Monday, May 21, 2018

जिन्दगी के इन्द्रधनुषी रंग


चित्र में ये शामिल हो सकता है: 1 व्यक्ति, बैठे हैं
जब आये थे तब दाढ़ी मूंछ नहीं उगी थी, देखते-देखते दाढ़ी सफेद हो गई।
कल लौटते हुये चटाई मोहाल होते हुये आये। यहां चटाइयां बुनने का काम होता है। झोपड़ियों में रहने वाले लोग सड़क पर बैठे चटाई बिनने का काम करते हैं। बिनने का कच्चा माल बांस मण्डी से मिलता है। बांसमण्डी बगल में ही है।
'खोया पानी' वाले बिशारत की दुकान भी पहले बांसमण्डी और फ़िर कोपरगंज में थी।
लेकिन चटाई मोहाल में बिनाई का काम देंखें इसके पहले ही कुछ पुराने टायरों की दुकानें दिखीं। टायरों से निकाली गयी बेल्टें बन्दनवार की तरह लटक रही थीं। दुकानों में बैठे लोग ग्राहकों का इन्तजार करते हुये आसपास मक्खियों की अनुपस्थिति में ऊंघते हुये अखबार बांच रहे थे।
टायरों और उनसे बनने वाली बेल्टों का गणित समझने की मंशा से हम एक दुकान में रुके। पुराने टायर जो कभी सड़कों के बलात्कार (वहीं एक ट्र्क खड़ा था। उसे देखते ही यकीन हो जाता था, इसका जन्म केवल सड़कों से बलात्कार करने के लिये हुआ है।- रागदरबारी) में सहयोगी होते होंगे, मार्गदर्शक मण्डल के सदस्यों की ढेर हुये पड़े थे। जिन टायरों से बेल्ट्स निकल गयी थीं वे छिलके निकले हुये अंडों सरीखे लग रहे थे। उनका चिकनापन देखकर लगा गोया किसी नवोदित लफ़ंगे को छेड़खानी करते हुये पकड़े जाने पर उसका सर घुटाकर दुकान में डाल दिया गया हो।
दुकान वाले ने बताया कि इन टायरों से तरह-तरह की बेल्ट्स बनती हैं। जरूरत के हिसाब। एक बड़ी बेल्ट को थोड़ा टेढा देखकर हमने पूछा - ’ये तो चलेगी नहीं।’
’जब चलती है तो गरम होकर यह टेढापन ठीक हो जाता है।’- दुकान वाले ने बताया।
“गरम होकर दुनिया के तमाम पदार्थ मनमाफ़िक काम करने लगते हैं। जिसको गरम कर दिया जाता है वह सीधा हो जाता है। तमाम ठहरे हुये काम मुट्ठियां गरम होते ही हो जाते हैं।“- हमने मौका देखकर यह बात सोच ली।
ट्रक के जो नये होने पर 17-18 हजार के मिलते हैं वे पुराने होने पर छह से आठ सौ में मिलते हैं। तीन से चार हजार वाले कार के टायर सौ से दो सौ रुपये में। साइकिल के टायर के दाम हमने पूछे नहीं इस डर से कि कहीं कोई खोलकर यहां ने बेंच जाये।
बुजुर्गवार जिनसे बात हुई पता चला कि वे मुजफ़्फ़रपुर, बिहार से हैं। बीस-पचीस साल पहले जब आये तब दाढी मूछ नहीं थी। कानपुर में ही दाढी मूछ हुई और देखते ही देखते सफ़ेद भी हो गयी। जब आये थे तब आसपास तमाम मिलें चलती थीं। आबादी इतनी घनी नहीं थी। अब मिलें बन्द हो गयी हैं। आबादी का घनत्व बढ गया है। आसपास तमाम मकान पहले कुकुरमुत्तों की तरह और फ़िर डायनासोर वाले अन्दाज में बढ गये हैं।
मुजफ्फरपुर का नाम सुनते ही हमको अपने कई अजीज दोस्त याद आ गए। उनसे जुड़ी यादें तड़तड़ा के मन के बहुत तेज नेटवर्क पर हाइपर लिंक की तरह खुलती चलीं गई।
रहते कानपुर में हैं लेकिन सम्बन्ध मुजफ़्फ़रपुर से बना हुआ है। परिवार वहीं है। आते-जाते हैं। परिवार के बारे में पूछने पर बताया कि पत्नी हैं। एक बेटी है उसकी शादी हो गयी।
हमने पूछा -जब पत्नी अकेली हैं तो यहां क्यों नहीं ले आते। साथ क्यों नहीं रहते।
बोले- ’साथ रहने के लिये खर्चा का जुगाड़ नहीं हो पाता मंहगाई में। इसलिये वहीं रहती हैं वो।’
हमें लगा कि एक बार अलग रहने पर अलग ही रहने ऐसी आदत पड़ जाती है कि साथ रहने की दिक्कतें ज्यादा बड़ी लगने लगती हैं। न्यूटन का जड़त्व का नियम बहुत दूर तक काम करता है।
जब कानपुर आये थे और आज की हालत में क्या बदलाव आये हैं आपकी समझ में? जिन्दगी आसान हुई है कि कठिन? - मैंने उनसे सवाल पूछा।
वो बोले-’ सुविधायें तो बढी हैं लेकिन तकलीफ़ें भी साथ-साथ आईं हैं।’
तकलीफ़ों की तफ़सील पूंछने पर बताया बुजुर्गवार ने- ’ अब देखिये पेशाब के लिये दूर सुलभ शौचालय तक जाना पड़ता है। लेटरीन के पांच रुपये लगते हैं सुलभ शौचालय में। पेशाब के लिये जाओ तो हर बार टोंकता है पहले पांच रुपये जमा करो। पहले यहां गहरी नालियां थीं। पानी चलता था उनमें। यहीं बैठकर आड़ में पेशाब कर लेते थे। अब बताओ इत्ती गर्मी में पेशाब के लिये चलकर मील भर जाओ तब तक किसी की पेशाब के पहले जान ही निकल जाये।’
चलते हुये नाम पूछने पर बताया - ’मोहम्मह हसन।’
मोहम्मद हसन जिनके लिये कहा जाता है - ’हाय हुसैन हम न भये?’- हमने अपना अधकचरा ज्ञान छांट दिया।
वो हुसैन थे। हसन और हुसैन दोनों भाई थे। - मोहम्मद हसन ने बताया।
चित्र में ये शामिल हो सकता है: 2 लोग, मुस्कुराते लोग
साहब ने हमारी तमाम फ़ोटो ली हैं
हम वहां से चलकर घर के पास पहुंचे। घर के बाहर फ़ुटपाथ पर खरबूजे -तरबूज की दुकान लगाये मोहम्मद इस्लाम से दोनों फ़ल लिये। उनकी पत्नी अमीना बेगन साथ में थीं। उनसे बतियाये। इस्लाम ने अपनी पत्नी को बताया - ’साहब ने हमारी तमाम फ़ोटो ली हैं।’
बतियाते हुये पता चला कि उनके दस बच्चे हैं। छह लड़कियां, चार लड़के। सब अपने-अपने काम से लग गये। लड़कियों की शादी हो गयी।(एक को छोड़कर) बच्चे गुजरात, मुम्बई, सऊदी और कानपुर में अलग-अलग काम करते हैं।
बच्चों की बात पर हमने पूछा - ’इत्ते बच्चे पैदा किये?’ मन में सोचा भी तीन और कर लेते तो मुमताज महल की बराबरी हो जाती। यह भी कि अभी एक बेटी के बाप से मिलकर आये। यहां दूसरे के दस बच्चे हो गये।
इस पर बोली अमीना- ’पहले लड़के के चक्कर में हुये। फ़िर सास ने आपरेशन कराने नहीं दिया। बुढिया के चक्कर में होते गये बच्चे। अब सब ठीक है। खुदा के मेहरबानी से सब बच्चे पल-बढ गये। हम सुकून से हैं।’
मियां के बारे में पूछने पर बोली- ’हमारा आदमी लाखों में एक है। जो कमाता है सब हाथ में रखता है। कभी हाथ नहीं उठाया। हम बहुत खुश हैं अपने आदमी से।’
हमने मजे लिये - ’तुम तो इनके ही साथ रही। एक के साथ रहकर तुमको क्या पता कि बाकी के कैसे हैं जो तुम इनको लाखों में एक बता रही हो?’
इस पर हंसते हुये बोली- ’अपना आदमी अपना ही होता है। उसको हम खराब कैसे कह सकते हैं?’
चलते हुये साथ में फ़ोटो ली। मियां-बीबी दोनों सावधान मुद्रा वाले पोज में। फ़िर हमने कहा -’ जरा पास आओ एक-दूसरे के। कन्धे पर हाथ रखो।’
पास आने और कन्धे पर हाथ रखने की बात इस्लाम शरमा गये। और सिकुड़कर खड़े हो गये। लेकिन अमीना ने उसको अपनी तरफ़ घसीट लिया और कन्धे पर हाथ धरकर मुस्कराते हुये फ़ोटो खिंचाया।
इतनी देर की बातचीत की बाद खरबूजे और तरबूज जो लाये उनकी मिठास पता नहीं कितनी बढी लेकिन पैसे अलबत्ता काफ़ी कम पड़े उनके।
हमारे आसपास की जिन्दगीं में अनगिनत इन्द्रधनुषी रंग होते हैं। हम अपने में डूबे हुये इनको देख नहीं पाते।

