Thursday, June 30, 2022

प्यार भी तो बढ़ रहा है



सुबह खबर देखी टेलीविजन में कि आज का दिन एक सेकेण्ड बड़ा होगा। धरती की अपनी धुरी पर घूमने की गति कुछ कम हुई है। घड़ी और धरती का तालमेल बिठाने को दिन एक सेकेण्ड बड़ा किया जाएगा।
वो तो कहो धरती पर बस नहीं वरना कोई सरकार अध्यादेश जारी करती कि घड़ियां जैसी की तैसी रहेंगी, धरती को आज के दिन अपनी धुरी पर जल्दी घूमना होगा और एक सेकेण्ड पहले अपना चक्कर पूरा करना होगा। चक्कर पूरा करके ठीक आधी रात की सेल्फ़ी लेकर सब जगह अपलोड करनी होगी।
धरती की गति धीमी क्यों हुई इस पर क्या कहा जाए? धरती का वजन तो बढ़ा नहीं। सामानों का केवल रूप परिवर्तन हुआ। डायनोसोर थे सो चट्टानों में बदल गए, पेड़ पौधे थे वो कटकुट कर ठिकाने लग गए, फर्नीचर, कोयले,कार्बन डाइऑक्साइड में बदल गए। जो भी बदलाव हुआ, भले ही देखने में खराब लगे हमें लेकिन उससे धरती का वजन तो बढ़ा नहीं होगा। जो आबादी बढ़ी वह भी तो यहीं का खा-पीकर बढ़ी होगी। उससे वजन थोड़ी बढ़ा होगा धरती का।
उलटे कुछ कम ही हुआ होगा धरती का वजन। इतने उपग्रह भेजे गए अंतरिक्ष में, इतने यान टहल रहे हैं धरती की वजन परिधि से बाहर निकलकर। इससे तो धरती का वजन कम ही हुआ होगा। धरती कुछ स्लिम ,ट्रिम ही हुई होगी ।
कहने को तो कोई कह सकता है कि धरती पर पाप बढ़ रहा है। अपराध बढ़ रहे हैं जमीन पर। इससे धरती का मन दुखी हो गया होगा। इसीलिये वह अनमनी हो गयी होगी यह सोचते हुए कि बताओ हमारे यहां के लोग इतने गड़बड़ हो कर रहें। दुनिया के हर अपराध पर धरती सेकेण्ड के करोडवें, अरबवें,खरबवें सेकेण्ड के लिए ठिठक जाती होगी। उसी से उसको अपनी धुरी पर घूमने में समय कुछ ज्यादा लगता होगा।
लेकिन देखा जाए तो धरती में प्यार भी तो बढ़ रहा है। दुनिया में ऐसे लोग भी हैं जिनके मन में इतना प्यार है जितना पहले कभी नहीं रहा। इतना स्नेह है लोगों के मन में कि उसमें कई पृथ्वियां ऐसे डुबकियां लगाती रहें जैसे किसी झील में मछलियाँ, जैसे किसी हलवाई की दूकान में रसमलाइयां, जैसे किसी प्रेम डूबे जोड़े की आँखों में तितलियाँ। धरती इन खूबसूरत नजारों को देखने में डूब जाती होगी और अपनी धुरी पर घूमना भूल जाती होगी। जब याद आता होगा तब -हाय अल्ला, ओरी मोरी मैय्या करती सरपट दौड़ती होगी लेकिन कुछ देर तो हो ही जाती होगी न। वही धरती के कम होने का कारण बनती होगी।
सच पूछा जाए तो इस डम्प्लॉट दुनिया में एक सेकेण्ड की क्या गिनती है। जहां 300000 किमी प्रति सेकेण्ड की रफ़्तार से की प्रकाश गति से भागते हुए भी अगर कोई चले तो भी अरबों-खरबों वर्षों तक टहलते हुए भी दुनिया का कोई ओर-छोर न मिले। ऐसे में एक सेकेण्ड इधर-उधर होना क्या मायने रखता है भला।
धरती को तो शायद पता भी न चला हो कि उसकी गति पर कोई निगाह रखते हुए अपनी घड़ियां ठीक कर रहा है।वह तो अपनी धुरी पर अविराम घूमती रहती है करोड़ों अरबों वर्षों से। उसको इस बात से क्या फर्क पड़ता है कि आदमी अपनी घड़ी तेज करता है धीमी, कैलेंडर का पन्ना बदलता है या प्रधानमंत्री।
यह तो हम इंसान हैं जो धरती को अपनी बपौती समझ गदर काटते रहते हैं। अपने को सबसे बुद्धिमान प्रजाति समझते हुए दुनिया की सबसे बड़ी बेवकूफियां करता रहता है। जिस धरती पर रहता है उसी को बर्बाद करने की हरकतें करता रहता है। उसके बाद स्यापा करता और धरती के नष्ट होने का स्यापा करता है।
सच कहा जाए तो धरती इंसान की धरती विरोधी हरकतों के चलते धरती थोड़ी नष्ट होगी। गर्मी बढ़ने पर समुद्र का स्तर बढ़ेगा तो शहर डूबेंगे, आदमी तबाह होगा। धरती तो ऐसे ही अपनी धुरी पर घूमती रहेगी। हो सकता है आज से सैकड़ों साल बाद कोई और उन्नत प्रजाति के लोग धरती के बारे में अपनी राय बनाते हुए लिखें कि पहले धरती पर डायनासोर रहते थे जो किसी उल्कापिंड के चलते खत्म हुए। उसके बाद इंसान बुद्धिमान प्राणी थे। उन्होंने अपनी बुद्गिमानी और लालच के चलते ही धरती का वातावरण इतना बर्बाद कर लिया कि निपट गए।
ओह हम भी किधर टहला रहे हैं आपको। एक सेकेण्ड के हिसाब किताब का किस्सा घण्टे भर से सुना रहे हैं। ये अच्छी बात नहीं है न। लेकिन इतनी खराब भी नहीं है न। अरे गुस्सा मती होइए। सरिता शर्मा जी की यह कविता पर फरमाइए वह जिसे हिंदी में मुलाहिजा कहते हैं:
पहले कमरे की खिड़कियां खोलो
फिर हवाओं में खुशुबुएं घोलो
सह न पाउंगी तल्खियां इतनी
मुझसे बोलो तो प्यार से बोलो।
आपका दिन शुभ हो। मंगलमय हो।

