जितने
बजे सोचा था उससे बस पांच मिनट देर हो गयी कल निकलने में। बस निकलते ही
देरी हो जाने का ख्याल बेताल की तरह सवारी गांठ लिया। हम लाख झटका दिये
लेकिन देरी का ख्याल लदा रहा। मुफ़्त की सवारी कौन छोड़ता है भाई आजकल। जब
बहुत झटकने पर भी नही हटा तो हम उसको लिफ़्ट देना बन्द कर दिये। पड़े रहो
चुपचाप एक कोने में, किसी शायर की भूली हुई मोहब्बत की तरह। जहां लिफ़्ट
देना बंद किये, बिला गया कही॥ गुमसुम बैठा होगा किसी कोने में।
मोड़ पर कई कुत्ते अपनी पूंछों को झंडे की तरह फ़हराते घूम रहे थे। चेहरे से लग रहा था किसी अपनी पंचायत सम्मेलन में कोई क्रांतिकारी प्रस्ताव पारित करके निकले हैं। देख नहीं पाये लेकिन मूछों के पास जरूर पसीना चुहचुहा रहा होगा। वहीं सड़क पर एक कुतिया बहुत धीरे-धीरे सरक-सरककर सड़क पार कर रही थी। उसका कमर के पीछे का हिस्सा चोटिल सा था। ठीक-ठीक कहना मुश्किल कि उसका हिस्सा किसी वाहन से ठुका था या कुत्तों का श्वानत्व का शिकार था।
ओएफ़सी मोड़ पर बैठी महिला रोज की तरह हाथ फ़ैलाये सर खुजाती मांगने का काम कर रही थी। उसके दो बच्चे वहीं गलबहियां डाले खेल रहे थे।
एक ठेलिया वाला पेप्सी का छाता लगाये देशी मट्ठा बेच रहा था। ’मेक इन इंडिया’ सड़किया संस्करण सा।’मेक इन इंडिया’ में लोग बाहर से सामान लाकर अपने यहां जोड़ रहे हैं। ठेलिया वाला पेप्सी का छाता लगाये भूलोक मट्ठा बेच रहा था।
फ़जलगंज के मोड़ के पहले कूड़े के ढेर पर एक सुअर और एक आदमी अपने-अपने मतलब की चीजें खोज रहे थे। आदमी और सुअर में अंतर बस यही था कि सुअर कूड़े में मुंह मारने के लिये आदमी की तरह किसी लकड़ी का मोहताज नहीं था।
आगे एक ठेलिया वाला ठेलिया पर सेव सजा रहा था। सेव घुमा-घुमाकर ढेरी पर रख रहा था। नहीं जमने पर एक सेव को हटाकर दूसरा सेव रख देता। जिस तरह कोई स्त्री शीशे में अलग-अलग तरह की बिंदिया लगाकर देखती है और फ़िर आखिर में एक से संतुष्ट होकर उसी को फ़ाइनल कर देती है उसी तरह सेव वाला अपनी ठेलिया का ’सेव श्रंगार’ कर रहा था। ठेलिया के अगर जबान होती हो हर सेव लगने के बाद पूछती -’ बताओ तो कैसी लग रही हूं।’
बाजपेयी जी पास पहुंचकर हार्न बजाते ही वे उठ खड़े होते हैं। हाथ मिलाते हैं। वे कुछ न कुछ जानकारी देने लगते हैं। एक दिन बोले -’ माधुरी दीक्षित का रैकेट पकड़ा गया है। पुलिस ले गयी है। तीसरे मंजिल पर धंधा चलता था। सब आ गया है अखबार में।’
कल हमने पूछा-’ पाकिस्तान बहुत गड़बड़ कर रहा है। क्या किया जाये?"