Sunday, May 20, 2018

प्रेम एक सहज गठबंधन होता है

मलबा लादकर फेंकने के जाते हुए
सुबह-सुबह कार से टहलने निकले। पप्पू की दुकान के पास की फ़ुटपाथ पर बैठे एक जोड़ा कानाफ़ूसी वाले अंदाज में बतिया रहा था। अंदाजे-ए-गुफ़्तगू वही वाला जिसमें गांधी जी -नेहरू जी के साथ बतियाते हुये तस्वीरों में दिखते हैं। तस्वीर में भले ही नेहरू जी गांधीजी से , किसी मीटिंग में स्वयंसेवकों को सब्जी-पूड़ी बंटेगी कि दाल-चावल, विषय पर चर्चा कर रहे हों लेकिन उनके महापुरुष होने के नाते माना यही जायेगा कि वे देश-विदेश की किसी बड़ी समस्या पर चर्चा कर रहे हैं। ऐसे ही ये फुटपाथिया लोग भले ही अमेरिका और उत्तर कोरिया के राष्ट्रपतियों के सनकी बयानों की चर्चा कर रहे हों लेकिन हम यही सोचेंगे कि ये शाम के दाल-रोटी के इंतजाम की चर्चा कर रहे हैं।
हम लोगों के बारे में हमेशा पूर्वाग्रह ग्रस्त होते हैं। पूर्वाग्रही सोच आरामदेह होती है। खुद का दिमाग नहीं लगाना पड़ता सोचने में।
सड़क पर फ़ुर्ती से जाती मोटरसाइकिल के पीछे बैठा आदमी अपनी मुंड़ी की ऊंचाई से भी ऊंची गठरियां लिये जा रहा था। गठरियों में बंधे सामान को जिस ’चुस्तैदी’ से जकड़े हुये था वह उसे देखकर लगा मानों किसी त्रिशंकु विधानसभा के विधायकों को उसकी पार्टी का नेता अपने कब्जे में लिये जा रहा है। जरा सा पकड़ ढीली हुई कि गया विधायक हाथ से। चालक और सवारी दोनों में से कोई हेलमेट नहीं लगाये थे। गोया उनकी यमराज के आदमियों से सेटिंग हो रखी हो कि इधर की तरफ़ नहीं आयेंगे वे लोग जब तक निकल न जायें।
बीच सड़क एक कुतिया ने तेजी से अपने कान फ़ड़फ़ड़ाये। इसके बाद जल्दी-जल्दी अपनी पीठ खुजाने के बाद दायें-बांये मुंड़ी घुमाकर देखा। ऐसा लगा कि वह सबको जता देना चाहती है कि खुजली किसी भी तरह की हो, हमारे पंजे उसको छोंड़ेंगे नहीं। हर तरह की खुजली का एनकाऊंटर करके रहेगी वह।
एक घोड़े वाला घोड़े की पीठ पर मलबे का सामान लिये जा रहा था। नहर में फ़ेंकने के लिये। कोई खुराफ़ाती होता तो तुलना करते हुये लिखता- ’देखकर लग रहा है कि विधानसभा में बहुमत साबित करने के लिये विधायक लादे लिये जा रहा है।’ लेकिन हम इस तरह की बात लिख नहीं सकते हालांकि लगा हमको भी कुछ-कुछ ऐसा ही। आप तस्वीर खुद देखिये और बताइयेगा कि आपको कैसा लगा?
चित्र में ये शामिल हो सकता है: एक या अधिक लोग और भोजन
आपत्ति फूल को है माला में गुंथने में
भारत माँ तेरा वंदन कैसे होगा
फ़ूलबाग चौराहे के पास तिकोने फ़ुटपाथ पर एक आदमी मुंड़ी के नीचे हाथ रखे सो रहा था। उसकी सुबह अभी आई आई नहीं थी। जबकि सूरज भाई की सरकार शपथ लेकर चलने भी लगी थी। वहीं बगल में एक बुजुर्ग गेंदे के फ़ूल की माला बना रहे थे। हमको नंदलाल पाठक की कविता याद आ गयी:
“आपत्ति फ़ूल को है माला में गुंथने से
भारत मां तेरा वंदन कैसे होगा
सम्मिलित स्वरों में हमें नहीं आता गाना
बिखरे स्वर में ध्वज का वंदन कैसे होगा।“
तुकबंदी करते हुये कोई इसको गठबंधन से जोड़ सकता है:
“बहुमत से दूर सभी, त्रिशंकु हालत है
सरकार का हल्दी-चंदन कैसे होगा?
सभी विधायक मंत्री पद मांग रहे हैं
ऐसे में बोलो गठबंधन कैसे होगा।“
बुजुर्ग से बात करने की कोशिश की लेकिन वे अपने काम में इतने मशगूल कि उन्होंने हमको ’लिफ़्ट’ नहीं थी। उनके सामने ठेलिया पर तमाम ’सुबह-टहलुआ’ ब्रेड-बटर चांपते हुये सुबह गुलजार रहे थे। नुक्कड़ के पार्क पर कबूतर दाने चुगते हुये पानी पी रहे थे। पिछले इतवार को इनकी देखा-देखी अपन ने बगीचे में चार बर्तन में पानी रखा। चिड़ियों के लिये। चिड़ियां तो अलबत्ता हमको नहीं दिखी लेकिन कई बार बन्दर पानी पीते दिखे। चिड़ियों के लिये रखे पानी के बर्तन में बंदरों को मुंह मारते देख ऐसा लगा मानो गरीबी के रेखा के नीचे वालों के लिये आवंटित मकानों पर करोड़पतियों का कब्जा हो जाये।
चित्र में ये शामिल हो सकता है: एक या अधिक लोग, लोग बैठ रहे हैं, साइकिल और बाहर
सवारी के इंतजार में रिक्शेवाले
बिरहाना रोड़ पर लाइन से कई रिक्शे वाले खड़े सवारियों का इंतजार कर रहे थे। एक आदमी बड़े गुस्से में कोई तकरीर जैसी कर रहा था। उसके अंदाज से लग रहा था कि मानों कह रहा हो कि सारी गड़बड़ियों को वह उठाकर पटक देगा। एक-एक को ठीक कर देगा। ऐसे आदमी को अगर सही मंच मिल जाये तो बहुत आगे जाये। लेकिन सही मौका न मिलने के चलते वह बिरहाना रोड पर अपना गुस्सा उतार रहा है। विक्षिप्त हो रहा है। सही मौका मिलने पर ऐसे ही तमाम विक्षिप्त बहुत आगे निकल जाते हैं। उनकी ऊलजलूलियत उनका हुनर बन जाती है।

चित्र में ये शामिल हो सकता है: एक या अधिक लोग और बाहर
भैया भाभी के साथ हनीमून पर जाने वाले हैं
पंकज इंतजार कर रहे थे हमारा। देखते ही मिलने को लपके। साथ के लड़के ने उनसे मजाक करते हुये कहा-’ पंकज ने हमको स्कार्पियो नहीं दिलवाई।’ पंकज बोले -’ स्कार्पियो मतलब बिच्छू होता है। बिच्छू डंक मारता है।’ मतलब पंकज अंग्रेजी के शब्द भी जानते हैं। जलेबी, दही, समोसा कब्जे में लेने के बाद बोले-’ आज बहुत चीजें लेंगे। बहुत चीजों में बर्फ़ी, कोल्ड ड्रिंक, एक आम, दो केला और पांच बिस्कुट शामिल हुये। चाय के दस रुपये भी।’
मिठाई की दुकान पर लड़के की शिकायत करते हुये बोले- ’ ये हमको मिठाई देता नहीं है।’ हमने उसको कहा कि रोज एक पीठ मिठाई दे दिया करो। पैसे हम देते रहेंगे। एडवांस भी दिये कुछ पैसे।’
मिठाई, कोल्ड ड्रिंक लेने के समय हमारे बारे में मिठाई वाले को बताया -’भैया भाभी के साथ हनीमून पर जाने वाले हैं। माल वाली मिठाई खिलाया करो इनको।’
चीजों के दाम का अंदाज है पंकज को। कोल्ड ड्रिंक की सस्ती वाली वैरायटी ही ली। हमने कहा और भी कुछ लेने का मन है तो ले लो।
बोले-’और नहीं लेंगे। ज्यादा लेने से प्रेम से कम हो जाता है।’
ज्यादा लेने से प्रेम कम हो जाता है। यह बात ऊंची टाइप कह गये सिरिमान पंकज जी। मतलब (एक तरफ़ा) लेन-देन प्रेम में बाधक होता है। लेन-देन होय तो बराबरी का होय। हमको याद आई घनानन्द की बात:
“अति सूधो स्नेह को मारग है
जहँ नेकु सयानप बांक नहीं
तुम कौन धौं पाटी पढ़े हो लला
मन लेहु पे देहु छटांक नहीं।“
मने प्रेम बराबरी का मामला है। यहां चालाकी की कोई जगह नहीं। कपट नहीं। शिकायत भी है सुजान से कि मन भर (चालीस किलो) प्रेम लेते हो लेकिन देते छंटाक भर भी नहीं।
इसी बात को विस्तार देते हुये कोई कह सकता है- ’प्रेम एक सहज गठबंधन होता है। हसीन टाइप। एकतरफ़ा लेन-देन से इस गठबंधन में दरार पड़ जाती है। गठबंधन की सरकार गिर जाती है।
चित्र में ये शामिल हो सकता है: 4 लोग, मुस्कुराते लोग, लोग बैठ रहे हैं
खबरों को दबाए हुए लोग
चलते हुये पंकज ने हिदायत दी कि राजुल से बचकर रहना। लेकिन कोहली अब उनके जिकर से बाहर है बहुत दिनों से।
सामने कुछ लोग अखबारों की रद्दी पर बैठे थे। देखकर लगा कि जरूरी खबरें दबाने वाले ऐसे ही खबरों के ऊपर बैठ जाते होंगे। खबरें दब जाती होंगी।

लौटते हुये माल रोड चौराहे पर अखबार लिया। वहीं नुक्कड़ पर बोर्ड लगा था ’गोल्डी मसाले और पीबी सोसाइटी ज्वैलर्स का गठबंधन।’ देखकर लग रहा था कि गोल्डी मसाले ने पीबी सोसाइटी ज्वैलर्स के समर्थन से नुक्कड़ पर अपनी विज्ञापन सरकार बना ली है। ज्वैलर्स ने पैसे भी दिये होंगे शायद मसाले की सरकार बनाने के लिये। विज्ञापन की गठबंधन सरकार बन गयी। वैसे भी गठबंधन हमेशा ही मसालेदार होता है। है कि नहीं?