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Wednesday, June 29, 2022

बीते समय में यायावरी



क़ल दो किताबें और आईं। पहली उमेश पंत की पूर्वोत्तर प्रदेशों की यात्रा पर केंद्रित -'दूर, दुर्गम, दुरूस्त।' दूसरी अनुराधा बेनीवाल की -'लोग जो मुझमें रह गए।' दोनों मूलतः यात्राओं से मिले अनुभवों पर आधारित हैं।
अनुराधा बेनीवाल की -'आजादी मेरा ब्रांड' बहुत चर्चित किताब रही। उसके बाद उनकी दूसरी किताब को पढ़ना भी सुखद अनुभव होगा।
किताबें मिलते ही दोनों की भूमिका और पहले अध्याय बांच गए। रोचक अनुभव है इन किताबों को पढ़ना। अलग-अलग अध्याय में लिखी गईं किताबें हैं। रोज कम से कम एक अध्याय पढ़ा जाएगा। जल्दी ही पूरी हो जाएंगी।
साथ में Mario Vargas Llosa लिखित Aunt Julia and the Scriptwriter भी चल रही है। Prabhat Ranjan जी ने इसे जल्दी खत्म करने को कहा हैं। उनकी बात मानते हुए बिना नागा इसे पढ़ने में लगे हैं। कोशिश करते हैं कि रोज एक चैप्टर बांच ले। अंग्रेजी हालांकि सरल है लेकिन फिर भी कई शब्द पर अटक जाते हैं तो उसका मतलब देखकर पेंसिल से लिख लेते हैं। खासकर आंटी जूलिया से जुड़ी कोई बात पढ़ते समय। एक बुजुर्ग महिला के अपने से छोटी उम्र के लड़के से रोमांस के किस्से पढ़ना अपने में रोचक है।
होमवर्क की तरह पढ़ी जा रही इन किताबों के अलावा अपनी अमेरिका यात्रा पर लिखे संस्मरण भी फाइनल करने का मन बनता है। लगभग तैयार संस्मरण को किताब के रूप में छपवाना बहुत पहले से तय है। नाम भी तय है -'कनपुरिया कोलम्बस'। सब कुछ तय होने के बाद भी किताब फाइनल नहीं हो पा रही। आलस्य और इधर-उधर की अड़चने आड़े आ जाती हैं।
उमेश पंत की किताब पढ़ने के बाद लगा कि इसी अंदाज में रोज के किस्से लिखते हुए फाइनल की जाए किताब। नोट्स नहीं लिए लेकिन अधिकांश तो वहीं के वहीं लिख दिए गए। अब तय किया है कि महीने भर में इसे फाइनल करके छपने के लिए तैयार कर लेंगे। कुछ नहीं तो ई बुक तो बना ही लेंगे।
सुबह का इतना संकल्प कम है क्या ?
कल हमारे कालेज सीनियर Neeraj Sharma जी का फोन आया। हम कभी मिले नहीं लेकिन उनका प्यार हमको हमेशा मिलता रहता है। मेरी पोस्ट पढ़कर हमेशा मेरा उत्साह बढ़ाते रहते हैं। वे इलाहाबाद गए थे। मोतीलालनेहरू राष्ट्रीयप्रोद्योगिकीसंस्थान इलाहाबाद भी गए। एक पीढ़ी भर बाद भी पुरानीं चीजें यादों में वैसी ही रहती हैं जैसी हम कभी छोड़ आये थे।
कल जब कालेज पहुंचे शर्मा सर तो उनको कालेज एकदम बदला हुआ मिला। बदले हुए होने से अधिक यह भाव कि उनका कोई जानना वाला नहीं बचा वहां। बदलाव भले ही कितना सुखद हो लेकिन पुरानी जगह पर कोई परिचित न मिले यह अपने में बड़ा झटका होता है। वहां अचानक उनको रमानाथ अवस्थी जी की कविता याद आई। बोले -'अनूप भाई , हो सके तो वह कविता भेजो।'
कविता मिल गयी। भेज भी दी। आप भी पढिये:
आज इस वक्त आप हैं हम हैं लेकिन
कल कहाँ होंगे कह नहीं सकते
जिंदगी ऐसी नदी है जिसमें
देर तक साथ बह नहीं सकते।
यह कविता 2000 में हुये कवि सम्मेलन में सुनी थी। उस समय टेप भी की थी। बाद में इंटरनेट से जुड़ने के बाद इसको नेट पर पोस्ट किया था -2010 में। कल साझा करने में परेशानी हुई तो कविता चलाकर व्हाट्सअप पर रिकार्ड करके भेजी। अभी भी साझा करने का जुगाड़ खोज रहे हैं।
रमानाथ जी की कुछ और भी कविताएं हैं मेरे पास ऑडियो में। लेकिन उनकी कविता :
सो न सका कल याद तुम्हारी आई सारी रात,
और पास ही बजी कहीं शहनाई सारी रात।
उनकी आवाज में सुनने का मन है। कहीं कोई रिकार्डिंग मिल सकती है क्या ?
याद आया कानपुर में शतदल जी थे। उनके पास अनेक कवि सम्मलेनों, गीतकारों के टेप थे। अब वे रहे नहीं। क्या पता टेप उनके घर वालों के पास हों।
रमानाथ जी जब आये थे तो उनसे तमाम बातें हुई थी। साथ में मामा जी कन्हैया लाल नन्दन जी भी आये थे। दो दिन घर रहे थे। उन दो दिनों में जितनी बातें हुईं थीं उतनी जिंदगी में कुल मिलाकर नहीं हुईं थीं।
इसी बहाने न जाने कितनी यादें ताजा हो गयीं। यादों में डूबना भी बीते समय में यायावरी ही है। बिना टिकट घुमक्कड़ी।

