http://web.archive.org/web/20110101191650/http://hindini.com/fursatiya/archives/119
अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।
जरूरत क्या थी?
आज हमारे नामराशि अनूप भार्गव नेट पर मिल गये। जैसा होता है कि हमने मिलते ही उनके संयोजन में चल रहे थे ई-कविता
ग्रुप की तारीफ कर दी। उन्होंने जवाबी तारीफी हमला हमारे ऊपर कर दिया।
लेकिन हमने हमले का बहादुरी से सामना करते हुये ई-कविता ग्रुप की ढेर सारी
तारीफ कर डाली।
कहा भी गया है कि बार-बार बोला गया झूठ भी सच मान लिया जाता है ।फिर यह सच तो सच ही था।लिहाजा अनूप भार्गव को मेरी बात माननी पड़ी। बाद में अनूप भार्गव ने अपनी परेशानी बताई कि ई-कविता ग्रुप में बड़े ऊंचे दर्जे की कवितायें आ रहीं हैं। जिसमें छत है,झरोखा है,मैं है,तुम है यहां तक कुछ आटो मैटिक कवितायें भी हैं जिनको बांचते ही छतें तक रास्ता दे देती हैं।
इतनी पावरफुल कवितायें हैं कि ‘मैं’ की छत से पढ़ो तो कविता ‘मैं’ की छत बुलडोजर की तरह धकियाकर बीच की छतों को पार करते हुये ‘तुम’ की छत पर पहुंचा देती हैं। कल्पनातीत कल्पना!
बहरहाल अनूप भार्गव ने चलते-चलते कहा कि ई-कविता के स्तर को थोड़ा नीचे लाने के लिये एकाध चलताऊ तुकबंदी मैं भेजूं। मैं सोच रहा था कि मैं तो अच्छे लेखक का भ्रम पाले हूं। घटिया रचना कहां से लाऊं? लेकिन तब तक रवि रतलामीजी ने हमारी दुविधा दूर कर दी ,यह बताकर कि कुल मिलाकर ब्लॉग पोस्टें कूड़ा ही हुआ करती हैं। लिहाजा यह कूडा़/कविता अनूप भार्गव की मांग पर तथा हुल्लड़ मुरादाबादी की ‘अहा! जिंदगी’ पत्रिका के होली अंक में छपी कविता जरूरत क्या थी से प्रेरणा लेकर लिखी जा रही है:-
सच है कि ब्लाग में कूड़ा ही लिखते हैं अधिकतर लोग
लेकिन यह सच सबको बताने की जरूरत क्या थी?
हम तो उंनीदे थे बढ़िया लिखने के गुमानी-गलीचे पे
इस खुशनुमा नींद से झकझोर के जगाने की जरूरत क्या थी?
जानते थे कि ब्लाग लिखने से कूड़ा ही फैलेगा नेट पर
इस पर भी लिखने का तरीका बताने की जरूरत क्या थी?
गर दबाओगे तो छत भरभरा के बैठेगी ही छत पर
जानते हुये भी छत को धकियाने की जरूरत क्या थी?
पता था नजर है हर हरकत पर तुम्हारी,पकड़ जाओगे
ऐसे में फिर से पड़ोसन से चोंच लड़ाने की जरूरत क्या थी?
पैरों के सैंडिल भाले की तरह चुभ सकते हैं,देखा था
फिर भी चेहरे पे नजरें टिकाने की जरूरत क्या थी?
अभी तो शादी डाट काम ही नहीं निपटा पाये हो भइये
खाली-पीली में डायवोर्स की साइट पे सर खपाने की जरूरत क्या थी?
बोर जब खुद अपना लिखा पढ़ने पे हो जाते हो तुम भइये
बोर तो नहीं कर रहा ये सवाल उठाने की जरूरत क्या थी?
मैं रहूं, तुम रहो और न रहे ,बाधा किसी तरह की
इस निजी चाहत का नगाड़ा बजाने की जरूरत क्या थी?
कैसा लिखा,कैसी लगी पूछ के गरदन पे लटकेंगे बेताल की तरह
ई-कविता की श़मा फुरसतियों को थमाने की जरूरत क्या थी?
