Saturday, March 19, 2016

सैंया दिल में आना जी

अहा , क्या नजारे हैं सुबह के। सूरज भाई दसो दिशाओं में धूप फ़ैला रहे हैं। मार्च के महीने में जैसे सरकारें धड़ाधड़ ग्रांट बांटती हैं सरकारी महकमों में इस हिदायत के साथ कि इसी महीने खर्च नहीं किया तो समझ लेना। लगता है सूरज भाई भी मार्च वाले मूड में आ गये हैं।

एक-एक पत्ती को खुद देख रहे हैं कि उसके पास धूप पहुंची कि नहीं! फ़ूल अभी खिला नहीं कि धर दिये करोड़ो फ़ोटान धूप के उसके ऊपर। फ़ूल बेचारा धूप के बोझ से दोहरा हुआ मुस्कराने की कोशिश में दुबला हुआ जा रहा है। मुस्कराना मजबुरी है भाई। तितली भी बैठी है न धूप के साथ। दोनों के संयुक्त बोझ को हिल-डुलकर किसी तरह निबाहने की कोशिश कर रहा है दुष्यन्त कुमार का शेर दोहराते हुये:
’ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दोहरा हुआ होगा
मैं सज़दे में नहीं था, आपको धोखा हुआ होगा।’
लेकिन देखने वाले तो वाले समझ रहे हैं कि मस्ती में झूम रहा है। अधिक से अधिक यह गाना गा लेते होंगे फ़ूल के समर्थन में:
’खिलते हैं गुल यहां हैं
खिलकर बिखरने को खिलते हैं गुल यहां’
लेकिन एफ़-एम पर गाना ये वाला बज रहा है:
’चोरी चोरी कोई आये
चुपके-चुपके , सबसे छिपके
ख्वाब कई दे जाये।’
खैर ख्वाब क्या देता कोई जब जग गये और निकल लिये साइकल पर। पुलिया पर बिन्देश्वरी प्रसाद मिश्रा जी के इंतजार में बैठे थे। मिश्रजी मंदिर तक गये थे। एक बुढिया पुलिया के आगे डगर-डगर करती चलती जा रही थी।शायद मंदिर की मंगताई पूरी हो गयी हो उसकी।
चाय की दुकान पर गाना बज रहा था:
’सैंया दिल में आना जी,
आकर फ़िर न जाना जी।’

हमको लगा ये कौन बुला रहा है भाई और किसको बुला रहा है। लेकिन बहुत देर तक कोई कहीं आता जाता नहीं दिखा तो समझ गये ये सब ऐसे ही है।कम से कम मेरे लिए तो नहीं गा रहा है कोई यह गाना।

लेकिन मन किया कि कभी फ़ुरसत में गूगल मैप में देखेंगे कि जबलपुर से दिल की दूरी कितनी है। अगर साइकिल से जाने की सोचे कोई तो कितना समय लगेगा पहुंचने में।

एक महिला साइकिल से आती दिखी। साइकिल सड़क पर खडी करके वह पास की पान की दुकान पर खड़ी होकर कुछ खरीदने लगी। हम उसकी ’एवन’ साइकिल के पास खड़े देखते रहे। आगे बास्केट और पीछे करियर पर प्लास्टिक क्रेट बंधा रखा था।

पता चला कि वह सब्जी बेचने का काम करती है। दमोह नाका जा रही है सब्जी खरीदने। कल अस्सी रुपये पसेरी (पांच किलो) के हिसाब से एक पसेरी सब्जी खरीदी थी और लगभग खरीद के बराबर मुनाफ़ा मिलाकर बेंच दी। उसका आदमी विक्टोरिया में काम करता है।

इस बीच पुलिया पर मिली महिला डगरती हुयी चाय की दुकान पर पहुंच गयी थी। चाय वाले ने उसको चाय दी। वह सड़क किनारे ही बैठकर पीने लगी।

बचपन में जब एक-दो साल की थी तब माता (चेचक) के कारण आंख चली गयी थी। गेट नंबर 6 पर मांगती है। मंदिर भी गयी थी लेकिन वहां भीड़ बहुत है और हल्ला-गुल्ला भी। कोई अगर दस रुपया दे जाये तो सबके साथ बांटना पड़ता है। लड़ाई झगड़ा भी करती हैं। गेट नंबर 6 पर भले ही कुछ कम मिले लेकिन सुकून है मांगने में।
आदमी क्या करता है पूछने पर बताया - ’वे भी गेट के ही भरोसे हैं। मतलब वे भी गेट पर ही मांगने का काम करते हैं।’

बाद में पता चला कि उसके आदमी की भी दोनों आंखें नहीं हैं। ’दृष्टि दिव्यांग’ है वो भी। कुछ दिन पहले तक इसके लिये शब्द था - ’दृष्टि बाधित’। उसके भी पहले अंधा कहने का चलन था। शब्द बदल गये पुकारने के लेकिन इस सच्चाई में कोई फ़र्क नहीं पड़ा कि जीने के लिये उनका जीवन मांगने पर ही निर्भर है। जो मिलता है मांगने से उसी से राशन, तेल, लकड़ी खरीदकर जिन्दगी चलती है।

एक लड़का और एक लड़की है। दोनों की शादी हो गयी है। लड़का ट्रैक्टर चलाता है। कमाता है लेकिन बुढई-बुढवे के लिये भीख का ही आसरा है।

लौटते में मिश्रा जी और बिन्देश्वरी प्रसाद लौटते हुये मिले।मिसिर जी बोले -’ गेट का ताला लगाकर आये थे। बच्चे अभी सो रहे होंगे। सब आराम से उठते हैं।’

लेकिन हम तो कब के उठ गये भाई। 'लाओ चाय पिलाओ कहते हुये' सूरज भाई कमरे में घुस आये। हम दोनों बतियाते हुये साथ में चाय पी रहे हैं। साथ में गाना सुनते हुए:

ये रेशमी जुल्फें, ये शरबती आँखें
इन्हें देखकर जी रहे हैं सभी।

आइये आपको भी चाय पीनी हो तो।

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10207575243752653 

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