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Tuesday, June 28, 2022

दुनिया को देखने की नजर



आज सबेरे टहलते हुए बगीचे में कबूतर दिखे। पांच -छह रहे होंगे। मिट्टी के बर्तन में पानी रखा है। उसी की मुडेर पंर बैठे पानी पीते हुए बतिया भी रहे होंगे। उनको देखकर लगा बढिया फोटो आएगा। ले लिया जाए।
जैसे ही हमने फोटो लेने की सोची, मोबाइल निकाला, सारे कबूतर उड़ गए। लगता है उनको हमारे इरादे की भनक मिल गयी होगी और वे अपनी फोटो खिंचवाना नहीं चाहते होंगे। शायद उनको पता होगा कि ये इंसान जो भी फोटो खींचता है, फेसबुक पर अपलोड कर देता है। कबूतर अपनी निजता को सार्वजनिक नहीं करना चाहते होंगे।
फोटो न खींच पाने से खिसियाया हुआ मैं यह सोच रहा था कि उन कबूतरों को मेरे इरादे का पता कैसे चला कि मैं उनकी फोटो खींचूंगा। शायद यह भी कृत्तिम बुद्धिमत्ता से लैस हो चुके हैं। आसपास की गतिविधियों की भनक लेकर उसके हिसाब से निर्णय लेने में सक्षम हैं।
सोशल मीडिया में भी देखा है न। कोई चीज सर्च करो, खरीदो, उससे सम्बंधित चीज आपके आसपास मंडराने लगेगी। हमको भी खरीदो, हमको भी खोजो।
हमको अपने फोटो खींचने के लालच पर भी खुंदक आई। जरूरी है हर दृश्य को कैमरे में ही कैद किया जाए। हमको पक्का लगता है कि अगर फोटो खींचने के बजाय कबूतरों को देखते रहते तो शायद वे कुछ देर और बर्तन की मुंडेर पर बैठे गप्पाष्टक करते रहते। हमने बेवजह उनको उड़ा दिया।
फोटो का किस्सा कल भी हुआ। कल गोविंदगंज , बहादुरगंज, घण्टाघर , बस स्टैंड होते हुए वापस लौटे तो एक नौजवान लगभग चिथड़े वाले टाट के कपड़े पहने हुए मोड़ पर दिखा। पूरा बदन उसका टाट के फ़टे कपड़े से ढंका था। हमने उससे बातचीत करनी चाही तो वह कुछ बोला नहीं। पास में एक गठरी में छोटी शीशी में कोई तरल पदार्थ सा था। हमें लगा कोई नशा होगा, उसने बाद में बताया पानी है। क्या था, कह नहीं सकते।
हमने उसका फोटो लेने के लिए मोबाइल संभाला तो वह बोला -'मोबाइल जेब में रहने दो।'
मतलब उसने फोटो खींचने से मना कर दिया। फोटो खींचने से मना करना अलग बात। उसके लिए वह कहता कि फोटो मत खींचो तो ठीक लेकिन उसने जिस अंदाज में कहा -'मोबाइल जेब में रहने दो' उससे लगा कि वह कह रहा हो-'खबरदार जो फ़ोटो खींचा।' अक्सर शब्दों से ज्यादा भंगिमाएं बयान करती हैं मतलब।
हम चुप हो गए। अब वह बोलने लगा -'आज क्या तारीख है? कितना बजा है?'
हमने तारीख बताई और समय घड़ी में देखकर बताया। वह बोला -'घड़ी बड़ी बढिया है। स्मार्ट वाच है।'
हमको लगा वह हमारे मजे ले रहा था। हम कुछ बोले नहीं। चुपचाप चले आये।
वैसे भी मजे लेने-लिवाने का , हंसी-मजाक का रिवाज आजकल कम होता जा रहा है। पता नहीं कौन किस बात पर बुरा मान जाए। रिपार्ट कर दे, आप बचते फ़िरो।
उस युवा से बात करते मुझे स्कूल जाते बच्चों ने देखा था। केवी में पढ़ते हैं। बगल से साइकिल से गुजरते हुए मुझसे पूछा उन्होंने -'वो क्या कह रहा था?'
बच्चों से स्कूल के बारे में बात होती रही। बच्चों ने बताया -'स्कूल में अच्छा लगता है। खेलने को भी मिलता है।'
खेलने को कितना मिलता है पूछने पर बताया -'आधे घण्टे का लंच होता है। पन्द्रह मिनट में खाना खाकर पन्द्रह मिनट खेल लेते हैं। झूला झूलते हैं। बच्चा कक्षा 7 में पढ़ता है।
बच्चे की बात सुनकर अपने स्कूल के दिन याद आ गए। कभी-कभी हम दिन भर खेलते थे। स्कूल की छुट्टी हो जाने के बाद देर तक। कभी किसी कारण स्कूल बंद हो गया तो घर जाने के बजाय स्कूल की फील्ड में ही दिन भर खेलते रहते। अब भी तमाम बच्चे ऐसे ही पढ़ते-खेलते होंगे। लेकिन हमको तो यही लगता है:
आज उतनी भी मयस्सर नहीं मयखाने में,
जितनी कभी हम छोड़ दिया करते थे पैमाने में।
हम दुनिया को हमेशा अपनी निगाहों से देखते हैं। जिस समय हम ऐसा कर रहे होते हैं उसी समय अरबों और भी लोग होते हैं जो दुनिया को अपनी निगाहों से देख रहे होते हैं। हरेक का देखने का अपना अलग अंदाज होता है।