कहा भी गया है कि बार-बार बोला गया झूठ भी सच मान लिया जाता है ।फिर यह सच तो सच ही था।लिहाजा अनूप भार्गव को मेरी बात माननी पड़ी। बाद में अनूप भार्गव ने अपनी परेशानी बताई कि ई-कविता ग्रुप में बड़े ऊंचे दर्जे की कवितायें आ रहीं हैं। जिसमें छत है,झरोखा है,मैं है,तुम है यहां तक कुछ आटो मैटिक कवितायें भी हैं जिनको बांचते ही छतें तक रास्ता दे देती हैं।
इतनी पावरफुल कवितायें हैं कि ‘मैं’ की छत से पढ़ो तो कविता ‘मैं’ की छत बुलडोजर की तरह धकियाकर बीच की छतों को पार करते हुये ‘तुम’ की छत पर पहुंचा देती हैं। कल्पनातीत कल्पना!
बहरहाल अनूप भार्गव ने चलते-चलते कहा कि ई-कविता के स्तर को थोड़ा नीचे लाने के लिये एकाध चलताऊ तुकबंदी मैं भेजूं। मैं सोच रहा था कि मैं तो अच्छे लेखक का भ्रम पाले हूं। घटिया रचना कहां से लाऊं? लेकिन तब तक रवि रतलामीजी ने हमारी दुविधा दूर कर दी ,यह बताकर कि कुल मिलाकर ब्लॉग पोस्टें कूड़ा ही हुआ करती हैं। लिहाजा यह कूडा़/कविता अनूप भार्गव की मांग पर तथा हुल्लड़ मुरादाबादी की ‘अहा! जिंदगी’ पत्रिका के होली अंक में छपी कविता जरूरत क्या थी से प्रेरणा लेकर लिखी जा रही है:-
सच है कि ब्लाग में कूड़ा ही लिखते हैं अधिकतर लोग
लेकिन यह सच सबको बताने की जरूरत क्या थी?
हम तो उंनीदे थे बढ़िया लिखने के गुमानी-गलीचे पे
इस खुशनुमा नींद से झकझोर के जगाने की जरूरत क्या थी?
जानते थे कि ब्लाग लिखने से कूड़ा ही फैलेगा नेट पर
इस पर भी लिखने का तरीका बताने की जरूरत क्या थी?
गर दबाओगे तो छत भरभरा के बैठेगी ही छत पर
जानते हुये भी छत को धकियाने की जरूरत क्या थी?
पता था नजर है हर हरकत पर तुम्हारी,पकड़ जाओगे
ऐसे में फिर से पड़ोसन से चोंच लड़ाने की जरूरत क्या थी?
पैरों के सैंडिल भाले की तरह चुभ सकते हैं,देखा था
फिर भी चेहरे पे नजरें टिकाने की जरूरत क्या थी?
अभी तो शादी डाट काम ही नहीं निपटा पाये हो भइये
खाली-पीली में डायवोर्स की साइट पे सर खपाने की जरूरत क्या थी?
बोर जब खुद अपना लिखा पढ़ने पे हो जाते हो तुम भइये
बोर तो नहीं कर रहा ये सवाल उठाने की जरूरत क्या थी?
मैं रहूं, तुम रहो और न रहे ,बाधा किसी तरह की
इस निजी चाहत का नगाड़ा बजाने की जरूरत क्या थी?
कैसा लिखा,कैसी लगी पूछ के गरदन पे लटकेंगे बेताल की तरह
ई-कविता की श़मा फुरसतियों को थमाने की जरूरत क्या थी?
Posted in बस यूं ही | 9 Responses
समीर लाल
मैं अब भी मानता हूँ कि हम तमाम ब्लॉगर अपने ब्लॉग में कूड़ा ही परोसते हैं.
यह दीगर बात है कि पाठकों को कूड़े में भी मज़ा आता है.
और, कभी कोई कूड़ा किसी दूसरे कूड़े से ज्यादा अच्छा होता है, किसी का कूड़ा किसी दूसरे कूड़े से कभी अच्छा लिखा जाता है, कोई हमेशा ही मजेदार कूड़ा लिखता है, किसी के कूड़े को पाठक नहीं मिलते, किसी का लिखा कूड़ा सब पढ़ते हैं…. इत्यादि इत्यादि…
आप का ‘ई-कविता’ के स्तर को नीचे लानें में योगदान अमूल्य है । अब और चिट्ठाकारों से भी आग्रह है कि वह ई-कविता से जुड़े और अपने अपने ‘कूड़े’ से उसे महकाएं । आप अकेले कब तक यूँ ही ..
——–
http://launch.groups.yahoo.com/group/ekavita/
देखों मियां कूड़ा वूड़ा होगा तुम्हारे ब्लॉग पर हमारे ब्लॉग का नाम मत लेना इसमे? नही तो कहे देते है, मिर्जा को छोड़ देंगे तुम्हारे ऊपर। फिर झेलते रह जाओगे।