आज सुबह
जरा आराम से उठे। वोटिंग हो रही है जबलपुर में। अपना वोट कानपुर में हैं।
इसलिए यहाँ निश्चिन्त सोते रहे। वहां होते तो शायद अब तक उंगली की नीली
स्याही दिखाते हुए फ़ेसबुक पर फोटो सटा दिए होते।
क्या पता अनगिनत नीली स्याही लगी उँगलियों को देखकर कोई विकास पुरुष कहता हो-”तुम मुझे ऊँगली दिखाओ,हम तुम्हें अंगूठा दिखाएँगे।”
दोस्तों से बात होती है तो कोई पूछता है- ‘वहां हवा किसकी चल रही है?’
हम बताते हैं-’ हमें तो कोई हवा नहीं दिख रही।’ अभी तक तो किसी ने बताया नहीं कि वो अपना वोट किसको देगा। जिस भी दोस्त से बात हुई उसने यही पूछा- “यार ये मंहगाई भत्ते की बढी क़िस्त अभी मिली नहीं। कुछ पता है कब तक आएगी?”
मन करता है कोई अबकी कोई पूछे तो बता देंगे कि यहाँ तो सिर्फ ’मंहगाई भत्ते’ की हवा चल रही है।
क्या पता हम किसी का नाम ले देते तो वो गाने लगता जबलपुर में तो उनकी हवा चल रही है। फ़िर वह जबलपुर में किसी को फोन करके बताता- “तुमको पता नहीं जबलपुर में तो उसकी हवा चल रही है। दो चार फ़ोन के बाद वह हवा अंधड़ में बदल जाती और लोग आंख मूंदकर मान लेते। इसके बाद पड़ोसी को बताता- “अरे तुमको पता नहीं जबलपुर में तो फ़लाने की हवा चल रही है।”
अगर वह पूंछता-“ खबर पक्की है? तुमको कैसे पता चला?”
उसको शायद जबाब मिलता- “हां एकदम पक्की खबर है। हमको कानपुर के लोगों ने बताया कि जबलपुर में फ़लाने जीत रहे हैं।”
अपने यहां यही हो रहा है। जबलपुर की हवा के बारे में कानपुर वाला बता रहा है। बिहार के बारे में नागालैंड वाला। आसाम के बारे में गुजरात वाला। दिल्ली के बारे में झुमरीतलैया वाला।
हाल यह है कि जो जहां नहीं है वह वहां की हवा के बारे में बता रहा है। जो जिस जगह से जितना दूर है उसके पास उस जगह के बारे में उतनी ही पुख्ता सूचना है। अमेरिका को तो भारत की हवा के बारे में इत्ती पुख्ता खबर है कि वहां विदेश मंत्रालय के पत्ते फ़ेंट दिये गये। नारद जी ने नाम न बताने की विद्या कसम दिलाते हुये बताया है कि मीडिया पर भारत में बहती हवा को देखते हुये यमराज को अतिरिक्त ताकतों से लैस किया जा रहा है।
हवा का ताजा रुख जानने के लिये मैं अखबार खोलता हूं। अखबार में एक साथ दो विरोधी पार्टियों के नेताओं की अपीलें लिपटीं हैं। एक ही साइज के पर्चे, एक ही छपाई मे दोनों एक जैसे मुस्कराते हुये दिखते हैं। एक साथ लिपटे होने के कारण दोनों की तस्वीरें गले मिलतीं दिखीं। अखबार खुलते ही दोनों अपीलें जमीन पर गिर जाती हैं। नीचे गिरी मुस्कराती तस्वीरें देखते हुये सोचता हूं- “इस देश के नेता को चुनाव जीतने के चक्कर में कितना तप करना पड़ता है, मुस्कराते हुये कितना गिरना पड़ता है।”
दोनों विरोधी नेताओं की प्रचार सामग्री एक ही प्रेस में छपी है। सोचते हैं अबकी बार कोई पूछेगा किसकी हवा चल रही है तो बता दूंगा- ’फ़लाने प्रिंटिंग प्रेस की हवा चल रही है।’
लेकिन चुनाव में तो पैसा भी लगता है। आजकल बिना पैसे के चुनाव जीतता असंभव माना जाता है। हाल यह है कि जैसे प्राइवेट स्कूल वाले बच्चे के एडमिशन के पहले बच्चे के मां-बाप की आमदनी नापते हैं उसी तरह राजनीतिक पार्टियां चुनाव में टिकट देने के पहले उम्मीदवार की टेंट देखते हैं। टिकट उसी को देते हैं जो चुनाव में पैसा खर्च कर सके, बहा सके और जरूरत पड़े तो चुनाव आयोग से नजरें बचा कर लुटा भी सके। पैसा उम्मीदवार की साख से ज्यादा जरूरी है। क्योंकि चुनाव साख से नहीं पैसे से जीते जाते हैं। इमेज जरूरत होगी तो पैसे से बन जायेगी लेकिन इमेज से पैसा नहीं पैदा होता न!
