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एक दिन में ठुंसे कई ’दिवस’
By फ़ुरसतिया on June 17, 2013
कल
देश दुनिया भर में पिता दिवस मनाया गया. अखबारों में, सोशल मीडिया में और
अभिव्यक्ति के अन्य मंचों पर लोगों ने अपनी-अपनी तरह अपने-अपने पिताओं को
याद किया. सब जगह ’हैप्पी फ़ादर्स डे’ होता रहा. फ़ेसफ़ुक और ब्लॉग की दुनिया
तो पितामय हो गयी. लोग फ़ुल भावुक हो गये.
पिता तो परिवार की धुरी होते हैं. इसलिये पिता को याद करना अच्छी बात है. साथ हों तो उनके और पास होना और अच्छी बात है. लेकिन , जैसा कुछ लोगों ने कहा भी, पिता को एक दिन में सीमित कर देना कहीं उनको बाकी दिनों से खारिज कर देना जैसा है.
बचपन से हम लोग तो केवल चार ठो ’डे’ जानते रहे. स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस, गांधी जयंती और बाल दिवस. बाद में जैसे तरह-तरह के ’डे’ की बाढ़ सी आ गयी. जलजला आ गया. बाजार के बहकावे में आकर हर रोज तरह-तरह के ’डे’ मनाये जाने लगे हैं. जिस दिन जो ’डे’ होता है उस दिन उसको याद करके छुट्टी हो गयी. हर ’दिवस’ से जुड़ी कोई कहानी. दिन भर उसके लिये शुभकामनाओं का सिलसिला चलता. दिन बीतने के बाद ’रात गयी, बात गयी’ हो जाता मामला. अगले दिन कोई दूसरा दिन अपना झंडा गाड़े दिखता.
जिस तेजी से तरह-तरह के ’डे’ बढ़ते जा रहे हैं उससे लगता है कि आने वाले में समय में साल में दिन कम हो जायेंगे, ’डे’ बढ़ जायेंगे. एक-एक दिन में कई-कई दिन एडजस्ट करने पडेंगे. साल के दिनों की हालत रेलवे के जनरल डिब्बों सरीखी हो जायेगी. एक-एक सीट (दिन) में कई-कई ’दिवस’ ठुंसे हुये एक-दूसरे को धकियायेंगे. बाद में आया ’डे’ पहले वाले ’दिवस’ से कहेगा- भाईसाहब, जरा खिसक जाइये, हमको भी एडजस्ट कर लीजिये. दिन की सीट पर पहले से बैठा ’दिवस’ पहले थोड़ा कुनमुनाये शायद लेकिन फ़िर मन मारकर खिसक जायेगा. उसको पता है नहीं खिसकेंगे तो धकिया के खिसिया दिया जायेगा.
दिनों के हाल यह है कि ’एक अनार,सौ बीमार’ या फ़िर ’एक पीएम पद, सौ उम्मीदवार’
की तर्ज पर एक-एक दिन में कई-कई ’दिवस’ ठुंसने के लिये अर्जी दिये पड़े हैं. दिन बेचारा हलकान है सबको कैसे एडजस्ट करे.
जिस तेजी से ’दिवस’ की जनसंख्या बढ़ रही है उससे तो लगता है कि आने वाले समय में ’डे’ की जगह ’आवर’ मनाने का चलन बढ़े. एक दिन में चौबीस घंटे होते हैं सो चौबीस चोचले एडजस्ट हो जायेंगे एक दिन मे. क्या पता आने वाले समय में कोई कहे –यार, इन दो घंटों को साथ-साथ एडजस्ट कर दो, इनके आपस में ’इंटीमेट रिलेशन’ हैं. फ़िर ’जोड़ा घंटा’ यानि कि ’कपल आवर’ का चलन हो जाये बाजार में.
हम भी कहां की हांकने लगे. देखें कि आज कौन सा दिवस है. बधाई-सधाई दे कहीं चूक न जायें किसी को.
वे हर मिलने वाले से कहते कि
बहुत नहीं दो साल तीन साल और मिल जाता बस।
वे जिंदगी को ऐसे माँगते थे जैसे मिल सकती हो
किराने की दुकान पर।
उनकी यह इच्छा जान गए थे उनके डॉक्टर भी
सब ने पूरी कोशिश की पिता को बचाने की
पर कुछ भी काम नहीं आया।
माँ ने मनौतियाँ मानी कितनी
मैहर की देवी से लेकर काशी विश्वनाथ तक
सबसे रोती रही वह अपने सुहाग को
ध्रुव तारे की तरह
अटल करने के लिए
पर उसकी सुनवाई नहीं हुई कहीं…।
1997 में
जाड़ों के पहले पिता ने छोड़ी दुनिया
बहन ने बुना था उनके लिए लाल इमली का
पूरी बाँह का स्वेटर
उनके सिरहाने बैठ कर
डालती रही स्वेटर
में फंदा कि शायद
स्वेटर बुनता देख मौत को आए दया,
भाई ने खरीदा था कंबल
पर सब कुछ धरा रह गया
घर पर ……
बाद में ले गए महापात्र सब ढोकर।
पिता ज्यादा नहीं 2001 कर जीना चाहते थे
दो सदियों में जीने की उनकी साध पुजी नहीं
1936 में जन्में पिता जी तो सकते थे 2001 तक
पर देह ने नहीं दिया उनका साथ
दवाएँ उन्हें मरने से बचा न सकीं ।
इच्छाएँ कई और थीं पिता की
जो पूरी नहीं हुईं
कई और सपने थे ….अधूरे….