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Wednesday, May 16, 2018

ये दोस्ती हम नहीं छोड़ेंगे

चित्र में ये शामिल हो सकता है: 2 लोग, लोग खड़े हैं, बच्चा और बाहर
ये दोस्ती हम नहीं छोड़ेंगे
कल सुबह टहलने निकले। गेट के पास ही लकड़ी के डंडे के सहारे चलते भाई जी मिले। डंडा दोनों हाथों से पकड़कर दोनों टांगो के सामने जमीन पर टेककर आगे बढ़ते हुए।मध्यमार्गी मुद्रा। पैर में चोट लगी थी साल भर पहले। तबसे डंडे के सहारे चलते हैं। मध्यमार्गी हो गए हैं। चोट खाया हुआ कमजोर आदमी मजबूरन मध्यमार्गी हो जाता है।
बात करते हुए पता चला कि बरेली के रहने वाले हैं। यहां रात में दुकानों की चौकीदारी करते हैं। 17 दूकानों से 5000/- मिल जाते हैं महीने में।

चित्र में ये शामिल हो सकता है: 1 व्यक्ति, खड़े रहना और दाड़ी
चोट खाया चौकीदार
55 साल की उमर वाले चौकीदार के अधिकतर दांत गुटका, पान , तम्बाकू के संयुक्त आक्रमण में धरासाई हो गए हैं। हवा जिधर से मन आये, आये, जाए --'समाज में काले धन की तरह, पड़ोस में आतंकवाद की तरह।' कोई रोक टोंक नहीं।
खुद चलने-फिरने में डंडे के मोहताज चौकीदार कैसे रखवाली करते होंगे यह सोचते हुये बात की तो पता चला कि कुल जमा 7 बच्चे हैं उनके। पांच लड़कियां , दो लड़के। हमने पूछा इतने में खर्च कैसे चलता होगा -'बोले, मिसेज दूसरे घरों में काम करती है। भाई भी देते हैं खर्च। बच्चे भी कुछ कमाने लगे।' 5000 में भी घर खर्च के लिए वे 2000/- देते हैं, बाकी खुद के भी ख़र्च हैं।
खुद का बरेली का बताने के बाद उन्होंने हमसे सवाल किया -'आप क्या नेपाल के रहने वाले है?' हमने पूछा -'नहीं तो, वैसे क्या हम नेपाली लगते हैं?' बोले -' ऐसे ही पूछा।'
चलते हुए उस दुकान पर पहुंचे जिसकी भी चौकीदारी इनके जिम्मे हैं। 7 बच्चों का जिक्र फिर आया तो दूकान वाला बोला -'और ये कर ही क्या सकते हैं, बच्चे पैदा करने के सिवा। पालने का ठिकाना नहीं, बस पैदा करने से मतलब।'
इसी क्रम में दुकान वाला अपने बच्चों के बारे में बताने लगे। बच्चों की बात तो बहाना था वे दरअसल अपनी दो साल पहले असमय विदा हो गयी पत्नी की यादें साझा करने लगे। बताया उसने दोनों बच्चियों की शादी ऐसी शान से की लोग देखते रह गए। कोई कमी नहीं रखी हम लोगों ने। उनका (लड़के वालों का) मुंह चला , हमारा पैसा।
पत्नी के जाने का अफसोस करते हुए बताया -'अभी बेटे की शादी की धूमधाम से। वो चली गयीं शादी देख नहीं पाई। बहू का मुंह देखने की हसरत लिए चली गयी।
'उनका मुंह चला, हमारा पैसा' सुनकर लगा आम लोगों की अभिव्यक्ति क्षमता कितनी सटीक होती है। हम लेखकों को ही तीसमार खां समझते हैं।
लौटते हुए देखा कि एक आदमी साईकल पर पीछे बैठा बंदूक लिए जा रहा था। नाल ऊपर किये। बंदूक की नाल के नीचे सफेद पट्टी जैसी बंधी थी। गोया बंदूक की मरहम पट्टी की गई हो। या फिर बंदूक ने सफेद कपड़े के द्वारा सीज फायर घोषित किया हो। बंदूक वाला सामने से जब गुजर गया तब गाना याद आया:
'सैंया रे सैंया
तेरी दम्बूक से डर लागे। '
हमने गाने को देरी से आने पर लेट लतीफी के लिए बहुत तेज डांटा। हड़काया भी -'अपने आप को क्या अच्छे दिन समझ रखा है कि जब मन आयेगा, तब आओगे यह सोचते हुए की लोग निठल्ले तुम्हारे इन्तजार में बैठे रहेंगे।' गाना बेचारा सहम गया। हमने उसको दौड़ा दिया कि जाओ देखो बंदूकची को खोजो जाकर। जुडो उससे। तबसे लौटा नहीं है। कहीं मजे कर रहे होंगे दोनों जुगलबन्दी करते हुए।
चित्र में ये शामिल हो सकता है: 1 व्यक्ति, मुस्कुराते हुए, बैठे हैं और भोजन
खरबूजे के साथ मोहम्मद इस्लाम
सामने से एक बच्चा एक खरबूजे को दांये हाथ में हथगोले की तरह पकड़े जा रहा था। किसी को फेंककर मारने की मुद्रा में एकदम तैयार जैसा। लेकिन फिर हमने हथगोले वाले बिम्ब को खारिज कर दिया। बालक के हाथ में खरबूजे को शाटपुट के गोले की तरह देखा। यह भी की बालक इसी खरबूजे से रियाज करते हुए कल को शाटपुट चैंपियन बन सकता है।
खरबूजे से शाटपुट चैंपियन बनने का आइडिया हमको पूनम यादव के संस्मरणों से आया। जिसमें उन्होंने बताया कि पैसे के अभाव में बांस के सिरों पर वजन लटकाते हुए उन्होंने भारोत्तोलन का अभ्यास किया। श्रीलाल शुक्ल जी भी मोटी किताबों को 'मुगदर साहित्य' कहते थे। उन किताबों को मुगदर की तरह उठाते हुए कसरत किया जाना ही उनकी सार्थकता बताते थे।
खरबूजे की बात से याद आया कि शाम को खरबूजा लेने गए तो मोहम्मद इस्लाम मिले ठेले पर। बोले -'30 रूपये किलो हैं। आप 25 में ले लो।' हाथ में मोबाइल देखकर साथ वाले से बोले -'उस दिन फोटो खींची थी साहब ने। अखबार के लिए।'
किसी की फोटो खींचो तो अगला यही सोचता है कि अखबार में ही जानी है। कुछ ऐसे जैसे हर चुनाव लड़ने वाला सोचता है -'सरकार तो उसी को बनानी है।'
लौटते हुए देखा दो बच्चियां सड़क किनारे रखे कोलतार के खाली ड्रम में कौतूहल से निहार रहीं थीं। गले मे हाथ डाले हुए चलती मासूम बच्चियां:
'ये दोस्ती
हम नहीं छोड़ेंगे
छोड़ेंगे दम मगर तेरा साथ न छोड़ेंगे।'
गाने का मूर्तिमान रूप सरीखी लग रहीं थी। सुबह हो गयी थी। खुशनुमा वाली वाली। आपके उधर भी हो गयी होगी -पक्का। इसी बात पर मुस्कराइए। मुस्करा लीजिये जी भर कर। किसी भी हाल में मुस्कराने पर अभी कोई टैक्स नहीं है। क्या पता कल को लग जाये। इसके पहले की मुस्कान किसी लफड़े में फंसे , बल भर मुस्करा लीजिये। जो होगा देखा जाएगा।

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Monday, May 14, 2018

एक का कबाड़ दूसरे की नियामत

चित्र में ये शामिल हो सकता है: एक या अधिक लोग, वृक्ष, बाहर और प्रकृति
शहर का कबाड़ नहर के हवाले

