By फ़ुरसतिया on January 12, 2014
अभी
सुबह उठे। उठने के पहले जगे। जगे फ़िर उठे। देखा बाहर सूरज भाई अभी आये
नहीं थे। सोचा आराम से आयेंगे। चाय मंगाई। पीते हुये टीवी देखते रहे। सब
खबरें रिपीट हो रहीं थीं। ’रिपीट’ माने दुबारा पीट रहीं थीं। फ़िर बंद कर
दिया टीवी। हल्ला कम हुआ कमरे में। ’सुकून’ बढा। ’शांति जी’ भी आ गयीं
कमरें में।’सुकून भाई’ और ’शांति जी’ आपस में एक दूसरे को देख मुस्कराने
लगे। ’सुकून भाई’ ने ’शांति जी’ को मित्र बनाने के लिये फ़ेसबुक खोला तो
देखा वहां ’शांति जी’ की फ़्रेंड रिक्वेस्ट पहले से ही आई हुई है। उन्होंने
फ़टाक देना मित्रता अनुरोध स्वीकार किया। ’हल्लो’ ,’हाऊ आर यू’ से शुरु होकर
बजरिये ’आई लाइक यू’ होते हुये दोनो एक साथै ’आई लव यू’ तक पहुंच गये और
बतियाने लगे। दो मिनट में दो अजनबी ’दो इश्किया’ हो गये। कूल न !
साल बेइंतहा व्यस्तता से शुरु हुआ। दस-दस बजे रात के कई दिन दफ़्तर से कमरे तक आने में। इत्ती देर तक काम करने के बाद भी तमाम काम अधूरे रहे। हर समय डरे-डरे से रहते हैं कि न जाने कौन काम मेज पर चढकर आंखे दिखाने लगे। हड़काने लगे – “हमें अधूरा छोड़कर बाद वाले काम कर दिये। दिल्ली में होते तो शिकायत कर देते केजरी भईया से।” बड़ा डर लगता है। जिसको देखो वही हड़काता रहता है।
अपन का नारा है- “व्यस्त रहो, मस्त रहो।” अमल अलबत्ता उल्टा करते हैं। मस्त पहले होते हैं फ़िर व्यस्त होने का जुगाड़ देखते हैं। इस उलट-पुलट के चक्कर में न कायदे से व्यस्त रह पाते हैं न मस्त। मस्त लोग समझते हैं ये ससुर तो हमेशा व्यस्त रहता है। व्यस्तता समर्थक सोचते हैं-इसे तो मस्ती से ही फ़ुरसत नहीं। ये क्या खाकर मस्त होगा।
गये साल में तमाम काम अधूरे रह गये। साल के आखिरी दिन सब सामने आकर खड़े हो गये। हम सबसे गले मिलकर ’हैप्पी न्यू ईयर’ बोल दिये। गले मिलने में फ़ायदा होता है कि आंख नहीं मिलानी पड़ती। सबको कह दिये- इस साल पक्का निपटायेंगे यार तुमको। सारे काम मुस्कराते हुये बहुत देर तक साथ रहे। उनकी संगत में शर्मिन्दा महसूस करने लगे तो बहाने से फ़ूट आये यह कहते हुये कि आते हैं जरा दोस्तों को नये साल की शुभकामनायें देकर आते हैं। वे मुस्कराने लगे। अभी भी देखा कि वे बारह दिन पीछे खड़े मुस्करा रहे थे। सबको बुला लिया – “अरे यार आ जा आओ। गये साल में क्यों खड़े हो। नये साल में आओ।”