बाजपेयी जी बोले-"पाकिस्तान गड़बड़ नहीं कर रहा। वह मित्र देश है। हबीब भाई का इलाका है यह। वो दोस्त हैं हमारे। गड़बड़ जार्डन और कनाडा कर रहा है। सब पता चल गया है।’
कल यह भी बोले-" गाड़ी बहुत हीट करती है। कूलेंट डलवा लेना। किसी को बैठाना नहीं गाड़ी में। विदेशी लोग घूम रहे हैं।"
उनसे बात लम्बी खिंचती है तो यही पूछकर खत्म कर देते हैं-" चाय पी ली कि नहीं अभी तक? वे बोलते हैं-" अभी जायेंगे मामा के यहां।" हम -" अच्छा चलते हैं कहकर चल देते हैं।"
कल लौटते में जरीब चौकी क्रासिंग बंद थी। दो गाड़ियां निकलीं। जब क्रासिंग खुली तो सबको भागने की जल्दी। हम आहिस्ते-आहिस्ते चलते हुये आगे बढे।
सामने से आते एक आटो ने अचानक अपना आटो मोड़ा। इधर से जाते हुये रिक्शे का पिछला पहिया आटो वाले के ’मुड़न वृत्त’ की हद्द में आ गया। रिक्शे वाले ने जिस तरह देखा उससे लगा कि वह कह रहा था आटो वाले से - ’जरा पीछे कर लो तो हम बगलिया के निकाल लें।’ लेकिन आटो वाले के दिमाग में डीजल भरा सो वह अपना आटो पीछे की तरफ़ करने की बजाय रिक्शे के पिछले पहिये को कुचलकर निकलने पर आमादा था।
रिक्शे वाले ने निरीह आंखों से उसे देखा। उसकी निरीह नजर देखकर लगा कि निराला जी की कविता पंक्ति -’वह मार खा रोई नहीं’ का फ़िल्मांकन हो रहा हो। रिक्शेवाले ने उतरकर अपना रिक्शा पीछे किया। आटो वाले विजयी मुद्रा में झटके से आटो का मोड़ा और आगे खड़ा करके सर से अंगौछा उतारकर फ़टकारने लगा।
रिक्शे को धकिया कर मुड़ने में सफ़ल होने के अपने शौर्य पर किंचित मुग्ध सा भी दिखा। शायद अफ़गानिस्तान, ईराक को बरबाद करने पर अमेरिका ने भी ऐसे ही मुग्ध होकर अपने को शीशे में निहारा हो, अपना अंगौछा फ़टकारा हो।
इस बीच दिलीप घोष जी से रोज बात होती रहती है। उनके पांव का घाव बढ गया था। मवाद पड़ गया था। दवा चल रही है। खाने में लोग जो दे जाते हैं वो खाते नहीं। लोग श्राद्ध पक्ष में खूब खाना दे जाते हैं लेकिन उसको वे खाते नहीं। घोष जी के मित्र ने बताया -"वह बहुत बड़ा गप्पी है। कहीं गया -वया नहीं। लेकिन जीनियस है वह -spoilt genious " लेकिन घोष जी जिस विश्वास से बातें करते हैं उससे बड़े दिलचश्प इन्सान लगते हैं। हो सकता है उनके तमाम किस्से झूठे ही हों लेकिन अंदाजे बयां और जानकारी का स्तर से उनसे बातचीत करने में आनन्द आता है। जल्दी ही उनके वीडियो अपलोड करेंगे।
फ़िलहाल इतना ही। आगे जल्दी ही फ़िर कभी। मतलब शेष अगली पोस्ट में। (अरविन्द तिवारी जी के उपन्यास शेष अगले अंक में की तर्ज पर)
https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10209205595550429
मोड़ पर कई कुत्ते अपनी पूंछों को झंडे की तरह फ़हराते घूम रहे थे। चेहरे से लग रहा था किसी अपनी पंचायत सम्मेलन में कोई क्रांतिकारी प्रस्ताव पारित करके निकले हैं। देख नहीं पाये लेकिन मूछों के पास जरूर पसीना चुहचुहा रहा होगा। वहीं सड़क पर एक कुतिया बहुत धीरे-धीरे सरक-सरककर सड़क पार कर रही थी। उसका कमर के पीछे का हिस्सा चोटिल सा था। ठीक-ठीक कहना मुश्किल कि उसका हिस्सा किसी वाहन से ठुका था या कुत्तों का श्वानत्व का शिकार था।
ओएफ़सी मोड़ पर बैठी महिला रोज की तरह हाथ फ़ैलाये सर खुजाती मांगने का काम कर रही थी। उसके दो बच्चे वहीं गलबहियां डाले खेल रहे थे।
एक ठेलिया वाला पेप्सी का छाता लगाये देशी मट्ठा बेच रहा था। ’मेक इन इंडिया’ सड़किया संस्करण सा।’मेक इन इंडिया’ में लोग बाहर से सामान लाकर अपने यहां जोड़ रहे हैं। ठेलिया वाला पेप्सी का छाता लगाये भूलोक मट्ठा बेच रहा था।
फ़जलगंज के मोड़ के पहले कूड़े के ढेर पर एक सुअर और एक आदमी अपने-अपने मतलब की चीजें खोज रहे थे। आदमी और सुअर में अंतर बस यही था कि सुअर कूड़े में मुंह मारने के लिये आदमी की तरह किसी लकड़ी का मोहताज नहीं था।
आगे एक ठेलिया वाला ठेलिया पर सेव सजा रहा था। सेव घुमा-घुमाकर ढेरी पर रख रहा था। नहीं जमने पर एक सेव को हटाकर दूसरा सेव रख देता। जिस तरह कोई स्त्री शीशे में अलग-अलग तरह की बिंदिया लगाकर देखती है और फ़िर आखिर में एक से संतुष्ट होकर उसी को फ़ाइनल कर देती है उसी तरह सेव वाला अपनी ठेलिया का ’सेव श्रंगार’ कर रहा था। ठेलिया के अगर जबान होती हो हर सेव लगने के बाद पूछती -’ बताओ तो कैसी लग रही हूं।’
बाजपेयी जी पास पहुंचकर हार्न बजाते ही वे उठ खड़े होते हैं। हाथ मिलाते हैं। वे कुछ न कुछ जानकारी देने लगते हैं। एक दिन बोले -’ माधुरी दीक्षित का रैकेट पकड़ा गया है। पुलिस ले गयी है। तीसरे मंजिल पर धंधा चलता था। सब आ गया है अखबार में।’
कल हमने पूछा-’ पाकिस्तान बहुत गड़बड़ कर रहा है। क्या किया जाये?"