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Monday, June 27, 2022

नहर किनारे तक साइकिलिंग



कल इतवार को लम्बी साइकिलिंग का प्लान था। Sumit Prasad सुमित कई बार से नहर तक चलने को कह रहे थे। टलता गया मामला। इस बार निकल लिए।
आर्मी गेट से निकलते ही सुमित मिले। इंतजार करते हुए। बाकी लोग आगे निकल गए थे। हम दो ही आगे बढ़े। सड़क पर पसीना बहाते लोग दिखे।
मऊ गांव के पहले घास, झाड़ियों से घिरे मैदान में क्रिकेट खेलते दिखे बच्चे। पिच पर घास, अगल-बगल घास। उनको देखते पेड़। सबके साथ खेल हो रहा था। सहअस्तित्व का भाव मूर्तिमान था। 'लगान' पिक्चर की याद आईं।
बस्ती से निकलते हुए आगे बढ़े। लोग घरों के बाहर बैठे बतिया रहे थे। कुछ लोग बीड़ी पीते हुए गपशप रत थे। लोग हमको आते देखकर, देखना शुरू करते, नजरों के ओझल होने तक देखते। गरदन का व्यायम हो जाता। पूरा 180 डिग्री घूम जाती गर्दन। इसी बहाने समय बिताने का बहाना।
खन्नौत नदी के पुल के पास, पीछे से फटफटिया पर इफरा के पापा अपने बेटे के साथ धड़धड़ाते हुए आये। बोले-'हम लोग इंतजार कर रहे थे आपका। आपके बंगले के बाहर से कई बार गुजरे। इफरा कह रही थी अंकल जी से मिलना है। आज अभी सो रही है। घर आइएगा लौटते में। हम इंतजार करेंगे।'
वापसी में आने का वायदा करके हम आगे बढ़े। नदी के पुल के पास के बगीचे में कुछ बच्चे पेड़ से गिरे आम बीन रहे थे। कुछ पेड़ में ढेले मारकर आम तोड़ रहे थे।
आगे साइकिल पर एक बुज़ुर्गवार अपने से भी बुजुर्ग साइकल पर जाते दिखे। कपड़े के नाम पर पटरे का जांघिया। कमर पर बंधा धागा। आहिस्ते-आहिस्ते साइकिल चलाते , पूरे इलाके को मौका मुआयना वाली निगाह से देखते। अंदाज ऐसा कि पूरा इलाका उनका ही हो।
कुछ देर बाद ही मुख्य सड़क पर आ गए। मोहम्मदी की तरफ जाती हुई। भावलखेड़ा अगला कस्बा था। भावलखेड़ा पहुंचकर मोड़ पर ही चाय की दुकान दिखी। रुक गयी साइकिल। चाय पीना भी जरूरी।
चाय की दुकान के सामने एक बुजुर्ग दिखे। एकदम यायावर टाइप। बगल में रखी गठरी। हम अनायास उनसे बतियाने पहुंच गए।
पता चला बुजुर्गवार इलाहाबाद के पास के सनौरी से चले आये हैं। ऐसे ही रेंगते-चलते। जहां मन किया रुक गए। जहां रात हुई ठहर गए। बताया कि पास में कुछ दाल-चावल, रुपये भी थे। कुत्ते सब खा गए।
घर परिवार में बच्चे हैं। पिता हैं। सब हैं। फिर क्यों ऐसे घूम रहे। बोले-'ऐसे ही निकल आये। वापस चले जायेंगे चलते-फिरते।'रास्ते का पता पता नहीं। थोड़ा बहुत पढ़ लिख लेते हैं। नाम-वाम पढ़ने भर का।'
नाम बताया चौहान। चौहान जी को चाय पिलाई गयी। कल से कुछ खाया नहीं था। तमाम असंबद्ध बातें। कानपुर के पंकज बाजपेई याद आ गए। चौहान जी को ग्लूकोस के बिस्कुट दिलाये गए। बिस्कुट लेकर सड़क पार करके अपने ठीहे की तरफ जाते हुए चौहान जी को देखकर केदारनाथ जी की कविता याद आयी:
मुझे आदमी का सड़क पर करना
हमेशा अच्छा लगता है
क्योंकि इस तरह
एक उम्मीद सी होती है
कि दुनिया जो इस तरफ है
शायद उससे कुछ बेहतर हो
सड़क के उस तरफ।