पहले चुनाव में पैसा कम लगता था क्योंकि लोग चुनाव देश सेवा के लिये लड़ते थे। अपने पैसे से चुनाव लड़कर देशसेवा का शगल पूरा कर लेते थे।
लेकिन इधर पिछले कुछ दशकों से देश सेवा धंधा बन गयी है। धंधा बनने के बाद देश सेवा के काम में बहुत बरक्कत हुई है। अब पूरा बाजार और कारपोरेट देशसेवा का टेंडर भरता है। ग्लोबल कम्पनियां तक इसमें अपना पैसा लगाती हैं। हाल यह है कि देश के कल्याण के लिये विदेशी तक बेचैन रहते हैं। ये सब मिलकर बाजार में शामिल है। बाजार देश सेवा का कोई ठेका अपने हाथ से जाने नहीं देता। एक एक सीट के लिये कई-कई टेंडर भरता है बाजार। पक्ष में भी बाजार का आदमी होता और विपक्ष पक्ष में भी। चाहे इस पार्टी का उम्मीदवार जीते या उस पार्टी का देशसेवा का काम आखिर में बाजार को ही मिलना है।
सोचते हैं अबकी बार कोई फ़ोन करके पूछेगा किसकी हवा चल रही है तो बता देंगे उसको –’यहां तो बाजार की हवा चल रही है।’
आप बताओ आपके उधर किसकी हवा चल रही है?
क्या पता अनगिनत नीली स्याही लगी उँगलियों को देखकर कोई विकास पुरुष कहता हो-”तुम मुझे ऊँगली दिखाओ,हम तुम्हें अंगूठा दिखाएँगे।”
दोस्तों से बात होती है तो कोई पूछता है- ‘वहां हवा किसकी चल रही है?’
हम बताते हैं-’ हमें तो कोई हवा नहीं दिख रही।’ अभी तक तो किसी ने बताया नहीं कि वो अपना वोट किसको देगा। जिस भी दोस्त से बात हुई उसने यही पूछा- “यार ये मंहगाई भत्ते की बढी क़िस्त अभी मिली नहीं। कुछ पता है कब तक आएगी?”
मन करता है कोई अबकी कोई पूछे तो बता देंगे कि यहाँ तो सिर्फ ’मंहगाई भत्ते’ की हवा चल रही है।
क्या पता हम किसी का नाम ले देते तो वो गाने लगता जबलपुर में तो उनकी हवा चल रही है। फ़िर वह जबलपुर में किसी को फोन करके बताता- “तुमको पता नहीं जबलपुर में तो उसकी हवा चल रही है। दो चार फ़ोन के बाद वह हवा अंधड़ में बदल जाती और लोग आंख मूंदकर मान लेते। इसके बाद पड़ोसी को बताता- “अरे तुमको पता नहीं जबलपुर में तो फ़लाने की हवा चल रही है।”
अगर वह पूंछता-“ खबर पक्की है? तुमको कैसे पता चला?”