हम देखते हैं कि अपन समय बहुत बरबाद करते हैं। जैसे भरे बटुये वाली तमाम घरैतिनें बाजार जाती हैं और अजर्रा खर्च करती हैं वैसे ही अपन लेफ़्ट-राईट मिडल च समय बरबाद करते रहते हैं। अव्वल तो कोई प्लान बनाते नहीं। अगर कोई बना भी लिया तो फ़ालो करना तो दूर की बात-पलट के उसको देखते तक नहीं। आम तौर पर अपने सब काम तब शुरु होते हैं जब समय खतम होने वाला होता है। कुछ ऐसे जैसे कोई डेली पैंसेजर सामने से गुजरती रेल को निहारते हुये चाय पीते रहता है और जैसे ही गाड़ी प्लेटफ़ार्म पार करने वाली होती है वह कुल्ड़ड़ पटरी फ़ेंककर लपककर रेल के आखिरी डिब्बे का हैंडल पकड़कर पायदान पर लटक जाता है।
इस बरबादी में सबसे ज्यादा समय बातचीत में जाता है। दफ़्तर में, दोस्तों से, फ़ोन पर, नेट पर, यहां, वहां न जाने कहां-कहां। इस चक्कर में अपने से न बात हो पाती है। न चीत। हाल यह है कि दुनिया से बतियाने के सारे चैनल चौबीस घंटे आन रहते हैं। अपने वाले का नेटवर्क नहीं मिलता। मिलता भी है तो रिंग ट्यून बजने लगती है:
मन तो करता है डायलॉग मार दें – दुनिया भर से मोहब्बत का ठेका लिये घूमते हो। खुद का ख्याल नहीं रख पाते। डेढ़ महीना हो गये खांसते हुये। दवाई न लेने से खांसते हुये क्या कहीं के मुख्यमंत्री बन जाओगे?
इधर आजकल सूरज से रोज बात होती है। लोग हमारी दोस्ती को लेकर तरह-तरह की बातें करते हैं। लेकिन हमें इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। अपनी दोस्ती दो एकदम धुर विरोधी स्वभाव वाले लोगों की दोस्ती है। भाईसाहब एकदम नियमित, अपन पक्के अनियमित। वे दुनिया भर का भला करते हैं, अपन अपना तक नहीं कर पाते। वे पता नहीं क्या सोचते हैं मेरे बारे में लेकिन दिन में एक बार मुलाकात जरूर करने आते हैं। नहीं आ पाते तो फ़ोन करते हैं। अपनी बच्चियों- रश्मि, किरण को जान से ज्यादा चाहते हैं। कभी कोहरा उनका रास्ता रोकता है, उनको छेड़ता है तो उसके टुकड़े-टुकड़े कर डालते हैं। कभी-कभी मिस्ड काल भी मारते हैं।
पिछले छह महीने में लिखना मजे का हुआ। जो लिखा वह सब पलपल इंडिया के साथ अपने ब्लॉग में डालते रहे। पचास लेख हो गये! पलपल इंडिया में लिखे मेरे एक लेख को पढकर भोपाल की शर्मिला घोष ने खोजकर मुझे मेल लिखा। उनसे दोस्ती हुई। फ़िर हम उनके ’दादा’ हो गये। कुछ दिन के बाद पलपल इंडिया में लिखना कम हो गया। एक दिन शर्मिला ने मेल लिखा – दादा, क्या आपने पलपल इंडिया में लिखना बन्द कर दिया? आपके लेख वहां अब दिखते नहीं?
