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घपले और व्यंग्यकार
By फ़ुरसतिया on June 11, 2013
मुंबई
में बारिश इस बार दो दिन पहले आ गयी. मानसून लगता है गोवा की खबरें सुनकर
सहम गया. उसको लगा कि समय से न पहुंचा तो “पी.एम. इन वेटिंग” की तरह
“मानसून इन वेटिंग” न बनकर रह जाये. सूखा बाजी मार ले जाये और वह बरसने के
लिये तरस के रह जाये.
क्या पता किसी ने सट्टा लगाया हो इस पर कि मानसून दो दिन पहले आयेगा या एक दिन बाद. कोई भरोसा नहीं किस बात का सट्टा लग जाये इस फ़िक्सिंग प्रधान दुनिया में.
पिछ्ले दिनों मीडिया में फ़िक्सिंग का बड़ा हल्ला रहा. फ़िक्सिंग ने एक बड़ी होर्डिंग की तरह बाकी विज्ञापनों को अपने पीछे छिपा दिया. बिंदु दारा सिंह और श्रीसंत की गिरफ़्तारी ने महेश कुमार और बंसल जी भतीजे जी की गिरफ़्तारी को भी पीछे छोड़ दिया.
सट्टे की खबरों के बाद फ़िर खेल की खबरो ने अंगड़ाई ली. क्रिकेट टीम की जीत के बखान होने लगे.
घपले-घोटाले के किस्से स्लाइड शो की तरह चलते रहते हैं. जिस हफ़्ते कोई घपला नहीं सामने आता तो अटपटा सा लगता है. सवाल उठता है कहीं मीडिया में हड़ताल तो नहीं?
घपलों के उजागर होने सबसे ज्यादा मजे व्यंग्यकारों/कार्टूनिस्टों के होते हैं. घपले की खबर सुनते ही उनके चेहरे सहालग के मौसम में जजमानों की तरह खिल जाते हैं. सिद्धहस्त लिख्खाड़ एक-एक घपले पर आठ-दस लेख घसीट लेता है. घपले को गन्ने की
तरह पेरकर आठ-दस लेख का रस निकाल लेता है.
कभी-कभी एक घपले की खबरों के बीच में नया घपला आ जाता है. ऐसे में व्यंग्यकार/कार्टूनिस्ट पुराने घपले को अधबीच में छोड़कर नये घपले की तरफ़ लपकता है. कहीं उससे पहले कोई दूसरा न उसे लिख जाये. व्यंग्यकार/कार्टूनिस्ट घपलों को उसी तरह ताड़ते रहते हैं जैसे बगुला मछली ताड़ता रहता है या फ़िर जिस तरह घाघ राजनीतिज्ञ जनता की सेवा का अवसर ताड़ता रहता है. मौका मिलते ही लपककर जनता की सेवा कर डालता है. मेवा खाता रहता है.
कभी-कभी तो यह भी लगता है कि घपलों/घोटालों की कहीं व्यंग्यकारों से तो फ़िक्सिंग नहीं होती?
क्या पता किसी ने सट्टा लगाया हो इस पर कि मानसून दो दिन पहले आयेगा या एक दिन बाद. कोई भरोसा नहीं किस बात का सट्टा लग जाये इस फ़िक्सिंग प्रधान दुनिया में.
पिछ्ले दिनों मीडिया में फ़िक्सिंग का बड़ा हल्ला रहा. फ़िक्सिंग ने एक बड़ी होर्डिंग की तरह बाकी विज्ञापनों को अपने पीछे छिपा दिया. बिंदु दारा सिंह और श्रीसंत की गिरफ़्तारी ने महेश कुमार और बंसल जी भतीजे जी की गिरफ़्तारी को भी पीछे छोड़ दिया.
सट्टे की खबरों के बाद फ़िर खेल की खबरो ने अंगड़ाई ली. क्रिकेट टीम की जीत के बखान होने लगे.
घपले-घोटाले के किस्से स्लाइड शो की तरह चलते रहते हैं. जिस हफ़्ते कोई घपला नहीं सामने आता तो अटपटा सा लगता है. सवाल उठता है कहीं मीडिया में हड़ताल तो नहीं?
घपलों के उजागर होने सबसे ज्यादा मजे व्यंग्यकारों/कार्टूनिस्टों के होते हैं. घपले की खबर सुनते ही उनके चेहरे सहालग के मौसम में जजमानों की तरह खिल जाते हैं. सिद्धहस्त लिख्खाड़ एक-एक घपले पर आठ-दस लेख घसीट लेता है. घपले को गन्ने की
तरह पेरकर आठ-दस लेख का रस निकाल लेता है.
कभी-कभी एक घपले की खबरों के बीच में नया घपला आ जाता है. ऐसे में व्यंग्यकार/कार्टूनिस्ट पुराने घपले को अधबीच में छोड़कर नये घपले की तरफ़ लपकता है. कहीं उससे पहले कोई दूसरा न उसे लिख जाये. व्यंग्यकार/कार्टूनिस्ट घपलों को उसी तरह ताड़ते रहते हैं जैसे बगुला मछली ताड़ता रहता है या फ़िर जिस तरह घाघ राजनीतिज्ञ जनता की सेवा का अवसर ताड़ता रहता है. मौका मिलते ही लपककर जनता की सेवा कर डालता है. मेवा खाता रहता है.
कभी-कभी तो यह भी लगता है कि घपलों/घोटालों की कहीं व्यंग्यकारों से तो फ़िक्सिंग नहीं होती?
Posted in व्यंग्य | 3 Responses
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