सबेरे-सबेरे निकले। सड़क फूल स्पीड में गुलजार हो गयी थी। हमारे लिए भले सुबह हो, सड़क की तो दोपहरी हो गयी होगी। अपने दिन भर के हिस्से का चौथाई ट्रैफिक वह लाद चुकी होगी।
स्कूल जाते बच्चों की बहुतायत है सुबह के यात्रियों में। चौराहे पर एक ऑटो वाले ने अपनी गाड़ी एकदम हमारी साइकिल के आगे रोक दी। उससे बच्ची उतरी। एकदम साईकल के सामने आ गयी। अचानक ब्रेक मारने से साइकिल का मूड ऑफ टाइप हो गया। कस के मुंडी दोनो तरफ हिलाकर खड़ी हो गयी। बोली आगे न जाएंगे अब। लेकिन आहिस्ते से पैडल मारते ही चल दी।
एक आदमी एक बिल्डिंग के सामने लगे खम्भे की टेक लगाए बैठे सड़क यातायात को निहार रहा था। नुक्कड़ पर मोची अपने बोरे से औजार निकाल कर सड़क पर बिछा रहा था। किसी भी मोची को देखते ही अनायास धूमिल की कविता मोचीराम याद आ जाती है:
'जिंदा रहने के पीछे अगर सही तर्क नहीं है
तो रामनामी ओढ़कर और
रंडियों की दलाली करके जीने में
कोई फर्क नहीं है।'
कविता में जो रंडियों की दलाली वाली बात कही गयी है वह कविता लिखे जाने के समय बुरी बात मानी जाती होगी। अब तो रामनामी और दलाली दोनो के मायने बदल गए हैं। आदमियों की दलाली करने वाले सदाचार के उपदेशक बन गए हैं।
दवा की दुकान पर एक आदमी खैनी ठोंक रहा था। अपने लिए कैंसर घराने की बीमारी का इंतजाम करता हुआ अपनी दुकान चलते रहने का इंतजाम कर रहा था।
सड़क पर बहुतायत बच्चों को स्कूल छोड़ने जाने वालों की थी। तमाम दोपहिया वाहनों में अधिकतर लोग बिना हेलमेट अपने बच्चों को छोड़ने जा रहे थे। उनको ऐसा लगता होगा कि स्कूल टाइम में हेलमेट की छूट है। दुर्घटना नहीं होगी।
एक रिक्शे पर भाई -बहन स्कूल जा रहे थे। साइकिल बगलिया कर उनसे बतियाने लगे। बच्चा ओईएफ इंटर कालेज जा रहा है। जूते बिना पॉलिश के। हमने बात करने की मंशा से पूछा तो शर्माते हुए बोला -'देर हो गयी आज उठने में।'
स्कूल 20 मई से बंद होंगे। चालीस दिन की छुट्टी हो जाएगी। लेकिन बच्चा कह रहा है -'बोर हो जाते हैं छुट्टियों में।' बताओ हमको मयस्सर नहीं छुट्टी, बच्चे बोर हो जाते हैं।
फूलबाग चौराहे पर आती गाड़ी हमको ठोंकने के इरादे से बढ़ती दिखी। हमने तेजी से गाड़ी आगे बढ़ाई। उसके आगे से फुर्ती से निकले। उसने हमको घूरकर देखा । उसको लगा होगा ये साइकिल आगे कैसे निकल गयी। वह भूल गया कि साईकल मोटर की पूर्वज है। लोग आजकल बुजुर्गों का लिहाज नहीं करते।
चित्र में ये शामिल हो सकता है: एक या अधिक लोग, शॉर्ट्स, बाहर और प्रकृति
कूड़े से काम की चीज खोजते लोग
मजार के पास दो खड़खड़े वाले मलबा नहर में डाल रहे थे। इस नहर में कभी पानी बहता था। आज शहर का कूड़ा-कबाड़ फेंका जा रहा है। खड़खडे वाले ने घोड़ा हटाया और खड़खड़ा टेढ़ा करके सूखी नहर में फेंक दिया। वहीं खड़ा एक बच्चा उस कबाड़ में से अपने मतलब की चीजें बीनने लगा। इस कोशिश में कबाड़ ढेर उसके ऊपर उलटते बचा।
कबाड़ से बच्चे ने लकड़ी के टुकड़े, सरिया और इसी तरह का उपयोगी कबाड़ बटोर लिया। लकड़ी से चूल्हा जलेगा, सरिया बिक जाएगी। हमको याद आया बचपन में अपन भी साथियों के साथ बिजली की बन्द दुकानों के बाहर तांबे के टुकड़े बीनते थे। गर्मी के दिनों में जेबखर्च के लालच में।
कबाड़ की बात चली तो याद आया कि विकसित देश अपना सारा कबाड़ चाहे वह सामान हो या तकनीक विकासशील देशों को टिकाते रहते हैं। हम लपकते रहते हैं। उनका कबाड़ हमारे लिए नियामत है। याद तो यह भी आया कि किताब 'हिन्दू - जीने का समृद्ध कबाड़' बहुत दिन से पढ़नी बकाया है।
चित्र में ये शामिल हो सकता है: एक या अधिक लोग और बाहर
सुबह की गुलजार सड़क
पप्पू की चाय की दुकान गुलजार हो गयी थी। कल आंधी में तिरपाल उड़ गया था। आज फिर जमा लिया। कैंट में फुटपाथ के अवैध कब्जे हटेंगे यह खबर है। हमने पूछा तो बोले -'जो होगा देखा जाएगा। सबकी हटेगी तो हमारी भी। जब हटेगी तो देखेंगे।' जिनका कल का ठिकाना नहीं वो कल की ज्यादा सोचते भी नहीं।
कल की भले न सोचें अपन भी। लेकिन आज की तो चिंता करनी होगी। टाइम हो गया दफ्तर का । निकलना होगा।

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Sunday, May 13, 2018

आओ साथी चाय पिलाएं

चित्र में ये शामिल हो सकता है: कॉफ़ी कप
आओ साथी चाय पिलाएं

आओ साथी चाय पिलाएं,
थोड़ा बातें-सातें हो जाएं
गप्प लड़ायें ऊंची वाली
थोड़ी लंतरानी भी हो जाये।
बिल्ली उचकती ढाई टांग पर,
सूरज की किरणें दुलरायें,
बन्दर गड़बड़ काट रहे हैं,
उछल रहे हैं डाल-डाल पर।
हमने चाय पिलाई तुमको
अब थोड़ा सा फौरन मुस्काओ
चाय और स्वादिष्ट लगेगी
सुबह और खुशनुमा हो जाये।
-कट्टा कानपुरी

दुनिया एक हसीन झांसा

कबूतर आ आ आ, दाना-पानी पा

सुबह बिल्ली के बच्चे को खिला-पिलाकर, दवा-दारू करके निकले। ये बिल्ली का बच्चा भी अच्छा पल्ले पड़ा। सुबह-सुबह जितनी इसकी देखभाल करनी पड़ती उतनी दिन भर खुद की कर पाते तो हीरो कहलाते। रोज सेल्फी चिपकाते।
बच्चे की दो टांगे सलामत हैं। चौथी अभी खराब है। तीसरी टांग सलामत और खराब टांगो को एक जैसा समर्थन देते हुए निर्गुट सरीखी है। नतीजतन बच्चा ढाई टांग पर सरपट भागता है। टांग टूटी हुई है लेकिन मौका बाहर निकलते ही जमीन पर मस्त लेटकर ऐसे अंगड़ाई लेता है गोया यह भी 'दम बनी रहे, घर चूता है तो चूने दो' घराने का जीव है।
माल रोड चौराहे पर एक लड़का कार से उतरकर कबूतरों को दाना खिला रहा था। पास में कई मिट्टी के बर्तनों में उनके लिए पानी रखा था। दिन पर दिन होती पानी की कमी के चलते लगता नहीं कि वह दिन दूर है जब इंसान पानी पीने के लिए तरस जाएगा।
बिरहाना रोड पर एक तांगे वाला दिखा। जवान घोड़ा बूढ़े , थकेले तांगे वाले के साथ ऐसे लग रहा था मानो किसी युवा मैनेजर ने डूबती कंपनी ज्वाइन कर ली हो। आगे दो घोड़ों पर उनके सवार, स्कूटरों पर महिलाओं वाले आसन में, बैठे दुलकी चाल से चले जा रहे थे।
चटाई मोहाल में लोग सड़क पर चटाई बिन रहे थे। वहीं पास में एक आदमी आधे तख्त पर स्टोव धरे चाय की दुकान लगाए बैठा था। न जाने कितनी दुकान सड़क घेरकर चलती हैं। सड़क यातायात का साधन होने के साथ रोजगार का भी जरिया है। कल को अगर सड़क पर चलने के अलावा बाकी काम प्रतिबंधित कर दिए जाएं तो न जाने कितने लोग भूखे रह जाएंगे।
सड़क पर जगह-जगह बच्चे अपने-अपने हिसाब से स्टम्प लगाए क्रिकेट खेल रहे थे। एक जगह तो स्टम्प पिच के बराबर चौड़ा था।
चित्र में ये शामिल हो सकता है: एक या अधिक लोग, लोग खड़े हैं, बच्चा और बाहर
पंकज बाजपेयी तथाकथित डबल मर्डर करने वाले के साथ
तिवारी मिष्ठान भंडार से पंकज बाजपेयी के लिए जलेबी , दही समोसा ली। पंकज इन्तजार कर रहे थे। मिलते ही बोले -'लोग तुम्हारा मर्डर करना चाहते हैं। बहुत मर्डरर पीछे पड़े हैं। रजोल से बचकर रहना।'
हमने कहा -'तुम हो न हमारी रक्षा के लिए। बचाओगे। '
वो बोले -'हां, तुम चिंता न करना। हम सबको पकड़वा देंगे।'
फिर मिठाई वाले की शिकायत किये कि उसने बर्फी नहीं खिलाई। हमने कहा -'हम खिलाएंगे आज। '
हमने पूछा -'पिछले इतवार तुम्हारे घर गए थे। तुम तो कह रहे थे कि कमरे में रहते हो। लेकिन तुम्हारा सामान तो जीने में रखा था।'
बोले -' हम औरतों और बच्चों के साथ नहीं रहते। अलग रहते हैं। सफाई से रहते हैं इसलिए। '
हमने कहा -'लेकिन तुम तो बता रहे थे तुम्हारी 4 पत्नियां, बच्चे भी हैं। अब कह रहे औरतों , बच्चों के साथ नहीं रहते।'
बोले -'यहां भाभी रहती हैं। इसलिए अलग रहते हैं। '
चाय पीते हुए एक और आदमी दिखा। महीनों पुराने गंदे कपड़े पहने। चीकट बालों पर साधू विग टाइप रखे। कपड़े काले जैसे कोयला खदान से आया हो निकलकर। उससे बात करने की कोशिश की तो पङ्कज ने बताया -'इनके ऊपर डबल मर्डर का केस चल रहा है।'
उस आदमी ने सड़क पर जा रहे एक आदमी से माचिस मांगकर बीड़ी सुलगाई। जेब मे कई पेन और खाली माचिस की डिब्बी दिख रही थी। बतियाने के हिसाब से उसको भी चाय ले दी। वह चाय का कप लेकर पीते हुए आहिस्ते आहिस्ते चला गया।लोगों ने बताया -'किसी से कुछ मांगता नहीं, बोलता नहीं। कोई कुछ दे देता है तो खा लेता है।'
ऐसे लोग पता नहीं किसी आंकड़े में आते हैं समाज/सरकार के या ऐसे ही चुपचाप अनदेखे रह जाते हैं।
चलते हुए पंकज बोले -'बीच में भी आना। साढ़े नौ बजे तक रहते हैं।'