पलपल इंडिया के सम्पादक अभिमनोज जी एक दिन कह रहे थे पचास लेख हो जायेंगे तब इनको किताब के रूप में कर देंगे। अगर किताब बनी तो उसका शीर्षक होगा- लोकतंत्र का वीरगाथा काल।
नेट की दुनिया बड़ी रोचक है। तमाम लोगों को इसके झटकेदार अनुभव होते हैं। लेकिन मेरे अनुभव ज्यादातर सुखद ही रहे।
ईस्वामी जिनसे मैं कभी मिला नहीं अपनी तमाम व्यस्यताओं के बीच भी मेरे लिये यह इंतजाम करते हैं कि मेरा लिखना जारी रहे। जब भी कभी साइट में समस्या आई ,अपने सब काम छोड़कर वे उसको संभालते हैं। खुद भले न लिखें लेकिन यह देखते रहते हैं कि मेरा लिखना न रुके। दस साल पूरे होने को आये इस हिन्दिनी साइट को शुरु हुये। स्वामीजी का बिन्दास लेखन मिस करते हैं। शायद दस साल पूरे होने पर वह दुबारा शुरु हो।
मेरा लेख पढकर शर्मिला की मेल से शुरु हुआ स्नेह संबंध पिछले साल की हमारी उपलब्धि रही।
इनमें से किसी से भी मैं आजतक मिला नहीं। लेकिन सब बेहद अपने लगते हैं। इनके अलावा और भी न जाने कितने लोग हैं जिनसे रूबरू मुलाकात नहीं हुई। बात नहीं हुई। लेकिन जितना भी संपर्क है उतने भर से लगता है कि दुनिया अपनी तमाम खराब चीजों के कितनी खूबसूरत है।
पिछले तमाम दिन जो लेख लिखे गये वे सब ’छपास चाहना’ वाले लेख थे। इस चक्कर में ब्लॉग लिखना कम सा हुआ। कुछ लोग रोना रोते हैं कि ब्लॉगिंग खतम हो गयी। उनको शायद यह नहीं दिखता कि लगभग सारे अखबार आज अपनी सामग्री ब्लॉगों से सीधे उठा रहे हैं। टसुये बहाना छोड़कर अपने ब्लॉग पर जायें।
हम लिखने में मशगूल थे कि देखते हैं सूरज भाई खुले दरवज्जे से कमरे में पसरे मुझे टाइप करते देख रहे हैं। मुस्करा रहे हैं। हम उनसे पूछते हैं- अरे! सूरज भाई, आप कब आये?
हमने सूरज भाई, आप भी खूब मजे लेते हो। बैठिये आपके लिये चाय मंगाते हैं।
चाय के लिये बोलने के बाद देखा सूरज भाई हमारे की बोर्ड पर झुके करेक्शन कर रहे हैं। लेख का टाइटिल लिख रहे हैं- दुनिया कित्ती खूबसूरत है।
चांदनी जब खिली, रात हंसने लगी,
नभ में तारे हँसे प्रीति बसने लगी,
आह नागिन बनी बन के डसने लगी,
याद आई विरह बान कसने लगी,
चाँद देखा तो फूले समाये नहीं |
हम भुलाये तुम्हें भूल पाए नहीं||
दामिनी की दमक देख रोये कभी,
अश्रु मोती समझ हार पोये कभी,
स्वप्न देखे, निशाभर न सोये कभी,
रात दिन याद तेरी संजोये कभी,
सब हुआ नैन भर देख पाए नहीं |
हम भुलाये तुम्हे भूल पाए नहीं ||
आश अब लौ रही, एक दिन ही मिलो,
हाय सूने हृदय में सुमन बन खिलो,
प्रेम परिधान जर्जर, उसे आ सिलो,
आश मेरी अमर, तुम मिलो न मिलो,
नत नयन हो कभी मुस्कराए नहीं |
हम भुलाये तुम्हे भूल पाए नहीं ||
राम शंकर त्रिवेदी ’ कवि जी’ लखीमपुर खीरी
अपन
का नारा है- “व्यस्त रहो, मस्त रहो।” अमल अलबत्ता उल्टा करते हैं। मस्त
पहले होते हैं फ़िर व्यस्त होने का जुगाड़ देखते हैं। इस उलट-पुलट के चक्कर
में न कायदे से व्यस्त रह पाते हैं न मस्त।