इसके पहले सड़क किनारे एक झोपड़ी में एक बुजुर्ग चाय छानते दिखे। स्टील के कप में अपने लिए चाय लेकर पास की गुमटी में आकर बैठकर चाय पीने लगे। पास में बुजुर्ग महिला चुपचाप दाल बीन रही थी। हमने पूछा- ' उनको चाय नहीं दी।'
'बना के रख दी है।'- बुजुर्ग ने इशारे से कहा। बुजुर्ग महिला चुपचाप अनाज बीनती रही।
उनको देखकर लगा -'एक उम्र के बाद दम्पत्तियों में संवाद की भाषा मौन हो जाती है।'
दम्पत्ति ही क्यों। किसी भी रिश्ते में एक समय बाद संवाद शब्दों का मोहताज नहीं रहता।
लौटते हुए फिर वही बुजुर्ग दिखे। दुकान पर बैठे। कुछ छोटे-मोटे सामान बेचते।
हमने पूछा -'यहां कौन सामान खरीदता होगा तुम्हारा? कैसे घर चलता है?''
'चल जाता है ऐसे ही।'- कहते हुए चुप हो गए। उनकी आवाज में निराला की कविता -'वह मार खा रोई नहीं' और 'दुख ही जीवन की कथा रही' वाले भाव थे।
बाद में बगल में साइकिल के पंचर बनाने वाले ने बताया -'इनका जवान बेटा नहीं रहा था। उसके इलाज में घर-बार सब बिक गया। बेटा शादी -शुदा था। अब उसके बच्चे बड़े हो गए। पास के ही गांव में रहते हैं वो। दिल्ली में काम करते हैं। ये बुजुर्ग सालों से ऐसे ही रहते हैं।'
भावल खेड़ा से आगे नहर दर्शन की लालसा में आगे बढ़ते गए। जिससे पूछो , कहता -'बस थोड़ी देर है।'
एक जगह एक बुजुर्ग आम चूसते दिखे। उनसे बतियाये। बताया कि मोहम्मदी के रहने वाले हैं। अब यहां रह रहे। घोड़ा गाड़ी है। उससे भट्टे के ईंटे ढुलाई करते हैं। घर में बेटे-बहु, नाती-पोते हैं। सब मजे में हैं । टहलते हुए आम चूसते हुए वे इधर-उधर हो गए।
रास्ते में तमाम नजारे दिखे। कोई बस का इंतजार करता, कोई सड़क पार करता। कहीं महिलाएं सड़क किनारे फसक्का मारे बैठी, बतियाती। शीघ्रपतन और नामर्दी के इलाज वाले इश्तहार जगह-जगह दिखे। इलेक्ट्रॉनिक धरमकांटे भी कई जगह दिखे।
चलते-चलते शारदा नहर तक पहुंचे। नहर में पानी पूरे प्रवाह से बह रहा था। इतना कि अगर नहर में उतरे तो बह जाएं। बड़े इलाके को सींचती है नहर। कितना मेहनत से बनाई गई होगी नहर। नहर के पास कुछ देर की फोटोबाजी के बाद वापस लौट लिए।
लौटते हुए हवा अनुकूल थी। तेज चाल आये। रास्ते में चौहान जी आते दिखे। सर पर गठरी रखे। घर लौट रहे थे। पता नहीं कब लौटेंगे। लेकिन उनका घर से निकलना और वापस का कारण समझ नहीं आया। यही लगा :
घर से बाहर जाता आदमी
घर वापस लौटने के बारे में सोचता है।
वापस लौटते हुए एक जगह दुकान पर एक बच्चे के बाल कटते देखे। बच्चा सर झुकाए हुए चुपचाप बाल कटवा रहा था। स्टाइल पता नहीं कौन सा था। लेकिन यही चल रहा है आजकल।
इस बीच इफरा के पापा के कई फोन आये। वे हमारा इंतजार कर रहे थे। उनके घर गये। पता चला कि पुरानी फोटो और वीडियो जो हमने लगाए थे वो सबने देखे थे। इफरा की खाला ने देखे तो इनको बताया। फिर सबने देखे। इफरा की मम्मी 'बेबी गुलिशतां' ने अपने बेटे के एडनिशन की चिंता जाहिर की। दोनों मियां-बीबी की चाहत है कि बच्चे अच्छे से पढ़ जाएं। ईश्वर उनकी तमन्ना पूरी करे।
इफरा के घर से चलकर वापस अपने घर आ गए। इतवार को कुल साइकिल चली 33.68 किलोमीटर।

