#सूरज
भाई चाय की चुस्की लेते बतिया रहे थे। हमने कहा -गुरु एकदम नई सरकार के
मुखिया सरीखे चमक रहे हो! सूरज भाई बोले अच्छा ये बताओ शाम को मैं कैसा
लगता हूं? हमने कहा दस साल पुरानी लोकतांत्रिक सरकार के मुखिया की तरह
बुझे-थके। सूरज भाई भन्ना गये। बोले यार तुम संडे को भी राजनीति करते हो।
फ़िर हमने कहा अच्छा चलो सामाजिक हो जाते हैं और बताते कैसे लगते हो शाम को।
सूरज भाई श्रोता सरीखे सुनने लगे और मैंने अजय गुप्तजी (शाहजहांपुर) की
कविता सुना दी:
सूर्य जब-जब थका हारा ताल के तट पर मिला,
सच कहूं मुझे वो कुंवारी बेटियों के बाप सा लगा।
सूर्य जब-जब थका हारा ताल के तट पर मिला,
सच कहूं मुझे वो कुंवारी बेटियों के बाप सा लगा।
बेटियों का जिक्र आते ही सूरज भाई बाहर निकल गये और अपनी बेटियों किरण, रोशनी आदि को दुलराने लगे। कायनात और खिल उठी।
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