चित्र में ये शामिल हो सकता है: 1 व्यक्ति, घोड़ा
चारा खिलाकर गाय दुहते हुए
लौटते हुए एक जगह फुटपाथ पर एक आदमी गाय दूध रहा था। चारा खाते हुए गाय अपना दूध निकलते देख रही थी। लोग डब्बे लिए ताजा दूध लेने के लिए इन्तजार कर रहे थे।
बगल से एक आदमी तसले में कीचड़ लिए जा रहा था। कोहनी तक हाथ कीचड़ से सना था। पता नहीं वह सफाई कर्मचारी था या सुनारों की दुकान में काम करने वाला कोई कामगार। उसे रोककर पूछने की हिम्मत नहीं हुई।
वहीं फुटपाथ पर तमाम लोग मोबाइल स्क्रीन में मुंडी घुसाए बैठे थे। पता चला कि काम -काज के लिए काम करने वाले मजदूर हैं वे लोग। जिनको खाना का ठेका मिलता है वे लोग अपनी जरूरत के हिसाब यहां से कामगार ले जाते हैं।
एक बुजुर्ग कामगार वहीं चबूतरे पर लेटे थे। उनके पास खड़े हुए तो वे उठ गए। उठ गए तो हम बतियाने लगे। पता चला कि पीछे चालीस साल से यही काम कर रहे हैं। दो बेटे हैं वो अपनी दुकानें चलाते हैं। दो बेटियों की शादी कर दी। ये अपना काम करते हैं। आज तबियत कुछ खराब लगी तो लेट गए।
श्रीराम नाम बताया। हमने कहा -'जय श्रीराम।' वो खुश हो गए। बोले -'यहां सब लोग जानते हैं। दादा कहते हैं।'जिस तरह बुजुर्ग कामगार अपने बारे में बता रहे थे उससे लगा कि कमजोर से कमजोर आदमी का अपना गढ़ा हुआ आभामंडल होता है जिसकी खुमारी में वह जीता है।
चित्र में ये शामिल हो सकता है: बाहर
विज्ञापन एक हसीन झांसा - दस रुपये में जिद्दी दाग निकालिए
माल रोड पर एक हॉर्डिंग में किसी वासिंग पाउडर का विज्ञापन था -'दस रुपये में निकाले जिददी दाग।' 10 का अंक ट्रक के टायरों के फोटो से बनाया गया था। ट्रक टायर हजारों रुपये में आता है। यहां दो टायर मिलकर 10 रुपये का निशान बना रहे। विज्ञापन की दुनिया कितनी झांसे वाली होती है।
वैसे देखा जाए तो झांसा दुनिया में कहां नहीं है। ये दुनिया भी तो अपने आप में एक हसीन झांसा है। आप इत्ती लम्बी पोस्ट झांसे में ही आकर तो पढ़ गए। नहीं क्या ?

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Friday, May 11, 2018

तरह तरह की लभेड़े

लभेड़ी स्वीट्स
दफ्तर जाते हुए पोस्टर दिखता है - 'लभेड़ी स्वीट्स।' रोज दिखता था। हमेशा सोचते थे, फोटो खींचेंगे इसका। जब तक सोच पर अमल हो, आगे निकल जाते थे। आगे निकल जाने पर सोचते , कल लेंगे। और कल का तो आप भी जानते हैं, कभी आता नहीं। कब्भी नहीं आता। कम से कम हमारा तो नहीं आता। आपका आता हो आप जाने। चेक करवा लो असली 'कल' है कि कोई डुप्लीकेट 'कल' है।
कल हमने फिर खैंच ही लिया फ़ोटो। झटके से गाड़ी रोकी। सड़क किनारे हुए। पीछे से आते ऑटो ने रुककर गरियाया कि झटके से मुड़कर रुक गए। हमें कोई अपराध बोध नहीं हुआ, हम तो शहर की स्वर्णिम ट्रैफिक परंपरा का पालन कर रहे थे। परम्पराओं के पालन के नाम पर तमाम तरह की अराजकताएँ की जा सकती हैं।
आजकल हरेक चीज का डुप्लीकेट आ रहा है। समय की भी डुप्लीकेट सप्लाई चल रही है। अच्छे और बुरे समय की तो थोक में डुप्लीकेटिंग हो रही है। खोए में आलू की तरह। आपके पास अच्छा समय आये तो खुरच कर देख लो कहीं इसमें खराब समय तो नहीं खपा दिया 'समय सप्लायर' ने। खराब समय आये तो दिखते ही फौरन खोलकर देखिये। आजकल हर खराब समय में अच्छे की वायरस घुसे मिलते हैं। पूरा सिस्टम बैठ जाता है।
हां तो बात हो रही थी 'लभेड़ीं स्वीट्स' की। आकर्षक लगा नाम। कैची टाइप का। नया खुला है। पिछले महीने ही। 'लभेड़ी' अगर किसी नई या स्थापित देवी का नाम नहीं है तो यह 'लभेड़' से बना होगा। लभेड़ मतलब 'बवाल'। बवाल थोड़ा अराजक टाइप का है। लेकिन 'लभेड़' शायद उतना अराजक नहीं। इलाहाबादी 'झाम' के घराने के नजदीक लगता है।
कानपुर और आसपास भी लभेड़ का प्रयोग धड़ल्ले से होता है। क्या लभेड़ पाले हो, अरे इसमें बड़ी लभेड़ है, एक लभेड़ हो तो बताएं, अरे यार वो बड़े लभेड़ी हैं, यह भी एक लभेड़ है। मतलब जहां कोई उलझन फंसे वहां एक लभेड़।
सोचते हैं कि कभी दुकान पर जाकर मिठाई खायें, लभेड़ का मतलब समझाएं। पता नहीं कब जा पाते हैं। अभी तो दफ्तर जाना है। शाम को कई काम निपटाना है। ये कई काम ऐसे हैं जो न जाने कितनों दिनों से 'शाम को' और फिर 'कल' पर निपटने के लिए टलते जा रहे हैं।
काम टालने में महारत है अपन को। आज का काम कल पर, कल का फिर कल पर ऐसे टालते हैं कि बेचारे काम को भी हवा नहीं लगती और वह टल जाता है। हमारे एक सीनियर हमारे इस हुनर के इतने मुरीद हुये कि अंग्रेजी में तारीफ कर बैठे -' you people know how to delay the things' तुम लोग चीजों को देर से करना अच्छे से जानते हो।
सालों पहले की गई तारीफ से अपन आज तक अविभूत हैं। देरी करने का हुनर बड़े अभ्यास से आता है । लेकिन आ जाता है। 'कोई काम नहीं है मुश्किल, जब किया इरादा पक्का।' अब तो इरादा भी नहीं करना पड़ता। 'देरी सहज योग' की तरह साध ली है। दो मिनट में करने वाले काम को घण्टों खींच लेते हैं। घण्टों का महीनों तक लटकाए रहते हैं। महीनों में किये जाने वाला काम कितने दिन तक घसीटते हैं इसका अंदाज लगाया नहीं अपन ने, आपका मन होय तो आप लगा लेव।
शहर ही पूरा इसी लभेड़ का मारा है। सीओडी के पास का ओवरब्रिज दस साल से लटका है। गंगा की सफाई गयी सदी में शुरू हुई थी, अभी तक कायदे से शुरुआत भी नहीं हो पाई। इस मामले में हंसी-मजाक ही चल रहा है अब तक। ऐसे न जाने कितने किस्से हैं, एक हो तो सुनाएं। सुनाने लगेंगे तो आप आरोप लगाओगे,' अपने मुंह तुम अपनी बरनी।'
अपने मुंह से अपनी तारीफ अब शोभा भी नहीं देती। करनी भी नहीं चाहिए। जब आपके बारे में झूठ बोलने वाले आपके आसपास हों तो फिर यह काम उन पर ही छोड़ देना अच्छा। अगर आप किसी भी काम के हुए तो लोग खुद आपकी तारीफ करेंगे। आप उससे इंकार करोगे तो दोगुनी तेजी से करेंगे। किसी को बर्दाश्त नहीं होता कि उसकी तारीफ बेकार जाए औए उसका कोई काम रुके। काम निकालने के लिए गधे को बाप बनाने का चलन तो बहुत पहले से है, किसी निठल्ले की तारीफ क्या चीज है।
देखो लभेड़ी स्वीट्स से शुरू होकर निठल्ले चिंतन तक पहुंच गए। अराजक ट्राफिक की तरह चलता है मन भी। बहुत लभेड़ी है। बदमाश। मन को पकड़कर कुच्च देने का मन करता है। लेकिन बिना पूछे कुच्च देंगे तो कहीं बुरा न मान जाये। पूछकर कुच्चेंगे। ठीक है न।