उसको शायद जबाब मिलता- “हां एकदम पक्की खबर है। हमको कानपुर के लोगों ने बताया कि जबलपुर में फ़लाने जीत रहे हैं।”
अपने यहां यही हो रहा है। जबलपुर की हवा के बारे में कानपुर वाला बता रहा है। बिहार के बारे में नागालैंड वाला। आसाम के बारे में गुजरात वाला। दिल्ली के बारे में झुमरीतलैया वाला।
हाल यह है कि जो जहां नहीं है वह वहां की हवा के बारे में बता रहा है। जो जिस जगह से जितना दूर है उसके पास उस जगह के बारे में उतनी ही पुख्ता सूचना है। अमेरिका को तो भारत की हवा के बारे में इत्ती पुख्ता खबर है कि वहां विदेश मंत्रालय के पत्ते फ़ेंट दिये गये। नारद जी ने नाम न बताने की विद्या कसम दिलाते हुये बताया है कि मीडिया पर भारत में बहती हवा को देखते हुये यमराज को अतिरिक्त ताकतों से लैस किया जा रहा है।
हवा का ताजा रुख जानने के लिये मैं अखबार खोलता हूं। अखबार में एक साथ दो विरोधी पार्टियों के नेताओं की अपीलें लिपटीं हैं। एक ही साइज के पर्चे, एक ही छपाई मे दोनों एक जैसे मुस्कराते हुये दिखते हैं। एक साथ लिपटे होने के कारण दोनों की तस्वीरें गले मिलतीं दिखीं। अखबार खुलते ही दोनों अपीलें जमीन पर गिर जाती हैं। नीचे गिरी मुस्कराती तस्वीरें देखते हुये सोचता हूं- “इस देश के नेता को चुनाव जीतने के चक्कर में कितना तप करना पड़ता है, मुस्कराते हुये कितना गिरना पड़ता है।”
दोनों विरोधी नेताओं की प्रचार सामग्री एक ही प्रेस में छपी है। सोचते हैं अबकी बार कोई पूछेगा किसकी हवा चल रही है तो बता दूंगा- ’फ़लाने प्रिंटिंग प्रेस की हवा चल रही है।’
लेकिन चुनाव में तो पैसा भी लगता है। आजकल बिना पैसे के चुनाव जीतता असंभव माना जाता है। हाल यह है कि जैसे प्राइवेट स्कूल वाले बच्चे के एडमिशन के पहले बच्चे के मां-बाप की आमदनी नापते हैं उसी तरह राजनीतिक पार्टियां चुनाव में टिकट देने के पहले उम्मीदवार की टेंट देखते हैं। टिकट उसी को देते हैं जो चुनाव में पैसा खर्च कर सके, बहा सके और जरूरत पड़े तो चुनाव आयोग से नजरें बचा कर लुटा भी सके। पैसा उम्मीदवार की साख से ज्यादा जरूरी है। क्योंकि चुनाव साख से नहीं पैसे से जीते जाते हैं। इमेज जरूरत होगी तो पैसे से बन जायेगी लेकिन इमेज से पैसा नहीं पैदा होता न!
पहले चुनाव में पैसा कम लगता था क्योंकि लोग चुनाव देश सेवा के लिये लड़ते थे। अपने पैसे से चुनाव लड़कर देशसेवा का शगल पूरा कर लेते थे।
लेकिन इधर पिछले कुछ दशकों से देश सेवा धंधा बन गयी है। धंधा बनने के बाद देश सेवा के काम में बहुत बरक्कत हुई है। अब पूरा बाजार और कारपोरेट देशसेवा का टेंडर भरता है। ग्लोबल कम्पनियां तक इसमें अपना पैसा लगाती हैं। हाल यह है कि देश के कल्याण के लिये विदेशी तक बेचैन रहते हैं। ये सब मिलकर बाजार में शामिल है। बाजार देश सेवा का कोई ठेका अपने हाथ से जाने नहीं देता। एक एक सीट के लिये कई-कई टेंडर भरता है बाजार। पक्ष में भी बाजार का आदमी होता और विपक्ष पक्ष में भी। चाहे इस पार्टी का उम्मीदवार जीते या उस पार्टी का देशसेवा का काम आखिर में बाजार को ही मिलना है।
सोचते हैं अबकी बार कोई फ़ोन करके पूछेगा किसकी हवा चल रही है तो बता देंगे उसको –’यहां तो बाजार की हवा चल रही है।’
आप बताओ आपके उधर किसकी हवा चल रही है?
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