बाजपेयी जी बोले-"पाकिस्तान गड़बड़ नहीं कर रहा। वह मित्र देश है। हबीब भाई का इलाका है यह। वो दोस्त हैं हमारे। गड़बड़ जार्डन और कनाडा कर रहा है। सब पता चल गया है।’
कल यह भी बोले-" गाड़ी बहुत हीट करती है। कूलेंट डलवा लेना। किसी को बैठाना नहीं गाड़ी में। विदेशी लोग घूम रहे हैं।"
उनसे बात लम्बी खिंचती है तो यही पूछकर खत्म कर देते हैं-" चाय पी ली कि नहीं अभी तक? वे बोलते हैं-" अभी जायेंगे मामा के यहां।" हम -" अच्छा चलते हैं कहकर चल देते हैं।"
कल लौटते में जरीब चौकी क्रासिंग बंद थी। दो गाड़ियां निकलीं। जब क्रासिंग खुली तो सबको भागने की जल्दी। हम आहिस्ते-आहिस्ते चलते हुये आगे बढे।
सामने से आते एक आटो ने अचानक अपना आटो मोड़ा। इधर से जाते हुये रिक्शे का पिछला पहिया आटो वाले के ’मुड़न वृत्त’ की हद्द में आ गया। रिक्शे वाले ने जिस तरह देखा उससे लगा कि वह कह रहा था आटो वाले से - ’जरा पीछे कर लो तो हम बगलिया के निकाल लें।’ लेकिन आटो वाले के दिमाग में डीजल भरा सो वह अपना आटो पीछे की तरफ़ करने की बजाय रिक्शे के पिछले पहिये को कुचलकर निकलने पर आमादा था।
रिक्शे वाले ने निरीह आंखों से उसे देखा। उसकी निरीह नजर देखकर लगा कि निराला जी की कविता पंक्ति -’वह मार खा रोई नहीं’ का फ़िल्मांकन हो रहा हो। रिक्शेवाले ने उतरकर अपना रिक्शा पीछे किया। आटो वाले विजयी मुद्रा में झटके से आटो का मोड़ा और आगे खड़ा करके सर से अंगौछा उतारकर फ़टकारने लगा।
रिक्शे को धकिया कर मुड़ने में सफ़ल होने के अपने शौर्य पर किंचित मुग्ध सा भी दिखा। शायद अफ़गानिस्तान, ईराक को बरबाद करने पर अमेरिका ने भी ऐसे ही मुग्ध होकर अपने को शीशे में निहारा हो, अपना अंगौछा फ़टकारा हो।
इस बीच दिलीप घोष जी से रोज बात होती रहती है। उनके पांव का घाव बढ गया था। मवाद पड़ गया था। दवा चल रही है। खाने में लोग जो दे जाते हैं वो खाते नहीं। लोग श्राद्ध पक्ष में खूब खाना दे जाते हैं लेकिन उसको वे खाते नहीं। घोष जी के मित्र ने बताया -"वह बहुत बड़ा गप्पी है। कहीं गया -वया नहीं। लेकिन जीनियस है वह -spoilt genious " लेकिन घोष जी जिस विश्वास से बातें करते हैं उससे बड़े दिलचश्प इन्सान लगते हैं। हो सकता है उनके तमाम किस्से झूठे ही हों लेकिन अंदाजे बयां और जानकारी का स्तर से उनसे बातचीत करने में आनन्द आता है। जल्दी ही उनके वीडियो अपलोड करेंगे।
फ़िलहाल इतना ही। आगे जल्दी ही फ़िर कभी। मतलब शेष अगली पोस्ट में। (अरविन्द तिवारी जी के उपन्यास शेष अगले अंक में की तर्ज पर)
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