तारीख देखी। साल 1/36 से ज्यादा निकल गया। झटका लगा। अरे ब्बाप रे, नये
साल के रिजलूशन पर अमल ही नहीं शुरु किया। घबराते हुये, डायरी देखी! क्या
लिये थे शपथ नये साल में करने की। देखा- कुच्छ नहीं। कोई कसम नहीं खाये थे।
’नये साल में क्या करना है’ ऐसा कोई वायदा रिकार्ड नहीं किये थे। बड़ा
सुकून मिला। अलसा गये होंगे। लेकिन देखिये कित्ता ’सुकून’ महसूस हो रहा है ।
यह आलस्य का सौन्दर्य है। अब जो भी कर डालेंगे नये साल में वह बोनस होगा।साल बेइंतहा व्यस्तता से शुरु हुआ। दस-दस बजे रात के कई दिन दफ़्तर से कमरे तक आने में। इत्ती देर तक काम करने के बाद भी तमाम काम अधूरे रहे। हर समय डरे-डरे से रहते हैं कि न जाने कौन काम मेज पर चढकर आंखे दिखाने लगे। हड़काने लगे – “हमें अधूरा छोड़कर बाद वाले काम कर दिये। दिल्ली में होते तो शिकायत कर देते केजरी भईया से।” बड़ा डर लगता है। जिसको देखो वही हड़काता रहता है।
अपन का नारा है- “व्यस्त रहो, मस्त रहो।” अमल अलबत्ता उल्टा करते हैं। मस्त पहले होते हैं फ़िर व्यस्त होने का जुगाड़ देखते हैं। इस उलट-पुलट के चक्कर में न कायदे से व्यस्त रह पाते हैं न मस्त। मस्त लोग समझते हैं ये ससुर तो हमेशा व्यस्त रहता है। व्यस्तता समर्थक सोचते हैं-इसे तो मस्ती से ही फ़ुरसत नहीं। ये क्या खाकर मस्त होगा।
गये साल में तमाम काम अधूरे रह गये। साल के आखिरी दिन सब सामने आकर खड़े हो गये। हम सबसे गले मिलकर ’हैप्पी न्यू ईयर’ बोल दिये। गले मिलने में फ़ायदा होता है कि आंख नहीं मिलानी पड़ती। सबको कह दिये- इस साल पक्का निपटायेंगे यार तुमको। सारे काम मुस्कराते हुये बहुत देर तक साथ रहे। उनकी संगत में शर्मिन्दा महसूस करने लगे तो बहाने से फ़ूट आये यह कहते हुये कि आते हैं जरा दोस्तों को नये साल की शुभकामनायें देकर आते हैं। वे मुस्कराने लगे। अभी भी देखा कि वे बारह दिन पीछे खड़े मुस्करा रहे थे। सबको बुला लिया – “अरे यार आ जा आओ। गये साल में क्यों खड़े हो। नये साल में आओ।”
गये साल में तमाम काम अधूरे रह गये। साल के आखिरी दिन सब सामने आकर खड़े हो गये। हम सबसे गले मिलकर ’हैप्पी न्यू ईयर’ बोल दिये। गले मिलने में फ़ायदा होता है कि आंख नहीं मिलानी पड़ती।
वे आ गये मुस्कराते हुये। अब सबको एक साथ निपटायेंगे। हम देखते हैं कि अपन समय बहुत बरबाद करते हैं। जैसे भरे बटुये वाली तमाम घरैतिनें बाजार जाती हैं और अजर्रा खर्च करती हैं वैसे ही अपन लेफ़्ट-राईट मिडल च समय बरबाद करते रहते हैं। अव्वल तो कोई प्लान बनाते नहीं। अगर कोई बना भी लिया तो फ़ालो करना तो दूर की बात-पलट के उसको देखते तक नहीं। आम तौर पर अपने सब काम तब शुरु होते हैं जब समय खतम होने वाला होता है। कुछ ऐसे जैसे कोई डेली पैंसेजर सामने से गुजरती रेल को निहारते हुये चाय पीते रहता है और जैसे ही गाड़ी प्लेटफ़ार्म पार करने वाली होती है वह कुल्ड़ड़ पटरी फ़ेंककर लपककर रेल के आखिरी डिब्बे का हैंडल पकड़कर पायदान पर लटक जाता है।