Thursday, May 10, 2018

विकास से मुलाकात

चित्र में ये शामिल हो सकता है: 1 व्यक्ति, खा रहे हैं, बैठे हैं और भोजन
विकास -आंखों में रंगीन नजारे, सपने बड़े -बड़े
दो हफ्ते पहले मुलाकात हुई विकास से। एक मांगलिक कार्यक्रम में। चिल्ला गरम करके खिला रहे थे। देर से पहुंचे थे अपन तो भीड़ छंट गयी थी। हर 'स्टॉल' पर ट्रैफिक क्लियर था। अपन पाव भाजी वाली खाते हुए 'चिल्ला स्टॉल' वाले विकास से बतियाने लगे।
इंटर में पढ़ने वाले वाले विकास छुट्टियों में काम पर लग गए। 300/- रुपये मिलेंगे तंबू उखड़ने के बाद। शायद मध्यम वर्गीय परिवारों के विदेश जाने वाले बच्चे भी ऐसे ही 'पार्ट टाइम जॉब' करते हों।
घर में भाईओं में बड़े विकास के पापा भी ऐसे ही ' चुटुर-पुटूर ' काम करते हैं। अम्बेडकर नगर में रहते हैं। खाली थे तो चाचा ने कानपुर बुला लिया। सहालग में कुछ कमाई हो जाये।
आर्ट साइड के विकास को स्केचिंग ड्राइंग में रुचि है। हमेशा बनाने का मन करता है। बढिया स्केच बनाते हैं। गुरुजी तारीफ करते हैं लेकिन बरजते भी रहते हैं -'दिन भर ड्राइंग न बनाया करो। पढ़ना-पास होना भी जरूरी है।'
हर जगह पास होने के चक्कर में कित्ती जगह फेल होते रहते हैं हमको अंदाज ही नहीं लगता। सच का पता लगते बहुत देर हो जाती है। कन्हैयालाल बाजपेई गीतकार जी का गीत है :
"आधा जीवन जब बीत गया,
वनवासी सा रोते गाते
तब पता चला इस दुनिया में
सोने के हिरन नहीं होते।"
गुरुजी की समझाइस के हिसाब पढ़ते हुए और पार्ट टाइम जॉब करते हुए विकास आगे क्या करेंगे यह बहुत साफ नहीं है। आईटीआई करने की भी बात है। देखिये क्या करते हैं।
हमने स्केच देखने की इच्छा जाहिर की तो बताया कि अपने फेसबुक खाते में पोस्ट किए हैं उन्होंने। खाते का पता बताया लेकिन हम खोज नहीं पाये। फोन पर पूछा तो फिर बताया कि दो खाते हैं एक 'विकास' नाम से दूसरा 'विकास शर्मा' के नाम से।पहले वाले का पासवर्ड खो गया था तो दूसरा बनाये थे। फिर खोजे फिर भी नहीं मिला। लगता है नाम का लफड़ा है। जिस विकास को खोजते हैं ,मिलता नहीं।
अगले दिन कलेट्टरगंज के एक मांगलिक कार्यक्रम में 'चिल्ला स्टॉल' पर थे। हमने पूछा -'आएंगे तो खिलाओगे चिल्ला?'
बोले -'अरे सर, यह भी कोई पूछने की बात है। आइये खिलाएंगे।'
अभी तक विकास के स्केच नहीं मिल पाए। मिलेंगें तो दिखाएंगे। आज पता नहीं किधर हो बालक। अभी उसकी फोटो देखी तो उसकी बातें याद आईं। मासूमियत से भरी आत्मीय मुस्कान।
इस बीच देश में विकास की खोज का हल्ला मचे तो आप कह सकते हैं वो वाले विकास का तो पता नहीं लेकिन एक विकास मांगलिक कार्यक्रमों में 'चिल्ला स्टॉल' पर खड़ा चिल्ला गरम कर रहा है।
अपडेट : अभी बात हुई विकास से। स्कूल जा रहे थे। स्केच के लिए बोले -'स्कूल से घर वापस होकर भेजेंगे। '
कोई विकास का पता पूछे तो आप निशाखातिर होकर कह सकते हैं -'अभी विकास स्कूल गया है।' 

Wednesday, May 09, 2018

कास्टिंग काउच


पिछले दिनों कास्टिंग काउच पर बड़ी बयानबाजी हुई। कोई बोला -’यह सिनेमा में होता है।’
अगला बोला-’ कहां नहीं होता।’
हम इंतजार करते रहे कोई बोलेगा -’ कास्टिंग काउच तो महाभारत के समय से हो रहा है।’
अगर यह बयान आता तो पक्का यह भी बोलता-’ महाभारत हुआ ही कास्टिंग काउच के लिये था। हर महाभारत की जड़ में एक कास्टिंग काउच होता है।हर कास्टिंग काउच आगे चलकर महाभारत में बदलता है। ’
हमारे रामायण, महाभारत इस मामले में दादी, नानी की संदूकची टाइप हैं। कुछ भी सामान चाहिए, टटोलकर निकाल देंगी। दुनिया में आज किसी भी नई चीज की मुंहदिखाई हुई नहीं कि अपन रामायण, महाभारत से निकाल कर दिखा देते हैं -'जे तो हमारे पास भौत पहले से है।'
और ये जो इंटरनेट, फिन्टर्नेट, गूगल, फूगल, एटम बम, फेंटम बम , आधुनिकता, फाधुनिकता, विकास, फिकास के चोंचले हैं न वो हम कब के करके छोड़ चुके हमको खुद याद नहीं। आजकल हरामखोरी, बाबागिरी, काहिली, पिछड़ेपन का लुत्फ उठा रहे हैं।इसी में मन रमा हुआ है। मजा आ रहा है। जितना मजा लेते हैं उतना और लेने का मन करता है। ये दिल मांगे मोर टाइप हो रहा है।
बड़ी बात नहीं कि महाभारत में कास्टिंग काउच के बाद खोज पीछे चलते हुये आदम और हौव्वा तक जाती। कोई साबित कर देता कि जिस बगीचे में आदम और हौव्वा ने मिलकर सेब खाया था उसके मालिक ने हौव्वा से पेशकश की होगी-’ हमारे साथ भी सेव खाओ।’ शायद हौव्वा ने मना कर दिया होगा और बगीचे के मालिक ने उसे आदम के साथ निकाल बाहर किया हो।
लेकिन कोई बयान आये नहीं। देश के सारे बयानवीर जिन्ना पर बयान जारी कर रहे थे। जिन्ना पर बयान देते हुए एक तरह से पाकिस्तान को चिढ़ा रहे थे - 'तुम हमारे यहां आतंक वाद मचाओगे, हम तुम्हारे कायदे आजम को चुनाव की ड्यूटी पर लगवाएंगे। दमे के मरीज को चैनल,चैनल दौड़ाएंगे। अखबार, अखबार में छाप कर उसमें समोसा , कचौड़ी खाएंगे। फ्री फंड में कौड़ी का तीन बनाएंगे।
कास्टिंग काउच मतलब शरीर के बदले सुविधा। शरीर सुख देव, सुविधा साधन लेव।
इस लिहाज से देखा जाए तो पूरी दुनिया ही कास्टिंग काउच है। साधन संपन्न, साधन हीन से मजे ले रहा है। बदले में उसको कुछ साधन थमा दे रहा है। अविकसित देश विकसित देशों के बिस्तर सरीखे हैं। वो पिछड़े देशों का बिस्तरों की तरह उपयोग करते हैं, बदले में कुछ ग्रांट, कुछ सुविधा , कुछ कूड़ा तकनीक थमा देते हैं। पिछड़े देश विकसित देशों की तकनीक और बाजार के कूड़े दान हैं।
पूरी दुनिया की राजनीति कास्टिंग काउच ही तो है। जनता को नेता जनसेवक का बाना बनकर पटाता है। सुविधा का लालच देकर बहलाता है, फुसलाता है। वोट का मजा लेकर आगे बढ़ जाता है। अब तो वह इस काम को बेहतर तरीके से अंजाम देने के अपने साथ गुर्गे भी लाता है।
साहित्य और कला के क्षेत्र में भी खूब कास्टिंग काऊच दिखती है। कुछ कुछ सम्मान समारोह तो आपसी सहमति वाले 'कास्टिंग काउच' सरीखे नजर आते हैं। जमे हुए लोग नयों को जमाते हैं। उनसे फायदा लेते हैं, उनको आगे बढाते हैं। दुरुस्त आंखों वाले धृतराष्ट बन जाते हैं। समर्थ, साधन संपन्न चेलों को अपाहिजों की तरह गोद में लेकर ईनाम के मंच पर चढ़ाते हैं। बदले में मंचों की अध्यक्षी, विदेश यात्रा और पथ प्रदर्शक का रुतबा पाते हैं मुक्तिबोध के हिसाब से व्यभिचार का बिस्तर बन जाते हैं।
'उदरम्भरि अनात्म बन गए
भूतों की शादी में कनात से तन गए
किसी व्यभिचार के बन गए बिस्तर।'
मुक्तिबोध की यह कविता बहुत गड़बड़ करती है। हमसे ही सवाल पूछने लगती है:
अब तक क्या किया
जीवन क्या जिया?
हम कविता को क्या जबाब दें समझ नहीं आ रहा। इसलिए फूट लेना सबसे अच्छा। वैसे भी मीडिया मंच से 'कास्टिंग काउच' अब सिमट गया है। जिन्ना के बाद नया तूफान आ रहा है। इसके बाद चुनाव का हल्ला है। सब से बच के रहना है। बचे रहे तो सब होता रहेगा।
सामने से सूरज भाई अपनी किरणों को दुलराते हुए हमसे मजे ले रहे हैं- ' देखो कास्टिंग काउच पर लिख रहा है। जिसके बारे में कुछ पता नहीं उसका विशेषज्ञ बना फिर रहा है।'
हमारे पास सूरज भाई की बात का कोई जबाब नहीं है। हम तो उनको 100 करोड़ के मानहानि का नोटिस भी नहीं दे सकते।
इसलिए मजबूरी में मुस्करा रहे हैं।
लेकिन आप मजे में मुस्कराइए। 'कास्टिंग काउच' के किस्से भूल जाइए। जिंदगी के साथ सुर मिलाकर सुरीली/बेसुरी आवाज में ही सही गुनगुनाइए:
'छोरेंगे दम मगर
तेरा साथ न छोरेंगे।'