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Friday, June 24, 2022

सबसे खूबसूरत शहर



अखबार अक्सर रह जाता है पढ़ने से। देर से आता है। आज कुछ जल्दी आ गया। हाथ में लेते ही पीछे का पन्ना खोला। सामने के पन्ने पर आजकल विज्ञापनों का कब्जा रहता है। विज्ञापनों में अक्सर ऐसी शक्लों और खबरों की वाहवाही दिखती है कि पहला पन्ना अखबार का सबसे वाहियात पेज लगता है। जिनको आप देखना न चाहें उनकी मुस्कराती शक्ल देखना वह भी सबसे पहले, अहमकपन वाली बात है।
इसीलिए शुरुआत पीछे से करते हैं , अखबार पढ़ने की।
यह कुछ ऐसे जैसे घर के मुख्यद्वार पर माफिया कब्जा कर ले तो घर का मालिक , अदालत में केस करके, पिछवाड़े से आने-जाने लगे।
पीछे के पन्ने पर पहली खबर दुनिया के बेहतरीन शहरों के बारे में थी। वियना को सबसे बेहतरीन शहर बताया गया है। कनाडा के तीन शहर हैं लिस्ट में। हिंदुस्तान के शहरों का पहले 100 में नम्बर नहीं। दिल्ली को मिला 112 वां और मुम्बई को 117 वां।
सीरिया की राजधानी दमिश्क सबसे निचले पायदान पर है। वैसे भी युद्ध और तबाही से बर्बाद हो गया शहर रहने लायक कैसे हो सकता है। फिर भी तमाम लोग अभी भी वहां रहते होंगे और खाने को मिलता रहे तो इसे छोड़ना नहीं चाहते होंगे।
Samiksha Telang का 'पुणे तेथे, काय उणे' ( दुनिया में जो भी खास है, वो पुणे में न हो यह हो नहीं सकता) वाले पुणे का जिक्र भी नहीं। अपना 'झाड़े रहो कलट्टरगंज' वाला कानपुर भी गायब है। सर्वे में पक्का धांधली हुई है। जांच बिठाई जाए। जांच की रिपोर्ट आने तक शहरों की रेटिंग स्थगित की जाए।
दुनिया के तमाम लोग अपने-अपने हिसाब से अपने शहरों को पसंद करते हैं। बनारस वाले तो बहुत पहले ही कह चुके हैं -'जो मजा बनारस में, वो न पेरिस में , न फारस में।' मतलब इसके बाद भी बनारस का नाम न आये लिस्ट में तो गड़बड़ तक है ही।
लिस्ट में हमारे शहर का नाम न होना उसी तरह है जैसे त्रिलोचन जी एक कविता में लिखते हैं :
"सुना है प्रगतिशील कवियों की एक लिस्ट निकली है,
उसमें त्रिलोचन का नाम नहीं है।"
यह लिस्ट हमारे शहरों के नाम के बिना है। इसको खारिज ही करना चाहिए।
यह सर्वे शायद शहरों के अच्छे इलाकों को देखकर हुआ हो। अगर कोई लिस्ट ऐसी बने जिसमें दुनिया भर के सबसे खराब इलाके शामिल हों तो इन देशों की क्या हालत हो, पता नहीं।
हमारे यहां जो खराब इलाके हैं उनमें अनगिनत लोग अमानवीय स्थिति में रहते हैं। सबसे खराब इलाके और सबसे अच्छे इलाके की सुविधा में अंतर देखा जाए तो अनुपात एक और लाख का होगा। शायद और भी ज्यादा हो। दिन पंर दिन यह अंतर बढ़ता जा रहा है। आगे भी यह बढ़ते ही जाना है, ऐसा लगता है।
कारण और निवारण हमारे बस की बात नहीं। हम तो फिलहाल यही कह रहे कि लिस्ट फर्जी है। हम जहां रह रहे , वह जगह दुनिया की सबसे खूबसूरत जगह है। दुनिया में अगर कहीं स्वर्ग है तो यहीं हैं। वैसे भी कहते हैं न, खूबसूरती देखने वाले की आंख में होती है।
आप क्या कहते हैं इस मसले में?

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Thursday, June 23, 2022

किताबों का साथ

 सुबह का समय बड़ा कीमती होता है , बड़ा बवालिया भी। दो-तीन घंटे में तमाम काम कर लेने का मन होता है। इस चक्कर में कोई पूरा नहीं होता ।