इस बरबादी में सबसे ज्यादा समय बातचीत में जाता है। दफ़्तर में, दोस्तों से, फ़ोन पर, नेट पर, यहां, वहां न जाने कहां-कहां। इस चक्कर में अपने से न बात हो पाती है। न चीत। हाल यह है कि दुनिया से बतियाने के सारे चैनल चौबीस घंटे आन रहते हैं। अपने वाले का नेटवर्क नहीं मिलता। मिलता भी है तो रिंग ट्यून बजने लगती है:
ओ मेरे आदर्शवादी मन,ये रिंग ट्यून सुनते ही अपन फ़ौरन ही फ़ोन काट देते हैं। सामने जो दिखता है उससे -”हल्लो, हाऊ डू यू डू!” करने लगते हैं।” कई बार सामने आईने के सामने ऐसा हुआ। कुछ देर बाद याद आया अरे ये तो खुद हैं। मुस्कराते हुये कहते हैं- ” नालायक बतबने, लफ़्फ़ाज ! चल दफ़ा हो जा सामने से।”
ओ मेरे सिद्धान्तवादी मन,
अब तक क्या किया?
जीवन क्या जिया!!
उदरम्भरि बन अनात्म बन गये,
भूतों की शादी में क़नात-से तन गये,
किसी व्यभिचारी के बन गये बिस्तर,
सबसे ज्यादा समय बातचीत में जाता है। दफ़्तर में, दोस्तों से, फ़ोन पर, नेट पर, यहां, वहां न जाने कहां-कहां। इस चक्कर में अपने से न बात हो पाती है। न चीत। हाल यह है कि दुनिया से बतियाने के सारे चैनल चौबीस घंटे आन रहते हैं। अपने वाले का नेटवर्क नहीं मिलता।दुःखों के दाग़ों को तमग़ों-सा पहना,
अपने ही ख़यालों में दिन-रात रहना,
असंग बुद्धि व अकेले में सहना,
ज़िन्दगी निष्क्रिय बन गयी तलघर,
अब तक क्या किया,
जीवन क्या जिया!!
मन तो करता है डायलॉग मार दें – दुनिया भर से मोहब्बत का ठेका लिये घूमते हो। खुद का ख्याल नहीं रख पाते। डेढ़ महीना हो गये खांसते हुये। दवाई न लेने से खांसते हुये क्या कहीं के मुख्यमंत्री बन जाओगे?
इधर आजकल सूरज से रोज बात होती है। लोग हमारी दोस्ती को लेकर तरह-तरह की बातें करते हैं। लेकिन हमें इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। अपनी दोस्ती दो एकदम धुर विरोधी स्वभाव वाले लोगों की दोस्ती है। भाईसाहब एकदम नियमित, अपन पक्के अनियमित। वे दुनिया भर का भला करते हैं, अपन अपना तक नहीं कर पाते। वे पता नहीं क्या सोचते हैं मेरे बारे में लेकिन दिन में एक बार मुलाकात जरूर करने आते हैं। नहीं आ पाते तो फ़ोन करते हैं। अपनी बच्चियों- रश्मि, किरण को जान से ज्यादा चाहते हैं। कभी कोहरा उनका रास्ता रोकता है, उनको छेड़ता है तो उसके टुकड़े-टुकड़े कर डालते हैं। कभी-कभी मिस्ड काल भी मारते हैं।
पिछले छह महीने में लिखना मजे का हुआ। जो लिखा वह सब पलपल इंडिया के साथ अपने ब्लॉग में डालते रहे। पचास लेख हो गये! पलपल इंडिया में लिखे मेरे एक लेख को पढकर भोपाल की शर्मिला घोष ने खोजकर मुझे मेल लिखा। उनसे दोस्ती हुई। फ़िर हम उनके ’दादा’ हो गये। कुछ दिन के बाद पलपल इंडिया में लिखना कम हो गया। एक दिन शर्मिला ने मेल लिखा – दादा, क्या आपने पलपल इंडिया में लिखना बन्द कर दिया? आपके लेख वहां अब दिखते नहीं?
