मानो ठेला खुद चला जा रहा हो घड़े लिए |
कोई किरण चुप रहती। कोई मुस्कराते हुये कहती- ’आप भी भुलक्कड़ होते जा रहे हो दादा! तुम जहां बोले हम वहां पहुंच गये। अब फ़िर हल्ला मचा रहे हो कि उधर कैसे पहुंच गयी।’
सूरज भाई उस किरण की बात सुनने और मुस्कराट पर इतना लडिया गये कि उसकी सहेली किरण को एक साथ दो जगह जाने के लिये बोल दिये। इस पर दोनों इतनी तेज खिलखिलाकर हंसने लगी कि बेचारे एक मिनट के लिये बादलों की ओट में छिप गये। बाहर आये तो उस किरण ने आंख नचाते हुये पूछा -’हां तो किधर जाना है दादा बताओ।’
कोमल घड़े बेंचने के लिए ले जाते |
हमको साइकिल से जाते देख सूरज भाई कैरियर पर लदकर बतियाते हुये अपने हाल-चाल बताने लगे। सड़क पर पेडों से गिर हुये पत्ते हमको देखकर कुछ घबराये से दिखे कि कहीं कुचल न जायें। हवा ने उनको प्रेम से किनारे कर दिया।
पुलिया पर फ़ैक्ट्री की कामगार महिलायें आधा घंटा पहले से ही जमी हुई थीं। घर से बहुत सुबह चल देती होंगी। सवारी का कोई भरोसा नहीं। कुछ पैदल चलते हुये भी आना होता है न ! सामने की पुलिया पर एक लड़का मोबाइल में मुंडी घुसाये कुछ देखता दिखा।
सामने से फोटो कोमल का |
चाय की दुकान पर एक मद्रासी ड्राइवर चाय पी रहा था। अधेड़ उमर के ड्राइवर की मूंछे होंठ के साथ चाय पीने के लालच में ग्लास के अंदर जाने की कोशिश करती सी दिखीं लेकिन सफ़ल नहीं हो पायीं।
चार दिन में आये हैं चेन्नई के पास होसुर से ये लोग। बोले- ’जबलपुर में गर्मी बहुत है। दस साल से आ रहे हैं जबलपुर लेकिन कभी घूमे नहीं।’
हिन्दी टूटी-फ़ूटी जानते हैं। चाय की पैसे पूछे और दिये तो बोले-’ पोनरा रुपये।’ मतलब पन्द्रह रुपये। एकदम बंगाली लहजा। हमको फ़िर याद आया:
’भाषा तो पुल है, मन के दूरस्थ किनारों पर,
पुल को दीवार समझ लेना , बेमानी है।’
तालाब स्मार्ट हो गया न! |
एक ठिलिया में एक बच्चा घडे बेचने जा रहा था। एक आदमी अपने बच्चे को स्कूल छोड़ने जा रहा था। उसने समय बिताने के लिये करना है कुछ काम वाले अंदाज में उससे घड़ों के भाव पूछे। छोटे घड़े साठ रुपये के। बड़े नब्बे के। घड़े ठेले गिरें नहीं इसलिये उनकी गरदन आपस में बंधे हु्ये थे।
बात करते हुये आगे बढ़ने पर बच्चे का प्लास्टिक का थैला उड़कर सड़क पर गिर गया। वह उसको उठाने के लिये गया तो ठिलिया ढ़ाल पर खड़ी होने के चलते सरकने लगी। हम ठिलिया को पकड़ लिये और बतियाने का मौका तलाश लिये।
कटहल का भाव ताव करते बच्चे |
झील की तरफ़ गये देखने। पानी पूरा चमकदार लग रहा था। तालाब के जीव-जन्तु भी शायद कहते हों कि अपना तालाब स्मार्ट तालाब बन गया है। किनारे के झाड़-झंखाड़ झुंझलाते हुये कहते हों- ’काहे का स्मार्ट तालाब,सारी गंदगी तो हमारे ऊपर डाल दी। एकदम शहर सा बना दिया है तालाब को।’
लौटते हुये कोमल चढ़ाई पर अपना ठेला ले जाते दिखा। धक्का लगाते चढाई खतम हो जाने के बाद चेहरे पर सुकून सा दिखा उसके।
बस स्टैंड पर एक बच्चा स्कूल के लिये आटो का इंतजार करता दिखा। सामने के बड़े -बड़े दांत के बीच की जगह हवा के आने जाने के लिये खुली सी। पांच में पढ़ता है बच्चा। उसका भाई आठ में केवी में पढ़ता है। पिता खमरिया में काम करते हैं।
स्कूल जाना अच्छा लगता है। पढ़ना और खेलना होता है। खेल में बताया कि आई्स-वाटर और पकड़म- पकड़ाई खेलते हैं वे लोग। आइस वाटर मुझे पता नहीं था सो पूछा तो पता चला कि पहले जो बच्चे स्टेच्यू खेलते थे उसका ही नामकरण अब आइस-वाटर हो गया है।
नाम बताया अपना अभय। हमने नाम का मतलब पूछा तो बता नहीं पाया। हमने बताया। अभय माने जिसको भय न हो,डर न हो जिसके मन में। निडर। उसकी फ़ोटो लेने की सोच ही रहे थे तब तक उसका आटो आ गया और वह टाटा करके आटो में बैठ गया।
आगे कुछ बच्चे सड़क पर कटहल रखे बेंच रहे थे। पचास रुपये का और अस्सी का। अंतर कम ही था दोनों में। बता रहे थे बच्चे कि कंचनपुर से खरीदकर लाये हैं बेंचने के लिये। उनके बताने से पहले हमने मन में सोच लिया था कि तमाम पेड़ हैं इस्टेट में कटहल के । किसी पेड़ से काट लिये होंगे बच्चों ने। हम सोच में कितने पूर्वाग्रही होते हैं।
बच्चे उमर में उतने ही बड़े थे जितना कि अभय। लेकिन अभय स्कूल गया है और ये सड़क पर कटहल का मोलभाव कर रहे हैं। एक ने मोलभाव करते हुये एक कागज में तम्बाकू जैसा कुछ निकाला और मुंह ऊपर करके खाने लगा। मैंने टोंका तो मुस्कराते हुये बोला- ’तम्बाकू नहीं है, सुपारी है।’
हम यही सोचते हुये लौटे कि जिस उमर में इन बच्चों को स्कूल जाना चाहिये उस उमर में ये कटहल बेंच रहे हैं। इनकी अगली पीढी भी ऐसा ही कुछ करती रहेगी।
सुबह हुई है। लेकिन इन बच्चों के लिये सुबह कब होगी?
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