वे तमाम अधूरे सपनों के साथ भी जीने को तैयार थे
पर नहीं मिले उन्हें तीन-चार साल
हार गए पिता
जीत गया काल ।
बोधिसत्व
पिता तो परिवार की धुरी होते हैं. इसलिये पिता को याद करना अच्छी बात है. साथ हों तो उनके और पास होना और अच्छी बात है. लेकिन , जैसा कुछ लोगों ने कहा भी, पिता को एक दिन में सीमित कर देना कहीं उनको बाकी दिनों से खारिज कर देना जैसा है.
बचपन से हम लोग तो केवल चार ठो ’डे’ जानते रहे. स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस, गांधी जयंती और बाल दिवस. बाद में जैसे तरह-तरह के ’डे’ की बाढ़ सी आ गयी. जलजला आ गया. बाजार के बहकावे में आकर हर रोज तरह-तरह के ’डे’ मनाये जाने लगे हैं. जिस दिन जो ’डे’ होता है उस दिन उसको याद करके छुट्टी हो गयी. हर ’दिवस’ से जुड़ी कोई कहानी. दिन भर उसके लिये शुभकामनाओं का सिलसिला चलता. दिन बीतने के बाद ’रात गयी, बात गयी’ हो जाता मामला. अगले दिन कोई दूसरा दिन अपना झंडा गाड़े दिखता.
जिस तेजी से तरह-तरह के ’डे’ बढ़ते जा रहे हैं उससे लगता है कि आने वाले में समय में साल में दिन कम हो जायेंगे, ’डे’ बढ़ जायेंगे. एक-एक दिन में कई-कई दिन एडजस्ट करने पडेंगे. साल के दिनों की हालत रेलवे के जनरल डिब्बों सरीखी हो जायेगी. एक-एक सीट (दिन) में कई-कई ’दिवस’ ठुंसे हुये एक-दूसरे को धकियायेंगे. बाद में आया ’डे’ पहले वाले ’दिवस’ से कहेगा- भाईसाहब, जरा खिसक जाइये, हमको भी एडजस्ट कर लीजिये. दिन की सीट पर पहले से बैठा ’दिवस’ पहले थोड़ा कुनमुनाये शायद लेकिन फ़िर मन मारकर खिसक जायेगा. उसको पता है नहीं खिसकेंगे तो धकिया के खिसिया दिया जायेगा.
दिनों के हाल यह है कि ’एक अनार,सौ बीमार’ या फ़िर ’एक पीएम पद, सौ उम्मीदवार’
की तर्ज पर एक-एक दिन में कई-कई ’दिवस’ ठुंसने के लिये अर्जी दिये पड़े हैं. दिन बेचारा हलकान है सबको कैसे एडजस्ट करे.
जिस तेजी से ’दिवस’ की जनसंख्या बढ़ रही है उससे तो लगता है कि आने वाले समय में ’डे’ की जगह ’आवर’ मनाने का चलन बढ़े. एक दिन में चौबीस घंटे होते हैं सो चौबीस चोचले एडजस्ट हो जायेंगे एक दिन मे. क्या पता आने वाले समय में कोई कहे –यार, इन दो घंटों को साथ-साथ एडजस्ट कर दो, इनके आपस में ’इंटीमेट रिलेशन’ हैं. फ़िर ’जोड़ा घंटा’ यानि कि ’कपल आवर’ का चलन हो जाये बाजार में.
हम भी कहां की हांकने लगे. देखें कि आज कौन सा दिवस है. बधाई-सधाई दे कहीं चूक न जायें किसी को.
मेरी पसंद
पिता थोड़े दिन और जीना चाहते थेवे हर मिलने वाले से कहते कि
बहुत नहीं दो साल तीन साल और मिल जाता बस।
वे जिंदगी को ऐसे माँगते थे जैसे मिल सकती हो
किराने की दुकान पर।
उनकी यह इच्छा जान गए थे उनके डॉक्टर भी
सब ने पूरी कोशिश की पिता को बचाने की
पर कुछ भी काम नहीं आया।
माँ ने मनौतियाँ मानी कितनी
मैहर की देवी से लेकर काशी विश्वनाथ तक
सबसे रोती रही वह अपने सुहाग को
ध्रुव तारे की तरह
अटल करने के लिए
पर उसकी सुनवाई नहीं हुई कहीं…।
1997 में
जाड़ों के पहले पिता ने छोड़ी दुनिया
बहन ने बुना था उनके लिए लाल इमली का
पूरी बाँह का स्वेटर
उनके सिरहाने बैठ कर
डालती रही स्वेटर
में फंदा कि शायद
स्वेटर बुनता देख मौत को आए दया,
भाई ने खरीदा था कंबल
पर सब कुछ धरा रह गया
घर पर ……
बाद में ले गए महापात्र सब ढोकर।
पिता ज्यादा नहीं 2001 कर जीना चाहते थे
दो सदियों में जीने की उनकी साध पुजी नहीं
1936 में जन्में पिता जी तो सकते थे 2001 तक
पर देह ने नहीं दिया उनका साथ
दवाएँ उन्हें मरने से बचा न सकीं ।
इच्छाएँ कई और थीं पिता की
जो पूरी नहीं हुईं
कई और सपने थे ….अधूरे….
वे तमाम अधूरे सपनों के साथ भी जीने को तैयार थे
पर नहीं मिले उन्हें तीन-चार साल
हार गए पिता
जीत गया काल ।
बोधिसत्व
Posted in बस यूं ही | 11 Responses
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