अगर
शर्मिला न कहती तो शायद मैं नियमित पलपल इंडिया में लेख भेजता नहीं और न
इत्ते लेख लिख पाता। इसलिये अपने इन लेखों का श्रेय मैं अपनी बहन जी को ही
देता हूं
संयोग से उस दिन उसी समय पलपल इंडिया के राजीव सिंह जी मुझसे मिलने आये थे। मैंने फ़िर से फ़िर से पलपल इंडिया में लिखना शुरु किया। मजाक-मजाक में छह माह में पचास लेख
हो गये। इनमें से अधिकतर लेख बाद में अखबारों में भी छपे। अगर शर्मिला न
कहती तो शायद मैं नियमित पलपल इंडिया में लेख भेजता नहीं और न इत्ते लेख
लिख पाता। इसलिये अपने इन लेखों का श्रेय मैं अपनी बहन जी को ही देता हूं
जिसे वे नकारती हैं- दादा, ये तो तुमने लिखे। इसका श्रेय मुझे क्यों देते
हो?पलपल इंडिया के सम्पादक अभिमनोज जी एक दिन कह रहे थे पचास लेख हो जायेंगे तब इनको किताब के रूप में कर देंगे। अगर किताब बनी तो उसका शीर्षक होगा- लोकतंत्र का वीरगाथा काल।
नेट की दुनिया बड़ी रोचक है। तमाम लोगों को इसके झटकेदार अनुभव होते हैं। लेकिन मेरे अनुभव ज्यादातर सुखद ही रहे।
ईस्वामी जिनसे मैं कभी मिला नहीं अपनी तमाम व्यस्यताओं के बीच भी मेरे लिये यह इंतजाम करते हैं कि मेरा लिखना जारी रहे। जब भी कभी साइट में समस्या आई ,अपने सब काम छोड़कर वे उसको संभालते हैं। खुद भले न लिखें लेकिन यह देखते रहते हैं कि मेरा लिखना न रुके। दस साल पूरे होने को आये इस हिन्दिनी साइट को शुरु हुये। स्वामीजी का बिन्दास लेखन मिस करते हैं। शायद दस साल पूरे होने पर वह दुबारा शुरु हो।
नेट की दुनिया बड़ी रोचक है। तमाम लोगों को इसके झटकेदार अनुभव होते हैं। लेकिन मेरे अनुभव ज्यादातर सुखद ही रहे।
ऐसे ही चंड़ीगढ़ वाले संजय झा हैं। एक बार जब मैंने बहुत दिनों तक लिखा नहीं तो न जाने कहां से मेरा फोन नम्बर खोजकर मुझे फ़ोन किया – भाईजी, आपने बहुत दिनों से कोई पोस्ट नहीं लिखी। उसके बाद तो जब भी कुछ दिन अनियमित हुये उनका कमेंट या संदेश आता है- बालक के लिये पोस्ट कब लिखी जायेगी? चिट्ठाचर्चा न करने के लिये तो कई लोग शिकायत करते हैं।मेरा लेख पढकर शर्मिला की मेल से शुरु हुआ स्नेह संबंध पिछले साल की हमारी उपलब्धि रही।
इनमें से किसी से भी मैं आजतक मिला नहीं। लेकिन सब बेहद अपने लगते हैं। इनके अलावा और भी न जाने कितने लोग हैं जिनसे रूबरू मुलाकात नहीं हुई। बात नहीं हुई। लेकिन जितना भी संपर्क है उतने भर से लगता है कि दुनिया अपनी तमाम खराब चीजों के कितनी खूबसूरत है।
पिछले तमाम दिन जो लेख लिखे गये वे सब ’छपास चाहना’ वाले लेख थे। इस चक्कर में ब्लॉग लिखना कम सा हुआ। कुछ लोग रोना रोते हैं कि ब्लॉगिंग खतम हो गयी। उनको शायद यह नहीं दिखता कि लगभग सारे अखबार आज अपनी सामग्री ब्लॉगों से सीधे उठा रहे हैं। टसुये बहाना छोड़कर अपने ब्लॉग पर जायें।
हम लिखने में मशगूल थे कि देखते हैं सूरज भाई खुले दरवज्जे से कमरे में पसरे मुझे टाइप करते देख रहे हैं। मुस्करा रहे हैं। हम उनसे पूछते हैं- अरे! सूरज भाई, आप कब आये?
