Saturday, April 11, 2015

मोहब्बत बरसा देना तू

"साँसों को जीने का हिसाब हो गया"



यह गाना बज रहा है चाय की दूकान पर। सबेरे निकले साइकिल सैर पर तो देखा एक भाई जी हाथ हिलाते हुए बड़बड़ाते चले जा रहे थे। लगा कुछ खिसके हुए टाइप हैं अकेले ही बोलते चले जा रहे हैं। लेकिन फिर देखा तो उनके काम में इयर फोन लगा था जिसके तार जेब तक जा रहे थे। वो मोबाइल पर किसी से बतिया रहे थे।

सड़क के बगल की जरा सी हरी जमीन पर एक पचास ऊपर के भाईजी कुछ बच्चों को थम,उठ,बढ़ जैसे शब्द बोलते हुए अनुशासन का पाठ पढ़ा रहे थे। अबोध बच्चे उठते, बैठते, लेटते सब सीख रहे थे।

चाय की दूकान पर पहुंचकर साइकिल का फ़ोटो खैंचा गया। कल ही ख़रीदे साइकिल। बहुत दिन से टालते जा रहे थे। मंगनी की साइकिल चलाते रहे कुछ दिन। बाद में लगता है हमारे डर से लोगों ने लाना बन्द कर दिया।मोटरसाइकिल पर शिफ्ट कर गए। हमारा साईकिल चालन प्रभावित हो रहा था। कल गए दोस्तों Sharad Gyanendra और सरफराज के साथ जाकर साइकिल कसवा लाये। सबने चलाकर देखी। साइकिल को शादी के लिए पसंद की जाने वाली कन्या की तरह चला फिरा कर देखा गया और फाइनल किया गया। पहली साइकिल सन 1983 में खरीदे थे। 275/-की। कल खरीदे 4800/- की। 32 साल में दाम बीस गुने करीब हो गए।

"ये चाँद सा रोशन चेहरा" गाना दौड़ने लगा रेडियो पर। बगल वाले भाई साहब हमसे चाय पीकर जाते हुए कह रहे हैं-"चाय पी लीजिये।ठण्डी हो जायेगी।"

हम चाय पीते हुए सामने कड़ाही में जलबी तलते दुकानदार को देख रहे हैं। एक एक जलेबी को चिमटे से पकड़कर गर्माते, तलते, उलटते,पुलटते। हर जलेबी को तवज्जो देते हुए। जलेबियां शीरे में जाने के लिए तैयार हो रहीं हैं।

क्या पता जलेबियां आपस में भी बतिया रहीं हों। किनारे वाली जलेबी बीच वाली जलेबी को कोसती हुई कह रही हो देख कैसे उसको बार-बार उलट-पुलट रहा है। जैसे बस वही छटंकी एक अकेली जलेबी है कढाई में। उसकी सहेली जलबी भी उसकी जलन में अपनी कुढ़न मिलाते हुए कह रही हो-"बीच वाली जलेबी को तो वो ऐसे सेंक रहा है जैसे सम्पादक दिल्ली के साहित्यकारों को छापते हैं। लगता है सारा साहित्य बस दिल्ली में इकट्ठा हो गया हो।"

हाशिए की समझदार जलेबी ने कुछ समझाने की कोशिश में मुंह खोला तब तक जलेबी बनाने वाले ने उसको पलट दिया। उसका मुंह का हिस्सा जल गया। वह बिलबिलाकर खुद को तलते देखने लगी। सहेली जलेबियां चुप होकर अपने तले जाने का इन्तजार करने लगीं।

सीख यह मिली कि हम ऐसे दौर से गुजर रहे हैं जिसमें बोलने वाला क्या बोल रहा है यह देखे बिना मुंह तोड़ने, बोलने वाले को चुप करा देने का रिवाज बढ़ रहा है। अगले की हिम्मत कैसे हुई हमारे सामने मुंह खोलने की।हर जगह ऐसा आम हो रहा है। क्या पता कल को लोग बोलने के पहले सुरक्षा व्यवस्था की मांग करने लगें।
गाना बजने लगा :

"दमादम मस्त कलन्दर
अली दा पहला नंबर।"

चला जाए वापस। दस मिनट लगेंगे कमरे तक पहुंचने में। फिर तैयार होकर दफ्तर जाना है।

एक तरफ रांझी, खमरिया दूसरी तरफ शहर की तरफ जाने वाली सड़क के किनारे एक चाय की दूकान से। पोस्ट करते समय गाना बज रहा है:

"मोहब्बत बरसा देना तू।"

हमको दोहा याद आ रहा है:

सतगुरु हमसू रीझिकर एक कह्या प्रसंग,
बरस्या बादल प्रेम का,भीजि गया सब अंग।
तो आप भी कुछ प्रसंग कहिये। रीझिये। सतगुरु बन जाइए।


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