Tuesday, May 08, 2018

देश सेवा थोड़ी बदतमीजी के बिना शोभा नहीं देती- परसाई



1. कोई-कोई आदमी कुत्ते से बदतर होता है। मार्के ट्वेन ने लिखा है- ’यदि आप भूखे कुत्ते को रोटी खिला दें, तो वह आपको काटेगा नहीं। कुत्ते और आदमी में यही मूल अन्तर है।’
2. मध्यवर्गीय कुत्ता उच्चवर्गीय होने का ढोंग भी करता है और सर्वहारा के साथ मिलकर भौंकता भी है।
3. एक ऐसा आदमी था, जिसके पास जलती मशाल ले जाओ तो वह बुझ जाये।
4. गरीब आदमी न तो एलोपैथी से ठीक होता है, न होम्योपैथी से; उसे तो सिम्पैथी (सहानुभूति) चाहिये।
5. प्यार करने वाली स्त्री बड़ी खतरनाक होती है। न जाने कब किससे प्यार करने लगे और तुम्हे पिटवा दे।
6. जोगिया से सिद्ध तक का जो रास्ता है, वह छल, कपट, प्रपंच और पाखंड के बीहड़ बन से गुजरता है।
7. कुछ होते हैं जो दुख भी सुविधा से मनाते हैं, जिनका विछोह भी अजब रंगीनियों से भरा होता है। जिनका दुख भी एक त्योहार हो जाता है।
8. दुनिया को इतनी फ़ुरसत नहीं होती है कि वह कोने में बैठे उस आदमी को मान्यता देती जाये जो सिर्फ़ अपने को हमेशा सही मानता है। उसकी अवहेलना होती है। अब सही आदमी क्या करे। वह सबसे नफ़रत करता है। खीझा रहता है। दु:ख भरे तनाव में दिन गुजारता है।
9. उनकी मूछों की सिफ़त यह थी कि आदमी और मौका देखकर बर्ताव करती थीं। वे किसी के सामने ’आई डोण्ट केयर’ के ठाठ की हो जातीं। फ़िर किसी और के सामने वे मूंछों पर इस तरह हाथ फ़ेरते कि वे ’आई एम सॉरी सर’ हो जातीं। मूंछों के इस दुहरे स्वभाव के कारण वे सफ़ल और सुखी आदमी रहे।
10. आदमी को समझने के लिये सामने से नहीं, कोण से देखना चाहिये। आदमी कोण से ही समझ में आता है।
11. साहित्य में बन्धुत्व से अच्छा धंधा हो जाता है।
12. जवान आदमी को दुखी देखने से पाप लगता है। मगर मजबूरी में पाप भी हो जाता है। बेकारी से दुखी जवानों को सारा देश देख रहा है और सबको पाप लग रहा है। सबसे ज्यादा पाप उन भाग्य विधाताओं को लग रहा है, जिनके कर्म, अकर्म और कुकर्म के कारण वह बेकार हैं। इतना पाप और फ़िर भी ये ऐसे भले चंगे! क्या पाप की क्वालिटी गिर गयी है?उसमें भी मिलावट होने लगी?
13. घूस से पारिवारिक जीवन सुखी होता है।
14. जिस दिन घूसखोरों की आस्था भगवान से उठ जायेगी, उस दिन भगवान को पूछने वाला कोई नहीं रहेगा।
15. यह जमाना ही किसी समर्थ के घर बैठ जाने का है। वह तो औरत है। तू राजनीति के मर्दों को देख। वे उसी के घर बैठ जाते हैं , जो मन्त्रिमण्डल बनाने में समर्थ हो। शादी इस पार्टी से हुई थी मगर मंत्रिमण्डल दूसरी पार्टी वाला बनाने लगा तो उसी की बहू बन गये। राजनीति के मर्दों ने वेश्याओं को मात कर दिया। किसी किसी ने तो घण्टे भर में तीन-तीन खसम बदल डाले। आदमी ही क्यों, समूचे राष्ट्र किसी समर्थ के घर में बैठ जाते हैं।
16. पैसे में बड़ी मर्दानगी होती है। आदमी मर्द नहीं होता, पैसा मर्द होता है।
17. सदियों से यह समाज लिखी पर चल रहा है। लिखा कर लाये हैं तो पीढियां मैला ढो रही हैं और लिखा कर लाये हैं तो पीढियां ऐशो आराम भोग रही हैं। लिखी को मिटाने की कभी कोशिश ही नहीं हुई। दुनिया के कई समाजों ने लिखी को मिटा दिया। लिखी मिटती है। आसानी से नहीं मिटती तो लात मारकर मिटा दी जाती है।
18. गंवार हंसता है, बुद्धिवादी सिर्फ़ रंजित होता है।
19. हम पूरे मुंह से बोलते हैं, मगर बुद्धिवादी मुंह के बायें कोने से जरा-सा खोलकर गिनकर शब्द बाहर निकालता है।
20. अगर कोई आदमी डूब रहा हो, तो वे उसे बचायेंगे नहीं, बल्कि सापेक्षिक घनत्व के बारे में सोचेंगे।
21. कोई भूखा मर रहा हो तो बुद्धिवादी उसे रोटी नहीं देगा। वह विभिन्न देशों के अन्न उत्पादन के आंकड़े बताने लगेगा। बीमार आदमी को देखकर वह दवा का इंतजाम नहीं करेगा। वह विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट उसे पढकर सुनायेगा।
22. सिर्फ़ मैं समझता हूं, यह एहसास आदमी को नासमझ बना देता है।
23. देश सेवा थोड़ी बदतमीजी के बिना शोभा नहीं देती। थोड़ी बेवकूफ़ी भी मिली हो, तो और चमक जाती है।
24. इस मुल्क को भगवान ने खासतौर से बनाया है। भगवान की बनाई चीज में इंसान सुधार क्यों करे? मुल्क सुधरेगा तो भगवान के ही हाथ सुधरेगा।
25. चक्कर लगाता प्रेमी बैठे प्रेमी से सवाया पड़ता है , क्योंकि वह मेहनत करता है।

Monday, May 07, 2018

गड्डमड्ड अतीत में घुसा समाज और वर्तमान का अमलतास

चित्र में ये शामिल हो सकता है: आकाश, वृक्ष और बाहर
अमलतास
कल देर हुई निकलने में। जब तक पहुंचे तब तक पंकज भाई कहीं दौरे पर निकल गए थे। निकलते हुए पास के हलवाई वाले को बता गए थे -'अनूप भैया आएं तो कहना हम अभी आते हैं।'
थोड़ी देर इन्तजार करने के बाद हम उस मकान के आसपास कार से टहले जहां वह रहते हैं। नहीं दिखे तो ऊपर गए जहां वह रहते हैं। पूछा तो सबने बताया -'यहां कोई पंकज बाजपेयी नहीं रहते।'
लेकिन फिर एक ने जीने की तरफ इशारा किया -'यहां रहते हैं।'
जीने में सीढ़ियों पर कुछ सामान बेतरतीबी से रखा था। बताने वाले ने बताया कि वह पांच साल से रह रहा है किराये पर। ज्यादा नहीं पता पंकज के बारे में लेकिन यह जानते हैं कि इसी जीने में रहते हैं। एक कमरे की तरफ इशारा करते हुए बताया -' यहाँ रहने वाली भाभी जी खाना दे देती हैं।'
आसपास के लोग बताते थे कि पंकज बाजपेयी कमरे में रहते हैं। लेकिन उनका आशियाना जीने में निकला। कई कहानियां जो लोगों ने उनके बारे में बताई थी उनमें भी झोल लगे। अपने आसपास के लोगों के बारे में कितना कम जानते हैं हम लोग।
बहरहाल दुकान वाले को उनकी जलेबी-दही-समोसा देकर चले आये। यह भी कि आएं तो बात कराना। थोड़ी देर बाद ही फोन आया। हमने पूछा -'कहां चले गए थे?' बोले -'अफीम कोठी तक गए थे।'
हमने पूछा -'जलेबी-दही मिल गयी?'
बोले -'हां। पर पैसे नहीं दे गए चाय पीने के।' शिकायत भी की -'इन्होंने बर्फी नहीं खिलाई।'
हमने दुकान वाले से चाय के लिए दस रुपये देने को कहा। फिर पंकज जी को बताया तो बोले -' जल्दी आया करो। धूप हो गयी थी इसलिए हम चले गए थे। जल्दी आया करो।'
पिछले इतवार को जबलपुर से आये Ramesh Saini जी के साथ मिलने गए थे। हमने बताया तो खुश हुए। चाय के लिए मना कर दिया यह कहते हुए -'झूठ नहीं बोलेंगे। अभी पी है। आप पियो। भैया जी को पिलाओ।'
उस दिन बात करते हुए हमने कहा -'कविता सुनाओ। पिछली बार कह रहे थे कि याद करके सुनाएंगे।'
बोले -'जन गण मन' याद कर रहे हैं। अभी ठीक से याद नहीं हुई। जब याद कर लेंगे तब सुनाएंगे।'
हमने कहा -'जितना याद है उतना सुनाओ।'
बोले -' ठीक से याद नहीं। जनगणमन सुनाने में गलती हो जाएगी तो राष्ट्रपति से कोई शिकायत कर देगा। वो नाराज हो जाएंगे। '
ऊंची बात कह गए पंकज बाजपेयी। इस पर कविता, व्यंग्य और न जाने क्या लिखा जा सकता है। इसी को फैलाकर एक ठो बिना किसी नतीजे की प्राइम टाइम बहस हो सकती है।
चित्र में ये शामिल हो सकता है: बाहर
पंकज बाजपेयी का ठिकाना
और भी तमाम पुरानी बातें हुईं। उनके अतीत से जुड़ी हुई। नामवर सिंह जी ने एनडीटीवी से बातचीत करते हुए पुरानी यादों में डूबे रहने के स्वभाव पर टिप्पणी करते हुए कहा -'प्रकृति ने इंसान को आँखे आगे दी हैं। आगे देखने के लिए। पैर आगे चलने के लिए दिए हैं। हमें आगे देखना चाहिए। अतीत में डूबे रहना ठीक नहीं।'
आजकल तो अपना पूरा समाज ही जब मन आये अतीत में टहलने चल देता है। जिसको देखो वही रामायण महाभारत काल में घुस जाता है। कुछ पुराना बटोर लाता है। पहले रामायण वाले हिस्से में ज्यादा जाते थे लोग। आजकल महाभारत वाले हिस्से ज्यादा गुलजार हैं। आक्रामक अतीत फैशन में है आजकल।
अतीत , अपनी सुविधा के हिसाब से गढ़े हुए अतीत, को मुस्ताक अहमद युसूफ़ी ने विलेन भी बताया है। हम विलेन को कुछ ज्यादा ही पसंद कर रहे हैं आजकल। आगे देखने की बजाय पीछे ज्यादा मुंडी घुसाए रहते हैं।
कहाँ हम भी टहलने लगे। आप भी क्या कहोगे -'बेफालतू की हाँकने लगा सुबह-सुबह।'
आइये आपको गड्डमड्ड अतीत से वर्तमान के खूबसूरत अमलतास की तरफ़ ले चलते है।

