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By फ़ुरसतिया on January 5, 2014
पता
चला कि दिल्ली के मुख्यमंत्री ने चुनावी वायदे के अनुसार नियमित सरकारी
बंगले की जगह एक डुप्लेक्स में रहना तय किया। अखबारों में घर के फोटो छपे।
फ़र्श खुदकर नयी बनने लगी। टाइलिंग का काम शुरु हो गया थी तब तक मीडिया और
जनता में इसकी आलोचना होने लगी। विकट आलोचना के चलते दो तीन-दिन लगकर खोजे
गये डुप्लेक्स में रहने की बजाय माननीय ने छोटे घर में रहना तय किया। इस
घटना को राजनीतिक, सामाजिक नजरिये से जैसे देखा जायेगा वैसे देखा जा रहा
है। मीडिया कवरेज में जुट गया। सोशल मीडिया अपनी तरह से प्रतिक्रिया देने
में। लेकिन एक ऑडीटर की नजर से देखा जाये तो यह आर्थिक अनियमितता का मामला
बनता है। कोई भी ऑडीटर अगर इसकी जांच करेगा तो शायद अपना आपत्ति पत्र इस
तरह बनाये:
1. निर्धारित मुख्यमंत्री आवास के स्थान पर वैकल्पिक आवास खोजने की कार्यवाही में हुआ खर्चा:
घर खोजने में लगे अधिकारी– 5
अधिकारियों का प्रतिदिन औसतन वेतन –4000 रुपये
आवास खोजने में लगे दिन – 2
अधिकारियों का खर्चा – 5 x 4000 x 2 =40000 रुपये पेट्रोल और गाड़ी का प्रतिदिन का खर्चा– 1500 रुपया प्रतिदिन प्रति गाड़ी x 3 गाड़ी = 4500 रुपये
आवास की मरम्मत की शुरुआत में लगा खर्चा (फ़र्श तुड़वायी आदि) – 2000 रुपया
कुल खर्चा– 40000 रुपये + 4500 रुपये + 2000 रुपये = 47500 रुपये
इस वैकल्पिक आवास में रहने का निर्णय लेने के बाद जनता के दबाब में दूसरा वैकल्पिक आवास खोजने के निर्णय के चलते 47500 रुपये सरकारी धन की हानि हुई। इस सरकारी धन की हानि के लिये कौन जिम्मेदार होगा। उसके खिलाफ़ क्या कार्यवाही की जायेगी?
2. निर्धारित आवास छोड़कर नये आवास में रहने के निर्णय के चलते निर्धारित आवास के रखरखाव पर अगर खर्चा दस हजार प्रति माह माना जाये तो साल भर में कुल 120000 की फ़िजूलखर्ची हो जायेगी। इसके लिये कौन जिम्मेदार होगा?
3. वैकल्पिक सरकारी आवास खोजने की इस प्रक्रिया में जनता का जो अमूल्य समय बरबाद हुआ। इसकी भरपाई कैसे होगी?