पहला तो काम होता है हड़बड़ाते हुए टहलने का। वो तो कर लेते हैं, अक्सर। इसके बाद मन करता है कि साइकिलिंग के लिए निकला जाए। जब तक टहलाई पूरी होती है , तब तक लगता है - 'आज देर हो गई , अब कल निकलेंगे ,पक्का !'
इसके बाद आता है नंबर पढ़ाई का। मन करता है कि कोई किताब पूरी पढ़ ली जाए। लेकिन अक्सर मामला आधा-अधूरा ही छूट जाता है।
‘कई चाँद थे सरे –आसमां’ पढ़ने के बाद सोचा था कि कोई और किताब पूरी पढ़ेंगे। इस चक्कर में दो किताबें तय की थीं -एक हावर्ड फ्रास्ट की लिखी और अमृत राय द्वारा अनूदित 'आदि विद्रोही' और दूसरी Jack Kerouac की लिखी On the Road । आदि विद्रोही तो कई बार पढ़ चुके हैं लेकिन लगता है इस बार पढ़ेंगे तो कायदे से। कायदे से मतलब चुनिंदा अंशों पर निशान लगाते हुए। यह किताब अब छपाई में उपलब्ध नहीं है तो यह भी सोचा कि इसको टाइप करके नेट पर भी डाल दें। लेकिन इत्ते पेज टाइप करने का समय मिलना मुश्किल।
On the Road एक बार शुरू की थी लेकिन कुछ पन्ने पढ़ने के बाद रुक गए। अब दुबारा फिर पढ़ेंगे। यह किताब Priyanka Dubey ने सुझाई थी एक बातचीत में। सुझाने की बात चली तो बताएं कि ‘कई चाँद थे सरे –आसमां’ खरीद तो मैंने दो साल पहले ही ली थी लेकिन इसको पढ़ने का मन बना S Nath Bhardwaj शम्भूनाथ जी की एक बातचीत को सुनकर।
समगोत्रीय ,कनपुरिया , युवा और सक्रिय बुजुर्ग का इतना असर तो होता ही है। यह अलग बात कि उनकी सुझाई एक और किताब खान अब्दुल गफ्फार खां की आत्मकथा ' मेरा जीवन मेरा संघर्ष' आधी पढ़ी हुई रुक गई। दूसरी किताबों ने इसको पढ़ना स्थगित करा दिया।
Mario Vagas Liosa लिखित Aunt Juliya and the Scriptwritre भी मनोहर श्याम जोशी की सुझाई Prabhat Ranjan जरिए पता लगी किताब भी एक तिहाई पढ़ने के बाद ठहर गई। जूलिया आंटी के किस्से भी पूरी पढ़ने हैं।
होता अक्सर यह है कि जब कोई किताब पढ़ने बैठो तो तमाम दूसरी किताबें ललचाती हैं। ऐसी में अनगिनत किटाबे अधपढ़ी छूट जाती हैं। कल ही शाम को श्रीलाल शुक्ल जी की 'मकान' देखने लगे तो शुरुआत हुई :
'इस नगर की सड़के जितनी गंदी हैं , नगर-निगम का दफ़तर उतना ही शानदार है।'
इसको पढ़ते हुए युसूफ़ी साहब का लंदन के बारे में पढ़ा हुआ जुमला याद आ गया - 'लंदन में और कोई खराबी नहीं सिवाय इसके कि यह गलत जगह बसा हुआ है। '
इसके बाद इसके सम्मोहन में आ गए। बीस-पच्चीस पेज पढ़ गए। पहले भी पढ़ चुके हैं लेकिन लगता है पहली बार पढ़ रहे हैं। कुछ देर बार ठहर गए। लगता है फिर पढ़ेंगे -तसल्ली से।
अच्छी किताबें पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि यह किताब खत्म हो गई तो फिर क्या करेंगे ! यह बेवकूफी वाला भाव भी कई बार अवरोध पैदा करता है पढ़ाई में ।
इसी चक्कर में तमाम दोस्तों की किताबें भी अधपढ़ी रह जाती हैं।
आपके साथ भी ऐसा होता है क्या ?