चाय
के लिये बोलने के बाद देखा सूरज भाई हमारे की बोर्ड पर झुके करेक्शन कर
रहे हैं। लेख का टाइटिल लिख रहे हैं- दुनिया कित्ती खूबसूरत है।
सूरज भाई बोले उसी समय जब तुम लिख रहे थे -दुनिया कितनी खूबसूरत है। लेकिन तुम तो ’कित्ती’ लिखते हो! आज कितनी क्यों? हमने सूरज भाई, आप भी खूब मजे लेते हो। बैठिये आपके लिये चाय मंगाते हैं।
चाय के लिये बोलने के बाद देखा सूरज भाई हमारे की बोर्ड पर झुके करेक्शन कर रहे हैं। लेख का टाइटिल लिख रहे हैं- दुनिया कित्ती खूबसूरत है।
मेरी पसन्द
हम भुलाये तुम्हें भूल पाए नहीं |चांदनी जब खिली, रात हंसने लगी,
नभ में तारे हँसे प्रीति बसने लगी,
आह नागिन बनी बन के डसने लगी,
याद आई विरह बान कसने लगी,
चाँद देखा तो फूले समाये नहीं |
हम भुलाये तुम्हें भूल पाए नहीं||
दामिनी की दमक देख रोये कभी,
अश्रु मोती समझ हार पोये कभी,
स्वप्न देखे, निशाभर न सोये कभी,
रात दिन याद तेरी संजोये कभी,
सब हुआ नैन भर देख पाए नहीं |
हम भुलाये तुम्हे भूल पाए नहीं ||
आश अब लौ रही, एक दिन ही मिलो,
हाय सूने हृदय में सुमन बन खिलो,
प्रेम परिधान जर्जर, उसे आ सिलो,
आश मेरी अमर, तुम मिलो न मिलो,
नत नयन हो कभी मुस्कराए नहीं |
हम भुलाये तुम्हे भूल पाए नहीं ||
राम शंकर त्रिवेदी ’ कवि जी’ लखीमपुर खीरी
Posted in बस यूं ही | 17 Responses
मेरे दिमाग में भी कई बार यह बात आयी कि अगर इंटरनेट न होता तो न जाने कितने अच्छे लोगों से मुलाक़ात नहीं हो पाती. ब्लॉग से जुड़े लोगों में अधिकाँश से एक बार भी मुलाक़ात नहीं हुई पर ऐसा लगता है कि सब पड़ोसी ही हैं. अभी छत पे जाके आवाज दूंगा तो आ जायेंगे.
सतीश चन्द्र सत्यार्थी की हालिया प्रविष्टी..लैंगुएज स्टडी करने का बेस्ट तरीका
…………
प्रणाम.
अजय कुमार झा की हालिया प्रविष्टी..पंच लाइन — खबरों की खबर -व्यंग्य बाण >>>>>>
arvind mishra की हालिया प्रविष्टी..एअरगन से मछलियों का शिकार (सेवाकाल संस्मरण – 18 )
प्रवीण पाण्डेय की हालिया प्रविष्टी..जय हो, जय हो
Abhishek Ojha की हालिया प्रविष्टी..धनुहां बोस ! (पटना १८)
Abhishek Ojha की हालिया प्रविष्टी..धनुहां बोस ! (पटना १८)