चित्र में ये शामिल हो सकता है: 2 लोग, Ramesh Saini सहित, लोग खड़े हैं और बाहर
Ramesh Saini के साथ पंकज बाजपेई — Ramesh Sainiके साथ.

Wednesday, May 02, 2018

बिल्ली के बच्चे की देखभाल के लिए संस्था की तलाश

घायल बिल्ली का बच्चा। पिछले पैर के घाव भी दिख रहे फ़ोटो में

कल किसी ऐसी स्वयंसेवी संस्था की जानकारी के लिए लिखा जो बिल्ली के बच्चों की देखरेख करती हो।
दरअसल हमारी श्रीमतीजी पिछले महीने अपने स्कूल से एक लावारिश बिल्ली का बच्चा घर ले आईं। स्कूल से लौटते समय बच्चा उनके पास आ गया। पैरों पर लौटने लगा। शरणागत वत्सला की तरह वे उसे घर ले आईं।
बिल्ली के बच्चे का कमर के बाद के हिस्से में कोई गहरी चोट लगी है। शायद किसी ने घायल किया या कहीं गिरी होगी या दबी होगी। चोट के चलते वह आंशिक अपाहिज है। पिछले दो पैर घसीटते हुए आगे के पैरों पर चलती है।
एक जानवरों के डॉक्टर को दिखाया तो उसने कुछ मल्टीविटामिन दीं। डॉक्टर का कहना है कि बच्चे को न्यूरो प्रॉब्लम है। घाव पर लगाने को कुछ दवाएं दीं। पिछले पैरों को जमीन पर घसीटकर चलने के कारण पैर में घाव हो गए हैं। उसको एक जगह स्थिर करके रखने के जुगाड़ किये। कुछ ठीक से होते दिखे घाव। लेकिन पूरी तरह ठीक नहीं हुए।
कल देखा उसे तो उसका एक पंजा बुरी तरह घायल दिखा। शायद चीटीं या और कीड़ों ने घाव की जगह खा कर उसको बड़ा बना दिया है। बच्चा छूटते ही तेजी से भागने की कोशिश करता है। घिसट कर चलता है। घाव और गहरे होते जा रहे हैं। मियां बीबी दोनों को ही जानवर पालने का कोई अनुभव नहीं है। भावावेश में लाये बिल्ली के बच्चे की हालत देखकर दुख होता है।
चाहते हुए भी बिल्ली के बच्चे की देखभाल ठीक से न कर सकने के कारण ही मैंने किसी ऐसी संस्था के बारे में पूछा था जो बिल्ली के बच्चों की देखभाल करती हो। उसको अपने यहां रख सकती हो। इस संबंध में खर्च भी वहन करने को हम तैयार हैं।
आपकी जानकारी में कानपुर में ऐसी कोई संस्था हो तो उसकी जानकारी दें।
घायल बिल्ली का बच्चा। पिछले पैर के घाव भी दिख रहे फ़ोटो में।

Wednesday, April 25, 2018

एटीएम में नकदी


हल्ला मचा हुआ है कि एटीम से पैसा फ़रार है। जैसे ही खबर दिमाग तक पहुंची उसने दिल से पूछा -’बताओ इस खबर को सच मानें कि अफ़वाह? इसे दुख के खाने में धरें कि आनन्द महल में बैठायें?’
आम तौर पर बेवकूफ़ी की बात कहने के लिये बदनाम दिल ने समझाइश दी -’ ’ आज के समय में सच और अफ़वाह में कोई अंतर नहीं रहा । अफ़वाह कब सच में बदल में जाये और सच कब अफ़वाह साबित हो जाये इसे कोई जानता नहीं। इसलिये दोनों ही मानो इसे। जैसा मौका आये वैसा उपयोग करे।’
’सच और अफ़वाह एक कैसे हो सकते हैं भाई !’ - दिमाग ने तार्किक होने की कोशिश करते हुये पूछा।
अरे भाई जब गुंडे-बदमाश- माफ़िया लोग जनता की सेवा कर सकते हैं तो सच और अफ़वाह एक क्यों नहीं हो सकते। सच आखिर क्या है- ’डंके की चोट पर बोला जाने वाला झूठ ही तो। जो झूठ वायरल हो जाता है वही तो सच का बाप कहलाता है।’
हम इस सिरीमान दिल की ऊंची बात छोड़कर एटीएम से बतियाने लगे। उससे पूछा -’ ये नोट आपके पास टिकते क्यों नहीं हैं ? कहां चले जाते हैं?’
’आजकल जिसे देखो उसे बाजार पहुंचने का चस्का लगा है। हर आदमी बाजार पहुंचना चाहता है। बिकता चाहता है। फ़िर बाजार तो नोट का मायका होता है। जहां मौका मिलता है उछलते हुये पहुंच जाता है बाजार।
’पहले और आजकल के नोट के व्यवहार मेंं कोई अंतर आया है क्या?’ - हमने एटीएम से पूछा।
अरे पहले के नोट बड़े संस्कारी टाइप होते थे। दो-दो, तीन-तीन दिन साथ रहते थे। आजकल के नोटों की तो पूछो ही मती। इनकी हरकतें देखकर लगता है सही में जमाना बड़ा खराब आ गया है। आज के नोट बहुत मनचले टाइप के होते हैं। जहां एटीएम में आये नहीं बाहर भागने के लिये उतावले रहते हैं। कभी-कभी तो ऐसा लगता है नकदी नकदी न होकर जेल आया कोई वीआईपी हो जिसकी जेल बाद में होती है, बेल पहले होती है। आजकल का पैसा इतना मनचला होता है कि आते भी जाने का जुगाड़ खोजता है।
’लेकिन अगर एटीएम तो हमेशा नकदी निकालने के लिये होते हैं। नोट अगर एटीएम में न रहे तो एटीएम का उपयोग क्या ?’ -हमने एटीएम से पूछा।
आप तो समझदारों की तरह सहज बेवकूफ़ी की बात कर रहे हैं। आज के समय में जिसका जो काम होता है वह करता कहां है? अपना काम करना आजकल के फ़ैशन के खिलाफ़ है। फ़िर एटीएम से आप कैसे आशा करते हैं कि उसमें पैसे रहेंगे?
’अच्छा पैसे जब एटीएम में रहते नहीं तो कैसा लगता है आपको? ’ -हमने एटीएम जी से पूछा।
लगता कैसा है कैसे बतायें? आप ऐसा समझ लो कि अगर बगल के एटीएम में पैसे हुये और अपन खाली हुये तो ऐसा लगता है जैसे किसी किसी विधायक को मंत्री पद मिलने पर उसके साथ के विधायक को लगता होगा। जब बगल वाले में भी पैसे नहीं होते तो ऐसा लगता है जैसे किसी पार्टी के मार्गदर्शक मंडल के सदस्यों को महसूस होता है।
हम एटीएम से बतिया ही रहे थे कि किसी ने अपना कार्ड उसके मुंह में ठूंस दिया। एटीएम का मुंह बंद हो गया। मन किया कि ठहरकर देख लें कि उसका पैसा निकला कि नहीं लेकिन फ़िर देखा नहीं। देखने में सच और अफ़वाह में कोई एक सही साबित हो जाता। हमारे जीने के सहारों में से एक कम हो जाता। हमारी ताकत आधी हो जाती। अभी तो सच भयावह लगता है तो उसको अफ़वाह मान लेते हैं। अफ़वाह मन को सुकून देती है तो उसको सच मानकर खुश हो लेते हैं। दोनों में से कोई एक भी न रहा तो बवाल हो जायेगा। जीना और मुश्किल हो जायेगा। है न !

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