सुबह आज थोड़ा देर से उठे। सोचा आज मटिया दें साइकिलिंग। लेकिन फ़िर निकल ही गये। सोचा चाहे दो पैडल मारें, लेकिन मारना चाहिये।
पुलिया के पास बिन्देश्वरी प्रसाद टहलते हुये वापस जा रहे थे। हमने पूछा - अकेले?
वो बोले - ’हां, मिश्रा जी आ नहीं रहे तीन दिन से। शायद घर चले गये।’
हम बोले- ’परसों तो आप लोग साथ दिखे थे।’
वो बोले- ’परसों नहीं उसके पहले मिले थे।’
बुजुर्ग आदमी अकेलेपन का शिकार होता है। एक दिन साथी नहीं मिलता तो हुड़कने लगता है।
चाय की दुकान पर बहस प्राइवेट स्कूलों की लूट पर हो रही थी। बहस क्या एकतरफ़ा रोना रोया जा रहा था।
यह रोना शाश्वत होता जा रहा है। सरकारी स्कूल बन्द हो रहे हैं। जबकि देश को शिक्षित और साक्षर बनाने के लिये ऐसे स्कूल खूब सारे होने चाहिये। बच्चे प्राइवेट स्कूलों में फ़ीस न भर पाने के कारण जा ही नहीं पाते।
हमको आर्ट आफ़ लिविंग वाले गुरु जी का चार साल पुराना बयान याद आया। उन्होने बयान जारी किया था- "सरकारी स्कूलों में पढ़ाई से नक्सलवाद को बढ़ावा मिलता है। सरकारी स्कूल बन्द करके उनकी जगह निजी स्कूल खोलने चाहिये।"
( पोस्ट का लिंक - http://fursatiya.blogspot.in/2012/03/blog-post_21.html )
ऐसी उत्तम सोच वाले गुरुजी 35 लाख लोगों को आर्ट आफ़ लिविंग सिखायेंगे। पर्यावरण का चूना लगाते हुये।
फ़ैक्ट्री गेट के पास एक आदमी बीडी का धुंआ फ़ूंकते हुये मिला। धुंआ ऐसे निकलकर भाग रहा था जैसे माल्या जी भारतीय बैंकों का पैसा हिल्ले लगाकर फ़ूट रहे हों।
लौटते में मिश्रा जी मिले। वे बोले- ’बिन्देश्वरी प्रसाद नहीं मिले आज। लगता है देर हो गयी। हम उनको बताये कि वे तो आपको खोज रहे थे।’
पुराने जमाने के लोग हैं ये बुजुर्गवार। आजकल के लोग अगर टहलने निकलें तो पुलिया पर पहुंचने पर न मिलें तो फ़ोनिया लें।
फ़िर मिश्रा जी ने बताया कि दो दिन उनकी तबियत गड़बड़ हो गयी तो निकले नहीं टहलने। कमर दर्द था।
सूरज भाई एकदम छाये हुये थे आसमान पर। बहुमत वाली सरकार के प्रधानमंत्री की तरह पूरे आसमान पर उनका नियंत्रण दिख रहा था। हर तरफ़ उजाले के स्वयंसेवक पसरे हुये थे उनके। फ़ूल, पत्ती, कली, फ़ुनगी, कोने, अतरे, कंगूरे, अटारी, गली, मोहल्ले, जल-थल-नभ जिधर देखो उधर सूरज भाई के स्वयंसेवक तैनात थे। जैसे कोई सरकार हर महत्वपूर्ण पद पर अपने जाति, विचारधारा के लोगों को बैठाना ही सरकार की सफ़लता की गारन्टी मानती है वैसे ही सूरज भाई ने भी आते ही हर जगह अपने उजाले के कमांडो बैठा दिये।
हद तो तब हो गयी जब सूरज भाई ने हमारे चाय के थरमस के ऊपर भी उजाले का एक छुटभैया बैठा दिया। हमने उनकी बाल सुलभ शासन वृत्ति पर हंसते हुये थरमस का ढक्कन खोला। चाय कप में डालते हुये देखा कि उजाला चाय में भी घुस गया। लगता है पेट में भी जाकर वहां भी कुर्सी डालकर बैठेगा।
चाय पीते हुये जब मैंने सूरज भाई से यह बात कही तो वो हंसते हुये बोले- ’अरे नहीं, जिसकी फ़ितरत उछलने-कूदने की होती है वो एक जगह बैठता नहीं। पेट में उछलता-कूदता रहेगा। जहां कोई रास्ता दिखेगा वो बाहर भी जायेगा।’
मन किया कि कहें कि निकलते ही कहीं आर्ट आफ गुरु वाले एंजाइम के चपेटे में आ गए तो खाद बनकर रह जायेंगे आपके उजाला भाई। लेकिन कहे नहीं। कोई हमारा राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी तो है नहीँ जो उसका चरित्र हनन करें, उसकी खिल्ली उड़ायें। यह सब तो राजनीति में होता है। बल्कि सच कहें तो अब बस यही सब तो होता है। राजनितिक सवालों के जबाब देते हुए व्यक्तिगत हमले किये जाते हैं। बड़े सवालों के जबाब में चिरकुट तर्क दिए जाते हैं। ताली पीटने के लिए बाल गोपाल/स्वयं सेवक/ कामरेड लोग होते ही हैं जो कहते भी हैं-'क्या करारा जबाब दिया है।'
चाय पीते हुये बतियाते हुये सूरज भाई कब आसमान पर चले गये पता ही नहीं चला।
https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10207508601926649
पुलिया के पास बिन्देश्वरी प्रसाद टहलते हुये वापस जा रहे थे। हमने पूछा - अकेले?
