे। कोई इसको रोक नहीं सकता। पाठक जिक्र करते हैं, लेखक बताते हैं कि फलाने का लिखा पढ़ो।
आज के समय लेखन का लोगों तक पहुंचना आसान है। रांची में छपा 'प्रभात खबर' में छपा मुंबई वाले और मुंबई में छपे नवभारत टाइम्स का कालम न्यूयार्क में छपने के फ़ौरन बाद पढ़ा जा सकता है। कोई अच्छा लिखता है तो उसके लिंक वायरल होते हैं। परसाई जी के उद्धरण हमने पोस्ट किये तो सैकड़ों लोगों ने साझा किये। अच्छे लेखन सुगन्ध की तरह अपने आप फैलता है। उसको बहुत दिनों तक दबाया नहीं जा सकता। वह लोगों तक पहुंचेगी ही। देर भले हो जाए पहुंचने में लेकिन पहुंचेगी जरूर।
बाकियों के अनुभव पता नहीं कैसे रहे होंगे लेकिन मुझे तो यही लगता है कि आज के समय में लेखन के क्षेत्र में किसी की मठाधीशी चल नहीं सकती। जो कभी मठाधीश रहे भी होंगे उनके हाल आज के संचार के युग में रागदरबारी के दूरबीन सिंह सरीखे ही होते जाएंगे।
यह मेरा मानना है। अपने अनुभव और विश्वास के आधार पर। कोई मठाधीशी लेखन और खासकर व्यंग्य लेखन के क्षेत्र में चल नहीँ सकती।
आपका क्या मानना है?

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