माननीय को जब ये आरोप पत्र दिखाया गया तो उन्होंने कहा यह आरोप पत्र उन भ्रष्ट विरोधी दलों की
साजिश है जो ईमानदार सरकार को बदनाम करना चाहते हैं। हम इसका जबाब देने से पहले जनता की राय जानना चाहेंगे। चलिये ड्राइवर साहब निकालिये बिना लाल बत्ती वाली गाड़ी। भारत माता की जय। वन्दे मातरम।
माननीय जनता की राय के लिये निकल ही जाते लेकिन एक अनुभवी बाबू ने उनको समझाया – साहब, आपत्ति पत्रों के जबाब सरकार बनाने के निर्णय नहीं जो जनता की राय जानकर किया जाये। उनके जबाब कायदे से लिखे जाते हैं। अंतत: इस आपत्ति पत्र का जबाब शायद इस तरह बनाया जाये:
1. सरकारी आवास खोजने में लगे अधिकारा और कर्मचारी वास्तव में वैकल्पिक आवास खोजने नहीं गये थे। वे दो सड़कों के निरीक्षण और आवास व्यवस्था देखने गये थे। वैकल्पिक आवास खोजने का काम तो अपने काम के अतिरिक्त जिम्मेदारी का निर्वाह था। इसमें सरकारी धन का अपव्यय होने के स्थान पर बचत हुई है। अतिरिक्त जिम्मेदारी निर्वाह के लिये किसी अतिरिक्त धन का भुगतान नहीं किया गया।
2. वैकल्पिक आवास में जाते ही नियमित आवास को प्रदशर्नी आवास में बदल दिया जायेगा। दिन में जनता को यह दिखाया जायेगा कि वैकल्पिक आवास के पहले माननीय कितने तामझाम से रहते थे। प्रदर्शनी का टिकट पांच रुपये होगा। मरम्मत के बाद बचे पैसे रैन बसेरों के निर्माण में लगा दिये जायेंगे। जो आय होगी उससे उसकी नियमित मरम्मत होती रहेगी। रात में उनको रैन बसेरों में बदल दिया जायेगा। इससे आम जनता जिसको रहने के लिये के लिये फ़ुटपाथ, सड़क तक मयस्सर नहीं उसको भूतपूर्व माननीय आवास में रहने की सुविधा हासिल होगी।
3. जनता का समय बरबाद होने की बात सही नहीं है। वास्तव में इस प्रक्रिया में जनता को उसकी ताकत का अन्दाजा हुआ। जनता को यह एहसास हुआ वह अब इतनी समर्थ है कि वह चाहे तो बिना चुनाव के भी माननीय को उनका घर बदलने के लिये मजबूर कर सकती है। इससे जनता का जो आत्मविश्वास बढा है वह अमूल्य है।
उपरोक्त से यह स्पष्ट है कि इस आवास परिवर्तन की प्रक्रिया में सरकारी धन की बरबादी का आपत्ति निराधार है। इसके लिये किसी की जिम्मेदारी की बात का सवाल ही नहीं उठता। फ़िर भी यदि किसी को जिम्मेदार ठहराना ही है तो आम जनता इसके लिये जिम्मेदार है जिसने अपना समर्थन देकर सरकार बनवाई जिसके कारण वैकल्पिक सरकारी आवास खोजने की बात उठी।
आरोप पत्र के जबाब ऑडीटर को स्वीकार होते हैं या नहीं यह अभी तय नहीं हुआ है। वह अगली सरकार के रुख पर निर्भर करेगा। फ़िलहाल तो अभी सबकी निगाह माननीय के अगले आवास पर है।
1. निर्धारित मुख्यमंत्री आवास के स्थान पर वैकल्पिक आवास खोजने की कार्यवाही में हुआ खर्चा:
घर खोजने में लगे अधिकारी– 5
अधिकारियों का प्रतिदिन औसतन वेतन –4000 रुपये
आवास खोजने में लगे दिन – 2
अधिकारियों का खर्चा – 5 x 4000 x 2 =40000 रुपये पेट्रोल और गाड़ी का प्रतिदिन का खर्चा– 1500 रुपया प्रतिदिन प्रति गाड़ी x 3 गाड़ी = 4500 रुपये
आवास की मरम्मत की शुरुआत में लगा खर्चा (फ़र्श तुड़वायी आदि) – 2000 रुपया
कुल खर्चा– 40000 रुपये + 4500 रुपये + 2000 रुपये = 47500 रुपये
इस वैकल्पिक आवास में रहने का निर्णय लेने के बाद जनता के दबाब में दूसरा वैकल्पिक आवास खोजने के निर्णय के चलते 47500 रुपये सरकारी धन की हानि हुई। इस सरकारी धन की हानि के लिये कौन जिम्मेदार होगा। उसके खिलाफ़ क्या कार्यवाही की जायेगी?
2. निर्धारित आवास छोड़कर नये आवास में रहने के निर्णय के चलते निर्धारित आवास के रखरखाव पर अगर खर्चा दस हजार प्रति माह माना जाये तो साल भर में कुल 120000 की फ़िजूलखर्ची हो जायेगी। इसके लिये कौन जिम्मेदार होगा?