वो बोले - ’हां, मिश्रा जी आ नहीं रहे तीन दिन से। शायद घर चले गये।’
हम बोले- ’परसों तो आप लोग साथ दिखे थे।’
वो बोले- ’परसों नहीं उसके पहले मिले थे।’
बुजुर्ग आदमी अकेलेपन का शिकार होता है। एक दिन साथी नहीं मिलता तो हुड़कने लगता है।
चाय की दुकान पर बहस प्राइवेट स्कूलों की लूट पर हो रही थी। बहस क्या एकतरफ़ा रोना रोया जा रहा था।
यह रोना शाश्वत होता जा रहा है। सरकारी स्कूल बन्द हो रहे हैं। जबकि देश को शिक्षित और साक्षर बनाने के लिये ऐसे स्कूल खूब सारे होने चाहिये। बच्चे प्राइवेट स्कूलों में फ़ीस न भर पाने के कारण जा ही नहीं पाते।
हमको आर्ट आफ़ लिविंग वाले गुरु जी का चार साल पुराना बयान याद आया। उन्होने बयान जारी किया था- "सरकारी स्कूलों में पढ़ाई से नक्सलवाद को बढ़ावा मिलता है। सरकारी स्कूल बन्द करके उनकी जगह निजी स्कूल खोलने चाहिये।"
( पोस्ट का लिंक - http://fursatiya.blogspot.in/2012/03/blog-post_21.html )
ऐसी उत्तम सोच वाले गुरुजी 35 लाख लोगों को आर्ट आफ़ लिविंग सिखायेंगे। पर्यावरण का चूना लगाते हुये।
फ़ैक्ट्री गेट के पास एक आदमी बीडी का धुंआ फ़ूंकते हुये मिला। धुंआ ऐसे निकलकर भाग रहा था जैसे माल्या जी भारतीय बैंकों का पैसा हिल्ले लगाकर फ़ूट रहे हों।
लौटते में मिश्रा जी मिले। वे बोले- ’बिन्देश्वरी प्रसाद नहीं मिले आज। लगता है देर हो गयी। हम उनको बताये कि वे तो आपको खोज रहे थे।’
पुराने जमाने के लोग हैं ये बुजुर्गवार। आजकल के लोग अगर टहलने निकलें तो पुलिया पर पहुंचने पर न मिलें तो फ़ोनिया लें।
फ़िर मिश्रा जी ने बताया कि दो दिन उनकी तबियत गड़बड़ हो गयी तो निकले नहीं टहलने। कमर दर्द था।
सूरज भाई एकदम छाये हुये थे आसमान पर। बहुमत वाली सरकार के प्रधानमंत्री की तरह पूरे आसमान पर उनका नियंत्रण दिख रहा था। हर तरफ़ उजाले के स्वयंसेवक पसरे हुये थे उनके। फ़ूल, पत्ती, कली, फ़ुनगी, कोने, अतरे, कंगूरे, अटारी, गली, मोहल्ले, जल-थल-नभ जिधर देखो उधर सूरज भाई के स्वयंसेवक तैनात थे। जैसे कोई सरकार हर महत्वपूर्ण पद पर अपने जाति, विचारधारा के लोगों को बैठाना ही सरकार की सफ़लता की गारन्टी मानती है वैसे ही सूरज भाई ने भी आते ही हर जगह अपने उजाले के कमांडो बैठा दिये।
हद तो तब हो गयी जब सूरज भाई ने हमारे चाय के थरमस के ऊपर भी उजाले का एक छुटभैया बैठा दिया। हमने उनकी बाल सुलभ शासन वृत्ति पर हंसते हुये थरमस का ढक्कन खोला। चाय कप में डालते हुये देखा कि उजाला चाय में भी घुस गया। लगता है पेट में भी जाकर वहां भी कुर्सी डालकर बैठेगा।
चाय पीते हुये जब मैंने सूरज भाई से यह बात कही तो वो हंसते हुये बोले- ’अरे नहीं, जिसकी फ़ितरत उछलने-कूदने की होती है वो एक जगह बैठता नहीं। पेट में उछलता-कूदता रहेगा। जहां कोई रास्ता दिखेगा वो बाहर भी जायेगा।’
मन किया कि कहें कि निकलते ही कहीं आर्ट आफ गुरु वाले एंजाइम के चपेटे में आ गए तो खाद बनकर रह जायेंगे आपके उजाला भाई। लेकिन कहे नहीं। कोई हमारा राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी तो है नहीँ जो उसका चरित्र हनन करें, उसकी खिल्ली उड़ायें। यह सब तो राजनीति में होता है। बल्कि सच कहें तो अब बस यही सब तो होता है। राजनितिक सवालों के जबाब देते हुए व्यक्तिगत हमले किये जाते हैं। बड़े सवालों के जबाब में चिरकुट तर्क दिए जाते हैं। ताली पीटने के लिए बाल गोपाल/स्वयं सेवक/ कामरेड लोग होते ही हैं जो कहते भी हैं-'क्या करारा जबाब दिया है।'
चाय पीते हुये बतियाते हुये सूरज भाई कब आसमान पर चले गये पता ही नहीं चला।
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