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Tuesday, June 21, 2022

योग दिवस पर साइकिल योग



आज अंतरराष्ट्रीय योग दिवस है। योग के कार्यक्रम होंगे दिन में। शुरुआत 'साइकिल योग' से हुई।
साइकिल से निकले। स्कूल में रात की ड्यूटी का दरबान कपड़े बदलकर घर जाने की तैयारी कर था। हमको देखकर नमस्ते करने के चक्कर में देर हो गयी।
औपचारिकताओं के अलग बवाल हैं। हर औपचारिकता समय की कुर्बानी मांगती है।
मंदिर तिराहे पर 100 डायल कर में बैठा ड्राइवर कार का दरवाजा पखने की तरह खोले मोबाइल पढ़ रहा था।
एक बुजुर्ग छड़ी के सहारे अपनी पोती के साथ टहल रहे थे। स्कूल की पुलिया पर बैठी दो महिलाएं आपस में अगल-बगल देखते हुए बतिया रहीं थीं।
मेन रोड पर आकर सीधे चले चले गए। इस रास्ते पहले नहीं आये थे। चौड़ी सड़क। चलते गए। आगे बस्ती शुरू हुई। कुछ जगह मोहल्ला गोदियाना लिखा दिया। गोदियाना नाम क्यों पड़ा पता नहीं।
एक तालाब किनारे एक आदमी तालाब के पानी को देखता कम घूरता ज्यादा बैठा था। पानी उसके देखने और घूरने से डरकर हिलडुल रहा था। कीचड़ और जलकुंभी के मोटापे के कारण तालाब भी थुलथुल हो गया था। तेजी से हिल नहीं पा रहा था। आदमी तालाब की बेबसी को समझता हुआ चुपचाप उसे देखता रहा।
एक दुकान पर नाम लिखा था -'अनूप मोबाईल शाप'। हमारे नाम से कब खुली दुकान हमको पता ही नहीं। हम तो आम इंसान लेकिन तमाम महान लोगों के नाम ऐसे ही तमाम योजनाएं चलती रहती हैं। उनके नाम घपले-घोटाले होते रहते हैं। उनको पता ही नहीं चलता।
एक नौजवान कंधे पर दो झाड़ू लिए और हाथ में फावड़ा पकड़े तेजी से आता दिखा। साथ के आदमी से उसने कुछ मजाक किया। आगे जाकर दुकानों की सफाई में जुट गया। हमने बात करना शुरू किया तो कुछ बोलने से पहले उसने सफाई दी -'वो हमारा दोस्त है। हम ऐसे ही मजाक कर रहे थे।'
हंसी-मजाक पर भी आजकल सफाई देनी पड़ रही है। उस नौजवान की बात सुनकर लगा कहीं ऐसा न हो कि आने वाले समय में समाज मे मजाक के लिए अनुमति लेने का कानून बन जाये। बिना अनुमति मजाक करना दण्डनीय अपराध और सजा या जुर्माने का कारण बन जाये।
फिर तो न जाने कितने लफड़े होंगे। करोड़ो लोग मजाक करने के बावजूद पकड़े नहीं जाएंगे। 'मजाक अपराध' में दिनो दिन बढोत्तरी होगी। न जाने क्या-क्या बवाल हो सकते हैं। अभी इस बारे में सोचा ही न जाये तो बेहतर।
एक दुकान के चबूतरे पर दो कुत्ते बैठे थे। ऊंचे चबूतरे पर बैठा कुत्ता इतना चौकन्ना और घबराया सा इधर उधर देख रहा था कि मानो उसको डर है कोई दूसरा कुत्ता न उस चबूतरे पर कब्जा कर ले। पास में टहलती मक्खी पर उसने बड़ी तेजी से अपनी पूंछ से हमला सा किया। मक्खी शायद उड़ गई होगी। वह खिसियाया सा दूसरी तरफ देखने लगा।
दूसरा कुत्ता शायद रखवाली के काम में लगा था , सो रहा था। यह भी हो सकता है कि उसकी ड्यूटी रात की शिफ्ट में रही हो। ड्यूटी पूरी करके सो रहा हो। किसी के बारे में बिना जाने कोई धारणा बनाना ठीक नहीं।
एक बुजुर्ग अपनी नातिन को टहलाते हुए दिखे। बिटिया का नाम बताया -माहम। पता चला फैक्ट्री से 2014 में रिटायर हुए। उनके समय के महाप्रबन्धकों के नाम पूछे तो बोले-'न जाने कितने जीएम आये। नाम याद नहीं।'
जो लोग तख्ते-कुर्सी के लिए मारामारी में लगे रहते हैं उनको समझना चाहिए कि आम आदमी उनके नाम भी नहीं गिनता।
बिटिया को खिलाते हुए बुजुर्गवार टहलते चले गए।
एक जगह चबूतरे पर दो बुजुर्ग बैठे दिखे। एक बीड़ी पीते, दूसरे हवा पीते और सड़क को देखते तसल्ली से बैठे। बात करने के बहाने हमने रास्ता पूछा। रास्ता बताकर फिर बीड़ी पीने लगे बुजुर्गवार। लगता है वो बतियाने के मूड में नहीं थे। हम आगे निकल लिए।
आगे फल सब्जी की मंडी दिखी। सड़क पर भीड़ में फल सब्जी बिक रहे थे। आम की 25 किलो की पेटी 750 रुपये में बिक रही थी। मतलब आम 30 रुपये किलो थोक में। फुटकर में और महंगा होगा। कुछ साल पहले हमको याद है हमने आठ रुपये किलो आम खाये थे। मंहगाई बढ़ गयी है।
गुप्ता समोसा कार्नर दिखा। आलू ही आलू हर तरफ। एक तरफ देग में आलू उबल रहे थे। देग के ढक्कन के नीचे बोरे से ढंके थे आलू। कोई देख ले उबलते हुये तो समोसा न खाए। अंदर आलू छिलके समेत कसे जा रहे थे। मिलाए जा रहे थे। अंधेरे में आलू घुट घुटकर समोसे में बदल रहे थे। पूछने पर हाथ के इशारे से बताया 40 साल पुरानी दुकान है। बरेली तक जाते हैं समोसे।
गुप्ता समोसा कार्नर के साथ लगी नाली में एक आदमी नाली के पानी में हाथ डाले कुछ खोज सा रहा था। हमें लगा अंदर कुछ गहरे सफाई कर रहा है। कुछ देर में उसने नाली से निकला सिक्का हाथ में रखकर दिखाया। किसी ने फेंका होगा। उसको आशा होगी तभी खोज रहा था। आशा ही जीवन है।
वहीं बगल में ही फुटपाथ पर एक आदमी अपने बच्चों के साथ बैठा चाय पी रहा था। दिल्ली से आया है। प्राइवेट बस से। रात भर के सफर से थका हुआ है। आगे अपने गांव जाना है। 18-20 किलोमीटर दूर गांव है। कोई ऑटो वाला तैयार नहीं हो रहा है। जो तैयार हो रहा है वह आने-जाने का किराया मांग रहा है। मोलभाव चल रहा है।
एक बैटरी रिक्शा वाला बोला -'बैटरी ख़त्म हो जाएगी। जा पाएंगे तो आ नहीं पाएंगे। बैटरी होती तो हम चले चलते।' बताया -'एक बार की बैटरी चार्ज होने पार 60 किमी चले जाते हैं। 50 रुपये लगते हैं एक बार की चार्जिंग के। सुबह से बीस-पच्चीस किलोमीटर चल चुकी है गाड़ी। इसीलिए बोले -नहीं जा पाएंगे।'
उस परिवार को वहीं छोड़कर हम आगे बढ़ गए। श्रीरामलीला मैदान में योग दिवस के मौके पर योग शिविर चल रहा था। भारी भीड़ थी। सड़क पर लोग आ जा रहे थे। मार्निंग वाकर क्लब के लोगों ने दनादन सेल्फी और फोटो ली। वहीं कई तरह के फ्लेवर की ग्रीन टी भी वितरित हो रही थी। हमको भी जबरियन पिलाई गई। चाय पीकर हम घर आ गए।
घर के बाहर लान में एक पक्षी घास पर टहलते हुए कुछ चुन रहा था। खा भी रहा था। हमको पास आते देखकर उड़कर छत पर बैठ गया। उसको अपनी निजता का उल्लंघन करना अच्छा नहीं लगा।
हमको फोटो लेते देखने की कोशिश करते और असफल होते सूरज भाई देख रहे थे। पेड़ के पीछे छिपे हुए। हमने उनकी ही फोटो लेकर कोटा पूरा किया।
सुबह की सैर पूरी हुई।

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