3. वैकल्पिक सरकारी आवास खोजने की इस प्रक्रिया में जनता का जो अमूल्य समय बरबाद हुआ। इसकी भरपाई कैसे होगी?
माननीय को जब ये आरोप पत्र दिखाया गया तो उन्होंने कहा यह आरोप पत्र उन भ्रष्ट विरोधी दलों की
साजिश है जो ईमानदार सरकार को बदनाम करना चाहते हैं। हम इसका जबाब देने से पहले जनता की राय जानना चाहेंगे। चलिये ड्राइवर साहब निकालिये बिना लाल बत्ती वाली गाड़ी। भारत माता की जय। वन्दे मातरम।
माननीय जनता की राय के लिये निकल ही जाते लेकिन एक अनुभवी बाबू ने उनको समझाया – साहब, आपत्ति पत्रों के जबाब सरकार बनाने के निर्णय नहीं जो जनता की राय जानकर किया जाये। उनके जबाब कायदे से लिखे जाते हैं। अंतत: इस आपत्ति पत्र का जबाब शायद इस तरह बनाया जाये:
1. सरकारी आवास खोजने में लगे अधिकारा और कर्मचारी वास्तव में वैकल्पिक आवास खोजने नहीं गये थे। वे दो सड़कों के निरीक्षण और आवास व्यवस्था देखने गये थे। वैकल्पिक आवास खोजने का काम तो अपने काम के अतिरिक्त जिम्मेदारी का निर्वाह था। इसमें सरकारी धन का अपव्यय होने के स्थान पर बचत हुई है। अतिरिक्त जिम्मेदारी निर्वाह के लिये किसी अतिरिक्त धन का भुगतान नहीं किया गया।
2. वैकल्पिक आवास में जाते ही नियमित आवास को प्रदशर्नी आवास में बदल दिया जायेगा। दिन में जनता को यह दिखाया जायेगा कि वैकल्पिक आवास के पहले माननीय कितने तामझाम से रहते थे। प्रदर्शनी का टिकट पांच रुपये होगा। मरम्मत के बाद बचे पैसे रैन बसेरों के निर्माण में लगा दिये जायेंगे। जो आय होगी उससे उसकी नियमित मरम्मत होती रहेगी। रात में उनको रैन बसेरों में बदल दिया जायेगा। इससे आम जनता जिसको रहने के लिये के लिये फ़ुटपाथ, सड़क तक मयस्सर नहीं उसको भूतपूर्व माननीय आवास में रहने की सुविधा हासिल होगी।
3. जनता का समय बरबाद होने की बात सही नहीं है। वास्तव में इस प्रक्रिया में जनता को उसकी ताकत का अन्दाजा हुआ। जनता को यह एहसास हुआ वह अब इतनी समर्थ है कि वह चाहे तो बिना चुनाव के भी माननीय को उनका घर बदलने के लिये मजबूर कर सकती है। इससे जनता का जो आत्मविश्वास बढा है वह अमूल्य है।
उपरोक्त से यह स्पष्ट है कि इस आवास परिवर्तन की प्रक्रिया में सरकारी धन की बरबादी का आपत्ति निराधार है। इसके लिये किसी की जिम्मेदारी की बात का सवाल ही नहीं उठता। फ़िर भी यदि किसी को जिम्मेदार ठहराना ही है तो आम जनता इसके लिये जिम्मेदार है जिसने अपना समर्थन देकर सरकार बनवाई जिसके कारण वैकल्पिक सरकारी आवास खोजने की बात उठी।
आरोप पत्र के जबाब ऑडीटर को स्वीकार होते हैं या नहीं यह अभी तय नहीं हुआ है। वह अगली सरकार के रुख पर निर्भर करेगा। फ़िलहाल तो अभी सबकी निगाह माननीय के अगले आवास पर है।
Posted in बस यूं ही | 10 Responses
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