पेड़ पर पुराने कपड़ों का झूला, फुटपाथ पर बैठी सड़क देखती बच्ची। सड़क पर स्कूल जाता बच्चा। |
सबेरे घर के बाहर बैठे। चाय पीते हुए चौतरफा 'नजर मुआयना' किया। सूरज भाई की अगवानी के लिए आसमान तैयारी कर रहा था। सूरज भाई के 'विराजने' की जगह को लाल कर रहा था। वीआईपी कुर्सी सजा रहा था सूरज भाई के लिए। जो रंग है सूरज भाई का उसी रंग से उनके बैठने की जगह 'लीप' रहा था।
ऊपर लाल लिखते हुए पीछे दिमाग से आवाज आई 'लाल' की जगह 'अरुणाभ' लिखो, इम्प्रेशन पड़ेगा। हम लिखने लगे तब तक खुपड़िया से हल्ला मचा 'अबे रक्ताभ' लिख।
हम सहम गए। रंग के मतलब भी डराने लगे हैं आजकल। एक ही रंग के अलग मतलब। बलिदान के प्रतीक रहे रंगों के सहारे दंगे होने लगे हैं। प्रेम का झंडा फहराने वाला रंग अपराधियों के कब्जे में चला गया है।
बहरहाल, सूरज भाई का भौकाल देखने के बाद बगीचे की तरफ देखा। बन्दर पूरे बग़ीचे में बमचक मचाये हुए था। एक बन्दर पेड़ पर चढ़कर हिलाकर नीचे उतर आता। फिर दूसरा चढ़कर हिलाता। मासूम पेड़ बेचारा चुपचाप अपना अंगभंग होता देखता रहता।
एक बन्दर की एक टांग कुछ चोटिल थी। तीन टांग पर उछलता हुआ बन्दर मेरे सामने से सरपट निकल गया। तीन टांग होने पर बंदरों की दुनिया में पता नहीं उसको विकलांग का दर्जा मिला कि नहीं। मिला भी होगा तो क्या फायदा? बंदरों की दुनिया में कोई सरकारी नौकरी तो होती नहीं। क्या पता होती हो। हम उनकी दुनिया के बारे में जानते ही कितना हैं।
सड़क पर टहलने निकले तो देखा कि एक आदमी फुटपाथ पर लेटा उठने के पहले की फाइनल अंगड़ाई ले रहा था। बगल में कई कद्दू उसके 'सुरक्षा सैनिकों' की तरह तैनात थे। अंगड़ाई लेकर उठने के बाद उसने अपना कम्बल से कद्दुओं को ओढ़आ दिया। आदमी और कद्दू दोनों एक-दूसरे की सुरक्षा के लिए सहज समर्पित।
बगीचे की घास पर पसरी हुआ सूरज भाई की बच्चियां |
एक लड़की पेड़ पर कपड़ों-लत्तों की रस्सी के झूले पर झूला झूल रही थी। उसके घर का आदमी वहीं फुटपाथ पर पक्की नींद सोया था। सड़क पर चलते ट्रैफिक से उसकी नींद को कोई फर्क नहीं पड़ रहा था। कुछ देर झूलकर बच्ची फुटपाथ के किनारे बैठ गयी। सड़क पर आते-जाते लोगों को देखती हुई। शायद स्कूल जाते बच्चे को देखते हुए सोंचती भी हो - 'ये भैया सुबह-सुबह कहाँ चले जा रहे हैं। इनके यहां झूले नहीं पड़े क्या?'
सड़क पर एक घोड़ा लगभग बीच मे खड़ा था। शायद अनशन के मूड में रहा हो। सड़क पर उसके खड़े होने के बावजूद काफी जगह थी इसलिए लोग उसके बगल से निकलते जा रहे थे। चलने फिरने में अड़चन होती तो उसके अनशन को तुड़वाने की व्यवस्था होती। या तो उसकी तुड़ाई होती या कोई बीच का समझौता। वैसे अनशन में अकेले होने पर तुड़ाई का योग ही बनता है। यही चलन है आजकल देश में।
एक आदमी कूड़े के बोर को पीठ पर लादे ऐसे चला जा रहा था जैसे बच्चे किताबों के बोझ को लादे हुए स्कूल जाते हैं।
रिक्शे पर स्कूल जाती दो बच्चियां जिस तेजी और तल्लीनता से बतिया रहीं थीं उससे लग रहा था मानों सारी बातें वे स्कूल पहुंचने से पहले साझा कर लेना चाहतीं हों।
एक स्कूटी अपनी सवारियों समेत सड़क पर लुढ़क गयीं। महिला सवारियों को चोट नहीं लगी शायद। मुस्कराती हुई उठकर चल दीं।
सड़क किनारे कई जगह चाय की दुकानें दिखीं। पंडित चाय, पहलवान चाय, आरिफ टी स्टाल। सबके सामने आठ दस 'चयासे' जमें हुए थे। हर चाय की दुकान से अपने पास रुकने का लालच दिया। लेकिन हम अपने बुजुर्गवार न्यूटनजी के जड़त्व के नियम की इज्जत करते हुए जब तक रुके तब तक दुकान पीछे छूट गयी। मजबूरन हम आगे बढ़ते गए और अंत में जब रुके तो वह जगह घर ही थी।
घर भी तो एक पड़ाव ही होता है। कहीं से आने के बाद का पड़ाव और कहीं के लिए निकलने के पहले की जगह। घर से अब दफ्तर जाने का समय हो गया।
इसलिए निकलते हैं। आप मज्जे करो। दिन शुभ हो।
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